Tag Archives: Epatrika

भगवान के नाम पर माया का खेल-आलेख


सांई बाबा के नाम पर रायल्टी वसूलने की बात सुनकर मैं बिल्कुल नहीं चौंका क्योंकि अभी और भी चौंकाने वाली खबरें आऐंगी क्योंकि जैसे-जैसे लोगों की बुद्धि पर माया का आक्रमण होगा सत्य के निकट भारतीय अध्यात्म उनको याद आयेगा उसके लिए अपना धीरज बनाये रखना जरूरी है। मैं प्रतिदिन अंर्तजाल पर चाणक्य, विदुर, कबीर, रहीम और मनु के संदेश रखते समय एकदम निर्लिप्त भाव में रहता हूं ताकि जो लिख रहा हूं उसे समझ भी सकूं और धारण भी कर सकूं। सच माना जाये तो योगसाधना के बाद मेरा वह सर्वश्रेष्ठ समय होता है उसके बाद माया की रहा चला जाता हूं पर फिर भी वह समय मेरे साथ होता है और मेरा आगे का रास्ता प्रशस्त करता है।

मुझे अपने अध्यात्म में बचपन से ही लगाव रहा है पर कर्मकांडों और ढोंग पर एक फीसदी भी वास्ता रखने की इच्छा नहीं रखता। सांई बाबा के मंदिर पर हर गुरूवार को जाता हूं और मेरा तो एक ही काम है। चाहे जहां भी जाऊं ध्यान लगाकर बैठ जाता हूं। सांईबाबा के मंदिर में हजारों भक्त आते और जाते हैं और सब अपने विश्वास के साथ माथा टेक कर चले जाते हैं। सांई बाबा के बचपन में कई फोटो देखे थे तो उनके गुफा या आश्रम के बाहर एक पत्थर पर बैठे हुए दिखाए जाते थे। मतलब उनके आसपास कोई अन्य आकर्षक भवन या इमारत नहीं होती थी। आज सांईबाबा के मंदिर देखकर जब उन फोटो को याद करता हूं तो भ्रमित हो जाता हूं। फिर सोचता हूं कि मुझे इससे क्या लेना देना। सांई बाबा की भक्ति और मंदिर अलग-अलग विषय हैं और मंदिरों में जो नाटक देखता हूं तो हंसता हूं और सोचता हूं कि क्या कभी उन संतजी ने सोचा होगा कि उनके नाम पर लोग हास्य नाटक भी करेंगे। अपनी कारें और मोटर सायकलें वहां पुजवाने ले आते हैं। वहां के सेवक भी उस लोह लंगर की चीज की पूजा कर उसको सांईबाबा का आशीर्वाद दिलवाते हैं। इसका कारण यह भी है कि सांईबाबा को चमत्कारी संत माना जाता है और लोगों की इसी कारण उनमें आस्था भी है।

अधिक तो मैं नहीं जानता पर मुझे याद है कि मुझे शराब पीने की लत थी और एक दिन पत्नी की जिद पर उनके मंदिर गया तो उसके बाद शुरू हुआ विपत्ति को दौर। पत्नी की मां का स्वास्थ्य खराब था वह कोटा चलीं गयीं और इधर मैं उच्च रक्तचाप का शिकार हुआ। अपनी जिंदगी के उस बुरे दौर में मैं हनुमान जी के मंदिर भी एक साथी को ढूंढकर ले गया। आखिर मैं स्वयं भी कोटा गया क्योंकि यहां अकेले रहना कठिन लग रहा था। वहां सासुजी का देहांत हो गया।

उसके बाद लौटे तो फिर हर गुरूवार को मंदिर जाने लगे। इधर मेरी मानसिक स्थिति भी खराब होती जा रही थी। ऐसे में पांच वर्ष पूर्व (तब तक बाबा रामदेव की प्रसिद्धि इतनी नहीं थी)एक दिन भारतीय योग संस्थान का शिविर कालोनी में लगा। संयोगवश उसकी शूरूआत मैंने गुरूवार को ही की थी।

यह मेरे जीवन की दूसरी पारी है। जिन दिनों शराब पीता था तब भी मैं भगवान श्री विष्णु, श्री राम, श्री कृष्ण, श्री शिवजी, श्रीहनुमान और श्रीसांईबाबा के के मंदिर जाता रहा और बाल्मीकि रामायण का भी पाठ करता । योगसाधना शुरू करने के बाद श्रीगीता का दोबारा अध्ययन शुरू किया और देखते देखते अंतर्जाल पर लिखने भी आ गया। मतलब यह कि ओंकार के साथ निरंकार की ही आराधना करता हूं। अपना यह जिक्र मैंने इसलिये किया कि इसमें एक संक्षिप्त कहानी भी है जिसे लोग पढ़ लें तो क्या बुराई है।

असल बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि भारतीय अध्यात्म का मूल रहस्य श्रीगीता में है और इस समय पूरे विश्व में अध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है। ‘अध्यात्म’ यानि जो वह जीवात्मा जो हमारा संचालन करता है। उससे जुडे विषय को ही अध्यात्मिक कहा जाता है। कई लोग सहमत हों या नहीं पर यह एक कटु सत्य है कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने आध्यात्म का रहस्य पूरी तरह जानकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया और कहीं अन्य इसकी मिसाल नहीं है। भारत की ‘अध्यात्मिकता’ सत्य के निकट नहीं बल्कि स्वयं सत्य है। यह अलग बात है कि विदेशियों की क्या कहें देश के ही कई कथित साधु संतों ने इसकी व्याख्या अपने को पुजवाने के लिये की । दुनियों में श्रीगीता अकेली ऐसी पुस्तक है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है और उसमें जो सत्य है उससे अलग कुछ नहीं है। लोग उल्टे हो जायें या सीधे चाहे खालीपीली नारे लगाते रहें, तलवारे चलाये या त्रिशूल, पत्थर उड़ाये या फूल पर सत्य के निकट नही जा सकते। अगर सत्य के निकट कोई ले जा सकता है तो बस श्रीगीता और भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथ। अपने देश के लोग कहीं पत्थरमार होली खेलते हैं तो कहीं फूल चढ़ाते हैं तो कही पशु की बलि देने जाते है कही कही तो शराब चढ़ाने की भी परंपरा है। श्रीगीता को स्वय पढ़ने और अपने बच्चों को पढ़ाने से डरते है कहीं मन में सन्यास का ख्याल न आ जाये जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने तो सांख्ययोग (सन्यास) को लगभग खारिज ही कर दिया है। हां उसे पढ़ने से निर्लिप्त भाव आता है और ढेर सारी माया देखकर भी आप प्रसन्न नहीं होते और यही सोचकर आदमी घबड़ाता है कि इतनी सारी माया का आनंद नही लिया तो क्या जीवन जिया। अभी मैंने श्रीगीता पर लिखना शुरू नहीं किया है और जब उसके श्लोकों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्या करूंगा तो वह अत्यंत दिल्चस्प होगी। यकीन करिये वह ऐसी नहीं होगी जैसी आपने अभी तक सुनी। आजकल मैं हर बात हंसता हूं क्योंकि लोगों को ढोंग और पाखंड मुझे साफ दिखाई देते है। कहता इसलिये नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्त के अलावा इस श्रीगीता का ज्ञान किसी को न दें।

मंदिरों मे भगवान का नाम लेने जरूर लोग जाते हैं पर मन में तो माया का ही रूप धारण किये जाते हैं। मन में भगवान है तो माया भी वहीं है उसी तरह मंदिर में भी है वहां भी आपके मन के अनुसार ही सब है। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये लोग वहां जाते हैं तो कुछ लोग दर्शन करने चले जाते हैं तो कुछ लोग ऐसे ही चले जाते है। खेलती माया है और आदमी को गलतफहमी यह कि मै खेल रहा हूं । काम कर रही इंद्रियां पर मनुष्य अपने आप को कर्ता समझता है।

असल बात बहुत छोटी है। सांईबाबा संत थे और एक तरह से फक्कड़ थे। उनका रहनसहन और जीवन स्तर एकदम सामान्य था पर उनका नाम लेलेकर लोगों ने अपने घर भर लिये और अब अगर यह रायल्टी का मामला है तो भी है तो माया का ही मामला। कई जगह उनके मंदिर है और मैं अगर किसी दूसरे शहर में गुरूवार को होता हूं तो भी उनके मंदिर का पता कर वहां जरूर जाता हूं। मंदिरों में तो बचपन से जाने की आदत है पर मैं केवल इसलिये भगवान की भक्ति करता हूं कि मेरी बुद्धि स्थिर रहे और किसी पाप से बचूं। फिर तो सारे काम अपने आप होते है। कई मंदिरों पर संपत्ति के विवाद होते हैं और तो और वहां के सेवकों के कत्ल तक हो जाते हैं। यह सब माया का खेल है। अब अगर यह मामला बढ़ता है तो बहुत सारे विवाद होंगे। कुछ इधर बोलेंगे तो कुछ उधर। हम दृष्टा बनकर देखेंगे। वैसे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान सोने की खदान है और कुछ लोग इसको बदनाम करने के लिये भी ऐसे मामले उठा सकते हैं जिससे यह धर्म और बदनाम हो कि देखो इस धर्म को मानने वाले कैसे हैं? जानते हैं क्यों? अध्यात्म और धर्म अलग-अलग विषय है और जिस तरह विश्व में लोग माया से त्रस्त हो रहे हैं वह इसी ज्ञान की तरफ या कहंे कि श्रीगीता के ज्ञान की तरफ बढ़ेंगे। उनको रोकना मुश्किल होगा। इसीलिये उनके मन में भारतीय लोगों की छबि खराब की जाये तो लोग समझें कि देखो अगर इनका ज्ञान इस सत्य के निकट है तो फिर यह ऐसे क्यों हैं?
मैं महापुरुषों के संदेश भी अपने विवेक से पढ़कर लिखता हूंे ताकि कल को कोई यह न कहे कि हमारे विचार चुरा रहा है। यकीन करिय एक दिन ऐसा भी आने वाला है जब लोग कहेंगे कि हमारा इन महापुरुषों के संदशों पर भी अधिकार है क्योंकि हमने ही उनको छापा है। यह गनीमत ही रही कि गीताप्रेस वालों ने भारत के समस्त ग्रंथों को हिंदी में छाप दिया नहीं तो शायद इनके अनुवाद पर भी झगड़े चलते और हर कोई अपनी रायल्टी का दावा करता। जिस तरह यह मायावी विवाद खड़े किये जा रहे हैं उसके वह आशय मै नहीं लेता जो लोग समझते हैं। मेरा मानना है कि ऐसे विवाद केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान को बदनाम करने के लिये किये जाते है। मुख्य बात यह है कि इसके लिये प्रेरित कौन करता है? यह देखना चाहिए। पत्रकारिता के मेरे गुरू जिनको मैं अपना जीवन का गुरू मानता हूं ने मुझसे कहा था कि तस्वीर तो लोग दिखाते और देखते हैं पर तुम पीछे देखने की करना जो लोग छिपाते हैं। देखना है कि यह विवाद आखिर किस रूप में आगे बढ़ता है क्योंकि श्री सत्य सांई बाबा विश्व में असंख्य लोगों के विश्व के केंद्र में है और जिस तरह यह मामला चल रहा है लोगों को उनसे विरक्त करने के प्रयासों के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।

