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सम्मान वापसी और रचनात्मकता का वैचारिक संघर्ष-हिन्दी लेख


          अब हम उन्हें दक्षिणपंथी कहें या राष्ट्रवादी  जो अब पुराने सम्मानीय लेखकों के सामान वापसी प्रकरण से उत्तेजित हैं और तय नहीं कर पा रहे कि उनके प्रचार का प्रतिरोध कैसे करें?  इस लेखक को जनवादी और प्रगतिशील लेखक मित्र दक्षिणपंथी श्रेणी में रखते हैं। मूलत हम स्वयं  को भारतीय अध्यात्मिकवादी मानते हैं शायद यही कारण है कि दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी लेखकों से स्वभाविक करीबी दिखती है-यह अलग बात है कि थोड़ा आगे बढ़े तो उनसे भी मतभिन्नता दिखाई देगी।  एक बात तय रही कि दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अंतर्जालीय लेखकों से हमारी करीबी दिखेगी क्योंकि जिसे वह हिन्दू धर्म कहते हैं हम उसे भारतीय अध्यात्मिक समूह कहते हैं।  दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी वैचारिक युद्ध में जनवादियों और प्रगतिशीलों जैसी रचना शैली रखना चाहते हैं जो कि पश्चिम तकनीकी पर आधारित है जो कि कारगर नहीं हो पाती।

                                   पहले तो दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को अपने हृदय से यह कुंठा निकाल देना चाहिये कि वह जनवादी और प्रगतिशील लेखकों की तरह रचना नहीं लिख सकते। हम सीधी बात कहें नयी रचनायें होनी चहिये पर यह हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान नारे वालों के लिये बाध्यता नहीं है।  रामायण, महाभारत, भागवत, श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही वेद और उपनिषद जैसी पावन रचनायें पहले से ही अपना वजूद कायम किये हैं। संस्कृत साहित्य इस तरह अनुवादित हो गया है कि वह हिन्दी की मौलिक संपदा लगता है।  उसके बाद हिन्दी का मध्य काल जिसे स्वर्ण काल की रचनायें तो इतनी जोरदार हैं कि प्रगतिशील और जनवादी अपनी नयी रचनाओं के लिये पाठक एक अभियान की तरह इसलिये जुटाते हैं क्योंकि हमारा पूरा समाज अपनी प्राचीन रचनाओं से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है और सहजता से उसे नहीं भूलता।  इतनी ही नहीं आज का पाठक भी तुलसी, रहीम, कबीर, मीरा, सूर तथा अन्य महाकवियों की रचनाओं से इतना मंत्रमुग्ध है कि वह नयी रचना उनके समकक्ष देखना चाहता है।  प्रगतिशील और जनवादियोें को अपनी रचना जनमानस में लाने के लिये पहलीे पाठकों की स्मरण शक्ति ध्वस्त करना होती है इसलिये वह अनेक तरह के स्वांग रचते हैं जबकि दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को इसकी अपनी प्राचीन बौद्धिक संपदा के होते इसकी आवश्कता नहीं होती।  आपने देखा होगा कि कहीं अगर श्री मद्भागवत कथा होती है तो वह लोग उसके श्रवण के लिये स्वयं पहुंच जाते हैं पर कहीं कवि सम्मेलन हो तो उसका विज्ञापन करना पड़ता है। हमारी प्राचीन साहित्य संपदा इतनी व्यापक है कि वह पूरे जीवन पढ़ते और सुनते रहो वह खत्म नहीं होती सांसों की संख्या कम पड़ जाती है।  प्रगतिशील और जनवादी ऐसे मजबूत बौद्धिक समाज में सेंध लगाने के लिये संघर्ष करते हुए सम्मान, पुरस्कार, और कवि सम्मेलनों का खेल दिखाते हैं। उनकी सक्रियता उन्हें प्रचार भी दिलाती रही है। इतने संघर्ष के बावजूद यह लेखक पुराने बौद्धिक किले में सेंध नहीं लगा सके यह निराशा तो उनके मन में ही थी इस पर अब उन्हें प्रचार माध्यमोें से मिलने वाला समर्थन भी बदले हुए समय में कम होता जा रहा है। प्रचार माध्यम आजकल दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी विद्वानों के कथित विवादास्पद बयानों पर बहसे अधिक करने लगे हैं और प्रगतिशीलों और जनवादियों को लगता है कि यही पांच साल चला तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।  मनुस्मृति के एक श्लोक और रामचरित मानस के एक दोहे का हिन्दी में अर्थ से अनर्थ कर इन लोगों ने समूची प्राचीन रचनाओं को ही भ्रष्ट प्रचारित कर पिछले साठ वर्षों से अपना पाठक समाज जुटाया जो अब इनसे दूर होने लगा है।

