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मुट्ठी में आता तो किलो कई सुख भर लेते-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


पैसे की भूख में इंसान

दिल के जज़्बातों से नीयत चुराकर

नालायकी से हाथ मिला देता है।

दूसरे की भूख मिटाने के लिये

जिस हाथ से बनाता खाना

उसी से कंकड़ मिला देता है।

अपनी जिम्मेदारी के लिये

थामे है जिस हाथ में कलम

वही रिश्वत से मिला देता है।

कहें दीपक बापू अपने हाथ में

आदर्श का झंडा उठाये है हर इंसान

मौका पड़ते ही बेईमानी से मिला देता है।

————-

मुट्ठी में अगर आता सुख तो हम कई किलो भर लेते,

खरीदे गये सामान से मिलता मजा तो ढेर घर में भर लेते।

कहें दीपक बापू सोए तो आलस चले तो थकान ने घेरा

रोज पैदा होती नयी चाहत पर कामयाबी से मन भरता नहीं

वरना हम उम्मीदों का भारी बोझ अपने कंधे पर धर लेते।

————

टकटकी लगाये हम उनकी नज़रों में आने का इंतजार करते हैं,

वह उदासीन हैं फिर भी हम उस यार पर मरते हैं।

कहें दीपक बापू कोई हमदर्द बने यह चाहत नहीं हमारी

दिल से घुटते लोग सीना तानते पर तन्हाई से डरते है।ं

———–

रिश्ते बनते जरूर कुदरत से मगर निभाये मतलब से जाते हैं,

कहीं काम से दाम मिलते कहंी दाम से काम बनाये जाते हैं।

नीयत के खेल में खोटे लोग भी खरे सिक्के जैसे सजते

वफा की चाहत में बदहवास लोग शिकार बनाये जाते हैं।

कहें दीपक बापू दिल के सौदागर जिस्मफरोशी नहीं करते

मोहब्बत के जाल में कमजोर दिमाग लोग फंसाये जाते हैं।

————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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भारत को इंडिया से जूझता पाया-हिन्दी व्यंग्य कविता


15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का
महत्व हम नहीं समझे
या कोई हमें समझा नहीं पाया।

जिस अंग्रेजी भाषा से लड़ी हिन्दी
राष्ट्रभाषा के सम्मान के लिये
हमने उसे आज तक लड़ते पाया।

स्वदेशी का नारा लगा था
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
खोई नहीं उसकी यादें
यदाकदा उसे अब भी सुनते पाया।

अंग्रेजों के गुलामी और मालिक के खेल
क्रिकेट को मनोरंजन का धर्म बना लिया
पागलों की तरह लोगों को
गेंद की तरह उसके पीछे भागते पाया।

आज अंग्रेजों की धरती पर गये लोग
इतराते हैं उनकी तरह
भारत को इंडिया से जूझते पाया।

कहते हैं कि जो अंग्रेजी नहीं पढ़ेगा
वह तरक्की की राह नहीं चलेगा
समझ में नहीं आता
अंग्रेजों को किसने कब कैसे क्यों और कहां
इस देश से भगाया।

कहें दीपक सभी के साथ
हम भी भारत माता की जय का
नारा लगा लेते हैं
हम ढूंढते उसका अपना घर
जिसका पता किसी ने नहीं बताया।
————–

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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सहज और असहज योग से जुड़ाव सभी का है-श्रीमद्भागवत गीता के आधार पर चिंत्तन लेख


      श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा बहुत होती है पर इसके ज्ञान की समझ और फिर उसकी बताई राह पर चलने वाले कितने हैं इस पर कोई विचार नहीं करता। अभी हमने टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में श्रीमद्भागवत गीता पर बहुत चर्चा देखी और सुनी।  एक माननीय न्यायाधीश ने श्रीमद्भागवत गीता के विषय को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव दिया।  उस पर देश में कोहराम मच गया है।  इस बहस में कुछ सवाल ऐसे उठे जिन पर हंसी आई तो कुछ जवाब ऐसे आये जिन पर आश्चर्य हुआ। जैसा कि हम जानते हैं कि टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में केवल प्रायोजित तथा धनिकों से सम्मानित बुद्धिजीवियों की बात को ही महत्व मिलता है।  अंतर्जाल पर हम जैसे असंगठित, मौलिक तथा फोकटिया लेखकों का अपने पैसे खर्च कर भड़ास निकालने का अवसर मिलता है यही कम नहीं है मगर पंरपरागत प्रचार माध्यमों में आये विद्वान नाम के साथ नामा पाने के लिये कृत्रिम भड़ास से सजे हुए आते हैं। इस तरह की बहसों में एक बात मुख्य रूप से मानी गयी कि यह केवल हिन्दूओं का ही  ग्रंथ है।

      हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता का महत्व इतना है कि वह इसके शब्दों के शाब्दिक, लाक्षणिक तथा व्यंजनात्मक तीनों विधाओं के अर्थ को न केवल सहजता से समझते हैं वरन् उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करते हैं।  कम से कम यह लेखक तो यह अनुभव करता है कि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को लेकर लोग इतने गंभीर नहीं लगते जितनी इसकी पवित्रता को स्वीकार करने के पाखंड में व्यस्त हैं।

      जिन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात किया है या प्रयास कर रहे हैं वह जानते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता जीवन जीने की वैसी ही कला है जैसी कि योग साधना को माना जाता है।  पतंजलि योग सूत्र के रूप में हमारे पास देह, मन और विचारों के विकार निकालने की विद्या है।  अगर कोई सांसरिक विषयों से संपर्क न रखकर पूर्ण सन्यासी जीवन बिताये तो पतंजलि योग उसके लिये महान विज्ञान है। श्रीमद्भागवत गीता में यह बताया जाता है कि सांसरिक विषयों के साथ जुड़कर भी सहज भाव से जीवन जी सकते हैं। कहा जाता है कि  श्रीमद्भागवत गीता में वेदों का पूर्ण सार है। ठीक उसी तरह पतंजलि योग के भी सूत्रों का सार उसमें हैं।  श्रीमद्भागवत गीता कुछ सिखाती नहीं है वरन्  सांसरिक विषयों का सच बताती है।  यह विश्व का अकेला ऐसा  ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान भी है।  इस लेखक की मान्यता यह है कि इस संसार में योग जाने अनजाने हर व्यक्ति कर रहा है।  कुछ लोग अज्ञान के अभाव में सांसरिक विषयों का सत्य मानकर उनसे जुड़ते हैं। यह जुड़ना योग ही है पर उससे इंसान असहज होता है।  जहां विषय आकर्षित कर मनुष्य को अपने साथ संयोग कराते हैं वह वह विवश होता है पर योग का ज्ञान रखने वाले अपनी आवश्यकता के अनुसार चलते हैं।  वह विषयों से जुड़ते हैं फिर अपन मन वहां से हटा लेते हैं।  इसके विपरीत अज्ञानी मनुष्य विषयों का बोझ उठाये सारी जिंदगी रोते हुए गुजारते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता पर चलने वाले सहज योग के पथ पर चलते हैं और जो नहीं समझते वह असहज पथ पर चल ही रहे हैं।

      श्रीमद्भागवत गीता की विषय सामग्री को पढ़ने और पढ़ाने से अधिक समझने की आवश्यकता है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस संसार में असहज पथ पर चलने वाले लोगों को ज्ञान देना कठिन है और जो सहज हैं उन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। दूसरे को तो तब सुधारें जब स्वयं सिद्धि प्राप्त कर लें मगर श्रीमद्भागवत गीता के रम जाने पर होता यह है कि जितनी बार उसे पढ़ो लगता है कि नित्य कोई नयी बात निकल रही है।  एक बात तय रही जिसने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात कर लिया वह कभी प्रचार नहीं करेगा।  इसका पहले हमें अनुमान नहीं था पर जैसे जैसे प्रचार माध्यमों में चर्चा देखते हैं तो इस देश में श्रीमद्भागवत के महत्व का जिस तरह बखान होता है तब यह लेखक उन लोगों को देखना चाहता है जिन्हें सिद्धहस्त कहा जा सके। अभी तक यह लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सका। छोटे शहर का  होने का कारण इस देश में कला, धर्म, साहित्य, पत्रकारित तथा अन्य विषयों का मार्ग दर्शन करने वाले बड़े शहरों जैसे विद्वानों का दर्जा इस लेखक को मिलना संभव नहीं है यह बात निराशा पैदा करने वाली लगती है पर श्रीमद्भागवत गीता का ऐसा प्रभाव है कि यही बात आत्मविश्वास पैदा भी करती है कि किसी प्रकार भौतिक उपलब्धि न होने की संभावना अध्यात्मिक साधना की सच्ची प्रेरणा बनती है।  इस विषय पर लेखक ने पहले भी अपने ब्लॉग पर लिखा है।  आगे भी लिखेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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नीयत के खेल में खोटे भी खरे लगते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं


मुट्ठी में अगर आता सुख तो हम कई किलो भर लेते,

खरीदे गये सामान से मिलता मजा तो ढेर घर में भर लेते।

कहें दीपक बापू सोए तो आलस चले तो थकान ने घेरा

रोज पैदा होती नयी चाहत पर कामयाबी से मन भरता नहीं

वरना हम उम्मीदों का भारी बोझ अपने कंधे पर धर लेते।

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टकटकी लगाये हम उनकी नज़रों में आने का इंतजार करते हैं,

वह उदासीन हैं फिर भी हम उस यार पर मरते हैं।

कहें दीपक बापू कोई हमदर्द बने यह चाहत नहीं हमारी

दिल से घुटते लोग सीना तानते पर तन्हाई से डरते है।ं

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रिश्ते बनते जरूर कुदरत से मगर निभाये मतलब से जाते हैं,

कहीं काम से दाम मिलते कहंी दाम से काम बनाये जाते हैं।

नीयत के खेल में खोटे लोग भी खरे सिक्के जैसे सजते

वफा की चाहत में बदहवास लोग शिकार बनाये जाते हैं।

कहें दीपक बापू दिल के सौदागर जिस्मफरोशी नहीं करते

मोहब्बत के जाल में कमजोर दिमाग लोग फंसाये जाते हैं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

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सड़क पर फ़रिश्ते और शैतान-हिंदी व्यंग्य कविता


अपने कदम इस तरह बढ़ाओ

हादसे के खतरे कम रहें,

अपने होश काबू में रखो

हालातों से बेहोश होना अच्छा नहीं

जब जंग सामने हो

हाथ और पांव से बोलें

मुंह से कुछ न कहें।

कहें दीपक बापू

सड़क पर फरिश्ते भी चलते हैं,

शैतान भी खडे हैं जिनके दिल जलते हैं,

पता नहीं किसकी नीयत काली है किसकी सफेद

कौन प्यार करेगा कौन हमला

यह कहना मुश्किल है

दिल-ओ-दिमाग पर रखें काबू

जुल्म से जूझने को हमेशा तैयार रहें।

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ज़िंदगी और दम-हिन्दी कविता


ज़िंदगी के रास्ते पर चलना
इतना आसान नहीं
जितना लोग समझ लेते हैं,
यही वजह है कमजोर दिल वाले
थोड़ी मुश्किल में ही
अपनी दम खुद ही तोड़ देते हैं।
कहें दीपक बापू
आहिस्ता आहिस्ता कदम बढ़ाओ
कछुए के तरह
खरगोश की तरह उछलते
रहना अच्छा लगता है
मगर जिन कदमों से
चलना है दूर तक
उनको ही गम देते हैं। 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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इन्टरनेट का ताला और पाठ चोर (हास्य व्यंग्य)


कभी कभी यह मन होता है कि किसी ब्लाग लेखक के लिखे पाठ के विषय पर कुछ हम भी लिखें। इसका कारण यह है कि किसी भी विषय के अनेक दृष्टिकोण होते हैं और किसी अन्य लेखक के विषय ने अपने दृष्टिकोण से लिखा होता है तो हमारे मन में यह आता है कि अन्य दृष्टिकोण से उस पर लिखें और इसके लिये अगर उस लेखक की कुछ पंक्तियां अपने पाठ में उद्धृत करें तो अच्छा रहेगा। अंतर्जाल पर लिखते हुए इस मामलें में एक आसानी होती है कि उस लेखक की पंक्तियां कापी कर उसे अपने पाठ पर लिखें ताकि पाठकों को यह पता लगे कि अन्य लेखक ने भी उस पर कुछ लिखा है। इससे दोनों लेखकों का दृष्टिकोण पाठकों के समक्ष आता है।