मरे मुद्दों की राख अंतर्जाल पर मत सजाओ-आलेख


प्रचार माध्यमों पर निरंतर आ रही जानकारियों ने देश के लोगों को आंदोलित किया है। सभी कहते हैं कि अंतर्जाल का जमाना है। सब इस परिवर्तन को दर्शाती कहानियों, आलेखों और कविताओं को पढ़ना चाहते हैं। वह अपनी आंखों से बदलते इस विश्व को देखने के साथ उसके बारे में पढ़ना चाहते है।
अंतर्जाल पढ़ने वाले लोग निराश है। जो लिख रहे हैं वह सारी सुविधाओं होने के बावजूद पुराने विषयों पर ही लिख रहे हैंं। वही वाद और नारे लगाने के साथ उसमें लिपटी कवितायें और कहानियां लिखे रहे हैं। लिखने वालों के पास ज्ञान की गहराई का अभाव है। टीवी चैनलों और अखबारों में अनेक लेखक चर्चित हैं मगर आम आदमी की वाणी पर किसी का नहीं है।
कई कवि और शायर अपनी रचनाओं को जबरन हृदयस्पर्शी बनाने का प्रयास करते हैं-उनके शब्दों का उपयोग यह स्पष्ट कर देता है। चंद घटनाओं को कविता का रूप देते हैं जिनको पहले ही लोग समाचारों पढ़ कर भूल चुके हैं। वह इन घटनाओं को ऐसे लिखते हैं जैसे उससे देश का इतिहास बदला हो। लोग अपनी कहानियों और व्यंग्यों में उन हिंसक मुद्दों को जीवंत बनाने का प्रयास कर रहे हैं जो चंद जगहों पर हुईं। देश के बहुत से लोगों ने उसे केवल समाचारों में पढ़ा। कई लेखक और कवि अभी भी उन पर लिख रहे हैं। उनको मुगालता है कि अतर्जाल पर लोकप्रियता मिल जायेगी। कुछ लोग उनकी किताबों की चर्चा करते हैं कि शायद उन्हें भी उसका कुछ अंश यहां मिल जायें। वह अंतर्जाल पर लिख रहे कवियों और लेखकों को अपने जैसा ही मानते हैं और उनका प्रचार करने से भय लगता है।
आखिर उनका उद्देश्य क्या है? वह खुद नहीं जानते। बस लिखना है। लोगों की संवेदनाओं को उबारने से शायद उनको लोकप्रियता मिल जाये। बेकार की कोशिश! लोगों की संवेदनायें मरी नहीं हैं यह एक सच है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि लोगों ने प्रचार माध्यमों से इस सच का जान लिया है कि यहां कई घटनायें पहले से तय की जाती हैं। लड़ाईयों भी फिक्स होती हैंं। एक लेखक, कवि या शायर किसी समाचार पर एक कविता लिख देता है। वह कहता है कि मैं सैक्यूलर हूं और यह घटना उसके लिये खतरा है। दूसरा उस पर उबलता है। कहीं गुस्से और तो कहीं झगड़े होते हैं। कहीं विवाद होते हैं। ऐसे कवियों और शायरों के नाम अखबारों मे आते हैं जिनको कोई जानता नहीं। उनके विरोधी भी ऐसे ही हैं। मगर लोग सच जानते हैं कि आजकल सभी जगह फिक्सिंग है।

किसी आम आदमी से पूछिये तो वह बेहिचक कह देगा कि‘यह सब नाटक है।
मगर कवि और शायर है कि मुगालते में लिखे जा रहे हैं। लोग उम्मीद कर रहे थे कि अंतर्जाल पर कुछ नया पढ़ने को मिलेगा। मगर नही,ं यहां तो उन्हीं घिसे पिटे वाद और नारों पर चलने वाले गुरूओं के शिष्यों की जमात आ गयी है-जिनके पास न स्वतंत्र विचार हैं न मौलिकता से लिखने की क्षमता। समाचार पत्रों से उठाये गये विषयों को ही यहां रख रहे हैं। ऐसे लोग आत्ममुग्ध हैं उनको पता ही नहीं है कि लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। वह कुछ नया पढ़ना चाहते हैं। मगर इस पर उन्हें सोचने की फुरसत ही कहां? वह तो अखबार पढ़ा और फिर उस पर लिखने बैठ जाते हैं। अंतर्जाल पर कई नये लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं पर कोई उनका लिखा अपने अंतर्जालीय पृष्ठों पर नहीं लिखता। कहीं से किताबों के अंश ले आये तो कभी किसी विदेशी कि कविता छाप दी। बस! वही ढर्रा! जिस पर देश चलता आ रहा है।

आम आदमी जानता है कि जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है हमारे पुराने ग्रंथों में अपार सामग्री है। उसके बाद भी संतगण-तुलीसदास, कबीरदास, मीरा, रहीम और सूर- उनके लिये बहुत कुछ लिख गये हैं। अब और क्या लिख पायेगा पर वर्तमान सामाजिक परिवेश और अंतर्जाल से संबंधित अच्छी कहानियां, व्यंग्य और लेख पढ़ने को मिल जाये तो अच्छा है-लोग ऐसा सोचते हैं।
अंतर्जाल पर लिखने वाले इस नयी विधा पर कोई कहानी क्यों नहीें लिखते? क्या अंतर्जाल पर उनके पास कोई पात्र नहीं हैं या वहां कोई कहानियां नहीं बनती। मगर वाद और नारों पर चले इस देश का समाज चला तो फिर लेखक भी ऐसे ही हैं। कोई नई कल्पना करने की बजाय वह उपलब्ध विषयों पर ही लिखते हैं। अपने देश के किसी व्यक्ति द्वारा सुझाया गया विषय उनको मंजूर नहीं है। उन्हें तो अमेरिका और ब्रिटेन के अंग्रेज लेखकों द्वारा खोजे गये विषयों पर ही लिखना पसंद है। अंतर्जाल पर पढ़ने वाले लोगों को यह देखकर निराशा होती है कि अभी वहां स्वतंत्र रूप से कोई नहीं लिख पा रहा जबकि उसे यहां उस पर कोई बंधन नहीं है। अंतर्जाल लेखकों को पुराने विषयों से हटकर नये विषय चुने होंगे। उन्हें अपना मौलिक लेखन करना होगा वरना वह पिछड़ जायेंगे। ध्यान देने की बात है कि अब आप लिख किसी भी भाषा में रहे हैं पर उसे अन्य किसी भाषा का व्यक्ति भी पढ़ सकता है। पुराने वाद और नारों से दूर हो जाओ। पुराने हिंसक और तनाव के मुद्दों पर अब इस देश का आदमी नहीं भड़कता। वह जानता है कि आजकल कई मुद्दे बनाये जाते हैं। उन मरे मुद्दों की राख उठाकर अंतर्जाल पर मत सजाओ।

जीवन जिन्दा दिल होकर जियो-हिन्दी शायरी


दिल का कोई सौदा नहीं होता
जिस पर आता उसी का होता
चलते है जो जीवन मे साथ
निभाते हैं हर समय
चाहे न चलते हों राह पर हाथ में डालकर हाथ

अपने मन की आंखें बंद कर लो
नींद स्वयं ही आ जाती है
जो संभाला कोई ख्याल तो
फिर गायब हो जाती है
सोने से मिला सुख नहीं मिलता
जिसके लिये बनी है रात
गीत-संगीत के तोहफों से
बिखरी पड़ी है दुनियां
अपने कानों से मीठी आवाज सुनने के लिये
क्या किसी से शब्द और आवाज मांगना
इस जीवन में किससे आशा
और किससे निराशा
जिनसे उम्मीद करोगे
बनायेंगे तमाशा
जीवन को जिंदा दिलों की तरह जियो
जब तक न छोड़े अपना साथ
…………………………………..
दीपक भारतदीप

माया और सत्य दोनों का खेल निराला है-आलेख


माया का खेल बहुत विचित्र है। तमाम तरह के विद्वानों के संदेश पढ़ने के बावजूद मुझे इस संबंध में एक बात कहीं भी पढ़ने को नहीं मिली जो मैं कहना चाहता हूं। मैं सोचता था कि अगर किसी विद्वान के संदर्भ देकर यह बात कहता तो शायद प्रभावी होती पर उस तरह का कथन नहीं मिला। जब कोई लेखक किसी किताब से पढ़कर लिखने का अभ्यस्त हो जाता है तब उसके सामने यही समस्या आती है कि अपने मन की बात कहने के लिए भी उसे किताब की जरूरत पढ़ती है। अगर वह नहीं मिलती तो उसे अपनी बात कहने के लिए किसी ऐसे मूड की आवश्यकता होती है जब वह उसे लिख सके।

कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में मुझे पढ़ने को मिला कि वैष्णो देवी के दर्शन पहले करने हों तो कुछ पैसे भुगतान कर किया जा सकता है। बाद में सामान्य भक्तों के विरोध के कारण यह निर्णय संभवतः अभी लागू नहीं हो पाया। वैसे यह कोई नई बात नहीं है कि किसी मंदिर में सर्वशक्तिमान के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए लगी भक्तों की पंक्ति से अलग हटकर विशिष्ट भक्त के रूप में कुछ धन व्यय कर प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश प्राप्त हो। कहीं यह सुविधा नियमों में शामिल की गयी है तो कहीं यह स्वाभाविक रूप से ऐसे होता है कि आभास भी नहीं होता। अर्थात भक्त में दो भेद हैं-एक सामान्य भक्त और दूसरा विशिष्ट भक्त। सामान्य भक्त इस बात को जानते हैं पर वह भी यह एक तरह से स्वीकार कर लेते हैं जिस पर भगवान की कृपा से माया अधिक है उसे प्रथम दर्शन का अधिकार प्राप्त है।

माया का खेल बहुत निराला है। सत्य का खेल उससे भी निराला है। माया इतना विस्तार रूप लेती है कि उसे अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए चरम पर आकर उसे सत्य की बराबरी करने की आवश्यकता अनुभव होती है। मगर सत्य तो सत्य है उसका माया से कोई वास्ता नहीं पर माया को धारण करने वाला भी वही सत्य है। धारण करने वाला स्वयं नहीं दिखता क्योंकि वह बुनियाद के पत्थर की तरह होता है जो दिखता नहीं है तो पुजता भी नहीं है। ऊपर खड़ी दीवारों को चमकदार रूप इसलिये दिया जाता है कि इमारत के अस्तित्व का बोध उनसे ही होता है। मायावी लोग भी सत्य की आड़ में कुछ ऐसा ही खेल खेलते हैं। उनको चाहिए बस माया पर सत्य और धर्म की आड़ में यह खेल इस तरह होता है कि समाज में भक्ति के नाम भ्रम पालने वाले लोग उसे सहजता से लेते है। आदमी के पास माया है पर मन में शांति नहीं है ऐसे में माया ही उसे प्रेरित करती है उन जगहों पर जाने के लिए और फिर माया अपनी शक्ति दिखाकर अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करती है।

एक नहीं अनेक बार मेरे सामने ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे हंसी के अलावा कुछ नहीं सूझता। मैं बचपन से ही अध्यात्मिक प्रवृत्ति का हूं और मंदिरों में जाता हूं। हां, मुझे वहां शंाति मिलती है पर फिर भी मेरी अंधविश्वासों और पाखंड में कोई यकीन नहीं नहीं। मंदिरों में शांति इसलिये मिलती है कि हम कुछ देर के लिए अपने तन और मन को इस दुनियां से अलग ले जाते हैं जिसे ध्यान का ही मैं एक स्वरूप मानता हूं। सत्संगों में भी जाने में मुझे संकोच नहीं है पर मैं किसी संत व्यक्ति विशेष में अपनी भावनाओं के साथ लिप्त नहीं होता।

मैं एक आश्रम में गया। वहां संत अपने दर्शन भक्तों के दे रहे थे। वहां भीड़ बहुत थी। मेरी पत्नी तो पंक्ति में लग गयी पर मैं बाहर ही खड़ा रह गया। हम दोनों भीड़ में ऐसे अवसरों अलग-अलग हो जाने के आदी हो चुके हैं। मैंने इधर-अधर निरीक्षण किया तो देखा कि कुछ लोग दीवार के दूसरी तरफ एक अन्य पंक्ति में खड़े हैं पर उनकी संख्या आधिकारिक पंक्ति से बहुत कम थी। वहां से कुछ लोग तमाम तरह के उपहार लेकर संत के दर्शन उनके निकट के सेवकों की अनुमति से सहजतापूर्वक करने जा रहे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके हाथों में कोई उपहार नहीं था पर वह भी प्रवेश कर रहे थे जो शायद उन सेवको के लिये अन्यत्र लाभ पहुंचाने वाले होंगे। मेरे लिए यह सामान्य बात होती है क्योंकि बचपन से अनेक बार ऐसे भेदभाव देखता आया हूं।
कुछ देर बाद मेरा एक परिचित वहां आया और मेरा अभिवादन किया। मैंने बातचीत करते हुए उससे पूछा-‘तुमने संत जी के दर्शन कर लिए होंगे?

वह एकदम सीना तानकर बोला-‘और क्या? मैंने तो विशिष्ट भक्तों की पंक्ति में खड़े होकर उनके दर्शन किए। ऐसे सामान्य भक्तों की पंक्ति में मैं खड़ा होने वाला नहीं था।’
मैं हंस पड़ा। भक्ति में इस तरह से अहंकार की बात कहने वाला भी वह पहला व्यक्ति नहीं था-इस तरह की विशिष्ट अनेक लोग अनेक अवसरों पर दिखा जाते हैं। बस घटना का स्थान ही बदला हुुआ होता है। मैंने उसके व्यक्तित्व की झूठी प्रशंसा करने में भी कोई कमी नहीं की। इसमें भी मेरा अपना दर्शन चलता है कि ‘अगर मेरे शब्दों से कोई प्रसन्न होता है तो उसमें क्या हर्ज है उससे कोई लाभ तो नहीं उठा रहा जो मुझे मानसिक संताप होगा। किसी की झूठी प्रशंसा कर लाभ उठाना ही मुझे अखरता है।
यह माया का खेल है जो परमात्मा के दर्शन करने का सामथर््य दिखाती है। संत शिरोमणि रविदास कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ मगर माया है कि मन चंगा नहीं रहने देती वह तो गंगा के तट पर दौड़ लगवाती है ताकि उसके अस्त्तिव की अनुभूति मनुष्य मन में बनी रहे। मेरा स्पष्ट मानना है कि आप औंकार से निरंकार की तरफ जाना ही सत्य को जानने की प्रक्रिया है-जिसे साकार से निराकार की और जाने वाला मार्ग भी कहते है। इन दैहिक चक्षुओं के द्वारा मूर्तियों को देखकर सर्वशक्तिमान का स्वरूप अपने मन में स्थापित कर ध्यान करते हुए निरंकार की तरफ हृदय को केंद्रित करना चाहिए।

आप देश के जितने भी प्रसिद्ध मंदिरों को देखते हैं वह सभी सुंदर प्राकृतिक स्थानों पर स्थित हैं। ऐसे अनेक स्थान जो प्रकृति की दृष्टि से संपन्न हैं पर वहां कोई मंदिर नहीं है तो वह भी पर्यटकों को आनंद देते हैं। जहां मंदिर हैं वहां ऐसे लोग अधिक जाते हैं जो हृदय में पर्यटन का भाव लिये होते हैं पर अपने आपको ही भक्ति का भ्रम देने लगते हैं। ऐसे मेें जो लोग इन स्थानों की देख रेख करते हैं उनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। वह एक तरह से व्यवसायी हो जाते हैं पर फिर संत और सेवक कहलाने का श्रेय उनको मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि अध्यात्म और इस दिखावे की भक्ति में बहुत अंतर है। अध्यात्मिक भक्ति से आशय यह है कि वह आपके हृदय में स्थाई रूप से रहना चाहिए और आपको बाहर से किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। जब बाह्य प्रेरणा से अपने अंतर्मन में भक्ति भाव पैदा होता है तो वह उसके परे हटते ही विस्मृत हो जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का सबसे स्वर्णिम अध्यात्म ज्ञान के सृजक संतों,ऋषियों, मुनियों और संतों के देश में सर्वाधिक भ्रमित लोग रहते हैं। इसे हम कह सकते हैं कि कांटों में ही गुलाब खिलता है और कमल को कीचड़ धारण करता है। भारतीय मनीषी शायद जीवन के रहस्यों को इसलिए भी जान पाये क्योंकि भ्रम और अंधविश्वासों के बीच जीने वालों की संख्या यहां प्रचुर मात्रा में है और वही उनके प्रेरक बनते रहे हैं। फिर दिया तले अंधेरा वाली बात नहीं भूलना चाहिए। यहां अध्यात्म-योग साधना, श्रीगीता का संदेश, कबीर, तुलसी, रहीम, चाणक्य, भृतहरि आदि मरीषियों रचनाएं-पूरे विश्व को चमत्कृत कर रहा है पर यहां अज्ञानता और अंधविश्वास भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।

अनाम और छद्मनामः कहीं अनुकूल तो कहीं प्रतिकूल-आलेख


अभी एक लेख समाप्त करते वक्त मेरे दिमाग में अपने ब्लाग पर आई टिप्पणियों को लेकर कुछ विचार थे। उस लेख में उसका व्यापक उल्लेख करना व्यर्थ था इसलिये अलग से यह आलेख लिख रहा हूं।

