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कान्हाओं के बीच जंग होनी ही थी-हिन्दी कवितायें


कन्याओं की कमी थी

चार दीवानों के बीच

घर बसाने की

जंग होनी ही थी।

कान्हाओं में फैली बेरोजगारी

दो दीवानियों  के बीच

सुयोग्य वर पाने की

जंग होनी ही थी।

कहें दीपक बापू दिशा भ्रम है

मन बसा था पूर्व में

कदम बढ़ा दिये पश्चिम की तरफ

तनाव में सांस लेते दिलों के बीच

अपना अपना डर भगाने की

जंग होनी ही थी।

————-

शहर की गंदगी ढोने वाले

नालों पर तरक्की की

इमारतें खड़ी हैं।

वर्षा ऋतु में उत्साहित जल

ढूंढता सड़क पर

अपनी सहचरिणी रेत

 जो पत्थरों में जड़ी है।

 कहें दीपक बापू हवा और जल

हमेशा चहलकदमी नहीं करते

अपने पथों का कर भी नहीं भरते

विकास के बांध खेलने के लिये

उनके सामने

बन जाते खिलौना

इंसान के कायदों से

प्रकृत्ति की हस्ती बड़ी है।

————–

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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योग साधना का अभ्यास मौन होकर करना ही उचित-हिन्दी चिंत्तन लेख


              योग साधना काो हमारे अध्यात्मिक शायद इसलिये ही एकांत का विषय मानते हैं क्योंकि न करने वालों का इसके बारे में ज्ञान होता नहीं है इसलिये ही साधक की भाव भंगिमाओं पर हास्यास्पद टिप्पणियां करने लगते हैं।  ताजा उदाहरण रेलमंत्री सुरेश प्रभु का विश्व 21 जून 2015 के अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर शवासन करने पर उठे विवाद से है। वह  शवासन के दौरान इतना  तल्लीन हो गये कि उन्हें जगाने के लिये एक व्यक्ति को आगे आना पड़ा।  नियमित योग साधकों के लिये इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं है। कभी कभी शवासन में योग निद्रा आ जाती है।  इसे समाधि का संक्षिप्त रूप भी कहा जा सकता है।  इस प्रचार माध्यम जिस तरह सुरेश प्रभु के शवासन के समाचार दे रहे हैं उससे उनके यहां काम कर रहे वेतनभोगियों के ज्ञान पर संदेह होता है।

                              हमारा अनुभव तो यह कहता है कि नियमित योग साधक प्रातःकाल जल्दी उठने के बाद अपने नित्य कर्म तथा साधना से निवृत्त होने के बाद अल्पाहार करते हैं तब चाहें तो शवासन कर सकते हैं। इस दौरान वह योगनिद्रा अथवा संक्षिप्त समाधि का आनंद भी ले सकते हैं। इस दौरान निद्रा आती है पर उस समय देह वायु में उड़ती अनुभव भी होती है।  इस लेखक ने अनेक बार शवासन में निद्रा और समाधि दोनों का आनंद लिया है। शवासन की निद्रा को सामान्य निद्रा मानना गलत है क्योंकि उसमें सिर पर तकिया नहीं होता। गैर योग साधकों के लिये तकिया लेकर भी इस तरह निद्रा लेना सहज नहीं है।  विशारदों की दृष्टि से  शवासन में निद्रा आना अच्छी बात समझी जाती है।

                              हमें यह तो नहीं मालुम कि सुरेश प्रभु शवासन के दौरान आंतरिक रूप से किस स्थिति में थे पर इतना तय है कि इसमें मजाक बनाने जैसा कुछ भी नहीं है।  वैसे भी योग साधकों को सामान्य मनुष्यों की ऐसी टिप्पणियों से दो चार होना पड़ता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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आओ अफवाह फैलायें-लघु हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


               हमारे देश में अफवाहें संभवतः ऐसे लोग यह सोचकर प्रायोजित करते हैं कि अभी तक समाज के सामान्य लोगों की सोच अभी भी मृतप्रायः है या फिर उनमें चेतना आ गयी है।  जब वह जान लेते हैं कि अभी लोग गुलामी की मानसिकता में है तो वह शराब, जुआ तथा अन्य गंदे व्यवसायों में नये प्रयोग करते हैं ताकि अधिक से अधिक कमा सकें। अभी एक अफवाह फैली हुई है कि कोई जिन्न पत्थर की उपयोग में आने वाली वस्तुओं को खराब कर रहा है जिससे उसमें विष फैल जाता है।  अनेक लोग तमाम कहानियां सुना रहे हैं।  हैरानी इस बात की है कि पढ़े लिखे लोग भी चर्चायें कर एक तरह से इस अफवाह को प्रचारित ही कर रहे हैं। किसी ने बताया कि वर्षा के दिनों एक कीड़ा पैदा होता है जो कैल्शियम का भोजन करता है। हमारे देश के शहरों में अब पत्थरों के मकान नहीं होते अलबत्ते चक्की या सिल्वटा होता हैं इसलिये वह उन्हें चाटता है जिससे निशान बन जाते हैं।