                                   प्रगतिशील और जनवादियों की रचनायें समाज को टुकड़ों में बांटकर देखती हैं।  पुरुष महिला, युवा बूढ़ा, गरीब अमीर, अगड़ा पिछड़ा और सवर्ण, मजदूर मालिक और बेबस और शक्तिशाली के बीच संघर्ष तथा समस्या  के बीच यह लोग पुल की तरह अपनी जगह बनाते हैं।  जनवादी रचनायें समाज में मानवीय स्वभाववश चल रहे संघर्षों में कमजोर पक्ष को राज्य या जनसंगठन के आधार पर विजयी दिखाती हैं तो प्रगतिशील  रचनायें संघर्ष तथा समस्या को कागज पर लाकर समाज या राज्य को सोचने के लिये सौंपती भर हैं। विजय या निराकारण कोई उपाय वहीं नहीं बतातीं।  भारतीय अध्यात्मिकवादी इन संघर्षों और समस्याओें को सतह पर लाते हैं पर वह समाज में चेतना लाकर उसे स्वयं ही जूझने के लिये प्रेरित करते हैं। एक अध्यात्मिकवादी लेखन के अभ्यासी के नाते हमें यह लगने लगा है कि अपने प्राचीन ज्ञान से परे रहने के कारण ही हमारे राष्ट्र में संस्कारों, संस्कृति आज सामाजिक संकट पैदा हुआ है।  अभी एक फिल्म आयी थी ओ माई गॉड। उसकी कहानी को हम अध्यात्मिकवादी रचना मान सकते हैं क्योंकि वह चेतना लाने की प्रेरणा देती है न कि समस्या को अधूरा छोड़ती है।

                                   प्रगतिशील और जनवादी सुकरात, शेक्सपियर और जार्ज बर्नाड शॉ जैसे पश्चिमी रचनाओं को समाज में लाये। उनका लक्ष्य तुलसी, कबीर, रहीम, मीरा, सूर की स्मृतियां विलोपित करना था। ऐसा नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में विद्वान नहीं हुए पर उनकी रचनायें वह रामायण, भागवत, महाभारत, रामचरित मानस और गुरुग्रंथ साहिब जैसी व्यापक आधार वाली नहीं हैं। इसके अलावा चाणक्य और विदुर जैसे दार्शनिक हमारे पास रहे हैं।  ऐसे में सुकरात और स्वेट मार्डेन जैसे पश्चिमी दार्शनिकों को बौद्धिक जनमानस में वैसी जगह नहीं मिल पायी जैसी कि प्रगतिशील और जनवादी चाहते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे देश में काव्यात्मक शैली अधिक लोकप्रिय रही है। एक श्लोक या दोहे में ऐसी बात कही जाती है जिसमें ज्ञान और विज्ञान समा जाता है। गद्यात्मक रचनायें अधिक गेय नहीं रही जबकि प्रगतिशील और जनवादी इस विधा में अधिक लिखते हैं। जनवादी और प्रगतिशील भारतीय समाज के अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करते हैं पर उससे बचने का मार्ग वह नहीं बताते। उनकी प्रहारात्मक शैली समाज में चिढ़ पैदा करती है। जबकि हम देखें कि यह कार्य भगवान गुरुनानकजी संतप्रवर कबीर, और कविवर रहीम ने भी किया पर उन्होंने परमात्मा के नाम स्मरण का मार्ग भी बताया।  समाज उन्हें आज भी प्रेरक मानता है। इसलिये यह कहना कि भारतीय समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है गलत है।

                                   दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की ताकत देश में वर्षों से प्रवाहित अध्यात्मिक ज्ञान ही है जिसके अध्ययन करने पर ही ऐसी तर्कशक्ति मिल सकती जिससे  प्रगतिशील और जनवादियों से बहस के चुनौती दी जा सके।  इस लेखक ने अनुभव किया है कि जनवादी  बहस के समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के नाम से ही चिढ़ते हैं।  मनुस्मृति में उनके अवर्णों और स्त्री के प्रति अपमान ही नज़र आता है।  जबकि उसी मनुस्मृति में स्त्री के साथ जबरन संपर्क करने वाले को ऐसी कड़ी सजा की बात कही गयी है जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब हम ऐसे तर्क देते हैं तो वह मुंह छिपाकर भाग जाते है।  एक मजेदार बात यह कि जनवादी हिन्दू धर्म के अलावा सभी धर्मों मेें गुण मानते हैं।  यह राज हमारे आज तक समझ में नहीं आया पर अब लगने लगा है कि उनके पास भारतीय बौद्धिक समाज में पैठ बनाने के लिये यह नीति अपनाने को अलावा कोई चारा भी नहीं है।  दूर के ढोल सुहावने की तर्ज पर ही  वह पाश्चात्य विचाराधारा के सहारे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते है।

                                   इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा के लोगों अब ऐसे अध्यात्मिक अभ्यासियों को  साथ लेना चाहिये जो गृहस्थ होने के साथ ही लेखन कार्य में सक्रिय हों। पेशेवर धार्मिक शिखर पुरुषों के पास केवल ज्ञान के नारे रट्टे हुए हैं और वह आस्था पर चोट की आड़ लेकर आक्रामक बने रहते हैं।  हमने जब मनुस्मृति और विदुर के संदेश लिखना प्रारंभ किये थे तब टिप्पणीकर्ताओं ने साफ कर दिया था कि आप किसी सम्मान की आशा न करें क्योंकि आप धाराओं से बाहर जाकर काम कर रहे हैं। हम करते भी नहीं।  सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में वातावरण रहा है उसके चलते मनुस्मृति के संदेशों की व्याख्या करने वालो को सम्मानित करने का अर्थ हैं अपने पांव कुल्हारी मारना।  हम आज भी नहीं चाहेंगे कि हमें सम्मान देकर मनुवादी होने का कोई दंश झेले पर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अब अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ायें-यह हमारी कामना है।

          —————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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भारत के मजदूरों समझदार हो जाओ-हिन्दी कविता