मगर अब समस्या यह आने लगी है कि दूसरों की देखा देखी हमने भी अपने ब्लाग पर ताला लगा दिया है। इसलिये किसी की शिकायत तो कर ही नहीं सकते क्योंकि अंतर्जाल पर अपने पाठों की चोरी की समस्या से अनेक लेखक परेशान हैं। हमारे लिये कभी अधिक परेशानी नहीं रही क्योंकि हमारा लिखा चुराने लायक हैं यह नहीं लगता पर दूसरों की देखा देखी ताला लगा दिया तो लगा दिया। हम किसी के पाठ की चोरी नहीं करते पर जिसका विषय पसंद आये उस पर लिखते हैं और उस लेखक का उल्लेख करने में हमें कोई झिझक नहीं होती-सोचते हैं हो सकता है कि उसके नाम से हम भी कहीं हिट हो जायें। अब जाकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर ताला भी इसलिये नहीं लगाया कि हमें अपने पाठ के चोरी होने का खतरा है बल्कि पाठकों और मित्रों को लगे कि ऐसा लिखता होगा कि उसे चोरी का खतरा अनुभव होता है।

बात करें ब्लाग/पत्रिका पर ताले के चोरी होने की। यह एक ऐसा साफ्टवेयर है जिसको अपने ब्लाग पर लिंक करने पर उसके पाठ की कोई कापी नहीं कर सकता। हालांकि इसका कोई तोड़ नहीं होगा यह कहना कठिन है क्योंकि अंतर्जाल पर अनेक तकनीकी खिलाड़ी ऐसे हैं जो तालों को तोड़ने वाले हथोड़े या तालियां बनाकर उसे तोड़ भी सकते हैं। वैसे भी मनुष्य में रचनात्मक विचार से अधिक विध्वंस की भावना अधिक होती है। इस ताले की वजह से हमें तीन चार बार स्वयं ही परेशानी झेलनी पड़ी। उस दिन एक मित्र ब्लाग लेखक का पाठ हमें बहुत अच्छा लगा। सोचा चलो कि उसके अंश लेकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर चाप देते हैं और साथ में अपनी बात भी जोड़ लेंगे। जब उसकी कापी करने लगे तो वहां कर्सर काम नहीं कर रहा था। बहुत माथापच्ची की। फिर उनके ब्लाग का मुआयना किया तो देखा कि वहां एक साफ्टवेयर का लिंक है जो इसके लिये इजाजत नहीं देगा हालांकि उसके साथ ताले का लिंक भी था पर हमें वह दिखाई नहीं दिया। मन मारकर हमें अपना इरादा बदलना पड़ा। तब हमने उसी साफ्टवेयर का लिंक अपने ब्लाग पर लगाया। मगर देखा कि अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में हमारे पाठ की कापी कर टिप्पणियां कर रहे हैं। तब हैरानी हुई। हमने सोचा चलने दो। दो तीन दिन पहले एक ब्लाग के ताले पर नजर पड़ी। तब वहां से हमने ताले का साफ्टवेयर लिया और अपने ब्लाग@पत्रिकाओं पर लगा दिया। इस तरह अपना ब्लाग सुरक्षित कर लिया।

किसी ने विरोध नहीं किया पर आज एक ब्लाग से जब पाठ का अंश लेने का विचार आया तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ है। सच बात तो यह है कि यह ताला इसलिये लगाया जाता है कि कोई मेहनत से लिखे गये पाठों से कापी नहीं कर सके मगर मुश्किल इसमें यह आने वाली है कि इससे आपस में एक दूसरे से जुड़े ब्लाग लेखक उन ब्लाग के पाठों की कापी नहीं कर पायेंगे जिन पर ताले लगे हुए हैं और वह उन पर लिखना चाहते हैं। हालांकि इसका एक तरीका यह भी है कि अपने मित्र ब्लाग लेखक को ईमेल कर उस पाठ की कापी मांगी जा सकती है और वह दे भी देंगे पर लिखने का एक मूड और समय होता है। ईमेल भेजने और उत्तर आने के बीच मूड और समय के बदलने की पूरी गुंजायश होती है।

