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महान बुझे चिराग-व्यंग्य चिंतन (mahan bujhe chira-hindi vyangya chitan)


महान होने का मतलब क्या होता है? कम से कम हम इसका आशय तो उसी व्यक्ति से लेते हैं जिसने अपनी मेहनत, लगन तथा चिंतन के आधार पर कोई ऐसी उपलब्धि हासिल की हो जिससे समाज का भला हुआ हो या उसे फिर गौरवान्वित किया हो। अगर किसी ने नित्य प्रतिदिन अपना स्वाभावाविक कर्तव्य पूरा करते हुए केवल अपने लिये ही उपलब्धि प्राप्त की हो तो उसे महान कतई नहीं माना जा सकता। समाज हमेशा ही अपनी रक्षा, विकास तथा निर्देशन के लिये महान आत्माओं का धारण करने वाली देहों को देखकर अपना मन प्रसन्न करना चाहता है।
यही से शुरु होता है वह खेल जिसे बाजार अपने ढंग से खेलता है। अपने देश में महान लोगों की इज्जत होती है पर महान होना कोई आसान काम नहीं है। महान बनते बनते लोगों ने अपने घर और व्यवसाय तक त्याग डाले। उनकी तपस्या ने समाज को जो दिया वह एक अक्षुण्ण संपदा बन गया। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। कहते हैं न कि हजारों साल धरती जब तरसती है तब कहीं जाकर उसकी झोली में एक दो दिलदार आकर गिरता है।
मगर बाजार क्या करे? उसे तो रोज कोई न कोई महान आदमी चाहिए। देवता नहीं तो राक्षस, दानी न मिले तो अपराधी और समाज को लिये कुछ न करने वाला न मिले तो अपने लिये करने वाला भी चलेगा। बाजार की ताकत इतनी अधिक है कि अगर कोई स्वयं वाकई महान काम कर चुका हो तो भी उसके मुंह से दूसरे का नाम महान के रूप में रखवा ले।
किसी अपराधी को खूंखार कहना भी उसकी एक तरह से प्रशंसा करना है। जब विदेश में बैठे अपराधी भारतीय प्रचार माध्यमों में अपने साथ ‘खूंखार’ की उपाधि लगते हुए देखतेे होंगे तो खुश होते होंगे। अपराधी तो अपराधी होता है-छोटा क्या बड़ा क्या, खूंखार क्या रहम दिल क्या?
अगर यहां चलते फिरते किसी दादा से कहो कि तुम अपराधी हो तो वह लड़ने दौड़ेगा। अगर आप उससे कहो कि तुम खूंखार अपराधी हो तो वह हंसकर कहेगा-‘तो मुझसे डरते क्यों नहीं।’
टीवी चैनलों पर रोज हर क्षेत्र में महानतम नाम आते हैं। बाजार अपने लिये ही कई ऐसी प्रतियोगितायें कराता है जिसमें विजेता के नाम पर उसे महानतम लोग मिल जाते हैं। विश्व सुंदरी और अन्य खेल प्रतियोगिताओं में उसे ऐसी महानतम हस्तियां हर वर्ष मिल जाती हैं। उनके देश को क्या मिला? इससे बाजार मतलब नहीं रखता। प्रचार तंत्र भी इसी बाजार का अभिन्न हिस्सा है। यही प्रचारतंत्र उससे विज्ञापन पाता है तो उसके सौदागरों को भी महान धनी, दानी, और होशियार बताकर प्रशंसा प्रदान करता है। ऐसे में यह कहना कठिन होता है कि प्रचार तंत्र बाजार को चला रहा है या बाजार उसको। कल्पित नायकों की फौज महानतम बन गयी है। फिल्मों के नायक और खेलों के खिलाड़ियों में अब अधिक अंतर नहीं दिखाई देता। फिल्मी हस्तियां क्रिकेट मैच करवा रही हैं तो क्रिकेट खिलाड़ी कही रैम्प पर नाचते हैं तो कहीं टीवी चैनलों पर हास्य प्रतियोगिताओं के निर्णायक बन रहे हैं। सब महानतम हैं। भारत में कोई पैदा हुआ पर काम करता है अमेरिका में। उसे नोबल पुरस्कार मिला तो बस प्रचारतंत्र लग जाता है उसे महानतम बताने में। जैसे कि उसे इस देश ने ही बनाया।