दुनियां के मज़दूरों

अब समझदार भी हो जाओ।

करते हैं जो तुम्हें महलों का

स्वामी बनाने का दावा

दौलतमंदों के लिये

करते छलावा

हड़ताल पर मत जाओ।

कहें दीपकबापू हंसिया हथौड़ा

तुम्हारी मजदूरी के हथियार हैं

हुड़दंग का चिन्ह न बनाओे

 दलाल भेड़ों की भीड़ की तरह

तुम्हें चौराहों पर सजाते हैं

उनके बहकावे में न आओ।

————–

युवा शक्ति के

विकास का नारा

धन के लोभी लगाते हैं।

कहीं चूसते पसीना

कहीं पैसे के लिये

नशे का बाज़ार सजाते है।

कहें दीपक बापू युवा शक्ति से

देश विकसित हो जाता

अगर कोई खूबसूरत सपने के

सच में उगने के बीज बो पाता,

यहां तो युवा खून के सौदागर

मुफ्त का पसीना बनाते हैं।

—————–

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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xबाहूबली फिल्म की सफलता पर चर्चा-हिन्दी लेख


                              अंग्रेजी संस्कारों ने हमारे देश में रविवार को सामान्य अवकाश का दिन बना दिया है। रविवार के दिन सुबह भजन या अध्यात्मिक सत्संग प्रसारित करने वाले टीवी चैनल खोलकर देखें तो वास्तव में शांति मिलती है। चैनल ढूंढने  के लिये रिमोट दबाते समय अगर कोई समाचार चैनल लग जाये तो दिमाग में तनाव आने लगता है-उसमें वही भयानक खबरें चलती हैं जो एक दिन पहले दिख चुकी हैं- और जब तक मनपसंद चैनल तक पहुंचे तक वह बना ही रहता है।  बाद में भजन या सत्संग के आनंद से मिले अमृत पर ही उस तनाव का निवारण हो पता है।

                              वैसे तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार सभी दिन हरि के माने जाते हैं पर अंग्रेजों ने गुलामी से मुक्ति देते समय शिक्षा, राजकीय प्रबंध व्यवस्था तथा रहन सहन के साथ ही भक्ति में भी अपने सिद्धांत सौंपे जिसे हमारे सुविधाभोगी शिखर पुरुषों से सहजता से स्वीकार कर लिय।  जैसा कि नियम है शिखर पुरुषों  का अनुसरण  समाज करता ही है।  हमें याद है पहले अनेक जगह मंगलवार को दुकानें बंद रहती थीं।  वणिक परिवार का होने के नाते मंगलवार हमारा प्रिय दिन था।  बाद में चाकरी में रोटी की तलाश शुरु हुई तो रविवार का दिन ही अध्यात्मिक के लिये मिलने लगा।  इधर हमारे धार्मिक शिखर पुरुषों-उनके अध्यात्मिक ज्ञानी होने का भ्रम कतई न पालें-ने जब देखा कि उनके पास आने वाली भीड़ में नौकरी पेशा तथा बड़ा व्यवसाय या उद्योग चलाने वाले ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो रविवार के दिन ही  अवकाश लेते हैं तो उन्होंने उसे ही मुख्य दिवस बना दिया।

                              इधर प्रचार माध्यम भी रविवार के दिन ‘सुपर संडे’ बनाने का प्रयास करते हैं और उनके स्वामियों के प्रायोजित अनेक संगठन इसी दिन कोई प्रदर्शन आदि कर उनके लिये प्रचार सामग्री बनाते हैं या फिर कोई बंदा सनसनीखेज बयान देता है जिससे उन्हें सारा दिन प्रचारित कर बहस चलाने का अवसर मिल जाता है।  अन्ना आंदोलन और चुनाव के दौरान इन प्रचार माध्यमों को ऐसे अवसर खूब मिले पर अब लगता है कि अब शायद ऐसा नहीं हो पा रहा है। फिर भी महिलाओं के प्रति धटित अपराध अथवा धार्मिक नेताओं के बयानों से यह अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री निकालने का प्रयास कर रहे हैं। यह अलग बात कि जम नहीं पा रहा है।

                              इधर बाहुबली फिल्म की सफलता के अनेक अर्थ निकाले जा रहे हैं।  यह अवसर भी प्रचार माध्यम स्वयं देते है-यह पता नहीं कि वह अनजाने में करते हैं या जानबुझकर-जब बॉलीवुड के सुल्तान और बादशाह से बाहूबली फिल्म के नायक की चर्चा कर रहे हैं। तब अनेक लोगों के दिमाग में यह बात आती तो है कि अक्षय कुमार, अजय देवगन, सन्नी देयोल, अक्षय खन्ना और सुनील शेट्टी जैसे अभिनेता भी हैं जो फिल्म उद्योग को भारी राजस्व कमा कर देते हैं।  अक्षय कुमार के लिये इनके पास कोई उपमा ही नहीं होती।  यह अभिनेता अनेक बार आपस में काम कर चुके हैं पर उसकी चर्चा इतने महत्व की नहीं होती जैसी सुल्तान और बादशाह के आपस में अभिवादन करने पर ही हो जाती है।  अंततः फिल्म और टीवी भावनाओं पर ही अपना बाज़ार चमकाते हैं और इससे जुड़े लोगों का पता होना चाहिये कि उनके इस तरीके पर समाज में जागरुक लोग रेखांकित करते हैं।  सभी तो उनके मानसिक गुलाम नहीं हो सकते। हम ऐसा नहीं सोचते पर ऐसा सोचने वाले लोगों की बातें सुनी हैं इसलिये इस विशिष्ट रविवारीय लेख में लिख रहे हैं।

