Tag Archives: darshan

मनु स्मृति दर्शन-संगीत का आनंद लेकर सोयें (manu smriti-sangeet ka anand)


आजकल रेडियो या टेप में संगीत सुनने की बजाय टीवी और वीडियो पर उसका आनंद उठाने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह है कि टीवी में हम आंख तथा कान दोनों को सक्रिय रखते हैं इसलिये मजा उठाने से अधिक कष्ट मिलता है। संगीत सुनने का आनंद तो केवल कानों से ही है। वैसे शायद यही वजह है कि टीवी पर हर शो में फिल्मी गानों को पृष्ठभूमि में जोड़कर दृश्य को जानदार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। किसी धारावाहिक में अगर पात्र गुस्से में बोल रहा है तो भयानक संगीत का शोर जोड़कर उसे दमदार बनाने का प्रयास शायद इसलिये ही किया जाता है कि आजकल का अभिनय करने वाले पात्रों को न तो कला से मतलब है न उनमें योग्यता है। बहरहाल संगीत मानव मन की कमजोरी है और जहां तक मनोरंजन मिले वहां तक सुनना चाहिये। अति तो सभी जगह वर्जित है।
तत्र भुक्तपर पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः।
हिन्दी में भावार्थ-
भोजन करने के बाद गीत संगीत का आनंद उठाना चाहिये। उसके बाद ही शयन के लिये प्रस्थान करना उचित है।
एतद् विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेत्त्ु भृत्येषु विनियोजयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वस्थ होने पर अपने सारे काम स्वयं ही करना चाहिये। अगर शरीर में व्याधि हो तो फिर अपना काम विश्वस्त सेवकों को सौंपकर विश्राम भी किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक तरफ मनुस्मृति में प्रमाद से बचने का सुझाव आता है तो दूसरी जगह भोजन के बाद गीत संगीत सुनने की राय मिलती है। इसमें कहीं विरोधाभास नहीं समझा जा सकता। दरअसल मनुष्य की दिनचर्या को चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सायं काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष या निद्रा के लिये। जिस तरह आजकल चारों पहर मनोरंजन की प्रवृत्ति का निर्माण हो गया है उसे देखते हुए मनृस्मृति के संदेशों का महत्व अब समझ में आने लगा है।
आजकल रेडियो, टीवी तथा अन्य मनोंरजन के साधनों पर चौबीस घंटे का सुख उपलब्ध है। लोग पूरा दिन मनोरंजन करते हैं पर फिर भी मन नहीं भरता। इसका कारण यह है कि मनोंरजन से मन को लाभ मिले कैसे जब उसे कोई विश्राम ही नहीं मिलता। जब कोई मनुष्य प्रातः धर्म का निर्वहन तथा दोपहर अर्थ का अर्जन ( यहां आशय अपने रोजगार से संबंधित कार्य संपन्न करने से हैं) करता है वही सायं भोजन और मनोरंजन का पूर्ण लाभ उठा पाता है। उसे ही रात्रि को नींद अच्छी आती है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शाम को भोजन करने के बाद गीत संगीत सुनना चाहिये। अलबत्ता टीवी देखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि उसमें आंखें ही थकती हैं और दिमाग को कोई राहत नहीं मिलती। इसलिये टेप रिकार्ड या रेडियो पर गाने सुनने का अलग मजा है। वैसे भी देखा जाये तो आजकल अधिकर टीवी चैनल फिल्मों पर गीत संगीत बजाकर ही गाने प्रस्तुत किये जाते हैं-चाहे उनके हास्य शो हों या कथित वास्तविक संगीत प्रतियोगितायें फिल्मी धुनों से सराबोर होती हैं। देश के व्यवसायिक मनोरंजनक प्रबंधक जानते हैं कि गीत संगीत मनुष्य के लिये मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्त्रोत हैं इसलिये वह उसकी आड़ में अपने पंसदीदा व्यक्तित्वों को थोपते हैं। प्रसंगवश अभी क्रिकेट में भी चौका या छक्का लगने पर नृत्यांगना के नृत्य संगीत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। स्पष्टतः यह मानव मन की कमजोरी का लाभ उठाने का प्रयास है।
टीवी पर इस तरह के कार्यक्रम देखने से अच्छा है सीधे ही गाने सुने जायें। अलबत्ता यह भोजन करने के बाद कुछ देर तक ठीक रहता है। अर्थशास्त्र के उपयोगिता के नियम के अनुसार हर वस्तु की प्रथम इकाई से जो लाभ होता है वह दूसरी से नहीं होता। एक समय ऐसा आता है कि लाभ की मात्रा शून्य हो जाती है। अतः जबरदस्ती बहुत समय तक मनोरंजन करने का कोई लाभ नहीं है। सीमित मात्रा में गीत संगीत सुनना कोई बुरी बात नहीं है-मनोरंजन को विलासिता न बनने दें।
———-

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

स्वतंत्रता दिवस का एक दिन-व्यंग्य कविता कविता (one day of independence-hidi satire poem)


अपने ही गुलामों की
भीड़ एकत्रित कर आज़ादी पर
शिखर पुरुष करते हैं झंडा वंदन।
अपने खून को पसीना करने वाले
मेहनतकशों के लिये हमदर्दी के
कुछ औपचारिक शब्द बोल देते हैं
उसके हाथ भी खोल देते हैं
बस! एक दिन
फिर उसके पसीने का तेल बनाने के लिए
डाल देते हैं पांव में बंधन।।
———-

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

बुरे आदमी से संगत सांप पालने से अधिक दुःखदायी-हिन्दी संदेश


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com

____________________________
नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
———————
—————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

पेशेवर बौद्धिक विलासी- हिन्दी आलेख (peshevar buddhi vilasi)