कई बार तो समझ में नहीं आता कि आखिर यह महान हो कैसे गये। अरे, भई अपने लिये तो सभी उपलब्धियां जुटाते हैं। कोई अधिक तो कोई कम! अभी उस दिन एक क्रिकेट खिलाड़ी के बीस बरस पूरा होने पर सारा प्रचारतंत्र फिदा था। अब भी उसे भुना रहा है। इधर हमें याद आ रहा है कि भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता में विश्व कप 1983 में जीता था जिससे 26 बरस हो गये। फिर भारत ने बीस ओवरीय प्रतियोगिता में विश्व कप जीता तो उसका वह सदस्य नहीं था। उसने एक बार भी भारत को विश्व कप नहीं जितवाया मगर उसे बाजार महान बना रहा है। उसके नाम पर एक भी बड़ी प्रतियोगिता नहीं है मगर वह महानतम है क्योंकि वह बड़े शहर में रहता है जहां फिल्मों में कल्पित नाायक का अभिनय करने वाले बड़े बड़े अभिनेता रहते हैं। यह बड़ा शहर मुंबई भारत की देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है-यह विवादास्पद है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बागडोर आज भी किसानों की पैदावर के हाथ में मानी जाती है, अगर बरसात समय पर न हो या अकाल पड़े तो उसके बाद इस देश की क्या हालत होगी यह समझी जा सकती है। कभी कभी तो लगता है कि देश का पैसा वहां जा रहा है न कि वहां से देश के अन्य भागों में आ रहा है। यह सही है कि नये अर्थतंत्र के आधार मुंबई में है और वही इस प्रचार तंत्र का आधार हैं। यही कारण है कि भारतीय बाजार और प्रचारतंत्र के मसीहा वहीं बसते हैं। इधर उस खिलाड़ी को महानतम बताने के लिये कोई ठोस वजह नहीं मिल रही थी तो उससे अपने भारतीय होने के गौरव का बयान दिलवाया फिर उसका विरोधी एक वयोवृद्ध शख्सियत से करवा लिया जिससे उसे खिलाड़ी से कहा कि‘ तुम तो अपनी पिच संभालो।’
बस प्रचारतंत्र में बवाल मच गया। मचना ही था क्योंकि यही तो बाजार चाहता था। अब उसे खिलाड़ी की राष्ट्रभक्ति के गुणगान किये जाने लगे। अगले ही दिन उस वयोवृद्ध शख्सियत का बयान आया कि उसने तो यह केवल प्रचारतंत्र में अपने ही एक प्रतिद्वंद्वी पर बढ़त बनाने के लिये दिया था। क्या गजब की योजनाएं बनती हैं कि देखकर दिल दिमाग दंग रह जाते हैं। एक भी विश्व कप उसके नाम पर नहीं है तो आखिर उस खिलाड़ी की महानता को आगे बाजार कैसे चलाता? सो उस पर देशभक्त का लेबल लगाकर उसके नायकत्व को आगे जारी रखने का यह प्रयास अद्भुत है! फिल्म अभिनेता महान, सुंदरियां महान, खिलाड़ी महान और धर्म का सौदा करने वाले संत महान! समाज जस का तस! अपने अंधेरों से जूझता हुआ इस इंतजार में कि ‘कब कोई उसको रौशनी देगा।
टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं अध्यात्मिक चर्चाएं और सड़कों पर सभायें होती हैं। नैतिकता और आदर्श का ऐसा प्रचार कि देखकर लगता है कि हम स्वर्ग में रह रहे हैं। जब सत्य से वास्ता पड़ता है तो लगता है कि यह कोई नरक हैं जहां गलती से आ गये। पिछले चार सौ सालों की एतिहासिक गाथाओं में अनेक महानतम लोगों की चर्चा आती है पर देश का क्या? जब रहीम, तुलसी, कबीर और गुरुनानक जी की वाणी को पढ़ते हैं तो लगता है कि समाज उस समय भी ऐसा ही था। इतना ही अंधेरा था। उनकी वाणी आज भी रौशनी की तरह जलती है पर लोगों को शायद अंधेरा ही पंसद है या उनको पता ही नहीं कि रौशनी होती क्या है?