मैंने लिखा था कि प्रेम, मित्रता, स्नेह, और सद्भावना का कोई स्वरूप नहीं होता। कई बार तो ऐसा लगता है कि मेरे एक-दो मित्र ही है जो नाम बदल बदल कर टिप्पणी देते हैं। सोचते हैं कि एक ही नाम देखकर यह बोर न हो जाता हो। मैं इस सोच में रहा था कि क्या कोई महिला ब्लाग लेखिका भी जिसके मन में मेरे प्रति सद्भावना है जो नाम बदलकर मुझे प्रेरित करती है।
असल में हिंदी ब्लाग जगत की शूरूआत ही छद्म और अनाम ब्लाग लेखकों ने की होगी-ऐसा लगता है। कभी-कभी तो लगता है कि असली नाम तो बहुत कम होंगे उससे अधिक छद्म नाम होंगे।
मेरी स्थिति अन्य ब्लाग लेखकों से थोड़ी अलग है। कुछ ब्लाग लेखक छद्म नाम के लोगों की प्रतिकूल टिप्पणियों से परेशान हैं तो मैं अनुकूल टिप्पणियों को देखकर हैरान हो जाता हूं। कई बार ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपनी पोस्ट लेकर आते हैं और कहते हैं कि हम दो-तीन माह से ब्लाग जगत से दूर थे पर लगतार इसे देख रहे थे। अब लगातार लिखते रहेंगे। वगैरह..वगैरह। हिंदी ब्लाग सभी एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर मै निरंतर विचरण करता हूं। कई ब्लाग लेखक गायब हो जाते हैं। कई नये आते हैं।
कुछ ब्लाग लेखकों की शैली का अभ्यस्त हूं तो कई बार नये ब्लाग लेखकों से उनकी मिलती-जुलती शैली देखकर ऐसा लगता है कि कहीं वही पुराने वाले तो नहीं।

पिछले छह महीने में मेरा कुछ लोगों से संपर्क हुआ और उनसे आत्मीयता स्थापित हुई। उन्होंने कई नई जानकारियां दीं। कुछ उनसे सीखा। अचानक फिर कहां चले गये। कम से चार पांच ब्लाग लेखक तो मेरे ब्लाग पर इतनी प्रभावपूर्ण टिप्पणियां लिख गये कि मैंने अपने ब्लाग/पत्रिका पर पाठ ही लिख लिया। उनके ब्लाग फिर नहीं दिखे। कुछ आपत्तिजनक सामग्री वाले ब्लाग दिखे फिर वह गायब हो गये। ऐसे में यह संदेह/विश्वास होता है कि कुछ ऐसे ब्लाग लेखक हैं जिनके लिए लिखना एक तरह से व्यसन/आदत हो गयी है। अधिक लिखने से लेखक के ‘एक्सपोज‘ ( इसका हिंदी शब्द मुझे बासी ही समझ में आता है) होने का भय रहता है और लिखना भी जरूरी है शायद इसलिये कुछ नाम ब्लाग लेखक छद्म नाम से लिखते हैं। कुछ तो उस नाम से बकायदा निष्काम भाव से टिप्पणियां भी लिखते है। लड़ाई झगड़े और विवाद वाले पाठों पर ऐसे छद्म नाम वाले लेखकों का तो जमावड़ा ही हो जाता है। दो पक्ष में तो दो विपक्ष में दिखाई देते हैं।
मेरे मित्रों में ऐसे कितने ब्लाग लेखक हैं यह तो पता नहीं। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो क्योंकि उनकी टिप्पणियों में जो स्नेह, प्रेम, और सद्भावना भरी होती है उसके अधिक स्वरूप नहीं होते। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब मैं कुछ कड़ा या व्यंग्यात्मक पाठ लिख देता हूं और मुझे लगता है शायद इस पर अकेला पड़ जाऊंगा तब ऐसे मित्र टिप्पणियां रखते है यह बताने के लिऐ कि हमारी सहमति तुम्हारी साथ है। उनकी टिप्पणियों से एक संतोष मिलता है कि उस विषय पर अकेला नहीं हूं। बहरहाल अंतर्जाल पर अनाम, छद्मनाम और और वास्तविक नाम के लोग रहेंगे। उनकी भूमिका अपने अनुसार रहेगी। एक बात तय है कि केवल आलोचना ही छद्म नाम या अनाम होकर नहीं की जाती बल्कि प्रेम और स्नेह के लिये भी यही तरीका अपनाया गया है।

रामनवमी पर पिछले साल न पढा जा सका लेख अब प्रस्तुत



यह लेख मैने पिछले वर्ष रामनवमी पर कृतिदेव में लिखा था और इसका शीर्षक यूनिकोड में था। उस समय मेरा नारद पर कोई ब्लाग नहीं था पर वहां के सक्रिय ब्लागर -जिनका काम हिंदी के ब्लागरों को ढूंढना था- मेरे शीर्षक तो पढ़ पा रहे थे पर बाकी उनके पढ़ने में नहीं आ रहा था। मेरे बहुत सारे ऐसे लेखों पर बाद में अनेक ब्लागरों ने कहा था कि मैं उनको यूनिकोड में लाऊं पर बड़े लेख होने के कारण ऐसा नहीं कर सका। अब चूंकि कृतिदेव का यूनिकोड मिल गया है तो अपने ऐसे लेख प्रस्तुत कर रहा हूं।

सौम्यता, सहजता, सरलता और समभाव का प्रतीक हैं भगवान श्रीराम
————————————————————–

आज पूरे देश में रामनवमी का त्यौहार मनाया जा रहा है। राम हमारे देश के लोगों के हृदय के नायक है। यह स्वाभाविक ही है कि लोग राम का नाम सुनते ही प्रफुल्लित हो उठते हैं। राम की महिमा यह कि जिस रूप में उन्हें माना जाये उसी रूप में आपके हृदय में स्थित हो जाते है। राम उनके भी जो उनको माने और राम उनके भी जो उन्हें भजें और वह उनके भी हैं जो उन्हें अपने हृदय में धारण करें।
मैं बचपन से भगवान विष्णू की उपासना करता आया हू। स्वाभाविक रूप से भगवान श्री राम के प्रति भक्तिभाव है। इसका एक कारण यह भी रहा है कि मैं मूर्ति तो भगवान विष्णू की रखता हूं पाठ बाल्मीकी रामायण का करता हूं। कुल मिलाकर भगवान विष्णू ही मेरे हृदय में राम की तरह स्थित हैं। मतलब यह मेरे लिये भगवान राम ही भगवान विष्णू है। यह समभाव की प्रवृति मुझे भगवान राम के चरित्र से मिलती है।
भगवान राम के प्रति केवल भारत में ही बल्कि विश्व में भी उनकी अनुयायियों की भारी संख्या है। मतलब यह कि भगवान श्रीराम का चरित्र केवल देश की सीमाओं में नहीे सुना और सुनाया जाता है वरन् देश के बाहर भी उनके प्रति लोगों के मन में भारी श्रद्धा है। जब मै आज भारत के अंदर चल रहे हालातेों पर नजर डालता हूं तो लगता है लोग केवल नाम के लिये ही राम को जप रहे है। भगवान राम के चरित्र की व्याख्यायें बहुत लोग कर रहे है पर केवल लोगों में फौरी तौर पर भक्ति भाव जगाकर अपनी हित साधने तक ही उनकी कोशिश रहती है। मैं अक्सर जब परेशानी या तनाव में होता हूं तो उनका स्मरण करता हूं।
यकीन मानिए भगवान राम के मंदिर में जाकर कोई वस्तू या कार्यसिद्ध की मांग नहीं करता वरन् वह मेरे मन और बुद्धि में बने रहें इसीलिये उनके समक्ष नतमस्तक होता हूं। जब संकट में उन्हें याद करता हूं तो केवल इसीलिये कि मेरा घैर्य, आस्था और विश्वास बना रहे यही इच्छा मेरी होती है। थोड़ी देर बाद मुझे महसूस होता है कि वह शक्ति प्रदान कर रहे है।
भगवान श्रीराम का चरित्र कभी किसी अविश्वास और अकर्मणता का प्रेरक नहीं हो सकता। जो केवल इस उद्देश्य से भगवान राम को पूजते हैं कि उन पर कोई संकट न आये और उनके सारे कार्य सिद्ध हो जायें-वह राम का चरित्र न तो समझते है न उन्हें कभी अपने विश्वास को प्रमाणित करने का अवसर मिल पाता है।
भगवान श्री राम की कथा पढ़ना और सुनना अच्छी बात है पर उन्हें अपने हृदय में धारण कर ही जीवन में आनंद ले पाते है। ऐसे विरले ही होते है। भगवान राम के चरित्र में जो सौम्यता, सहजता, सहृदयता, समभाव और सदाशयता है वह विरले ही चरित्रों में मिल पाती है। यही कारण है कि भारत की सीमाओं के बाहर भी उनका चरित्र पढ़ा और सुना जाता है। अगर मनुष्य के रूप में की गयी उनकी लीलाओं का चर्चा की जाये तो वह कभी विचलित नहीं हुए। कैकयी द्वारा बनवास, सीताजी के हरण और रावण के साथ युद्ध में श्रीलक्ष्मण जी के बेहोश होने के समय उन्होंने जिस दृढ़ता का परिचय दिया वह विरलों में ही देखने को मिलती है। रावण के साथ युद्ध में एक ऐसा समय भी आया जब सभी राक्षसों को ऐसा लगा रहा था कि भगवान राम ही उनके साथ युद्ध कर रहे है। वह घबड़ा कर इधर उधर भाग रहे थे जहां जाते उन्हें राम देखते। मतलब यह कि राम केवल उनके ही नहीं है जो उनके पूजते बल्कि उनके भी है जो उन्हें नहीं पूजते-नहीं तो आखिर अपने शत्रूओं को दर्शन क्यों देते? यह उनके समभाव का प्रतीक है। क्या हम उन्हें मानने वाले ऐसा समभाव दिखा पाते है। कतई नहीं। यकीनन हमेें अब आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या केवल भगवान श्रीराम की मूर्ति लगाकर उनके प्रति दिखावे की आस्था प्रकट करना ही काफी है। हमें उनके पूर्ण स्वरूप का स्मरण कर उसे अपने मन और बुद्धि में स्थापित करना चाहिए। याद रहे मनुष्य की पहचान उसकी बुद्धि से है। अगर आप अपनी बुद्धि में अपने इष्ट को स्थापित करेंगे तो धीरे धीरे उन जैसे होते जायेंगे। एक विद्वान का मानना है कि मूर्ति पूजा का प्रत्यक्ष रूप से लाभ कुछ नहीं होता पर उसका यह फायदा जरूर होता है आदमी जब भगवान की पूजा करता है तो उसके हृदय में उनके गुणों का एक स्वरूप स्थापित होता है जो आगे चलकर उसका स्थायी हिस्सा बन जाता है। शर्त यही है वह आदमी उस समय किसी अन्य भाव का स्थान न दे।
इस दुनिया में हमेशा मूर्तिपूजा का विरोध करने वालों की संख्या ज्यादा रही है। दरअसल वह इससे होने वाले मनोवैज्ञानिक फायदों को नहीं जानते। प्रत्यक्ष रूप से तो इसका फायदा नही होता दिखता पर अप्रत्यक्ष रूप से जो व्यक्ति में शांति और दृढ़मा आती है उसको किसी पैमाने से मापना कठिन है। मुख्य बात है अपने अंदर भाव उत्पन्न करना। आखिर कोई भी व्यक्ति काम करता है तो उसके पीछे उसके विचार, संकल्प और निश्चयों के साथ ही चलता है। जब उनमें दोष है तो किसी सार्थक कार्य के संपन्न होने की आशा करना ही व्यर्थ है। अब लोग किसी और को तो नहीं अपने आपको धोखा देते है। मंदिरों में जाकर वह भगवान के सामने नतमस्तक तो होते है पर स्वरूप के अंतर्मन में ध्यान करने की कला में कितने दक्ष है यह तो वही जाने। अलबत्ता सबसे बड़ी बात राम की भक्ति के साथ उन्हें मन और बुद्धि में धारण भी जरूरी है। मूर्तियां तो उनका वह स्वरूप है जो आखों से ग्रहण करने के लिए स्थापित किया जाता है ताकि उसे हम अपने अंतर्मन में ले जा सके।
भगवान राम का चरित्र कभी न भुलाये जाने वाला चरित्र है। उनके प्रति अपार श्रद्धा के साथ उनके संदेशों पर चलने की जरूरत भी है। उन्होंने नैतिक आचरण, समभाव, सहजता और सरल दृष्टिकोण से जीवन जीने का जो तरीका प्रचारित किया उस पर चलने की जरूरत है। हमें समूह नहीं एक व्यक्ति के रूप में यह विचार करना चाहिए कि क्या हम उनके द्वारा निर्मित पथ पर चले रहे है या नहीं। दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है यह हमें नहीं सोचना चाहिए। भगवान श्रीराम को अपने हृदय में धारण करन चाहिए जिससे केवल न हम स्वयं बल्कि समाज को भी संकट से उबारने की शक्ति अर्जित कर सकें।