हिटलर तानाशाह पर उसने जर्मनी पर राज्य किया। कहते हैं कि वह बहुत अत्याचारी था पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हर जर्मनी नागरिक का मार दिया। उसके समय में कुछ सामान्य नागरिक असंतुष्ट होंगे तो तो कुछ संतुष्ट भी रहेंगे। कहने का मतलब यह कि वह एक तानाशाह पर उसके समय में जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग शांति से रह रहा था। सभी गरीब नहीं थे और न ही सभी अमीर रहे होंगे। इधर हम दुनियां के अमीर देशों में शुमार किये जाने वाले जापान को देखते हैं जहां लोकतंत्र है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां की सारी जनता अपनी व्यवस्था से खुश होगी। वहां भी अमीर और गरीब होंगे।
किसी राज्य में प्रजाजनों में सभी अमीर होंगे तो भी सभी संतुष्ट नहीं होंगे सभी गरीब होंगे तो सभी असंतुष्ट भी नहीं होंगे। कहने का मतलब यही है कि राज्य की व्यवस्था तानाशाही वाली है या प्रजातंात्रिक, आम आदमी को मतलब केवल अपने शांतिपूर्ण जीवन से है। अधिकतर लोग अपनी रोजी रोटी के साथ ही अपने सामाजिक जीवन में दायित्व निर्वाह के साथ ही धाार्मिक, जातीय, भाषाई तथा क्षेत्रीय समाजों द्वारा निर्मित पर्वों को मनाकर अपना जीवन अपनी खुशी और गमों के साथ जीते हैं। अलबत्ता पहले अखबार और रेडियो में समाचार और चर्चाओं से सामान्य लोगों को राजनीतिक दृष्टि विकसित होती थी । अब उनके साथ टीवी और इंटरनेट भी जुड़ गया है। लोग अपने मनपसंद विषयों की सामग्री पढ़ते, देखते और सुनते है और इनमें कुछ लोग भूल जाते हैं तो कुछ थोड़ी देर के लिये चिंतन करते है जो कि उनका एक तरह से बुद्धि विलास है। सामान्य आदमी के पास दूसरे की सुनने और अपनी कहने के अलावा कोई दूसरा न तो उपाय होता है न सक्रिय येागदान की इच्छा। ऐसे में जो खाली पीली बैठे बुद्धिजीवी हैं जो अपना समय पास करने के लिये सभाओं और समाचारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जिनके साथ अब टीवी चैनल भी जुड़ गये हैं। इनकी बहसों पेशेवर बौद्धिक चिंतक भाग लेते हैं। ऐसा नहीं है कि चिंतक केवल वही होते हैं जो सार्वजनिक रूप से आते हैं बल्कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चिंतन की अभिव्यक्ति केवल अपने व्यक्ति गत चर्चाओं तक ही सीमित रखते हैं।
ऐसे जो गैर पेशेवर बुद्धिजीवी हैं उनके लिये अपना चिंतन अधिक विस्तार नहीं पाता पर पेशेवर बुद्धिजीवी अपनी चर्चा को अधिक मुखर बनाते हैं ताकि प्रचार माध्यमों में उनका अस्तित्व बना रहे। कहते हैं कि राजनीति, पत्रकारिता तथा वकालत का पेशा अनिश्चिताओ से भरा पड़ा है इसलिये इसमें निरंतर सक्रियता रहना जरूरी है अगर कहीं प्रदर्शन में अंतराल आ गया तो फिर वापसी बहुत मुश्किल हो जाती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पत्रकारिता-समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो- में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के लिये पेशेवर बौद्धिक चिंतक निरंतर सक्रिय रहते हैं। यह सक्रियता इतनी नियमित होती है कि उनके विचार और अभिव्यक्ति का एक प्रारूप बन जाता है जिसके आगे उनके लिये जाना कठिन होता है और वह नये प्रयोग या नये विचार से परे हो जाते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के बौद्धिक चिंतक जिस विषय का निर्माण करते हैं उस पर दशकों तक बहस चलती है फिर उन्हें स्वामित्व में रखने वाले राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष अपना नाम निरंतर चर्चा में देख प्रसन्न भी होते हैं। इधर अब यह भी बात समाचार पत्र पत्रिकाओं में आने लगी है कि इन्हीं बौद्धिक चिंतकों के सामाजिक, आर्थिक शिखर पुरुषों से इतने निकट संबंध भी होते हैं कि वह अपनी व्यवसायिक, राजनीतिक तथा अन्य गतिविधियों के लिये उनसे सलाह भी लेते हैं-यह अलग बात है कि इसका पता वर्षों बाद स्वयं उनके द्वारा बताये जाने पर लगता है। यही कारण है कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव की बात तो सभी करते हैं पर जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके पास कोई चिंतन नहीं है और उनके आत्मीय बौद्धिक लोगों के पास चिंतन तो है पर उसमें बदलाव का विचार नहीं है। बदलाव लाने के लिये सभी तत्पर हैं पर स्वयं कोई नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे उसमें अपने अस्तित्व बने रहने की गुंजायश नहीं दिखती।
लार्ड मैकाले वाकई एतिहासिक पुरुष है। उसने आज की गुलाम शिक्षा पद्धति का अविष्कार भारत पर अपने देश का शासन हमेशा बनाये रखने के लिये किया था पर उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके शासक यह देश छोड़ जायेंगे तब भी उनका अभौतिक अस्तित्व यहां बना रहेगा। इस शिक्षा पद्धति में नये चिंतन का अभाव रहता है। अगर आपको कोई विचार करना है तो उसके लिये आपके सामने अन्य देशों की व्यवस्था के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे या फिर विदेशी विद्वानों का ज्ञान आपके सामने रखा जायेगा। भारतीय सामाजिक सदंर्भों में सोचने की शक्ति बहुत कम लोगों के पास है-जो कम से कम देश में सक्रिय पेशेवर बुद्धिजीवियों के पास तो कतई नहीं लगती है।
इसका कारण यही है कि संगठित प्रचार माध्यमों-प्रकाशन संस्थान, टीवी चैनल और रेडियो-पर अभिव्यक्ति में भी एक तरह से जड़वाद हावी हो गया है। आपके पास कोई बड़ा पद, व्यवसाय या प्रतिष्ठा का शिखर नहीं है तो आप कितना भी अच्छा सोचते हैं पर आपके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा जितना पेशेवर बौद्धिक चिंतकों को दिया जाता है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं तो क्या आपक पत्र संपादक के नाम पत्र में छपेगा न कि किसी नियमित स्तंभ में। कई बार टीवी और रेडियो पर जब सम सामयिक विषयों पर चर्चा सुनते हैं तो लोग संबंधित पक्षों पर आक्षेप, प्रशंसा या तटस्थता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी घटना में सामान्य मनुष्य की प्रकृतियों और उसके कार्यों के परिणाम के कारण क्या हैं इस पर कोई जानकारी नहीं देता। एक बात याद रखना चाहिये कि एक घटना अगर आज हुई है तो वैसी ही दूसरी भी कहीं होगी। उससे पहले भी कितनी हो चुकी होंगी। ऐसे में कई बार ऐसा लगता है कि यह विचार या शब्द तो पहले भी सुने चुके हैं। बस पात्र बदल गये। ऐसी घटनाओं पर पेशेवर ंिचंतकोें की बातें केवल दोहराव भर होती है। तब लगता है कि चितकों के शब्द वैसे ही हैं जैसे पहले कहे गये थे।
चिंताओं की अभिव्यक्ति को चिंतन कह देना अपने आप में ही अजीब बात है। उनके निराकरण के लिये दूरगामी कदम उठाने का कोई ठोस सुझाव न हो तो फिर किसी के विचार को चिंतन कैसे कहा जा सकता है। यही कारण है कि आजकल जिसे देखो चिंता सभी कर रहे हैं। सभी को उम्मीद है कि समाज में बदलाव आयेगा पर यह चिंतन नहीं है। जो बदलाव आ रहे हैं वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से हैं न कि किसी मानवीय या राजकीय प्रयास से। हालांकि यह लेखक इस बात से प्रसन्न है कि अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिखर पर कुछ ऐसे लोग सक्रिय हैं जो शांति से काम करते हुए अभिव्यक्त हो रहे हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। फिर मुश्किल यह है कि बौद्धिक चिंतकों का भी अपना महत्व है जो प्रचार माध्यमों पर अपनी ढपली और अपना राग अलापते हैं। फिर आजकल यह देखा जा रहा है कि प्रचार माध्यमों में दबाव में कार्यकारी संस्थाओं पर भी पड़ने लगा है।
आखिरी बात यह है कि देश के तमाम बुद्धिजीवी समाज में राज्य के माध्यमों से बदलाव चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है राज्य का समाज में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिये। समाज के सामान्य लोगों को बुद्धिहीन, आदर्शहीन तथा अकर्मण्य मानकर चलना अहंकार का प्रमाण है। एक बात तय रही कि दुनियां में सभी अमीर, दानी ओर भले नहीं हो सकते। इसके विपरीत सभी खराब भी नहीं हो सकते। राजनीतिक, आर्थिक, और सामजिक शिखर पर बैठे लोग भी सभी के भाग्यविधाता नहीं बल्कि मनुष्य को निचले स्तर पर सहयेाग मिलता है जिसकी वजह वह चल पाता है। इसलिये देश के बुद्धिजीवी अपने विचारों में बदलाव लायें और समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो इसके लिये चिंतन करें-कम से कम जिन सामाजिक गतिविधियों में दोष है पर किसी दूसरे पर इसका बुरा प्रभाव नहीं है तो उसे राज्य द्वारा रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यंगकार स्वर्गीय शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में बरसों पहले लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरतस नहीं है। जो लोग यह काम करते हैं उनके पास लूटमार करने के लिये बहुत अमीर और बड़े लोग मौजूद हैं ऐसे में हम पर वह क्यों दृष्टिपात करेंगे।’ कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी इसलिये जिंदा है क्योंकि सभी आपस में मिलजुलकर चलते हैं न कि राज्य द्वारा उनको कोई प्रत्यक्ष मदद दी जाती है। ऐसे में समाज सहजता से चले और उसमें आपसी पारिवारिक मुद्दों पर कानून न हो तो ही अच्छा रहेगा क्योंकि देखा यह गया है कि उनके दुरुपयोग से आपस वैमनस्य बढ़ता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

