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हैती का भूंकप, ज्योतिष,पूंजीवाद और साम्यवाद-हिन्दी लेख


हैती में भूकंप, ज्योतिष, पूंजीवाद और समाजवाद जैसे विषयों में क्या साम्यता है। अगर चारों को किसी एक ही पाठ में लिखना चाहेंगे तो सब गड्डमड्ड हो जायेगा। इसका कारण यह है कि भूकंप का ज्योतिष से संबंध जुड़ सकता है तो पूंजीवाद और समाजवाद को भी एक साथ रखकर लिखा जा सकता है पर चार विषयों के दोनों समूहों को मिलाकर लिखना गलत लगेगा, मगर लिखने वाले लिख रहे हैं।
पता चला कि हैती में भूकंप की भविष्यवाणी सही निकली। भविष्यवक्ताओं को अफसोस है कि उनकी भविष्यवाणी सही निकली। पूंजीवादी देश हैती की मदद को दौड़ रहे हैं पर साम्यवादी बुद्धिजीवी इस हानि के लिये पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा यहां तक किया गया है कि पहले आये एक भूकंप में साम्यवादी क्यूबा में 10 लोग मरे जबकि हैती यह संख्या 800 थी-उस समय तक शायद पूंजीवादी देशों की वक्र दृष्टि वहां नहीं पड़ी थी। अब इसलिये लोग अधिक मरे क्योंकि पूंजीवाद के प्रभाव से वहां की वनसंपदा केवल 2 प्रतिशत रह गयी है। अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी देशों ने वहां की प्रकृति संपदा का दोहन किया जिससे वहां भूकंप ने इतनी विनाशलीला मचाई।
इधर ज्योतिष को लेकर भी लोग नाराज हैं। पता नहीं फलित ज्योतिष और ज्योतिष विज्ञान को लेकर भी बहस चल रही है। फलित ज्योतिष पीड़ित मानवता को दोहन करने के लिये है। ऐसे भी पढ़ने को मिला कि अंक ज्योतिष ने-इसे शायद कुछ लोग खगोल शास्त्र से भी जोड़ते है’ फिर भी प्रगति की है पर फलित ज्योतिष तो पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।
एक साथ दो पाठ पढ़े। चारों का विषय इसलिये जोड़ा क्योंकि हैती के भूकंप की भविष्यवाणी करने वाले की आलोचना उस साम्यवादी विचारक ने भी बिना नाम लिये की थी। यहां तक लिखा कि पहले भविष्यवाणी सही होने का दावा कर प्रचार करते हैं फिर निराशा की आत्मस्वीकृति से भी उनका लक्ष्य ही पूरा होता है। इधर फलित ज्योतिषियों पर प्रहार करता हुए पाठ भी पढ़ा। उसका भी अप्रत्यक्ष निशाना वही ज्योतिष ब्लाग ही था जिस पर पहले हैती के भूकंप की भविष्यवाणी सत्य होने का दावा फिर अपने दावे के सही होने को दुर्भाग्यपूणी बताते हुए प्रकाशित हुई थी। चार तत्व हो गये पर पांचवा तत्व जोड़ना भी जरूरी लगा जो कि प्रकृति की अपनी महिमा है।
मगर यह मजाक नहीं है। हैती में भूकंप आना प्राकृतिक प्रकोप का परिणाम है पर इतनी बड़ी जन धन हानि यकीनन मानवीय भूलों का नतीजा हो सकती है। हो सकता है कि साम्यवादी विचारक अपनी जगह सही हो कि पूंजीवाद ने ही हैती में इतना बड़ा विनाश कराया हो। ऐसी प्राकृतिक विपदाओं पर होने वाली हानि पर अक्सर प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी अपने हिसाब से पूंजीवाद और साम्राज्यवादी को निशाना बनाते हैं। उनको अमेरिका और ब्रिटेन पर निशाना लगाना सहज लगता है। वह इससे आगे नहीं जाते क्योंकि प्रकृति को कुपित करने वालों में वह देश भी शामिल हैं जो ऐसे बुद्धिजीवियों को प्रिय हैं। हमारा तो सीधा आरोप है कि वनों की कटाई या दोहन तो उन देशों में भी हो रहा है जो साम्यवादी होने का दावा करते हैं और इसी कारण कथित वैश्विक तापवृद्धि से वह भी नहीं बचे।
अब विश्व में तापमान बढ़ने की बात कर लें। हाल ही मे पड़ी सर्दी ने कथित शोधकर्ताओं के होश उड़ा दिये हैं। पहले कह रहे थे कि प्रथ्वी गर्म हो रही है और अब कहते हैं कि ठंडी हो रही है। भारत के कुछ समझदार कहते हैं कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी रक्षा भी करती है इसलिये गर्मी होते होते ही सर्दी होने लगी। दूसरी भी एक बात है कि भले ही सरकारी क्षेत्र में हरियाली कम हो रही है और कालोनियां बन रही हैं पर दूसरा सच यह भी है कि निजी क्षेत्र में पेड़ पौद्ये लगाने की भावना भी बलवती हो रही है। इसलिये हरित क्षेत्र का संकट कभी कभी कम होता लगता है हालांकि वह संतोषजनक नहीं है। गैसों का विसर्जन एक समस्या है पर लगता है कि प्रकृत्ति उनके लिये भी कुछ न कुछ कर रही है इसी कारण गर्मी होते होते सर्दी पड़ने लगी।