            एक ने सवाल किया कि ‘कितनी अजीब बात है कि कुछ लोग इंतजार करते हैं कि कोई दूध देने उनके घर पर आये पर शराब खरीदने स्वयं बाज़ार में दुकान पर लाईन में लगते हैं।’’

                    दूसरा कुछ देर सोचने लगा और फिर बोला-‘‘ अभी कोई अफवाह फैली है कि कोई जिन्न पत्थर की चक्की में मुंह मारता है।  कोई आदमी उसकी आवाज सुनकर कुछ कहता है तो वह स्वयं पत्थर का बन जाता है। ऐसी बेतुकी अफवाओं की जगह कोई ऐसी क्यों नही फैलाता कि कहीं कहीं शराब की बोतल से जिन्न निकलकर आदमी को खा जाता है। तब तो मजा आ जाये।’’

                 वहां तीसरा भी खड़ा था वह बोला-‘‘शराब से जिन्न निकलने की  अफवाह फैलाने वालों को प्रायोजित कौन करेगा? यहां मुफ्त में कोई अफवाह नहीं फैलाता। दूध गरीब बेचता है इसलिये घर आता है पर शराब बेचने वाले दमदार होते हैं इसलिये लोग उनकी दुकान पर जाते हैं। रही बोतल से जिन्न की अफवाह फैलाने की बात तो यकीन मानो उसे शराबी ही ठिकाने लगा देंगे या वह ऐसी हालत में आ जायेगा कि शराब पीकर ही अपना गम मिटायेगा।

                              बहरहाल हमारा मानना है कि इस तरह की अफवाहों पर चर्चा करना ही अफवाह को आगे बढ़ाने में सहायक होती है इसलिये उससे बचना चाहिये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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नौकरी ज्यादा आनंददायक नहीं रहती-हिन्दी चिंत्तन लेख


 

                              हमारे यहां देशी पद्धति से चलने वाले गुरुकुलों की जगह अब अंग्रेजी शिक्षा से चलने वाले विद्यालय तथा महाविद्यालय  अस्तित्व में आ गये है। अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा में केवल गुलाम ही पैदा होते हैं। आज हम देख रहे हैं कि जिस युवा को  देखो वही नौकरी की तरफ भाग रहा है। पहले तो सरकारी नौकरियों में शिक्षितों का रोजगार लग जाता था पर उदारीकरण के चलते निजी क्षेत्र का प्रभाव बढ़ने से वहां रोजी रोटी की तलाश हो रही है।  हमारी शिक्षा पद्धति स्वतंत्र रूप से कार्य करने की प्रेरणा नहीं देती और उसका प्रमाण यह है कि जिन लोगों ने इस माध्यम से शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम की वह तो व्यवसाय, सेवा तथा कला के क्षेत्र में उच्च स्थान पर पहुंच कर उच्च शिक्षित लोगों को अपना मातहत बनाते हैं।  निजी क्षेत्र की सेवा में तनाव अधिक रहता है यह करने वाले जानते हैं।  फिर आज के दौर में अपनी सेवा से त्वरित परिणाम देकर अपने स्वामी का हृदय जीतना आवश्यक है इसलिये तनाव अधिक बढ़ता है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

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मौनान्मुकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा धृष्टःपार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाऽप्रगल्भः।।

क्षान्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमराहनो योगिनामध्प्यसभ्यः।

                              हिंदी में भावार्थ-सेवक यदि मौन रहे तो गूंगा, चतुर और वाकपटु हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ, दूर रहे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु और  असहनशील हो तो अकुलीन कहा जाता है। सेवा कर्म इतना कठिन है कि योग भी इसे समझ नहीं पाते।

       आजकल कोई भी स्वतंत्र लघु व्यवसाय या उद्यम करना ही नहीं चाहता। अंग्रेजी पद्धति से शिक्षित युवा  नौकरी या गुलामी के लिये भटकते हैं। मिल जाती है तब भी उन्हें चैन नहीं मिलता।  निरंतर उत्कृष्ट परिणाम के प्रयासरत रहने के कारण उन्हें अपने जीवन के अन्य विषयों पर विचार का अवसर नहीं मिल पाता जिससे शनैः शनैः उनकी बौद्धिक शक्ति संकीर्ण क्षेत्र में कार्यरत होने की आदी हो जाती है।  न करें तो करें क्या? बहरहाल सेवा या नौकरी का कार्य किसी भी तरह से आनंददायी नहीं होता।  यहां तक कि योगी भी इसे नहीं समझ पाते इसलिये ही वह सांसरिक विषयों में एक सीमा तक ही सक्रिय रहते हैं।

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