दीपावली का पर्व निकल गया-आलेख


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
——————–
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
—————————–

यह आलेख/कविता पाठ इस ब्लाग ‘हिंद केसरी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
इस लेखक के अन्य संबद्ध ब्लाग इस प्रकार हैं
1.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की हिंदी एक्सप्रेस पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
4.दीपक भारतदीप का चिंतन
5.दीपक भारतदीप की अनंत शब्द योग पत्रिका

इसलिये सोचना ही बंद-आलेख (mor thinking is not good-hindi lekh)


अखबार में खबर छपी है कि ‘ब्रिटेन ने माना है कि तेल के व्यापार की वजह से बम विस्फोट के एक आरोपी को छोड़ना पड़ा-यह आरोपी रिहा होकर मध्य एशियाई देश में पहुंच गया जहां उसका भव्य स्वागत हुआ।
इधर टीवी पर एक खबर देखी कि पड़ौसी देश हमारे देश में भीड़ में आधुनिक हथियार प्रयोग कर आम आदमी का कत्लेआम करने के लिये आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है।
उधर नेपाल में माओवादियों द्वारा पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय पुजारियेां की पिटाई कर दी।
कुछ खबरें पहले भी इधर हम सुनते रहे हैं कि नक्सलवादियों ने सुरंग बिछाकर पुलिस कर्मियों को मार डाला।
कहने का तात्पर्य यह है कि आतकंवाद और हिंसक अभियान एक भूत की तरह हैं जो कभी पकड़ाई नहीं आयेगा क्योंकि उसने अपने ऊपर ढेर सारे मुखौटे-जाति, धर्म, भाषा, विचार तथा क्षेत्र के नाम पर-लगा रखे हैं। यह भूत सर्वशक्तिमान जितना ही ताकतवर दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह धनपतियों को कमाने तो विलासियों को धन गंवाने के अवसर मुहैया कराने के साथ ही बुद्धिजीवियों को विचार व्यक्त करने तथा समाज सेवकों को पीड़ितों की सहानुभूति जताकर प्रचार पाने के लिये भरपूर अवसर देता है।
किसी भी निरपराध की हत्या करना पाप है और इस जघन्य अपराध के लिये हर देश में कड़े कानून हैं पर आतंकवादी अपराधी नहीं बल्कि आतंकवादी का तमगा पाते हैं। उनको समाज विशिष्टता प्रदान कर रहा है। ऐसे में जाति, भाषाओं, समूहों और विचारों के आधार पर बने समूहों के अपराधिक तत्व अब विशिष्टता हासिल करने के लिये उनके नाम का उपयोग कर रहे हैं।
दुनियां भर के टीवी चैनल और अखबार आतंकवादियों के कृत्यों से भरी हुई हैं। हत्यायें और अपराध तो रोज होते हैं पर जिसके साथ जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र का नाम जुड़ा है उससे विशिष्टता प्राप्त हो जाती है। कुछ लोगों को यह भ्रम है कि उन समूहों के सामान्य लोग भी अपने अपराधी तत्वों की सहायता कर रहे हैं-इसे विचार को भूलना होगा क्योंकि उनके पास अपनी घर गृहस्थी का संघर्ष भी कम नहीं होता। संभव है कि कुछ सामान्य सज्जन लोग भी अपने समूहों के नाम पर अपराध कर रहे अपराधियों में अपनी रक्षा का अनुभव कर रहें तो उन्हें भी अपना विचार बदल लेना चाहिये।
आंतकवाद एक व्यवसाय जैसा हो गया लगता है। चूंकि सामान्य अपराधी होने पर समाज के किसी वर्ग का समर्थन या सहानुभूति नहीं मिलती इसलिये अपराधिक तत्व उनके नाम का सहारा लेकर एतिहासिक नायक बनने के लिये ऐसे प्रयास करते हैं। इस अपराध से उनको आर्थिक यकीनन लाभ होने के साथ प्रसिद्धि भी मिलती है क्योंकि उनके नाम टीवी और अखबार में छाये रहते हैं।
इस समय विश्व में अनेक ऐसे अनैतिक व्यवसाय हैं जिनको करने के लिये सभी देश की सरकारों और प्रशासन का ध्यान हटाना जरूरी लगता होगा तभी ऐसी वारदातों निरंतर की जा रही है ताकि वह चलते रहें।