ओलम्पिक मशाल, शादी में गम जैसा हाल


भारत में ओलपिक मशाल को लेकर अजीब सा माहौल है। ऐसा लगता है कि जैसे गम के माहौल में शादी हो रही है। हमने कई बार देखा होगा कि कई बार एसा होता है कि किसी परिवार में शादी की तैयारी होती है और पता लगता कि वहां कोई निकटस्थ व्यक्ति का देहावसान हो गया तो फिर भी मूहूर्त की वजह से शादी तो होती है पर उस तरह खुशी की माहौल नहीं रहता जैसा कि सामान्य हालत में रहता है। वैसे तो हर ओलपिक के अवसर पर मशाल आती है पर इस बात चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों को लेकर जिस तरह पूरे विश्व में विवाद उठ खड़ा हुआ है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इधर चीन भी अपने आपको चर्चा के केंद्र में बनाये रखने के लिये तिब्बत में कथित आंदोलन का दमन कर दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा है। भारत में चीन को लेकर अधिक कोई रुझान नहीं है और उल्टे 1962 के बाद उसके खिलाफ लोगों में नाराजगी का माहौल तो रहता ही है उस कभी-कभी चीनी नेता भी अरुणांचल के मामले में कुटिलतापूर्ण टिप्पणियां कर आग में घी छिड़कने का काम करते है।

चीन तिब्बत का हिस्सा है या नहीं यह विवादास्पद प्रश्न है पर जिस तरह तिब्बती लोग पूरी दुनियां में इस मशाल का विरोध कर रहे हैं उससे यह तो संदेश मिल ही जाता है कि वहां के लोग बहंुत नाराज है। एक बात तय है कि चीन के लिये भारत की आम जनता में कोई सौहार्द का भाव नहीं है और न चीनी लोगों की भारत में दिलचस्पी है-क्योंकि चीन ने सरकारी तौर पर ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। इस समय जो आर्थिक और सामाजिक क्षे+त्रों में संबंध है उच्च वर्ग के लोगों तक ही सीमित है। चीन की तिब्बत नीति पर पश्चिमी देश कभी सहमत नहीे हए। भले ही वह औपचारिक रूप से सतत उसका विरोध नही करते। तिब्बत के विस्थापित लोग भारत में बड़े पेमाने पर हैं। कई शहरों में सर्दी के दौरान वह स्वेटर बेचने के लिए अस्थाई बाजार लगाते हैं। उसमें उनके द्वारा प्रदर्शित नक्शे में तिबबत का क्षेत्रफल देखा जाये तो उससे लगता है कि चीन इतना बड़ा देश नहीं है जितना उसे माना जाता है। वैसे भी तिब्बत के सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को देखा जाये तो चीन के अन्य समूदायों से उनकी कोई तुलना नहीं है। तिब्बत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या बहुत अधिक है और उनका झुकाव धर्म की तरफ है जबकि गरीबों और मजदूरों को शासन दिलवाने का सपना दिखाने वाले आज के चीनी शासक तो शुद्ध रूप से माया के भक्त हैं।।उनके लिये धर्म तो एक अफीम है। तिब्बत का इलाका हिमालय के लगता है और निश्चित रूप से वहां तमाम तरह की प्राकृतिक संपदा है जिसका दोहन चीन ने किया है वरना उसके पास था ही क्या? आज चीन विश्व की एक महाशक्ति है पर कई लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं कई विशेषज्ञ तो कहते है कि चीन की समृद्धि के पीछे काला पैसा भी है।

भारत में रह रहे तिब्बती ओलंपिक मशाल का विरोध कर रहे है तो उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों की भी कोई कमी यहां नही है। इसका कारण चीन की विस्स्तारवादी नीतियां ही हैं। अमेरिका पर तो तमान लोग सम्राज्यवादी होने के कई लोग आरोप लगाते हैं पर उसने किसी की जमीन हड़प कर रखी हो उसका केाई प्रमाण नहीं मिलता जबकि चीन ने पूरा एक देश ही हड़प कर रखा है और भारत के बहुत बड़े इलाके पर दावा जताता रहा है। वैसे तो अनेक बार ओलंपिक मशालें भारत आ चुकी हैं पर बहुत कम लोग उस पर ध्यान देते हैं। इस बार विवाद उठा है तो शायद लोगों का उस पर ध्यान अधिक गया है। हालांकि इस विरोध को कोई बड़ा समर्थन मिलने की आशा तो नहीं है क्योंकि एक आज के पूंजीवाद के युग में तिब्बती कोई अधिक स्थान नहीं रखते दूसरे इन्हीं खेलों से कई पूंजीपति भी जुड़े होते हैं और उनका अस्तित्व प्रत्यक्ष भले न दिखे पर अप्रत्यक्ष उनका प्रभाव बहत रहता है और वह किसी ऐसे विरोध को प्रायोजित नहीं करेंगें। वैसे भी ओलंपिक में भारत के खेल प्रमियों की रुचि अधिक नहीं रहती क्योंकि वहां एकाध खेल को छोड़कर वहां भारत की स्थिति नाम नाममात्र की रहती है और अब वह भी हाकी में ओलंपिक के लिये भारतीय हाकी टीम के क्वालीफाई न करने के कारण समाप्त हो गयी है। इस बार शायद इस मशाल की चर्चा भी नहीं होती अगर तिब्बतियों ने इसका विरोध नहीं किया होता। देश की प्रशासनिक संस्थाओं के पास राजनीतिक मर्यादाओं की वजह से इस मशाल को सुरक्षा देने के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं है पर यह देखना होगा कि निजी प्रचार माध्यम और संस्थाएं इसके बारे मे कैसा रवैया अख्तियार करतीं हैं।

आखिर दलाई लामा ने भी लगाया चीन पर तिब्बत की स्थिति बिगाड़ने का आरोप


आखिर तिब्बत के निर्वासित धार्मिक नेता दलाई लामा ने भी वहां की बिगड़ी हालत के लिये चीन को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। इससे पूर्व मैंने अपने लेख में यह संदेह जाहिर किया था कि चीन के शासक वहां के हालत बिगाड़ कर अपने सैन्य ठिकानों सुदृढ़ एवं विस्तृत करने का बहाना ढूंढ रहे हो सकते हैं। अब दलाई लामा ने जिस तरह उनका जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है उसे जरूर देखना चाहिए।

दलाई लामा ने तो यहां बैठकर वहां के लोगों से शांति की अपील की थी फिर भी वहां क्यों हिंसा हो रही है? चीन के सम्राज्यवादी शासकों ने सांस्कृतिक क्रांति के बाद से ही चारों तरह एक तरह से आतंक की अभेद्य दीवार अपने देश में बना रखी है और उसे देख कर नहीं लगता कि वहां उसके शासकों की नजर के बिना किसी आंदोलन को चलाना तो दूर उसकी सोच भी नही सकता होगा। उसके पड़ौसी देशों में भी किसी की हिम्मत नहीं है कि उसके अंदर चल रही असंतुष्ट गतिविधियों को प्रत्यक्ष क्या अप्रत्यक्ष समर्थन भी दे सके।