हरिओम, जय श्रीराम, जय श्री कृष्ण

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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कान्हाओं के बीच जंग होनी ही थी-हिन्दी कवितायें


कन्याओं की कमी थी

चार दीवानों के बीच

घर बसाने की

जंग होनी ही थी।

कान्हाओं में फैली बेरोजगारी

दो दीवानियों  के बीच

सुयोग्य वर पाने की

जंग होनी ही थी।

कहें दीपक बापू दिशा भ्रम है

मन बसा था पूर्व में

कदम बढ़ा दिये पश्चिम की तरफ

तनाव में सांस लेते दिलों के बीच

अपना अपना डर भगाने की

जंग होनी ही थी।

————-

शहर की गंदगी ढोने वाले

नालों पर तरक्की की

इमारतें खड़ी हैं।

वर्षा ऋतु में उत्साहित जल

ढूंढता सड़क पर

अपनी सहचरिणी रेत

 जो पत्थरों में जड़ी है।

 कहें दीपक बापू हवा और जल

हमेशा चहलकदमी नहीं करते

अपने पथों का कर भी नहीं भरते

विकास के बांध खेलने के लिये

उनके सामने

बन जाते खिलौना

इंसान के कायदों से

प्रकृत्ति की हस्ती बड़ी है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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नौकरी ज्यादा आनंददायक नहीं रहती-हिन्दी चिंत्तन लेख


 

                              हमारे यहां देशी पद्धति से चलने वाले गुरुकुलों की जगह अब अंग्रेजी शिक्षा से चलने वाले विद्यालय तथा महाविद्यालय  अस्तित्व में आ गये है। अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा में केवल गुलाम ही पैदा होते हैं। आज हम देख रहे हैं कि जिस युवा को  देखो वही नौकरी की तरफ भाग रहा है। पहले तो सरकारी नौकरियों में शिक्षितों का रोजगार लग जाता था पर उदारीकरण के चलते निजी क्षेत्र का प्रभाव बढ़ने से वहां रोजी रोटी की तलाश हो रही है।  हमारी शिक्षा पद्धति स्वतंत्र रूप से कार्य करने की प्रेरणा नहीं देती और उसका प्रमाण यह है कि जिन लोगों ने इस माध्यम से शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम की वह तो व्यवसाय, सेवा तथा कला के क्षेत्र में उच्च स्थान पर पहुंच कर उच्च शिक्षित लोगों को अपना मातहत बनाते हैं।  निजी क्षेत्र की सेवा में तनाव अधिक रहता है यह करने वाले जानते हैं।  फिर आज के दौर में अपनी सेवा से त्वरित परिणाम देकर अपने स्वामी का हृदय जीतना आवश्यक है इसलिये तनाव अधिक बढ़ता है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

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मौनान्मुकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा धृष्टःपार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाऽप्रगल्भः।।

क्षान्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमराहनो योगिनामध्प्यसभ्यः।

                              हिंदी में भावार्थ-सेवक यदि मौन रहे तो गूंगा, चतुर और वाकपटु हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ, दूर रहे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु और  असहनशील हो तो अकुलीन कहा जाता है। सेवा कर्म इतना कठिन है कि योग भी इसे समझ नहीं पाते।

       आजकल कोई भी स्वतंत्र लघु व्यवसाय या उद्यम करना ही नहीं चाहता। अंग्रेजी पद्धति से शिक्षित युवा  नौकरी या गुलामी के लिये भटकते हैं। मिल जाती है तब भी उन्हें चैन नहीं मिलता।  निरंतर उत्कृष्ट परिणाम के प्रयासरत रहने के कारण उन्हें अपने जीवन के अन्य विषयों पर विचार का अवसर नहीं मिल पाता जिससे शनैः शनैः उनकी बौद्धिक शक्ति संकीर्ण क्षेत्र में कार्यरत होने की आदी हो जाती है।  न करें तो करें क्या? बहरहाल सेवा या नौकरी का कार्य किसी भी तरह से आनंददायी नहीं होता।  यहां तक कि योगी भी इसे नहीं समझ पाते इसलिये ही वह सांसरिक विषयों में एक सीमा तक ही सक्रिय रहते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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एकांत मे की जाती है योग साधना-हिन्दी चिंत्तन लेख


योग साधना काो हमारे अध्यात्मिक शायद इसलिये ही एकांत का विषय मानते हैं क्योंकि न करने वालों का इसके बारे में ज्ञान होता नहीं है इसलिये ही साधक की भाव भंगिमाओं पर हास्यास्पद टिप्पणियां करने लगते हैं।  ताजा उदाहरण रेलमंत्री सुरेश प्रभु का विश्व 21 जून 2015 के अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर शवासन करने पर उठे विवाद से है। वह  शवासन के दौरान इतना  तल्लीन हो गये कि उन्हें जगाने के लिये एक व्यक्ति को आगे आना पड़ा।  नियमित योग साधकों के लिये इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं है। कभी कभी शवासन में योग निद्रा आ जाती है।  इसे समाधि का संक्षिप्त रूप भी कहा जा सकता है।  इस प्रचार माध्यम जिस तरह सुरेश प्रभु के शवासन के समाचार दे रहे हैं उससे उनके यहां काम कर रहे वेतनभोगियों के ज्ञान पर संदेह होता है।