आम आदमी चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र का हो वह अपनी औकात जानता है-भले ही अपने समूह के साथ होने का भ्रम पालना उसे अच्छा लगता है।
पिछले दिनों एक दिलचस्प खबर आई थी कि भारत की खुफिया एजंसियां देश में सभी भागों में सक्रिय सभी आतंकवादी संगठनों के मुखौटा संगठनों की जांच कर रही हैं। यह मुखौटा संगठन किसी आतंकवादी के मारे या पकड़े जाने पर भीड़ जुटाकर उसके समर्थन में आते हैं और इसके अलावा समय समय पर उनका वैचारिक समर्थन भी करते हैं। यह चेतना देखकर प्रसन्नता हुई।
संभव है कुछ बुद्धिजीवी केवल शाब्दिक विलासिता के लिये अनजाने में ऐसे आतंकवादियों की कथित विचाराधारा-यकीन मानिए यह उनका दिखावा मात्र होता है-के पक्ष में लिख जाते हों और उनके मन में ऐसी किसी हिंसा का समर्थन करने वाली बात न हो पर इसके बावजूद कुछ बुद्धिजीवी रंगे सियार हैं जो केवल उनके हित साधने के लिये प्रचार माध्यमों में जूझते रहते हैं। कभी कभी तो लगता है कि उनको बकायदा इसके लिये नियुक्त किया गया है।
हम आम लेखक हैं किसी को रोक नहीं सकते और न ही हमारे प्रतिवाद पर कोई ध्यान देता पर इसका आशय यह नहीं है कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनाप शनाप लिखने लगें। सच बात तो यह है कि प्रचार के शिखर पर वही लेखक छाये हुए हैं जिनको कहीं न कहीं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़े व्यवसाययिक घरानों, कथित धार्मिक संगठनों और फिर सामाजिक संस्थाओं (?) से कुछ न कुछ लाभ अवश्य मिलता होगा। जब कहीं दो कंपनियां इतनी ताकतवर हो सकती हैं कि किसी आतंकवादी को छुड़ाने के लिये ब्रिटेन जैसे ताकतवर देश की सरकार को बाध्य कर सकती हैं तो उनके प्रभाव को समझा जा सकता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अपराध और व्यापार एक दूसरे का सहारा हो गये हैं और कथित धर्मों, जातियों, भाषाओं के समूहों के आकर्षक नाम एक पट्टिका की तरह लगा देते हैं। यह सभी जानते हैं कि मानव मन की यह कमजोरी है कि वह अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम से बहुत मोह रखता है। इससे प्रचार माध्यमों का काम भी चलता है और उनको प्रचार भी मिलता है।
ऐसे में अपने साथी लेखकों और पाठकों से हम एक ही बात कह सकते हैं कि भई, तुम इस जाल में मत फंसो। यह एक ऐसा चक्क्र है जिसे समझने के लिये पैनी दृष्टि होना चाहिये।’ वैसे सच तो यह है कि इतनी सारी घटनायें और खबरे हैं कि एक सिरे से सोचेंगे तो दूसरे सिरे पर सोच ही बदल जायेगी। इसलिये सोचना ही बंद कर दो। मगर आदमी के पास बुद्धि है तो सोचेगा ही। हम तो धर्म जाति, भाषाओं के समूहों को ही भ्रामक मानते हैं। अमीर के लिये सभी दौड़े आते हैं गरीब की तरफ कोई नहीं झांकता। आदमी की स्थिति यह है कि अपना गरीब रिश्तेदार मर जाये तो उसकी अर्थी पर भी न जाये पर पराया अमीर भी मर जाये तो उसके शोक पर आंसु बहाता है ताकि समाज उसे संवदेनशील समझे।
जाने अनजाने कभी भी अपने समूह के नाम हिंसक तत्वों के प्रति हृदय में भी संवेदना नहीं लायें क्योंकि यह सभी समूह केवल अमीरो के लिये बने हैं। फिर क्या करें? अगर आप लेखक हैं तो कुछ सड़ी गली कवितायें लिखकर दिल बहला लीजिये और अगर आप पाठक हैं तो फिर उन बुद्धिजीवियों पर भी हंसें जो वैचारिक बहसें ऐसे करते हैं जैसे कि उनके समाज उनकी कल्पनाओं पर ही चलते है।
इसके अलावा अपने अंदर से भेदात्मक बुद्धि को परे कर दें जो अपने साथ अच्छा व्यवहार करे और उससे समय पर सहयोग की उम्मीद हो उसे अपना ही साथी समझें-जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एकता की कोशिशों का आव्हान करने वालों के अपने स्वार्थ होते हैं जिसमें आम आदमी का स्थान केवल एक वस्तु के रूप में होता है।
………………………………………..