एसा लगता है कि चीन की जनता को भले ही बाहर की हवा न लगी हो पर उसके नेता अब दूसरे देश के नेताओं से राजनीति का सबक सीख गये हैं। जब संपूर्ण देश में अशांति का माहौल हो तो किसी क्षेत्र विशेष में फैले अंसतोष को हवा दो ताकि लोगो का ध्यान उस ओर चला जाये। वहां फिर बलप्रयोग करो ताकि देश की जनता वाहवाही करे और दुश्मन डर जाये। यह आंदोलन चीनी नेताओं के इशारे पर उन नेताओं ने शुरू किया होगा जिन्हें चीन के राजनयिकों ने उपकृत किया होगा या ऐसा करने का आश्वासन दिया होगा-हालांकि इसमें उनके लिये जोखिम भी कम नहीं है क्योंकि जब चीन जब वहां अपना काम पूरा कर लेगा तब उनका भी वैसा ही हश्र होगा जैसा अन्य विरोधियों का होता आया है।

वैसे भी इस समय तिब्बतियों को स्वतंत्रता मिलना तो दूर स्वायत्ता मिलना भी कठिन है और अगर ऐसा कोई आंदोलन वहां चल रहा है तो उसे केवल पश्चिमी राष्ट्रों का मूंहजुबानी समर्थन ही मिल सकता है इससे अधिक कुछ आशा नही की जा सकती। भारत से बड़ा उपभोक्ता बाजार चीन का है और उसे पाने की होड़ सभी पश्चिमी राष्ट्रों में है। इसके अलावा सामरिक दृष्टि से चीन इतना ताकतवर है कि कोई उस पर हमला नहीं कर सकता। ऐसे में तिब्बत की चीन से मुक्ति अभी तो संभव नहीं है। ऐसे में वहां चल रहे कथित आंदोलन का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है। इसके बावजूद विश्व के सभी देशों को उस पर नजर रखना ही चाहिए क्योंकि वह अपनी सामरिक शक्ति बढ़ायेगा जो कि विश्व के लिये हितकर नहीं है। अभी तक चीन ने तिब्बत को अपनी सैन्य छावनी बनाकर रखा हुआ है और अब वह वहां अपने देश के अन्य इलाकों से लोग लाकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहता है। उसके कथित विकास के दावे खोखले हैं और चूंकि अब प्रचार माध्यम इतने व्यापक हो गये हैं इसलिय कोई देश अपने लोगों को दूसरे देशों से मिलने वाली जानकारी रोक नहीं सकता और निश्चित रूप से वहां की सरकार की जनता में असलियत अब खुल रही होगी और उससे विचलित वहां की सरकार उनका ध्यान बंटाने के लिये यह नाटक कर रही है-दलाई लामा के आरोप से तो यही लगता है।

संबंध विच्छेद की प्रक्रिया आसान होना चाहिए-आलेख


कुछ ऐसी घटनाएँ अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनतीं है जिसमें पति अपनी पत्नी की हत्या कर देता है
१। क्योंकि उसे संदेह होता है की उसके किसी दूसरे आदमी से उसके अवैध संबंध हैं।
२।या पत्नी उसके अवैध संबंधों में बाधक होती है।
इसके उलट भी होता है। ऐसी घटनाएँ जो अभी तक पाश्चात्य देशों में होतीं थीं अब यहाँ भी होने लगीं है और कहा जाये कि यह सब अपनी सभ्यता छोड़कर विदेशी सभ्यता अपनाने का परिणाम है तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह केवल असलियत से मुहँ फेरना होगा और किसी निष्कर्ष से बचने के लिए दिमागी कसरत से बचना होगा।
हम कहीं न कहीं सभी लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर ही रहे हैं। फिर भी समाज में बदनामी का डर रहता है इसलिए पुराने आदर्शों की बात करते हैं पर विवाह और जन्म दिन के अवसर पर हम सब भूलकर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं जिस पर पश्चिम चल रहा है।
मैं एक दार्शनिक की तरह समाज को जब देखता हूँ तो कई लोगों को ऐसे तनावों में फंसा पाता हूँ जिसमें आदमी का धन और समय अधिक नष्ट होता देखता हूँ। कई माँ-बाप अपने बच्चों की शादी कराकर अपने को मुक्त समझते हैं पर ऐसा होता नहीं है। लड़कियों की कमी है पर लड़के वालों के अंहकार में कमी नहीं है। हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लडकी के बाप के रूप में आदमी झुकता है लड़के के बाप के रूप में अकड़ता है। अपने आसपास जब कुछ लोगों को बच्चों के विवाह के बाद भी उनके तनाव झेलते हुए पाता हूँ तो हैरानी होती है।

रिश्ते करना सरल है और निभाना और मुश्किल है और उससे अधिक मुश्किल है उनको तोड़ना। कई जगह लडकी भी लड़के के साथ रहना नहीं चाहती पर लड़के वाले दहेज़ और अन्य खर्च की वापसी न करनी पड़े इसलिए मामले को खींचते हैं। कई जगह कामकाजी लडकियां घरेलू तनाव से बहुत परेशान होती हैं और वह अपने पति से अलग होना चाहतीं है पर यह काम उनको कठिन लगता है। लंबे समय तक मामला चलता है। कुछ घर तो ऐसे भी देखे हैं कि जिनका टूटना तय हो जाता है पर उनका मामला बहुत लंबा चला जाता है। दरअसल अधिकतर सामाजिक और कानूनी कोशिशे परिवारों को टूटने से अधिक उसे बचाने पर केन्द्रित होतीं है। कुछ मामलों में मुझे लगा कि व्यर्थ की देरी से लडकी वालों को बहुत हानि होती है। अधिकतर मामलों में लडकियां तलाक नहीं चाहतीं पर कुछ मामलों में वह रहना भी नहीं चाहतीं और छोड़ने के लिए तमाम तरह की मांगें भी रखतीं है। कुछ जगह लड़किया कामकाजी हैं और पति से नहीं बनतीं तो उसे छोड़ कर दूसरा विवाह करना चाहतीं है पर उनको रास्ता नहीं मिल पाता और बहुत मानसिक तनाव झेलतीं हैं। ऐसे मामले देखकर लगता है कि संबंध विच्छेद की प्रक्रिया बहुत आसान कर देना चाहिए। इस मामले में महिलाओं को अधिक छूट देना चाहिऐ। जहाँ वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं वह उन्हें तुरंत तलाक लेने की छूट होना चाहिए। जिस तरह विवाहों का पंजीयन होता है वैसे ही विवाह-विच्छेद को भी पंजीयन कराना चाहिए। जब विवाह का काम आसानी से पंजीयन हो सकता है तो उनका विच्छेद का क्यों नहीं हो सकता।

कहीं अगर पति नहीं छोड़ना चाहता और पत्नी छोड़ना चाहती है उसको एकतरफा संबंध विच्छेद करने की छूट होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि समाज में इसे अफरातफरी फ़ैल जायेगी। ऐसा कहने वाले आँखें बंद किये बैठे हैं समाज की हालत वैसे भी कौन कम खराब है। अमेरिका में तलाक देना आसान है पर क्या सभी तलाक ले लेते हैं। देश में तलाक की संख्या बढ रही हैं और दहेज़ विरोधी एक्ट में रोज मामले दर्ज हो रहे हैं। इसका यह कारान यह है कि संबंध विच्छेद होना आसान न होने से लोग अपना तनाव इधर का उधर निकालते हैं। वैसे भी मैं अपने देश में पारिवारिक संस्था को बहुत मजबूत मानता हूँ और अधिकतर औरतें अपना परिवार बचाने के लिए आखिर तक लड़ती है यह भी पता है पर कुछ अपवाद होतीं है जो संबध विच्छेद आसानी से न होने से-क्योंकि इससे लड़के वालों से कुछ नहीं मिल पाता और लड़के वाले भी इसलिए नहीं देते कि उसे किसी के सामने देंगे ताकि गवाह हों-तमाम तरह की नाटकबाजी करने को बाध्य होतीं हैं। कुछ लड़कियों दूसरों के प्रति आकर्षित हो जातीं हैं पर किसी को बताने से डरती हैं अगर विवाह विच्छेद के प्रक्रिया आसान हो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होगी।

कुल मिलकर विवाह नाम की संस्था में रहकर जो तनाव झेलते हैं उनके लिए विवाह विच्छेद की आसान प्रक्रिया बनानी चाहिऐ। हालांकि देश के कुछ धर्म भीरू लोग जो मेरे आलेख को पसंद करते है वह इससे असहमत होंगें पर जैसा मैं वाद और नारों से समाज नहीं चला करते और उनकी वास्तविकताओं को समझना चाहिऐ। अगर हम इस बात से भयभीत होते हैं तो इसका मतलब हमें अपने मजबूत समाज पर भरोसा नहीं है और उसे ताकत से नियंत्रित करना ज़रूरी है तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है-आखिर साठ साल से इस पर कौन नियंत्रण कर सका।

तिब्बत मामले पर चीन से सतर्क रहना जरूरी-आलेख


तिब्बत में चीन के खिलाफ कथित आन्दोलन मुझे तो एक छद्म मामला लग रहा है। चीन में नाम मात्र की भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और ऐसे आन्दोलन वहीं पनपते हैं जहाँ थोडी बहुत कोई बोलने और समझने की गुंजायश हो। चीन में जिस तरह लोगों की बोलने की आजादी को कसकर दबाया गया है उसके चलते यह संभव भी नहीं है।

चीन एक भयभीत राष्ट्र है और भय से क्रूरता का जन्म होता है। चीन ने इलेक्ट्रोनिक क्षेत्र में काफी तरक्की है और ऐसे में उसके न चाहने के बावजूद विदेशी प्रचार माध्यमों की पहुंच वहाँ के लोगों तक हुई है, और अब सामान्य लोग जागरूक हो रहे हैं। चीन के बारे में विश्व बहुत कम जानकारी उपलब्ध है पर जितनी उपलब्ध है वह उसकी कड़वी जमीनी वास्तविकताओं को दर्शाती है। उसकी विकास दर बहुत अधिक हैं पर उसमें कितना काला और सफ़ेद है यह अलग चर्चा का विषय है। कुल मिलाकर चीन में भी एक आम जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग नाखुश है और लगता है कि तिब्बत में चीन के प्रमुख एक काल्पनिक दुश्मन खडा कर जनता का ध्यान बंटाने का प्रयास कर रहे है। भारत में रह रहे दलाई लामा ने वहाँ के लोगों से हिंसा से दूर रहने की अपील की है पर चीन तो शांति प्रदर्शन को भी सेना से कुचलने में लगा है। उसे शांतिपूर्ण आन्दोलन भी स्वीकार्य नहीं है। चीन को भय ने क्रूर बना दिया है।