हमारा अनुभव तो यह कहता है कि नियमित योग साधक प्रातःकाल जल्दी उठने के बाद अपने नित्य कर्म तथा साधना से निवृत्त होने के बाद अल्पाहार करते हैं तब चाहें तो शवासन कर सकते हैं। इस दौरान वह योगनिद्रा अथवा संक्षिप्त समाधि का आनंद भी ले सकते हैं। इस दौरान निद्रा आती है पर उस समय देह वायु में उड़ती अनुभव भी होती है।  इस लेखक ने अनेक बार शवासन में निद्रा और समाधि दोनों का आनंद लिया है। शवासन की निद्रा को सामान्य निद्रा मानना गलत है क्योंकि उसमें सिर पर तकिया नहीं होता। गैर योग साधकों के लिये तकिया लेकर भी इस तरह निद्रा लेना सहज नहीं है।  विशारदों की दृष्टि से  शवासन में निद्रा आना अच्छी बात समझी जाती है।

हमें यह तो नहीं मालुम कि सुरेश प्रभु शवासन के दौरान आंतरिक रूप से किस स्थिति में थे पर इतना तय है कि इसमें मजाक बनाने जैसा कुछ भी नहीं है।  वैसे भी योग साधकों को सामान्य मनुष्यों की ऐसी टिप्पणियों से दो चार होना पड़ता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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चालाकियों के सहारे-हिन्दी कविता


ऊंचाई पर पहुंच जाते

चालाकियों के सहारे से

फिर नीचे गिरने से डरते हैं।

नीचे खड़ा इंसान

सिर न उठाये

इसलिये सीना ताने रहते

पीछे से कोई धकिया न दे

इस भय में भी

पल पल मरते हैं।

कहें दीपक बापू आम आदमी से

खुश रहो सबकी भलाई का

जिम्मा लिये बिना जिंदगी बिताते हो,

चुनाव के समय भाग्यविधाताओं में

अपना नाम गिनाते हो,

यह अलग बात है जिनकों

बना देते हो शक्तिमान

वह अपना ही घर भरते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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खाने पीने में सुपाच्य पदार्थ ग्रहण करना आवश्यक-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


        देश में मैगी के भोज्य पदार्थ को लेकर विवाद का दौर चल रहा है। हमारी दृष्टि से  एक उत्पादक संस्थान पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं है। उपभोग की बदलती प्रवृत्तियों ने संगठित उत्पादक संस्थानों के भोज्य पदार्थों को उस भारतीय समाज का हिस्सा बना दिया है जो स्वास्थ्य का उच्च स्तर घरेलू भोजन में ढूंढने के सिद्धांत को तो मानता है पर विज्ञापन के प्रभाव में अज्ञानी हो जाता है। अनेक संगठित उत्पादक संस्थान खाद्य तथा पेय पदार्थों का विज्ञापन भारतीय चलचित्र क्षेत्र के अभिनेताओं से करवाते हैं।  उन्हें अपने विज्ञापनों में अभिनय करने के लिये भारी राशि देते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के प्रसारण प्रकाशन के लिये टीवी चैनल तथा समाचार पत्रों में भी भुगतान किया जाता है। इन उत्पादक संस्थानों के विज्ञापनो के दम पर कितने लोगों की कमाई हो रही है इसका अनुमान तो नहीं है पर इतना तय है कि इसका व्यय अंततः उपभोक्ता के जेब से ही निकाला जाता है। आलू चिप्स के बारे में कहा जाता है कि एक रुपये के आलू की चिप्स के  दस रुपये लिये जाते हैं।

        हमारे देश में अनेक  भोज्य पदार्थ पहलेे ही बनाकर बाद में खाने की परंपरा रही है। चिप्स, अचार, मिठाई तथा पापड़ आदि अनेक पदार्थ हैं जिन्हें हम खाते रहे हैं। पहले घरेलू महिलायें नित नये पदार्थ बनाकर अपना समय काटने के साथ ही परिवार के लिये आनंद का वातावरण बनाती थीं। अब समय बदल गया है। कामकाजी महिलाओं को समय नहीं मिलता तो शहर की गृहस्थ महिलाओं के पास भी अब नये समस्यायें आने लगी हैं जिससे वह परंपरागत भोज्य पदार्थों के निर्माण के लिये तैयार नहीं हो पातीं। उस पर हर चीज बाज़ार में पैसा देकर उपलब्ध होने लगी है। घरेलू भोजन में बाज़ार से अधिक शुद्धता की बात करना अप्रासंगिक लगता है। इसका बृहद उत्पादक संस्थानों को भरपूर लाभ मिला है।

       भारतीय समाज में चेतना और मानसिक दृढ़ता की कमी भी दिखने लगी है। अभी मैगी के विरुद्ध अभियान चल रहा है पर कुछ समय बाद जैसे ही धीमा होगा वैसे ही फिर लोग इसका उपभोग करने लगेंगे। पेय पदार्थों में तो शौचालय स्वच्छ करने वाले द्रव्य मिले होने की बात कही जाती है। फिर भी उसका सेवल धड़ल्ले से होता है। यह अलग बात है कि निजी अस्पतालों में बीमारों की भीड़ देखकर कोई भी यह कह सकता है कि यह सब बाज़ार के खाद्य तथा पेय पदार्थों की अधिक उपभोग के कारण हो रहा है।