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

विवाद करने वाले श्री राम का चरित्र नहीं पढ़ते-आलेख


श्रीराम द्वारा रावण वध के बाद श्रीलंका से वापस आने पर श्रीसीता जी की अग्नि परीक्षा लेने का प्रसंग बहुत चर्चित है। अक्सर भारतीय धर्म की आलोचना करने वाले इस प्रसंग को उठाकर नारी के प्रति हमारे समाज के खराब दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं। दरअसल समस्या वही है कि आक्षेप करने वाले रामायण पढ़ें इसका तो सवाल ही नहीं पैदा होता मगर उत्तर देने वाले भी कोई इसका अध्ययन करते हों इसका आभास नहीं होता। तय बात है कि कहीं भी चल रही बहस युद्ध में बदल जाती है। इन बहसों को देखकर ऐसा लगता है कि किसी भी विद्वान का लक्ष्य निष्कर्ष निकालने से अधिक स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है।
यह लेखक मध्यप्रदेश का है और यहां के लोग ऐसी लंबी बहसों में उलझने के आदी नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि देश में चल रहे वैचारिक संघर्षों से हम बहुत दूर रहे हैं और अब अंतर्जाल पर देखकर तो ऐसा लगता है कि बकायदा कुछ ऐसे संगठन हैं जिन्होंने तय कर रखा है कि भारतीय धर्म की आलोचना कर विदेशी विचाराधाराओं के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास करते रहेंगे। उनका यह कार्य इतना योजनाबद्ध ढंग से है कि वह बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में भारतीय धर्म के प्रति अरुचि पैदा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे वह भारतीय समाज को अस्थिर कर सकते हैं। हालांकि उनकी यह योजना लंबे समय में असफल हो जायेगी इसमें संशय नहीं है।
आईये हम उस प्रसंग की चर्चा करें। नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने रामायण नहीं पढ़ी। श्रीसीता जी जब रावण वध के बाद श्रीराम के पास आयी तो वह उनको देखना भी नहीं चाहते थे-इसे यह भी कह सकते हैं कि वह इतनी तेजस्वी थी कि एकदम उन पर दृष्टि डालना किसी के लिये आसान नहीं था। वहां श्रीरामजी ने उनको बताया कि चूंकि वह दैववश ही रावण द्वारा हर ली गयी थी और उनका कर्तव्य था कि उसकी कैद से श्रीसीता को मुक्त करायें। अब यह कर्तव्य सिद्ध हो गया है इसलिये श्रीसीता जी जहां भी जाना चाहें चली जायें पर स्वयं स्वीकार नहीं करेंगे।
यह आलोचक कहते हैं कि श्रीसीता के चरित्र पर संदेह किया। यह पूरी तरह गलत है। दरअसल उन्होंने श्रीसीता से कहा कि ‘रावण बहुत क्रूर था और आप इतने दिन वहां रही इसलिये संदेह है कि वह आपसे दूर रह पाया होगा।’
तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम ने श्रीसीता के नहीं बल्कि रावण के चरित्र पर ही संदेह किया था। बात केवल इतनी ही नहीं है। रावण ने श्रीसीता का अपहरण किया तो उसके अंग उनको छू गये। यह दैववश था। श्रीराम जी का आशय यह था कि इस तरह उसने अकेले में भी उनको प्रताड़ित किया होगा-श्रीसीता जी के साथ कोई जबरदस्ती कर सके यह संभव नहीं है, यह बात श्रीराम जानते थे।
भगवान श्रीराम और सीता अवतार लेकर इस धरती पर आये थे और उनको मानवीय लीला करनी ही थी। ऐसे में एक वर्ष बाद मिलने पर श्रीराम का भावावेश में आना स्वाभाविक था। दूसरा यह कि श्रीसीता से तत्काल आंख न मिलाने के पीछे यह भी दिखाना था कि उनको स्वयं की गयी गल्तियां का भी आभास है। एक तो वह अच्छी तरह जानते थे कि वह मृग सोने का नहीं बल्कि मारीचि की माया है। फिर भी उसके पीछे गये। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि श्रीसीता जी उनको किसी भी प्रकार की हिंसा करने से रोकती थीं। सोने का वह मृग भी श्रीसीता ने जीवित ही मांगा था। एक तरह से देखा जाये तो श्रीसीता अहिंसा धर्म की पहली प्रवर्तक हैं। श्रीसीता जी के रोकने के बावजूद श्रीराम धर्म की स्थापना के लिये राक्षसों का वध करते रहे। उसकी वजह से रावण उनका दुश्मन हो गया और श्रीसीता जी को हभी उसका परिणाम भोगना पड़ा। मानव रूप में भगवान श्रीराम यही दिखा रहे थे कि किस तरह पति की गल्तियों का परिणाम पत्नी को जब भोगना पड़ता है और फिर पति को अपनी पत्नी के सामने स्वयं भी शर्मिंदा होना पड़ता है।
मानव रूप में कुछ अपनी तो कुछ श्रीसीता की गल्तियों का इंगित कर वही जताना चाहते थे कि आगे मनुष्यों को इससे बचना चाहिये।
भरी सभा में श्रीसीता से भगवान श्रीराम ने प्रतिकूल बातें कही-इस बात पर अनेक आलोचक बोलते हैं पर सच बात तो यह है कि श्रीसीता ने भी श्रीराम को इसका जवाब दिया है। उन्होंने श्रीराम जी से कहा-‘आप ऐसी बातें कर रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी स्त्री से नहीं कहता।’
इतनी भरी सभा में श्रीसीता ने जिस तरह श्रीराम की बातों का प्रतिकार किया उसकी चर्चा कोई नहीं करता। सभी के सामने अपने ही पति को ‘निम्न श्रेणी के पुरुषों से भी कमतर कहकर उन्होंने यह साबित किया कि वह पति से बराबरी का व्यवहार करती थीं। श्रीराम दोबारा कुछ न कह सके और इससे यह प्रमाणित होता है कि वह उस लीला का विस्तार कर रहे थे।
यहां यह याद रखने लायक बात है कि श्रीसीता अग्नि से सुरक्षित निकलने की कला संभवतः जानती थी और यह रहस्य श्रीराम जी को पता था। जब श्री हनुमान जी ने लंका में आग लगायी तब वह श्रीसीता की चिंता करने लगे। जब अशोक वाटिका में पहुंचे तो देखा कि केवल श्रीसीताजी ही नहीं बल्कि पूरी अशोक वाटिका ही सुरक्षित है। तब उनको आभास हो गया कि श्रीसीता कोई मामूली स्त्री नहीं है बल्कि उनका तपबल इतना है कि आग उनके पास पहुंच भी नहीं सकती। श्रीसीता को पुनः स्त्री जाति में एक सम्मानीय स्थान प्राप्त हो इसलिये ही श्रीराम ने इस रहस्य को जानते हुए ही इस तरह का व्यवहार किया।
श्रीराम ने गलती की थी कि वह जानते हुए भी मारीचि के पीछे गये। रक्षा के लिये उन्होंने अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मण को छोड़ा। जब श्रीराम जी का बाण खाकर मारीचि ‘हा लक्ष्मण’ कहता हुआ जमीन पर गिरा तब उनको समझ में आया कि वह क्या गलती कर चुके हैं।
उधर श्रीलक्ष्मण भी समझ गये कि मरने वाला मारीचि ही है पर श्रीसीता ने उन पर दबाव डाला कि वह अपने बड़े भाई को देखने जायें। श्रीलक्ष्मण जाने को तैयार नहीं थे श्रीसीता ने भी उन पर आक्षेप किये। यह आक्षेप लक्ष्मण जी का चरित्र हनन करने वाले थे। भगवान श्रीराम इस बात से भी दुःखी थे और उन्हें इसलिये भी श्रीसीता के प्रति गुस्सा प्रकट किया।
यह आलेख नारी स्वतंत्रय समर्थकों को यह समझाने के लिये नहीं किया गया कि कथित रूप से वह भगवान श्रीराम पर श्रीसीता के चरित्र पर लांछन लगाने का आरोप लगाते हैं जबकि भगवान श्रीराम ने कभी ऐसा नहीं किया। उल्टे उन्होंने उनके प्रिय भ्राता श्रीलक्ष्मण पर आक्षेप किये थे। हमारा आशय तो भारतीय धर्म के समर्थकों को यह समझाना है कि आप जब बहस में पड़ते हैं तो इस तरह के विश्ेलषण किया करें। रामायण पर किसी भी प्रकार किसी भी स्त्री के चरित्र पर संदेह नहीं किया गया। जिन पर किया गया है उनमें रावण और श्रीलक्ष्मण ही हैं जो पुरुष थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रंथों में परिवार और समाज को लेकर अनेक प्रकार के पात्र हैं उनमें मानवीय कमजोरियां होती हैं और अगर न हों तो फिर सामान्य मनुष्य के लिये किसी भी प्रकार संदेश ही नहीं निकल पायेगा। फिर पति पत्नी का संबंध तो इतना प्राकृतिक है कि दोनों के आपसी विवाद या चर्चा में आये संवाद या विषय लिंग के आधार पर विचारणीय नहीं होते। मुख्य बात यह होती है कि इन ग्रंथों से संदेश किस प्रकार के निकलते हैं और उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ता है? श्रीसीता जी एकदम तेजस्वी महिला थी। लंका जलाने के बाद श्रीहनुमान ने उनसे कहा कि ‘आप तो मेरी पीठ पर बैठकर चलिये। यह राक्षण कुछ नहीं कर सकेंगे।’
श्रीसीता ने कहा-‘मैं किसी पराये मर्द का अंग अपनी इच्छा से नहीं छू सकती। रावण ने तो जबरदस्ती की पर अपनी इच्छा से मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूंगी। दूसरा यह है कि मैं चाहती हूं कि मेरे पति की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वह होगी क्योंकि तुम जैसे सहायक हों तब उनकी जीत निश्चित है।’
इससे आप समझ सकते हैं कि श्रीसीता कितनी दृढ़चरित्र से परिपूर्ण हो गयी थी कि अवसर मिलने पर भी वह लंका से नहीं भागी चाहे उनको कितना भी कष्ट झेलना पड़ा। वह कोमल हृदया थी पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बिचारी या अबला थी।
नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने हमेशा ही इस मसले को उठाया है और यह देखा गया है कि भारतीय धर्म समर्थक इसका जवाब उस ढंग से नहीं दे पाते जिस तरह दिया जाना चाहिये। अक्सर वह लोग श्रीसीता को अबला या बेबस कहकर प्रचारित करते हैं जबकि वह दृढ़चरित्र और तपस्वी महिला थी। वह भगवान श्री राम की अनुगामिनी होने के साथ ही उनकी मानसिक ऊर्जा को बहुत बड़ा स्त्रोत भी थीं। भगवान श्रीराम महान धनुर्धर पुरुष थे तो श्रीसीता भी ज्ञानी और विदुषी स्त्री थी। यही कारण है कि पति पत्नी की जोड़ी के रूप में वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन के मूल आधार कहलाते हैं।
शेष फिर कभी
…………………………………………..
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.राजलेख हिन्दी पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जीन के गुण ही तो गुण में बरतते हैं-चिंत्तन आलेख