वैसे भी ताले केवल सामान्य इंसान का मार्ग अवरुद्ध करता है। चोर उठाईगीरे और डकैतों के लिये निर्जीव ताले कोई अवरोध नहीं खड़े कर पाते। अंतर्जाल पर जिस तरह की घटनायें सुनने को मिलती हैं उससे तो नहीं लगता कि ताला उनके लिये कोई अवरोध खड़ कर पायेगा। जिस तरह समाज की स्थिति है उससे अंतर्जाल अलग तो हो नहीं सकता। जिस तरह समाज में विध्वसंक और विलासी लोगों के बाहुल्य है वैसी ही हालत इंटरनेट पर भी है। रचनात्मक लोगां की कमी यहां भी है अगर ऐसा नहीं होता तो हिंदी में लिखने वालों की संख्या देश की हिंदी आबादी के हिसाब से इतनी कम नहीं होती। इतने सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं और सर्च इंजिनों पर हिंदी भाषियों की खोज का दृष्टिकोण देखें तो वह फिल्मी अभिनेत्रियों पर केंद्रित है।
भले ही किसी ब्लाग लेखक का पाठ उपयोग न हो पर ताला तोड़कर अपनी तकनीकी शक्ति का प्रदर्शन करने वाले भी यहां आत्मसंतुष्टि के लिये कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ तकनीकी जानकार पढ़ने लिखने की बजाय ब्लाग पर लगा ताला देखकर ही उसका तोड़ निकालने में ही अपना समय नष्ट करें क्योंकि कुछ लोगों को विध्वंस करने में मजा आता है। हम अपने आसपास कई ऐसे लोग देख सकते हैं जो किसी बेहतर चीज को देखकर उससे प्रसन्न होने की बजाय उसके नष्ट होने के उपायों पर विचार करने लगते हैं।
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मस्त राम……………की हिप हुर्र हुर्र


अपने कुछ ब्लाग/पत्रिका का नामकरण हमने मस्तराम के नाम पर आज कर ही दिया। आज होली का पर्व है और एक लेखक के नाते ऐसा समय हमारे लिये अकेले चिंतन करने का होता है। पिछले दो वर्षों से हम अंतर्जाल पर जूझ रहें पर अभी तक फ्लाप बने हुए हैं। हिंदी के सभी ब्लाग जबरदस्त हिट पाते जा रहे हैं और हम है कि ताकते रह जाते हैं।

यह बात यह ठीक है जो हिट हैं वह हमसे अच्छा और प्रासंगिक लिखते हैं पर और एक लेखक मन इस बात को कहां मानता है कि हम खराब लिखते हैं। इधर हमसे पुराने ब्लाग नित नयी बातें सामने रखकर विचलित कर देते हैं तो फिर दिमाग में आता है कि कोई ऐसी रणनीति बनाओ कि खुद भी हिट हो जायें। बहुत दिन से संकोच हो रहा था पर आज सारा संकोच त्याग कर अपने उन ब्लाग/पत्रिकाओं में अपने नाम के आगे मस्तराम शब्द जोड़ ही दिया जिन पर पहले लिखकर हटा लिया था।

दरअसल हुआ यूं कि पुराने ब्लाग लेखकों ने अपने पाठों में बताया कि इंटरनेट पर हिंदी विषयों के शब्द गूगल के सर्च इंजिनों में बहुत कम ढूंढे जाते जाते हैं-आशय यह है कि चाहे रोमन लिपि में हो या देवनागरी लिपि में लोग इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने के बहुत कम इच्छुक हैं। वैसे हमने स्वयं सर्च इंजिनों के ट्रैंड में जाकर यह बात पहले भी देखी थी और उसी आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे पर सफलता नहीं मिली। कल फिर गूगल के सर्च इंजिन ट्रैंड को देखा तो यथावत स्थिति दिखाई दी। वैसे हमने यह तो पहले ही देख लिया था कि मस्त राम शब्द की वजह से पाठक अधिक ही मिलते हैं। अपने एक ब्लाग पर हमने अपने नाम के आगे मस्त राम लिखकर छोड़ दिया तो देखा कि एक महीने तक नहीं लिखने पर भी वहां पाठक अच्छी संख्या में आते हैं और वह अपने अधिक पाठकों की संख्या के कीर्तिमान को स्वयं ही ध्वस्त करता जाता है जबकि सामान्य ब्लाग तरसते लगते हैं। हमारा यह ब्लाग बिना किसी फोरम की सहायता के ही 6500 से अधिक पाठक जुटा चुका है। एक अन्य ब्लाग भी तीन हजार के पास पहुंच गया था पर वहां से जैसे ही मस्तराम शब्द हटाया वह अपने पाठक खो बैठा।