        ऐसे में बृहद उत्पादक संस्थानों के खाद्य तथा पेय पदार्थों के प्रतिकूल अभियान छेड़ने से अधिक समाज में इसके दोषों की जानकारी देकर उसे जाग्रत करने की आवश्कयता अधिक लगती है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना-हिन्दी व्यंग्य कविता


दूसरे की आस्था को कभी न आजमाना,
शक करता है तुम पर भी यह ज़माना।
अपना यकीन दिल में रहे तो ठीक,
बाहर लाकर उसे सस्ता न बनाना।
हर कोई लगा है दिखाने की इबादत में
फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना।
सिर आकाश में तो पांव जमीन पर हैं,
हद में रहकर, अपने को गिरने से बचाना।।
अपनी राय बघारने में कुशल है सभी लोग,
जिंदगी की हकीकत से हर कोई अनजाना।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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दीपावली का पर्व निकल गया-आलेख


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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राम और रावण की भूमिका-लघुकथा


वह स्वस्थ्य सुंदर युवक रामलीला मंडली में भगवान श्री राम की भूमिका निभाता था। इसी कारण लोग उसको राम जैसा सम्मान देते थे। उसका आचरण भी बहुत अच्छा था। उसके अंदर कोई व्यसन नहीं था। वह हमेशा मीठी वाणी में बोलता, दूसरों की सहायता करता और अपने काम से समय मिलने पर भक्ति करता था। समय ने करवट ली। उसकी आयु बढ़ने लगी। मंडली के संचालक अनुभव करने लगे कि राम का पात्र निभाने के लिये जो कोमल वाणी और चेहरा चाहिये वह उसमें नहीं रहा। चूंकि वह कलाकार अच्छा था इसलिये उसे रावण का रोल दिया जाने लगा।
उसका जैसे चरित्र ही बदल गया। अब वह शराब पीने लगा। घर पर पत्नी और बच्चों से मारपीट कर वह पूरे मोहल्ले में बदनाम हो गया। लोग कहते थे कि ‘जैसे रावण की भूमिका करता है वैसा ही उसका चरित्र हो गया है।
वह शराब पीकर सड़कों पर गिरता। लोगों से अनावश्यक बहस करता। धीरे धीरे उसका अपने अभिनय पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। तब उसे मंडली ने निकाल दिया। वह गिड़गिड़ाया और कहने लगा कि ‘मैं अकेला ही घर में कमाने वाला आदमी हूं। मेरे जवान बच्चे हैं और पढ़ रहे हैं। पूरा घर तबाह हो जायेगा।’
तब एक संचालक ने उससे कहा-‘अब तुम रामलीला में अभिनय लायक नहीं रहे। हां, तुम अपना घर को बचाना चाहते हो तो अपना बड़ा लड़का राम के अभिनय के लिये हमें दे दो। हम उसको अच्छा मेहनताना देंगे।’
वह तैयार हो गया। जिस दिन उसका लड़का पहली बार अभिनय करने जा रहा था तो उसने उससे कहा-’जब तक राम के पात्र का अभिनय करने को मिले ठीक है पर कभी रावण के पात्र का अभिनय मत करना। जब इस तरह की भूमिका का प्रस्ताव मिलने लगे तब यह व्यवसाय छोड़ देना।’
बेटे ने पूछा-‘क्यों पापा?’
उसने प्रतिप्रश्न किया-जब तू छोटा था तब मैं तुझे कैसा लगता था।’
बेटे ने कहा-‘बहुत अच्छे!’
उसने फिर पूछा-‘अब कैसा लगता हूं?’
बेटा खामोश हो गया तो पिता ने कहा-‘जब मैं राम का अभिनय करता था तब मेरे अंदर वैसे ही भाव आते थे। भले ही अभिनय के बाद मैं राम नहीं रहता था पर मेरे भाव हमेशा ही मेरे साथ रहते थे। जब रावण के पात्र के रूप में अभिनय करने लगा तब मेरे अंदर वैसे ही भाव आते गये। आज मेरी छबि खराब है पर पहले अच्छी थी। रामलीला में करें या जिंदगी में जैसा अभिनय आदमी करता है वैसे ही उसके भाव हो जाते हैं। तुम कभी भी रावण का अभिनय नहीं करना।’
बेटे ने स्वीकृति में सिर हिलाया और बाहर निकल गया।
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चांदी के कप की खातिर- हास्य व्यंग्य कविताएँ


इतिहास में नाम दर्ज करने की
अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिये
वह किसी भी हद तक जाऐंगे।
कहीं जिंदा आदमी भूत बनाकर सजायेंगे
तो कहीं भूत को ही फरिश्ता बतायेंगे।।
………………………
चांदी के कप की खातिर
खेल में बन जाता है जंग का मैदान।
जीतने वाले की कद्र
उसके कारनामों से नहीं
चांदी से बढ़ती है शान।
पता नहीं किस पर सीना फुलाता है वह
अपने पसीने और घावों पर
या चांदी की चमक पर होकर हैरान।
……………………….
पांव हैं जमीन पर
किन्तु आकाश की तरफ है ध्यान।
जमीन से कोई सोना उगकर
पेट में नहीं जाता
सिर पर सजाने के लिये
कोई हीरा ऊपर से नहीं आता
दो पाटों की चक्की में
यूं ही पिस जाता है इंसान।

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कागज़ पर कलम से जूते न सजाओ-व्यंग्य कविता