पश्चिमी विज्ञान मानव शरीर में स्थित जीन के आधार पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत करता है जबकि यही विश्लेषण भारतीय दर्शन ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं‘ के आधार पर करता है। पश्चिमी विश्लेषण मनुष्य के स्वभाव में उन जीनों के प्रभाव का वर्णन करते हैं जबकि भारतीय दर्शन उनको गुणों का परिणाम कहकर प्रतिपादित करता है।
मनुष्य की पहचान उसका मन है और देह में स्थित होने के कारण उसमें विद्यमान गुण या जीन से प्रभावित होता है इसमें संशय नहीं हैं। जब शरीर में कोई भीषण विकार या पीड़ा उत्पन्न होती है तब मन कहीं नहीं भाग पाता। उस समय केवल उससे मुक्ति की अपेक्षा के अलावा वह कोई विचार नहीं। करता। मन में विचार आते हैं कि ‘अमुक पीड़ा दूर हो जाये तो फिर मैं एसा कुछ नहीं करूंगा जिससे यह रोग फिर मुझे घेरे।’
कभी अपने आप तो कभी दवा से वह ठीक हो जाता है पर फिर उसका मन सब भूल जाता है। व्यसन करने वाले लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। जब अपने व्यसन की वजह से भारी तकलीफ में होते हैं तब सोचते हैं कि अब इसका प्रभाव कम हो तो फिर नहीं करेंगे।’

ऐसा होता नहीं है। व्यसन कर प्रभाव कम हाते े ही वह फिर उसी राह पर चलते हैं। अपने ज्ञान के आधार पर मै यह कह सकता हूं कि‘शुरूआत में व्यसन आदमी किसी संगत के प्रभाव में आकर करता है फिर वही चीज-शराब और तंबाकू-मनुष्य के शरीर में अपना गुण या जीन स्थापित कर लेती है और आदमी उसका आदी हो जाता है। याद रहे वह गुण व्यसन करने से पहले उस आदमी में नहीं होता।

पश्चिमी विज्ञान कहता है कि आदमी में प्रेम, घृणा, आत्महत्या, चिढ़चिढ़ेपन तथा अन्य क्रियाओं के जीन होते हैं पर वह यह नहीं बताता कि वह जीन बनते कैंसे हैं? भारतीय दर्शन उसको स्पष्ट करता है कि मनुष्य में सारे गुण खाने-पीने के साथ ही दूसरों की संगत से भी आते हैं। मेरा मानना है कि मनुष्य सांसें लेता और छोड़ता है और उससे उसके पास बैठा आदमी प्रभावित होता है। हां, याद आता है कि पश्चिम के विज्ञानी भी कहते हैं कि सिगरेट पीने वाले अपने से अधिक दूसरे का धुंआ छोड़कर हानि पहुंचाते हैं। इसका अर्थ यह है कि विकार वायु के द्वारा भी आदमी में आते हैं। अगर आप किसी शराबी के पास बैठेंगे और चाहे कितनी भी सात्विक प्रवृत्ति के हों और उसकी बातें लगातार सुन रहे हैं तो उसकी कही बेकार की बातें कहीं न कहीं आपके मन पर आती ही है जो आपका मन वितृष्णा से भर देती है। इसके विपरीत अगर आप किसी संत के प्रवचन-भले ही वह रटकर देता हो-सुनते हैं तो आपके मन में एक अजीब शांति हो जाती है। अगर आप नियमित रूप से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें जिसे आप ठीक नहीं समझते तो ऐसा लगेगा कि वह आपके तनाव का कारण बन रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि पांच तत्वों-प्रथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु- से बनी यह देह इनके साथ सतत संपर्क में रहती है और उनके परिवर्तनों से प्रभावित होती है और इसके साथ ही उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृति भी प्रभावित होती है। इन परिवर्तनों से मनुष्य की देह में जीन या गुणों का निर्माण और विसर्जन होता है और वह उसका प्रदर्शन वह बाहर व्यवहार से कराते हैं।
पश्चिम के विद्वान इन जीन को लेकर विश्लेषण करते हुए उनके उपचार के लिए अनुसंधान करते हैं। अनेक तरह के आकर्षक तर्क और सुसज्तित प्रयोगशालाओं से निकले निष्कर्ष पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनते हैं और भारतीय अध्यात्म को पूरी तरह नकार चुके हमारे देश के विद्वान अखबार, टीवी चैनलो, रेडियो और किताबों उनका प्रचार कर यहां ख्याति अर्जित करते हैं। हां, लोग सवाल करेंगे कि भारतीय अध्यात्म में भला इसका इलाज क्या है?

हमारा अध्यात्म कहता है लोग तीन तरह के होते हैं सात्विक, राजस और तामस। यहां उनके बारे में विस्तार से चर्चा करना ठीक नहीं लगता पर जैसा आदमी होगा वैसा ही उसका भोजन और कर्म होगा। वैसे ही उसके अंदर गुणों का निर्माण होगा।

श्रीगीता के सातवों अध्याय के (श्लोक आठ) अनुसार आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा जो स्वभाव से ही मन को प्रिय हो ऐसा भोजन सात्विक को प्रिय होते हैं।

नौवें श्लोक के अनुसार कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक, दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।


दसवें श्लोक के अनुसार -अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट तथा अपवित्र है वह भोजन तामस को प्रिय होता है।

पश्चिम के स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार देह की अधिकतर बीमारियां पेट के कारण ही होती हैं। यही विज्ञान यह भी कहता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। हमारा अध्यात्म और दर्शन भी यही कहता है कि गुण ही गुण को बरतते है। इसके बावजूद पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म में मौलिक अंतर है। पश्चिमी विज्ञान शरीर और मन को प्रथक मानकर अलग अलग विश्लेषण करता है। वह मनुष्य की समस्त क्रियाओं यथा उठना, बैठना, चलना और कामक्रीडा आदि को अलग अलग कर उसकी व्याख्या करता है। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म या दर्शन मनुष्य को एक इकाई मानता है और उसके अंदर मौजूद गुणों के प्रभाव का अध्ययन करता है। अगर योग की भाषा के कहें तो सारा खेल ‘मस्तिष्क में स्थित ‘आज्ञा चक्र’ का है। पश्चिमी विज्ञान भी यह तो मानता है कि मानसिक तनाव की वजह से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और वह उनका इलाज भी ढूंढता है पर जिन मानसिक विकारों से वह उत्पन्न होते हैं और मनुष्य की देह में अस्तित्वहीन रहें ऐसा इलाज उसके पास नहीं है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान केवल धर्म प्रवचन के लिऐ नहीं है वह जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित है। यह मनुष्य के देह और मन में स्थित विकारों को दूर करने के लिए केवल शब्दिक संदेश नहीं देता बल्कि योगासन, प्राणायम और ध्यान के द्वारा उनको दूर करने का उपाय भी बताता है। अध्यात्म यानि हमारी देह में प्राणवान जीव आत्मा और उससे जानने की क्रिया है ज्ञान। अन्य विचाराधारायें आदमी को प्रेम, परोपकार और दया करने के का संदेश देती हैं पर वह देह में आये कैसे यह केवल भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान ही बताता हैं। अगर सुबह उठकर योगासन, प्राणायम, और ध्यान किया जाये तो देह में वह जीन या गुण स्वयं ही आते है जिनसे आदमी प्रेम, परोपकार और दया करने लगता है। देह और मन के विकार को निकाले बिना आदमी को सही राह पर चलने का उपदेश ऐसा ही है जैसे पंचर ट्यूब में हवा भरना।
अगर कोई आदमी बीमार होता है तो डाक्टर कहते हैं कि चिकनाई रहित हल्का भोजन करो जबकि भारतीय दर्शन कहता है कि चिकना, रसयुक्त स्थिर भोजन ही सात्विक है। इसका अर्थ यह है कि डाक्टर जिनको यह भोजन मना कर रहा है उनमें विकार ही इस सात्विक भोजन के कारण है। ऐसा भोजन करने के लिये परिश्रम करना जरूरी है पर आजकल धनी लोग इसे करते नहीं है। श्रीगीता कहती है कि अकुशल श्रम से सात्विक लोग परहेज नहीं करते। आजकल के लोग अकुशल श्रम करने में संकोच करते हैं और यही कारण है कि लोगों में आत्म्विश्वास की कमी होती जा रही है और ऐसे जीन या दुर्गुण उसमें स्वतः आ जाते हैं जो उसे झूठे प्रेम,पुत्यकार की भावना से उपकार और कपटपूर्ण दया में लिप्त कर देते हैं। कुल मिलाकर पश्चिमी विज्ञान की खोज जीन चलते हैं जबकि भारतीय दशैन की खोज ‘गुण ही गुण बरतते हैं। वैसे देखा जाये तो देश में जितनी अधिक पुस्तकें पश्चिमी ज्ञान से संबंधित है भारत के पुरातन ज्ञान उसके अनुपात में कम है पर वह वास्तविकता पर आधारित हैं। संत कबीर दास जी के अनुसार अधिक पुस्तकें पढ़ने से आदमी भ्रमित हो जाता है और शायद यही कारण है कि लोग भ्रमित होकर ही अपना जीवन गुजार रहे हैं। इस विषय पर इसी ब्लाग पर मै फिर कभी लिखूंगा क्योंकि यह आलेख लिखते समय दो बार लाईट जा चुकी है और मेरा क्रम बीच में टूटा हुआ था इसलिये हो सकता है कि विषयांतर हुआ हो पर उस दौरान भी मैं इसी विषय पर सोचता रहा था। बहुत सारे विचार है जो आगे लिखूंगा।