चीन ने जिस तरह तिब्बत में भारत के रवैये का स्वागत किया है और यह चौंकाने वाले बात है और इसमें सतर्कता रखने वाली बात है। हो सकता है कि चीन ने राजनीतिक दावपेंच का इस्तेमाल करते हुए तिब्बत में तनाव पैदा किया हो और वहाँ इस बहाने अपना सैन्य तंत्र मजबूत कर रहा हो ताकि कभी उसका भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सके।
वहाँ चीन अपनी सैन्य ताकत को इस तरह स्थापित कर सकता है कि भारत में घुसना आसान हो। बीच बीच में वह अरुणांचल पर अडियल रवैया अपनाकर वह इस बात का संकेत भी देता है कि उसका धीरज जवाब दे रहा है। यह इसलिए भी संदेहास्पद लग रहा है क्योंकि चीन में जो कठोर व्यवस्था है उसके चलते कोई भी उसके विद्रोहियों मदद नहीं कर सकता।

लेखक की स्मरण शक्ति मित्र भी होती है और शत्रु भी-चिंतन


होली का हल्ला थम चुका है। कोई नशे में मदहोश होकर तो कोई रंग खेलते हुए थककर सो रहा है तो कोई मस्ती में अभी भी झूम रहा है कि उसके खुश होने का कोटा पूरा हो जाये। सब इस दुनिया से बेखबर होना चाहते हैं मगर कुछ लोग फिर भी हैं जो चिन्त्तन करते हैं। आम आदमी की याददाश्त कमजोर होती है पर एक लेखक की स्मरण शक्ति ही उसकी मित्र होती है-कुछ मायनों में दुश्मन भी।

चेतावनियों के स्वर कानों में गूँज रहे हैं और आंखों के सामने अखबारों में छपे गर्मी के आसन्न संकट के शब्द घूम रहे हैं। इस होली पर पानी खूब उडाया गया होगा। इसमें किसी ने कोई हमदर्दी नहीं दिखाई। अब आरही है गर्मी। पहले से ही दस्तक दे चुकी है और उसका जो भयानक रूप सामने आने वाला है वह हर वर्ष हम देखते हैं। गर्मी में पानी की कमीं के हर जगह से समाचार आयेंगे। कहीं आन्दोलन होगा। लोगों के हृदय में उष्णता उत्पन्न होगी और उसका ध्यान बंटाने के लिए बहुत सारे अन्य अर्थहीन विषय उठाये जायेंगे।

कभी-कभी लगता है देश में कोई समस्या ही नहीं है केवल दिखावा है। लोग पानी को रोते हैं पर फैलाते भी खूब हैं। देश के शहरों में सबके पास मोबाइल दिखता है उस पर बातें करते हैं। कौन है जो देश की हालत पर रोता है। कहीं से किसानों की आत्महत्या की खबर आती है पर कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। सब कुछ सामान्य चलता दिख रहा है। लोग घुट-घुटकर जी रहे हैं पर बाहर से दिखता है कि सामान्य हैं। लोग चीख रहे हैं पर कोई किसी की नहीं सुन रहा है। किसी से ज्ञान चर्चा करना निरर्थक लगता है क्योंकि वह अगले ही पर अपने अज्ञान का परिचय देता है।

वैचारिक रूप से दायरों में सिमट गए लोगों से अब बात करना मुश्किल लगता है। जिसके पास जाओ वह या तो अपने घर की परेशानी बताता है या वह उसकी किसी भौतिक उपलब्धि का बयान करता है। में खामोश होकर सुनता हूँ। मुझे अपने घर-परिवार के जो काम करने हैं उनको करता हूँ। जो चीजें लाना होता है लाता हूँ पर उनका बखान नहीं करता।
”सुनो कल मैं मेले गया था वहाँ से नया फ्रिज ले आया।”
”मैंने अपने बेटे को गाडी दिलवा दी।”
”मैंने अपनी बेटी को मोबाइल दिलाया है।”
सब सुनता हूँ। फिर करते हैं देशकाल और राजनीति की बातें-जैसे कि बहुत बडे ज्ञाता हों। जब बताओ कि किस तरह सब जगह तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार उनकी बुद्धि को संचालित किया जा रहा है। समाचार उनको इस तरह दिए जा रहे हैं कि देश, समाज और लोगों की यथास्थिति बनी रहे और वह उसमें बदलाव की नहीं सोचें। बदलाव की बात कोई सोच कर वह कई लोगों के लिए परेशानी पैदा करेंगे। व्यवस्था में सुधार की बातें पर बहुत की जातीं हैं पर बदलाव की नहीं। तमाम तरह के वादे और नारे गढे गए और भी गढे जायेंगे।

कभी-कभी उकता जाता हूँ, फिर सोचता हूँ कि सब मेरी तरह नहीं हो सकते। अपने जैसे लोगों का संपर्क ढूँढता हूँ और जब वह मिलते हैं तो लगता है कि वह भी इस दुनिया से क्षुब्ध हैं पर बदलाव की बात पर वह भी उदास हो जाते हैं उनको नहीं लगता कि वह उसे बदल सकते हैं और खुद को भी बदलने पर अपने साथ जुडे लोगों के विद्रोह का भय उन्हें सताता है-जिसे मोह भी कह सकते हैं।

कहीं एकांत मंदिर में जाकर बैठता हूँ और ध्यान लगाता हूँ। श्रीगीता में श्री कृष्ण जी के यह शब्द ”गुण ही गुण को बरतते हैं” मुझे याद आते है। मेरे अधरों पर मुस्कराहट खेल जाती है। मन प्रसन्न हो जाता है। भला मैं दूसरों से क्या अपेक्षा करूं। दूसरे के अन्दर गुणों का मैं नियंत्रणकर्ता नहीं हो सकता। जो गुण उसमें है नहीं और वह पैदा भी नहीं कर सकता उससे भला मैं क्यों कोइ अपेक्षा करूं। मैं निर्लिप्त भाव को प्राप्त होता हूँ। यह दुनिया मेरी नहीं है बल्कि मैं इसमें हूँ। वह चलती रहेगी उसके साथ मुझे चलना है और उसे दृष्टा बनकर चलते देखना है। लोगों को अपने मन ,बुद्धि और अहंकार के वश में पडा देख कर उनका अभिनय देखना है। धीरे-धीरे मन की व्यग्रता ख़त्म हो जाती है।

पाकिस्तान में ऊहापोह की स्थिति


पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी अभी हुई हैं यह मानना कठिन है। जिस तरह वहाँ के समीकरण बन रहे हैं उससे तो ऐसा लगता है कि पुराने नेताओं के आपसी विवाद फ़िर उभर का आयेंगे। वहाँ पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) की संभावना लग रही हैं। हालांकि नवाज शरीफ की पार्टी का अभी पीपीपी को समर्थन है पर उसके प्रमुख आसिफ जरदारी की कोशिश अन्य दलों को भी अपने साथ लेकर चलने की है। इस प्रयास में उन्होंने एम क्यू एम (मुहाजिर कौमी मूवमेंट) के प्रमुख अल्ताफ हुसैन से बातचीत की है। ऐसा लगता है कि इससे उनका अपने प्रांत सिंध में इसका विरोध हो रहा है।

वर्डप्रेस के ब्लॉग पर मेरी कुछ श्रेणियां अंग्रेजी में हैं जहाँ से जाने पर पाकिस्तानी ब्लोगरों के ब्लॉग दिखाई देते हैं। कल मैंने उनके एक ब्लॉग को पढा उसमें आसिफ जरदारी से एम क्यू एम को साथ न चलने चलने का सुझाव दिया गया। नवाज शरीफ से चूंकि चुनाव पूर्व ही सब कुछ तय है इसलिए पीपीपी के लिए अपने सबसे जनाधार वाले क्षेत्र में इसका कोई विरोध नहीं है पर एम क्यू एम का सिंध में बहुत विरोध है क्योंकि सिंध मूल के लोगों से मुहजिरों से धर्म के नाम पर एकता आजादी के बाद कुछ समय तक रही पर साँस्कृतिक और भाषाई विविधता से अब वहाँ संघर्ष होता रहता है। मुहाजिर उर्दू को प्रधानता देते हैं जबकि सिन्धी अपनी मातृभाषा को प्यार करते हैं। इसके अलावा सिंध मूल के लोगों में मुस्लिम सूफी विचारधारा से अधिक प्रभावित रहे हैं और उन पर पीर-पगारो का वर्चस्व रहा है। इसलिए सांस्कृतिक धरातल पर सिन्धियों और मुहाजिरों में विविधता रही है। इसलिए ही सिंध में मुहाजिरों की पार्टी एम.क्यू.एम. से किसी प्रकार का तात्कालिक लाभ के लिए किया गया तालमेल पीपीपी को अपने जनाधार से दूर भी कर सकता है और हो सकता है अगले चुनाव में-जिसकी संभावना राजनीतिक विशेषज्ञ अभी से व्यक्त कर रहे हैं- अपने लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है।
पाकिस्तानी ब्लोगरों के विचारों से तो यही लगता है कि वह लोग एम.क्यू.एम से पीपीपी का समझौता पसंद नहीं करेंगे। इधर यह भी संकट है कि अगर नवाज शरीफ पर ही निर्भर रहने पर पीपीपी की सरकार को उनकी वह मांगें भी माननी पड़ेंगी जिनका पूरा होना पार्टी को पसंद नहीं है। शायद यही वजह है कि अभी तक वहाँ ऊहापोह के स्थिति है।
इन चुनावों का मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल होने के बावजूद स्थिर रहेगा। इसके लिए पाकिस्तान के नेताओं को लोकतंत्र की राजनीति के मूल सिद्धांत पर चलना होगा’ लोकतंत्र में अपने विरोधी को उलझाए रहो पर उसे ख़त्म मत करो, क्योंकि उसे ख़त्म करोगे तो दूसरा आ जायेगा और हो सकता है कि वह पहले से अधिक भारी भरकम हो’।
मियाँ नवाज शरीफ ने बेनजीर को बाहर भागने के लिए मजबूर किया। राष्ट्रपति पद से लेघारी को हटाया और अपना एक रबर स्टांप राष्ट्रपति बिठाया पर नतीजा क्या हुआ? मुशर्रफ जैसा विरोधी आ गया जिसने लोकतंत्र को ही ख़त्म कर दिया। इसलिए अब राजनीति कर रहे नेताओं का यह सब चीजे समझनी होंगी क्योंकि अभी वहाँ लोकतंत्र मजबूत होने बहुत समय लगेगा और नेताओं के आपसी विवाद फ़िर सेना को सत्ता में आने का अवसर प्रदान करेंगे।