मुख्य मुद्दा यह है कि परमाणु बमों और उसके लिये होने वाले प्रयोगों पर कोई दृष्टिपात क्यों नहीं किया जाता? चीन, अमेरिका और सोवियत संघ ने बेहताश परमाणु विस्फोट किये हैं। इन परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी हानि पहुंची है उसका आंकलन कोई क्यों नही करता? हमारी स्मृति में आज तक गुजरात का वह विनाशकारी भूकंप मौजूद है जो चीन के परमाणु विस्फोट के कुछ दिन बाद आया था। इन देशों ने न केवल जमीन के अंदर परमाणु विस्फोट किये बल्कि पानी के अंदर भी किये-इनके विस्फोटों का सुनामी से कोई न कोई संबंध है ऐसा हमारा मानना है। यह हमारा आज का विचार नहीं बल्कि गुजरात भूकंप के बाद ऐसा लगने लगा है कि कहीं न कहीं परमाणु विस्फोटों का यह सिलसिला भी जिम्मेदारी है जो ऐसी कयामत लाता है। साम्यवादी विचारक हमेशा ही अमेरिका और ब्रिटेन पर बरस कर रह जाते है पर रूस के साथ चीन को भी अनदेखा करते हैं।
हमारा मानना है कि अगर यह चारों देश अपने परमाणु प्रयोग बंद कर सारे हथियार नष्ट कर दें तो शायद विश्व में प्रकृति शांत रह सकती है। विश्व में न तो पूंजीवाद चाहिये न समाजवाद बल्कि सहजवाद की आवश्यकता है। साम्राज्यवादी के कथित विरोधी देश इतने ही ईमानदार है तो क्यों पश्चिमी देशों की वीजा, पासपोर्ट और प्रतिबंधों की नीतियों पर चल रहे हैं। चीन क्यों अपने यहां यौन वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगा रहा है जैसे कि अन्य देश लगाते हैं। वह अभी भी आदमी का मूंह बंद कर उसे पेट भरने के लिये बाध्य करने की नीति पर चल रहा है।
जहां तक ज्योतिष की बात है तो अपने देश का दर्शन कहता है कि जब प्रथ्वी पर बोझ बढ़ता है तो वह व्याकुल होकर भगवान के पास जाती है और इसी कारण यहां प्रलय आती है। वैसे पश्चिम अर्थशास्त्री माल्थस भी यही कहता था कि ‘जब आदमी अपनी जनंसख्या पर नियंत्रण नहीं करती तब प्रकृति यह काम स्वयं करती है।’ यह सब माने तो ऐसे भूकंप और सुनामियां तो आती रहेंगी यह एक निश्चिम भविष्यवाणी है। प्रसिद्ध व्यंगकार स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरसत नहीं है। मारने वालों के पास हमसे बड़े लक्ष्य पहले से ही मौजूद है।’
इसी तर्ज पर हम भी यह कह सकते हैं कि धरती बहुत बड़ी है और वह क्रमवार अपनी देह को स्वस्थ कर रही है और जहां हम हैं वहां का अभी नंबर अभी नहीं आया है। कभी तो आयेगा, भले ही उस समय हम उस समय यहां न हों।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ओलम्पिक मशाल, शादी में गम जैसा हाल


भारत में ओलपिक मशाल को लेकर अजीब सा माहौल है। ऐसा लगता है कि जैसे गम के माहौल में शादी हो रही है। हमने कई बार देखा होगा कि कई बार एसा होता है कि किसी परिवार में शादी की तैयारी होती है और पता लगता कि वहां कोई निकटस्थ व्यक्ति का देहावसान हो गया तो फिर भी मूहूर्त की वजह से शादी तो होती है पर उस तरह खुशी की माहौल नहीं रहता जैसा कि सामान्य हालत में रहता है। वैसे तो हर ओलपिक के अवसर पर मशाल आती है पर इस बात चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों को लेकर जिस तरह पूरे विश्व में विवाद उठ खड़ा हुआ है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इधर चीन भी अपने आपको चर्चा के केंद्र में बनाये रखने के लिये तिब्बत में कथित आंदोलन का दमन कर दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा है। भारत में चीन को लेकर अधिक कोई रुझान नहीं है और उल्टे 1962 के बाद उसके खिलाफ लोगों में नाराजगी का माहौल तो रहता ही है उस कभी-कभी चीनी नेता भी अरुणांचल के मामले में कुटिलतापूर्ण टिप्पणियां कर आग में घी छिड़कने का काम करते है।