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.राजलेख हिन्दी पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

तंबू फिर तनेगा-त्रिपदम


क्यों डरे हो
काफिला लुट गया
फिर बनेगा।

यह तूफान
उड़ा ले गया तंबू
फिर तनेगा।

हार या जीत
का चक्र चलता है
खेल जमेगा।

बिखर गया
साथियों का हुजूम
फिर लगेगा।

खुद को धोखा
देने से बचे रहो
रंग जमेगा।

एक बार में
टूट गया ख्वाब
फिर बढ़ेगा।

चिपको मत
अपनी नाकामी से
मन डरेगा ।

मकसद को
जिंदा रखो जरूर
वह जमेगा।

तुम न रहे
कोई दूसरा वीर
जंग लड़ेगा।

……………………….

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

कबीर के दोहे: विवेकहीन को अच्छे बुरे की पहचान नहीं होती


फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.

वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

शैतान कभी मर नहीं सकता-हास्य व्यंग्य


शैतान कभी इस जहां में मर ही नहीं सकता। वजह! उसके मरने से फरिश्तों की कदर कम हो जायेगी। इसलिये जिसे अपने के फरिश्ता साबित करना होता है वह अपने लिये पहले एक शैतान जुटाता है। अगर कोई कालोनी का फरिश्ता बनना चाहता है तो पहले वह दूसरी कालोनी की जांच करेगा। वहां किसी व्यक्ति का-जिससे लोग डरते हैं- उसका भय अपनी कालोनी में पैदा करेगा। साथ ही बतायेगा कि वह उस पर नियंत्रण रख सकता है। शहर का फरिश्ता बनने वाला दूसरे शहर का और प्रदेश का है तो दूसरे प्रदेश का शैतान अपने लिये चुनता है। यह मजाक नहीं है। आप और हम सब यही करते हैं।