किसे दोष दें। कल्पित नायकों की गाथा सुनाते हुए प्रचार तंत्र को या उसे सुनकर भावुक होते हुए आम लोगों को। बाजार तो वही बेचेगा जो लोगों को पंसद आयेगा। लोगों को क्या अंधेरा ही पसंद है। पता नहीं! मगर सभी अंधे नहीं है। कुछ लोगों में चिंतन है जो इस बात को समझते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो संतों और महापुरुषों की वाणी की रौशनी इस तरह आगे चलती हुई नहीं जाती। बाजार के महानतम उसके सामने बुझे चिराग जैसे दिखते हैं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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सच है ऑस्कर में क्या रखा है-आलेख


इस देश में कई ऐसे लोग है जो अमिताभ बच्चन के अभिनय और आवाज से अधिक उनके व्यक्तित्व और वक्तव्यों से अधिक प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन जहां जवां दिलों को भाते हैं और फिल्म प्रेमियों को लुभाते हैं वहंी बुद्धिजीवी वर्ग में भी उनकी एक जोरदार छबि है। जिन बड़े लोगों ने अपने ब्लाग शुरू किये हैं उनमें एक अमिताभ ही ऐसे ही जो अपने लेखन से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

आज टीवी पर उनका एक बयान सुनने को मिला जिसमें उन्होंने कहा कि ‘आस्कर में क्या रखा है‘। उनकी यह बात दिल को छू गयी। वह प्रसिद्ध कवि हरिबंशराय बच्चन के सुपुत्र हैं और जहां तक हिंदी बोलने या लिखने का प्रश्न है वह शायद हिंदी फिल्मों के अकेले ऐसे अभिनेता होंगे जिनको अपनी मातृभाषा में साहित्य लिखना आता होगा-बाकी भी होंगे पर इस लेखक को इसकी जानकारी नहीं है। यह लेखक लिखने में उनकी बराबरी तो नहीं कर सकता पर इतना जरूर कह सकता है कि दूसरा यहां कोई ‘अमिताभ बच्चन’ जैसा होगा यह संभव नहीं है इसलिये प्रचार माध्यम चिंतित रहते हैं। इसलिये हर साल आस्कर का बवाल खड़ा उठता है। अमिताभ बच्चन को कभी न तो आस्कर मिला न शायद कभी उसके लिये उनके नाम का चयन हुआ पर अगर आज उनको मिल भी जाये तो फर्क क्या पड़ता है। इस देश के लिये अमिताभ बच्चन जी को अमिताभ बच्चन ही रहना है। कोई उन जैसा नहीं बन सकता पर इसलिये बाकी लोग यह आशा करते हैं कि आस्कर मिल जाये तो कम से कम उनको प्रचार के मामले में चुनौती दे सकें और कह सकें कि अमिताभ बच्चन में क्या रखा है, हमें तो आस्कर मिल गया है’। सच तो यह है कि अनेक अभिनेताओं के मन में अमिताभ जैसा सम्मान पाने की इच्छा है पर वह जानते हैं कि यह संभव नहीं है और इसलिये वह आस्कर के द्वारा उनकी बराबरी करना चाहते हैं।
कई बार यह ख्याल समझदार लोगों को आता है कि आखिर आस्कर मिल जाने से होना क्या है?सच बात तो यह है कि आस्कर किसी फिल्म को तब मिलता है जब वह दर्शकों से पूरा पैसा वसूल कर चुकी है। अगर किसी हिंदी फिल्म को आस्कर मिल भी जाये तो उसकी दर्शक संख्या इसलिये नहीं बढ़ सकती कि उसे पुरस्कार मिल गया या फिर किसी अभिनेता की अगली फिल्म इसलिये हिट नहीं हो सकती कि उसे आस्कर अवार्ड मिल गया। दरअसल यह तो अन्य अभिनेताओं,निर्देशकों और निर्माताओं के साथ बाजार प्रबंधकों के लिये सोचने का विषय है जो इस देश के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने कोई दूसरा विकल्प खड़ा करना चाहते हैं जिसमें अभी तक वह नाकाम रहे हैं। बाजार चाहे कुछ भी कर ले वह दूसरा अमिताभ ब्रच्चन नहीं बना सकता क्योंकि मनुष्य में कुछ गुण स्वाभाविक होते हैं जो पैसे सा शौहरत आने से नहंीं पैदा होते। अमिताभ बच्चन का सबसे बड़ा गुण है अपनी बात को सहज रूप से हिंदी मेंं कहना और यही कारण है कि जब वह दूरदर्शन पर कोई साक्षात्कार देते हैं तो लोगों के दिल में छा जाते हैं जबकि अन्य अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात्कारों से ऐसा लगता है कि उनकेा हिंदी नहीं आती और आम हिंदी दर्शक इससे निराशा और परायापन अनुभव करता है। आजकल प्रचार माध्यमों का जनता पर बहुत प्रभाव है और यही कारण है कि हिंदी फिल्मों के अभिनेता उसके हृदय पटल पर प्रभाव नहीं डाल पाते।
अगर हिंदी फिल्मों का कोई अभिनेता आस्कर भी ले आये तो भी श्री अमिताभ बच्चन जैसा सम्मान लोगों से नहंी पा सकता। अलबत्ता प्रचार माध्यम जरूर उनको कई बरस तक सिर पर उठा लेंगे। जहां तक आम आदमी के दिल पर राज करने का प्रश्न है तो कम से कम अगले पचास वर्ष तक अमिताभ बच्चन की बराबरी करने वाला नहीं मिल सकता। फिल्मी दुनियां की हालत सभी जानते हैं। फिल्मी गायक किशोर कुमार,मोहम्मद रफी,मन्ना डे, और मुकेश की बराबरी करने वाला आज भी कोई नहीं है जबकि ढेर सारे गायक हैं फिर अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता की तो बात ही क्या जो हर दिन एक नया मील का पत्थर रखता है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अति लगे पर इस लेखक के मन का सच यही है और इसे मानने वाले ही अधिक होंगे।
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