अपनी कलम से कागज पर
काली स्याही से जूता शब्द
बार बार इस तरह न सजाओ
कि आकाश से झुंड के झुंड बरसने लगे।
इस नीली छतरी के नीचे
तुम्हारा सिर भी घूमता है
कभी वह उस पर न चमकने लगे।

सभी भी नासिका में दो सुराख है
जहां से अच्छी हवाओं के साथ
बुरी के आने के अंदेशे भी बहुत है
जूतों की दुर्गंध से
अपनी कलम को इतना न नहलाओ
कि उसकी आदत ही हो जाये
उसे सूंघने की
और तुम्हारा दिल सुगंध को तरसने लगे

इज्जत वही है जो बीच बाजार नहीं बिकती
घर की बात घर में रहे
चाहे इंसान जितन दर्द सहे
कमीज के नीचे बनियान फटी नहीं दिखती
अपने जूते के अंदर फटे मौजे
छिपा सकते हो तभी तक
जब तक पंगत में खाने नहीं बैठे
नजर पड़ जाती है जमाने की
तब अपनी ही आंखों में अपनी बेइज्जती दिखती
दूसरे पर उड़ते जूते देख
कभी न इतराओ
दौलत और शौहरत के साथी ही
आबरु का पहिया भी घूमता है
दुनियां की पहिये की तरह
दूसरे के बेआबरु होने पर हंसने वालों
जूते पांव तले ही सुहाते हैं
दूसरे की तरफ फैंकें जूते पर
हंसने की कोशिश मत करो
भला जूते कहां आदमी की पहचान कर पाते हैं
किसी के पांव के जूते बढ़ सकते हैं
तुम्हारी तरफ भी
क्या गुजरेगी तुम पर
जब जमाने भर के लोग मचलने लगे।

…………………………..

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मस्त राम……………की हिप हुर्र हुर्र


अपने कुछ ब्लाग/पत्रिका का नामकरण हमने मस्तराम के नाम पर आज कर ही दिया। आज होली का पर्व है और एक लेखक के नाते ऐसा समय हमारे लिये अकेले चिंतन करने का होता है। पिछले दो वर्षों से हम अंतर्जाल पर जूझ रहें पर अभी तक फ्लाप बने हुए हैं। हिंदी के सभी ब्लाग जबरदस्त हिट पाते जा रहे हैं और हम है कि ताकते रह जाते हैं।

यह बात यह ठीक है जो हिट हैं वह हमसे अच्छा और प्रासंगिक लिखते हैं पर और एक लेखक मन इस बात को कहां मानता है कि हम खराब लिखते हैं। इधर हमसे पुराने ब्लाग नित नयी बातें सामने रखकर विचलित कर देते हैं तो फिर दिमाग में आता है कि कोई ऐसी रणनीति बनाओ कि खुद भी हिट हो जायें। बहुत दिन से संकोच हो रहा था पर आज सारा संकोच त्याग कर अपने उन ब्लाग/पत्रिकाओं में अपने नाम के आगे मस्तराम शब्द जोड़ ही दिया जिन पर पहले लिखकर हटा लिया था।

दरअसल हुआ यूं कि पुराने ब्लाग लेखकों ने अपने पाठों में बताया कि इंटरनेट पर हिंदी विषयों के शब्द गूगल के सर्च इंजिनों में बहुत कम ढूंढे जाते जाते हैं-आशय यह है कि चाहे रोमन लिपि में हो या देवनागरी लिपि में लोग इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने के बहुत कम इच्छुक हैं। वैसे हमने स्वयं सर्च इंजिनों के ट्रैंड में जाकर यह बात पहले भी देखी थी और उसी आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे पर सफलता नहीं मिली। कल फिर गूगल के सर्च इंजिन ट्रैंड को देखा तो यथावत स्थिति दिखाई दी। वैसे हमने यह तो पहले ही देख लिया था कि मस्त राम शब्द की वजह से पाठक अधिक ही मिलते हैं। अपने एक ब्लाग पर हमने अपने नाम के आगे मस्त राम लिखकर छोड़ दिया तो देखा कि एक महीने तक नहीं लिखने पर भी वहां पाठक अच्छी संख्या में आते हैं और वह अपने अधिक पाठकों की संख्या के कीर्तिमान को स्वयं ही ध्वस्त करता जाता है जबकि सामान्य ब्लाग तरसते लगते हैं। हमारा यह ब्लाग बिना किसी फोरम की सहायता के ही 6500 से अधिक पाठक जुटा चुका है। एक अन्य ब्लाग भी तीन हजार के पास पहुंच गया था पर वहां से जैसे ही मस्तराम शब्द हटाया वह अपने पाठक खो बैठा।

ऐसे में सोचा कि जिन ब्लाग पर हमने ‘मस्त राम’ जोड़कर पाठक जुटाये और फिर हटा लिया तो क्यों न उनको पुराना ही रूप दिया जाये? एक मजे की बात यह है कि हमने मस्त राम का शब्द उपयोग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं किया था। हमारी नानी हमको इसी नाम से पुकारती थी। जब ब्लाग@पत्रिका बनाना प्रारंभ किया तो बस ऐसे ही यह नाम उपयोग में लिया। बाद में समय के साथ अनेक अनुभव हुए तब पता लगा कि उत्तर प्रदेश में यह नाम अधिक लोकप्रिय रहा है और धीरे धीरे पूरे देश में फैल रहा है।
इस होली पर बैठे ठाले यह ख्याल आया कि क्यों न हम साल भर तक अपनी स्वर्गीय नानी द्वारा प्रदत्त प्यार का नाम मस्त राम का प्रयोग करते रहेंगे। वैसे वर्डप्रेस के हमारे अनेक ब्लाग स्वतः ही पाठक जुटा रहे हैं पर संख्या स्थिर हैं।