घर में किसी चीज की कमी है और अपने पास उसके लिये लाने का कोई उपाय नहीं है तो परिवार के सदस्यों को समझाने के लिये यह भी एक रास्ता है कि किसी ऐसे शैतान को खड़ा कर दो जिससे वह डर जायें। सबसे बड़ा शैतान हो सकता है वह जो हमारा रोजगार छीन सकता है। परिवार के लोग अधिक कमाने का दबाव डालें तो उनको बताओं कि उधर एक एसा आदमी है जिससे मूंह फेरा तो वह वर्तमान रोजगार भी तबाह कर देगा। नौकरी कर रहे हो तो बास का और निजी व्यवसाय कर रहे हों तो पड़ौसी व्यवसायी का भय पैदा करो। उनको समझाओं कि ‘अगर अधिक कमाने के चक्कर में पड़े तो इधर उधर दौड़ना पड़ा तो इस रोजी से भी जायेंगे। यह काल्पनिक शैतान हमको बचाता है।
नौकरी करने वालों के लिये तो आजकल वैसे भी बहुत तनाव हैं। एक तो लोग अब अपने काम के लिये झगड़ने लगे हैं दूसरी तरफ मीडिया स्टिंग आपरेशन करता है ऐसे में उपरी कमाई सोच समझ कर करनी पड़ती है। फिर सभी जगह उपरी कमाई नहीं होती। ऐसे में परिवार के लोग कहते हैं‘देखो वह भी नौकरी कर रहा है और तुम भी! उसके पास घर में सारा सामान है। तुम हो कि पूरा घर ही फटीचर घूम रहा है।
ऐसे में जबरदस्ती ईमानदारी का जीवन गुजार रहे नौकरपेशा आदमी को अपनी सफाई में यह बताना पड़ता है कि उससे कोई शैतान नाराज चल रहा है जो उसको ईमानदारी वाली जगह पर काम करना पड़ रहा है। जब कोई फरिश्ता आयेगा तब हो सकता है कि कमाई वाली जगह पर उसकी पोस्टिंग हो जायेगी।’
खिलाड़ी हारते हैं तो कभी मैदान को तो कभी मौसम को शैतान बताते हैं। किसी की फिल्म पिटती है तो वह दर्शकों की कम बुद्धि को शैताना मानता है जिसकी वजह से फिल्म उनको समझ में नहीं आयी। टीवी वालों को तो आजकल हर दिन किसी शैतान की जरूरत पड़ती है। पहले बाप को बेटी का कत्ल करने वाला शैतान बताते हैं। महीने भर बाद वह जब निर्दोष बाहर आता है तब उसे फरिश्ता बताते हैं। यानि अगर उसे पहले शैतान नहीं बनाते तो फिर दिखाने के लिये फरिश्ता आता कहां से? जादू, तंत्र और मंत्र वाले तो शैतान का रूप दिखाकर ही अपना धंध चलाते हैं। ‘अरे, अमुक व्यक्ति बीमारी में मर गया उस पर किसी शैतान का साया पड़ा था। किसी ने उस पर जादू कर दिया था।’‘उसका कोई काम नहीं बनता उस पर किसी ने जादू कर दिया है!’यही हाल सभी का है। अगर आपको कहीं अपने समूह में इमेज बनानी है तो किसी दूसरे समूह का भय पैदा कर दो और ऐसी हालत पैदा कर दो कि आपकी अनुपस्थिति बहुत खले और लोग भयभीत हो कि दूसरा समूह पूरा का पूरा या उसके लोग उन पर हमला न कर दें।’
अगर कहीं पेड़ लगाने के लिये चार लोग एकत्रित करना चाहो तो नहीं आयेंगे पर उनको सूचना दो कि अमुक संकट है और अगर नहीं मिले भविष्य में विकट हो जायेगता तो चार क्या चालीस चले आयेंगे। अपनी नाकामी और नकारापन छिपाने के लिये शैतान एक चादर का काम करता है। आप भले ही किसी व्यक्ति को प्यार करते हैं। उसके साथ उठते बैैठते हैं। पेैसे का लेनदेन करते हैं पर अगर वह आपके परिवार में आता जाता नहीं है मगर समय आने पर आप उसे अपने परिवार में शैतान बना सकते हैं कि उसने मेरा काम बिगाड़ दिया। इतिहास उठाकर देख लीजिये जितने भी पूज्यनीय लोग हुए हैं सबके सामने कोई शैतान था। अगर वह शैतान नहीं होता तो क्या वह पूज्यनीय बनते। वैसे इतिहास में सब सच है इस पर यकीन नहीं होता क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब सब कुछ पास ही दिखता है तब भी लिखने वाले कुछ का कुछ लिख जाते हैं और उनकी समझ पर तरस आता है तब लगता है कि पहले भी लिखने वाले तो ऐसे ही रहे होंगे।
एक कवि लगातार फ्लाप हो रहा था। जब वह कविता करता तो कोई ताली नहीं बजाता। कई बार तो उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया तक नहीं जाता। तब उसने चार चेले तैयार किये और एक कवि सम्मेलन में अपने काव्य पाठ के दौरान उसने अपने ऊपर ही सड़े अंडे और टमाटर फिंकवा दिये। बाद में उसने यह खबर अखबार में छपवाई जिसमें उसके द्वारा शरीर में खून का आखिरी कतरा होने तक कविता लिखने की शपथ भी शामिल थी । हो गया वह हिट। उसके वही चेले चपाटे भी उससे पुरस्कृत होते रहे।
जिन लड़कों को जुआ आदि खेलने की आदत होती है वह इस मामले में बहुत उस्ताद होते हैं। पैसे घर से चोरी कर सट्टा और जुआ में बरबाद करते हैं पर जब उसका अवसर नहीं मिलता या घर वाले चैकस हो जाते हैं तब वह घर पर आकर वह बताते हैं कि अमुक आदमी से कर्ज लिया है अगर नहीं चुकाया तो वह मार डालेंगे। उससे भी काम न बने तो चार मित्र ही कर्जदार बनाकर घर बुलवा लेंगे जो जान से मारने की धमकी दे जायेंगे। ऐसे में मां तो एक लाचार औरत होती है जो अपने लाल को पैसे निकाल कर देती है। जुआरी लोग तो एक तरह से हमेशा ही भले बने रहते हैं। उनका व्यवहार भी इतना अच्छा होता है कि लोग कहते हैं‘आदमी ठीक है एक तरह से फरिश्ता है, बस जुआ की आदत है।’
जुआरी हमेशा अपने लिये पैसे जुटाने के लिये शैतान का इंतजाम किये रहते हैं पर दिखाई देते हैं। उनका शैतान भी दिखाई देता है पर वह होता नहीं उनके अपने ही फरिश्ते मित्र होते हैं। आशय यह है कि शैतान अस्तित्व में होता नहीं है पर दिखाना पड़ता है। अगर आपको परिवार, समाज या अपने समूह में शासन करना है तो हमेशा कोई शैतान उसके सामने खड़ा करो। यह समस्या के रूप में भी हो सकता है और व्यक्ति के रूप में भी। समस्या न हो तो खड़ी करो और उसे ही शैतान जैसा ताकतवर बना दो। शैतान तो बिना देह का जीव है कहीं भी प्रकट कर लो। किसी भी भेष में शैतान हो वह आपके काम का है पर याद रखो कोई और खड़ा करे तो उसकी बातों में न आओ। यकीन करो इस दुनियां में शैतान है ही नहीं बल्कि वह आदमी के अंदर ही है जिसे शातिर लोग समय के हिसाब से बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।
एक आदमी ने अपने सोफे के किनारे ही चाय का कप पीकर रखा और वह उसके हाथ से गिर गया। वह उठ कर दूसरी जगह बैठ गया पत्नी आयी तो उसने पूछा-‘यह कप कैसे टूटा?’उसी समय उस आदमी को एक चूहा दिखाई दिया। उसने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा-‘उसने तोड़ा!’पत्नी ने कहा-‘आजकल चूहे भी बहुत परेशान करने लगे हैं। देखो कितना ताकतवर है उसकी टक्कर उसे कम गिर गया। चूहा है कि उसके रूप में शेतान?
वह चूहा बहुत मोटा था इसलिये उसकी पत्नी को लगा कि हो सकता है कि उसने गिराया हो और आदमी अपने मन में सर्वशक्तिमान का शुक्रिया अदा कर रहा कि उसने समय पर एक शैतान-भले ही चूहे के रूप में-भेज दिया।’याद रखो कोई दूसरा व्यक्ति भी आपको शैतान बना सकता है। इसलिये सतर्क रहो। किसी प्रकार के वाद-विवाद में मत पड़ो। कम से कम ऐसी हरकत मत करो जिससे दूसरा आपको शैतान साबित करे। वैसे जीवन में दृढ़निश्चयी और स्पष्टवादी लोगों को कोई शैतान नहीं गढ़ना चाहिए, पर कोई अवसर दे तो उसे छोड़ना भी नहीं चाहिए। जैसे कोई आपको अनावश्यक रूप से अपमानित करे या काम बिगाड़े और आपको व्यापक जनसमर्थन मिल रहा हो तो उस आदमी के विरुद्ध अभियान छेड़ दो ताकि लोगों की दृष्टि में आपकी फरिश्ते की छबि बन जाये। सर्वतशक्तिमान की कृपा से फरिश्ते तो यहां कई मनुष्य बन ही जाते हैं पर शैतान इंसान का ही ईजाद किया हुआ है इसलिये वह बहुत चमकदार या भयावह हो सकता है पर ताकतवर नहीं। जो लोग नकारा, मतलबी और धोखेबाज हैं वही शैतान को खड़ा करते हैं क्योंकि अच्छे काम कर लोगों के दिल जीतने की उनकी औकात नहीं होती।
———————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

रहीम के दोहे:बन्दर कभी हाथी नहीं हो सकता


बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि

कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।

समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।

दर्द कितना था और कितने जाम पिये -हिंदी शायरी



यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये

कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये

शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये

जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

आँखें उनको देखने को तरस जाती हैं-हिंदी शायरी


मेरी नाव डुबोने वाले बहुत हैं
पर उनकी याद कभी नहीं आती
मझधार में भंवर के बीच आकर जो
किनारे तक पहुंचा जाते
फिर नजर नहीं आते
ऐसे मित्रों की याद मुझे सताती

घाव करने के लिए इस जहां में बहुत हैं
जो बदन से रिसता लहू देखकर
जोर से मुस्कराते हैं
जिन्होंने घावों को सहलाया
जब तक दूर नहीं हुआ दर्द
अपना साथ निभाया
फिर ऐसे गायब हुए कि दिखाई न दिए
आँखें उनको देखने को तरस जाती हैं

इस जिन्दगी के खेल बहुत हैं
नाखुश लोगों से दूर नहीं जाने देती
जो तसल्ली देते हैं
उनको आँखों से दूर ले जाती है
शायद इसलिए दुनिया रंगरंगीली कहलाती हैं
——————————-

यह कविता इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन

3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चाणक्य नीति:बिना पूछे दान देना अधर्म का कार्य



१.पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
२.बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधर्म कार्य माना जाता है।
३.शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
४.उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ के सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है। 1