ऐसे में सोचा कि जिन ब्लाग पर हमने ‘मस्त राम’ जोड़कर पाठक जुटाये और फिर हटा लिया तो क्यों न उनको पुराना ही रूप दिया जाये? एक मजे की बात यह है कि हमने मस्त राम का शब्द उपयोग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं किया था। हमारी नानी हमको इसी नाम से पुकारती थी। जब ब्लाग@पत्रिका बनाना प्रारंभ किया तो बस ऐसे ही यह नाम उपयोग में लिया। बाद में समय के साथ अनेक अनुभव हुए तब पता लगा कि उत्तर प्रदेश में यह नाम अधिक लोकप्रिय रहा है और धीरे धीरे पूरे देश में फैल रहा है।
इस होली पर बैठे ठाले यह ख्याल आया कि क्यों न हम साल भर तक अपनी स्वर्गीय नानी द्वारा प्रदत्त प्यार का नाम मस्त राम का प्रयोग करते रहेंगे। वैसे वर्डप्रेस के हमारे अनेक ब्लाग स्वतः ही पाठक जुटा रहे हैं पर संख्या स्थिर हैं।

हमने अनेक शब्दों का प्रयोग करके देखा तो भारी निराशा हाथ लगी पर साथ में आशा की किरण जाग्रत हुई। लोगों का भगवान राम के प्रति लगाव है और सर्च इंजिनों में रोमन में उनका नाम लिखकर तलाश होती रहती है। जिन टैगों का हम उपयोग करते हैं उनका कोई ग्राफ नहीं मिला। तय बात है कि उनकी संख्या अधिक नहीं है। जहां तक मस्त राम का सवाल है तो हमारे सामान्य ब्लाग@पत्रिका में जो टैग मस्त राम के नाम पर है वहां भी पाठक पहुंचते हैं।
फिल्मी हीरोईनों के नाम पर सर्च इंजिनों में भारत के इंटरनेट सुविधाभोगी भीड़ लगाये हुए हैं। हैरानी होती है यह देखकर! टीवी, रेडियो और अखबारों में उनके नाम और फोटो देखकर भी उनका मन नहीं भरता। कहते हैं कि परंपरागत प्रचार माध्यमों से ऊबकर भारत के लोग इंटरनेट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं पर उनका यह रवैया इस बात को दर्शाता कि उनकी मानसिकता में बदलाव केवल साधन तक ही सीमित है साध्य के स्वरूप में बदलाव में उनकी रुचि नहीं हैं। अब इसके कारणों में जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि हिंदी में मौलिक, स्वतंत्र और नया लिखने वाले सीमित संख्या में है। अभी तक लोग या तो दूसरों की बाहर लिखी रचनायें यहां लिख रहे हैं या अनुवाद प्रस्तुत कर अपना ब्लाग सजाते हैं। अगर मौलिक लेखक है तो शायद वह इतना रुचिकर नहीं है जितना होना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि अंतर्जाल पर दूसरे के लिखे की नकल चुरा लिये जाने का पूरा खतरा है दूसरा यह कि मौलिक लेखक के हाथ से लिखने और टाईप करने में स्वाभाविक रूप से अंतर आ जाता है। ऐसे में आम पाठकों की कमी से मनोबल बढ़ता नहीं है इसलिये बड़ी रचनायें लिखना समय खराब करना लगता है। जब यह पता लगता है कि हिंदी में नगण्य पाठक है तो ऐसे ब्लाग लेखक निराश हो ही जाते जिनके लिये यहां न नाम है न नामा। इतना ही नहीं कुछ वेबसाइटें तो ऐसी हैं जो ब्लाग लेखकों के टैग और श्रेणियों के सहारे सर्च इंजिनों में स्वयं को स्थापित कर रही हैं। हिंदी के चार फोरमों के लिये तो कोई शिकायत नहीं की जा सकती पर कुछ वेबसाईटें इस तरह व्यवहार कर रहीं हैं जैसे कि ब्लाग लेखक उनके लिये कच्चा माल हैं। यह सही है कि उनकी वजह से भी बहुत सारे पाठक आ रहे हैं पर सवाल यह है कि इससे ब्लाग लेखक को क्या लाभ है?

यह सच है कि अंतर्जाल पर हिंदी की लेखन यात्रा शैशवकाल में है। लिखने वाले भी कम है तो पढ़ने वाले भी कम। ऐसे में ब्लाग लेखक के लिये यह भी एक रास्ता है कि वह अपने लिखने के साथ ऐसे भी मार्ग तलाशे जहां उसे पाठक अधिक मिल सकें। यही सोचकर हमने होली के अवसर पर यही सोचा कि अब अपनी नानी द्वारा प्रदत्त नाम का भी क्यों न नियमित रूप से उपयोग करके देखें जिसकों लेकर अभी तक गंभीर नहीं थे। इस होली पर बोलो मस्त राम………………………………की हिप हुर्र हुर्र।

………………………….

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