चीन तिब्बत का हिस्सा है या नहीं यह विवादास्पद प्रश्न है पर जिस तरह तिब्बती लोग पूरी दुनियां में इस मशाल का विरोध कर रहे हैं उससे यह तो संदेश मिल ही जाता है कि वहां के लोग बहंुत नाराज है। एक बात तय है कि चीन के लिये भारत की आम जनता में कोई सौहार्द का भाव नहीं है और न चीनी लोगों की भारत में दिलचस्पी है-क्योंकि चीन ने सरकारी तौर पर ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। इस समय जो आर्थिक और सामाजिक क्षे+त्रों में संबंध है उच्च वर्ग के लोगों तक ही सीमित है। चीन की तिब्बत नीति पर पश्चिमी देश कभी सहमत नहीे हए। भले ही वह औपचारिक रूप से सतत उसका विरोध नही करते। तिब्बत के विस्थापित लोग भारत में बड़े पेमाने पर हैं। कई शहरों में सर्दी के दौरान वह स्वेटर बेचने के लिए अस्थाई बाजार लगाते हैं। उसमें उनके द्वारा प्रदर्शित नक्शे में तिबबत का क्षेत्रफल देखा जाये तो उससे लगता है कि चीन इतना बड़ा देश नहीं है जितना उसे माना जाता है। वैसे भी तिब्बत के सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को देखा जाये तो चीन के अन्य समूदायों से उनकी कोई तुलना नहीं है। तिब्बत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या बहुत अधिक है और उनका झुकाव धर्म की तरफ है जबकि गरीबों और मजदूरों को शासन दिलवाने का सपना दिखाने वाले आज के चीनी शासक तो शुद्ध रूप से माया के भक्त हैं।।उनके लिये धर्म तो एक अफीम है। तिब्बत का इलाका हिमालय के लगता है और निश्चित रूप से वहां तमाम तरह की प्राकृतिक संपदा है जिसका दोहन चीन ने किया है वरना उसके पास था ही क्या? आज चीन विश्व की एक महाशक्ति है पर कई लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं कई विशेषज्ञ तो कहते है कि चीन की समृद्धि के पीछे काला पैसा भी है।

भारत में रह रहे तिब्बती ओलंपिक मशाल का विरोध कर रहे है तो उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों की भी कोई कमी यहां नही है। इसका कारण चीन की विस्स्तारवादी नीतियां ही हैं। अमेरिका पर तो तमान लोग सम्राज्यवादी होने के कई लोग आरोप लगाते हैं पर उसने किसी की जमीन हड़प कर रखी हो उसका केाई प्रमाण नहीं मिलता जबकि चीन ने पूरा एक देश ही हड़प कर रखा है और भारत के बहुत बड़े इलाके पर दावा जताता रहा है। वैसे तो अनेक बार ओलंपिक मशालें भारत आ चुकी हैं पर बहुत कम लोग उस पर ध्यान देते हैं। इस बार विवाद उठा है तो शायद लोगों का उस पर ध्यान अधिक गया है। हालांकि इस विरोध को कोई बड़ा समर्थन मिलने की आशा तो नहीं है क्योंकि एक आज के पूंजीवाद के युग में तिब्बती कोई अधिक स्थान नहीं रखते दूसरे इन्हीं खेलों से कई पूंजीपति भी जुड़े होते हैं और उनका अस्तित्व प्रत्यक्ष भले न दिखे पर अप्रत्यक्ष उनका प्रभाव बहत रहता है और वह किसी ऐसे विरोध को प्रायोजित नहीं करेंगें। वैसे भी ओलंपिक में भारत के खेल प्रमियों की रुचि अधिक नहीं रहती क्योंकि वहां एकाध खेल को छोड़कर वहां भारत की स्थिति नाम नाममात्र की रहती है और अब वह भी हाकी में ओलंपिक के लिये भारतीय हाकी टीम के क्वालीफाई न करने के कारण समाप्त हो गयी है। इस बार शायद इस मशाल की चर्चा भी नहीं होती अगर तिब्बतियों ने इसका विरोध नहीं किया होता। देश की प्रशासनिक संस्थाओं के पास राजनीतिक मर्यादाओं की वजह से इस मशाल को सुरक्षा देने के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं है पर यह देखना होगा कि निजी प्रचार माध्यम और संस्थाएं इसके बारे मे कैसा रवैया अख्तियार करतीं हैं।