कुछ इधर-उधर की-आलेख


जब अपने ब्लोग पर कोई टिप्पणीनहीं होती तो एक निराशा मन में घर कर जाती है और ऐसा लगता है कि हम व्यर्थ ही लिख रहे हैं। अगर मुझे शुरू से ही टिप्पणियाँ नहीं मिली होती तब शायद इस बारे में नहीं सोचता और न लिखता। शुरू में जब मैंने लिखना शुरू किया तो मुझे यह मालुम भी नहीं था कि इस तरह टिप्पणियाँ मिलेंगी और मैं भी लिखूंगा। फिर जब टिप्पणियाँ आनी शुरू हुईं तो मुझे हिन्दी में लिखने का आईडिया भी नहीं था। बाद में ब्लोग स्पॉट पर टाईप कर दूसरेब्लोग पर टिप्पणियाँ करने लगा। शुरू में मैं केवल औपचारिक रूप से कमेंट रखता पर अब पूरा पढ़कर उसके अंशों पर टिप्पणियाँ करता हूँ। टिप्पणियों को लेकर मेरे अन्दर कोई दुराग्रह नहीं है। जिस ब्लोग को पढता हूँ और उससे अगर प्रभावित होता हूँ तो इस बात की परवाह नहीं करता कि उस ब्लोगर ने मुझे कभी टिप्पणी दी कि नहीं और आगे देगा कि नहीं। मैंने आत्ममंथन किया और पाया कि यह विचार अपने अन्दर एक प्रकार की कुंठा पैदा करता है और उससे अपना रचना कर्म प्रभावित होता है।
मैं बहुत लिखने वालों में हूँ इसलिए यह आशा तो बिलकुल नहीं करता कि मेरे मित्र मुझे हर लिखे पर टिप्पणी दें क्योंकि मेरा यहाँ उद्देश्य अपनी बात आम पाठक तक पहुँचना है। इसके बावजूद अपनी लिखी पोस्ट पर कमेन्ट आयेगी कि नहीं मुझे पता होता है। कुछ पोस्ट लिखते ही मुझे पता लग जाता है कि इस पर कोई टिप्पणी नहीं आयेगी क्योंकि वह भले ही मेरी दृष्टि से बहुत अच्छी और उसे पढ़ने वालों की संख्या भी कमनहीं होती परउसमें कुछ ऐसी विवादस्पद बातें होतीं है कि लोग उनसे टिप्पणी करने से बचते हैं । हाँ कुछ ऐसी कवितायेँ हास्य या गंभीर सन्देश का भाव से सराबोर होतीं हैं और उनको पोस्ट करते समय मुझे पता लग जाता है कि कोई न कोई टिप्पणी जरूर आयेगी। आखिर जब मैं किसी से प्रभावित होकर दूसरों को कमेन्ट देने में परवाह नहीं करता तो कई और लोग भी हैं जो इस बात के परवाह नहीं करते कि मैं उनको कमेन्ट देता हूँ किनहीं।
अब मैं अपने लिखे पर ही अधिक ध्यान देता हूँ कि वह पढ़ने वालों को प्रभावित कर सके। कई बार कुछ लोगों को कमेन्ट न मिलने के शिकायत होती है उन्हें एक बात मैं कहना चाहता हूँ कि वह इस बात की परवाह न करें क्योंकि कमेन्ट न आना इस बात का प्रमाण नहीं है कि लोग हमसे चिढे हुए हैं या उपेक्षा कर रहे हैं। इसका कारण पोस्ट का प्रभावपूर्ण न होना भी हो सकता है और दिन और समय भी। दिन के समय ब्लोगर कम ही सक्रिय दिखते हैंकभी तो ऐसा लगता है कि सुबह और शाम अधिक उपलब्ध होते हैं दूसरे शादी और क्रिकेट के दिनों और समय में भी उनके सक्रियता कम दिखती है। ऐसे में कमेन्ट लगाने वालों की संख्या कम हो जाती है।
आखिरी बात यह कि जिन लोगों को यह शिकायत है कि कमेन्ट कम मिल रहीं है उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि वह स्वयं कमेन्ट कितनी देते हैं। अगर उनको लगता है कि उनको कम पढा जा रहा है तो इसके लिए भी वह खुद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वह स्वयं भी ब्लोग को नहीं पढ़ रहे वरना उनको यह पता लगता कि यहाँ किस तरह के पाठक है और उनके प्रिय विषय क्या हैयहाँ एक बात समझ लेना चाहिऐ कि अधिकतर ब्लोगर उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और हल्का-फुल्का लिखकर उनको प्रभावित नहीं कर सकते-भले ही कुछ लोगों को औपचारिक रूप से कमेन्ट देते हों। कुछ लोग दूसरों के ब्लोग अपने यहाँ दिखाते हैं। शीर्षक के साथ अपनी एक लाइन जोड़ देते हैं। उनको एक नहीं बारह कमेन्ट होते हैं पर जिनके ब्लोग वहाँ है उनको कोई देखता भी नहीं है। एक प्रतिष्ठत ब्लोग पर मेरे एक नहीं तीन ब्लोग के शीर्षक थे पर मेरे ब्लोग पर एक भी पाठक वहाँ से नहीं आया और उस पर पंद्रह कमेन्ट थे। मतलब यह कि जिस तरह कमेन्ट आना अच्छी रचना होने का प्रमाण नहीं है उसी तरह उसका न आना भी खराब होने का प्रमाण नहीं है। हाँ अगर बहुत अच्छी है तो कई लोग बिना हिचक कमेन्ट देंगे ही-यही सोचकर लिखता जाता हूँ। लिखना और कमेन्ट लेना-देना दो अलग विधाएं हैं अत: दोनों के बारे में अपना दृष्टिकोण अलग-अलग समय पर अलग रखना होगा। कमेन्ट लिखने के लिए हम जैसे खुद हैं वैसे ही सब हैं । हिन्दी लेखन के लिए यह एक अलग और नया विषय है और इसमें किसी से उम्मीद करने की बजाय हमें भी इसलिए लिए तैयार करना होगा। हाँ अपने लिखे पर अवश्य ध्यान दें क्योंकि यह आगे आम पाठक द्वारा भी पढा जाने वाला है अत: अपने विषय का चयन करते समय इस बात का ध्यान भी अवश्य रखें ।

गृहस्थ को ‘ज्येष्ठाश्रमी’ भी कहा जाता है


महायोगी दक्षजी का कहना है की गृहस्थाश्रम अन्या तीनों आश्रमों की योनी है, इसमें सभी आश्रमों के प्राणियों की उत्पति होती है। अत: यह सभी का आधार भी है और आश्रय भी है। इसलिए गृहस्थ को ‘ज्येष्ठाश्रमी’ भी कहा जाता है।
पितर, देवता, मनुष्य, कीट-पतंग, पशु-पक्षी, जीव-जंतु अर्थात जितना भी प्राणी जगत है गृहस्थ से पालित-पोषित होता है।
सदगृहस्थ नित्य पञ्चयज्ञों के दवारा, श्राद्ध-तर्पण द्वारा और यज्ञ-दान एवं अतिथि-सेवा आदि के द्वारा सबका भरण-पोषण करता है। वह सबकी सेवा करता है।
इसलिए वह सबसे श्रेष्ठ कहा गया है। यदि वह कष्ट में रहता है तो अन्य तीनों आश्रम वाले भी कष्ट में रहते हैं।

सच्चा गृहस्थ वह है जो शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हुए सदा सबकी सेवा में रहता है और गृहस्थ धर्म एवं सदाचार का पालन करता है, वही गृहस्थाश्रमी कहलाने का अधिकारी है।

”कल्याण’ से साभार

वही प्यार पाने के लिए तरसे-कविता


कोई दौलत को तो कोई आदमी प्यार को तरसे
कोई तरसता है तो कोई बैचेन होता अपने घर से
ऊहापोह हैं जिन्दगी निकल जाती, पकड़ नहीं पाते
घंटों सोच में बिताते, पर नहीं निभाते पल भर से
दौलत के ढेर पर बैठकर, बदहाल नीचे खडे लोग देखते
नीचे खडे होते, तब ऊपर से रोटी गिरने के लिए तरसे
अपने लिए ढूंढते हैं सभी खुशियों की सौगात
पर अपने दुख दूसरों से बांटने के लिए तरसे
अपने होने का अस्तित्व का अहसास सबको है
नहीं रखते वास्ता रखते, दूसरे के जिगर से
जो जान पाते जिन्दगी का रंग-बिरंगा रूप
तो देख पाते सबके तमाशे अपनी नजर से
अपनी खुशी के आकाश को ऊंचा उठते तो देखा
पर साथ लेते उनको भी, जो उड़ने के लिए तरसे
तभी जाने पाते जिन्दगी जिन्दादिली का नाम
अपने लिए जो जिए, वही प्यार पाने को तरसे
———————————————–