हमने अनेक शब्दों का प्रयोग करके देखा तो भारी निराशा हाथ लगी पर साथ में आशा की किरण जाग्रत हुई। लोगों का भगवान राम के प्रति लगाव है और सर्च इंजिनों में रोमन में उनका नाम लिखकर तलाश होती रहती है। जिन टैगों का हम उपयोग करते हैं उनका कोई ग्राफ नहीं मिला। तय बात है कि उनकी संख्या अधिक नहीं है। जहां तक मस्त राम का सवाल है तो हमारे सामान्य ब्लाग@पत्रिका में जो टैग मस्त राम के नाम पर है वहां भी पाठक पहुंचते हैं।
फिल्मी हीरोईनों के नाम पर सर्च इंजिनों में भारत के इंटरनेट सुविधाभोगी भीड़ लगाये हुए हैं। हैरानी होती है यह देखकर! टीवी, रेडियो और अखबारों में उनके नाम और फोटो देखकर भी उनका मन नहीं भरता। कहते हैं कि परंपरागत प्रचार माध्यमों से ऊबकर भारत के लोग इंटरनेट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं पर उनका यह रवैया इस बात को दर्शाता कि उनकी मानसिकता में बदलाव केवल साधन तक ही सीमित है साध्य के स्वरूप में बदलाव में उनकी रुचि नहीं हैं। अब इसके कारणों में जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि हिंदी में मौलिक, स्वतंत्र और नया लिखने वाले सीमित संख्या में है। अभी तक लोग या तो दूसरों की बाहर लिखी रचनायें यहां लिख रहे हैं या अनुवाद प्रस्तुत कर अपना ब्लाग सजाते हैं। अगर मौलिक लेखक है तो शायद वह इतना रुचिकर नहीं है जितना होना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि अंतर्जाल पर दूसरे के लिखे की नकल चुरा लिये जाने का पूरा खतरा है दूसरा यह कि मौलिक लेखक के हाथ से लिखने और टाईप करने में स्वाभाविक रूप से अंतर आ जाता है। ऐसे में आम पाठकों की कमी से मनोबल बढ़ता नहीं है इसलिये बड़ी रचनायें लिखना समय खराब करना लगता है। जब यह पता लगता है कि हिंदी में नगण्य पाठक है तो ऐसे ब्लाग लेखक निराश हो ही जाते जिनके लिये यहां न नाम है न नामा। इतना ही नहीं कुछ वेबसाइटें तो ऐसी हैं जो ब्लाग लेखकों के टैग और श्रेणियों के सहारे सर्च इंजिनों में स्वयं को स्थापित कर रही हैं। हिंदी के चार फोरमों के लिये तो कोई शिकायत नहीं की जा सकती पर कुछ वेबसाईटें इस तरह व्यवहार कर रहीं हैं जैसे कि ब्लाग लेखक उनके लिये कच्चा माल हैं। यह सही है कि उनकी वजह से भी बहुत सारे पाठक आ रहे हैं पर सवाल यह है कि इससे ब्लाग लेखक को क्या लाभ है?

यह सच है कि अंतर्जाल पर हिंदी की लेखन यात्रा शैशवकाल में है। लिखने वाले भी कम है तो पढ़ने वाले भी कम। ऐसे में ब्लाग लेखक के लिये यह भी एक रास्ता है कि वह अपने लिखने के साथ ऐसे भी मार्ग तलाशे जहां उसे पाठक अधिक मिल सकें। यही सोचकर हमने होली के अवसर पर यही सोचा कि अब अपनी नानी द्वारा प्रदत्त नाम का भी क्यों न नियमित रूप से उपयोग करके देखें जिसकों लेकर अभी तक गंभीर नहीं थे। इस होली पर बोलो मस्त राम………………………………की हिप हुर्र हुर्र।

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‘नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक’-हास्य व्यंग्य


भरी दोपहर में दीपक बापू अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे कि अचानक चैन उतर गयी। दीपक बापू साइकिल के चैन उतरना ऐसे ही अशुभ मानते थे जैसे रात में उल्लू का बोलना। फिर भी उन्होंने अपने दिल को समझाया कोई बात नहीं ‘अभी चैन चढ़ाकर दौड़ाते हैं’।
वह साइकिल से उतरे। दो दिन पहले ही उन्होंने साइकिय में तेल डलवाया था और चैन अभी उसमें नहाई हुई थी। वह उसे चढ़ाने लगे तो उनके हाथ काले होते चले गये।
चैन चढ़ाकर उन्होंने इधर उधर देखा कि कहीं उनकी यह दुर्दशा देखने वाला कोई कवि या लेखक तो नहंी है जो इस पर लिख सके। पहले दाएं तरफ देखा। लोगों में किसी का ध्यान उनकी तरफ नहीं था। तसल्ली हो गयी पर जैसे ही बायें तरफ मूंह किया तो होठों से निकल पड़ा-‘एक नहीं दो संकट एक साथ आ गये।’

फंदेबाज और नुक्ताचीनी साहब अपनी मोटर साइकिलों पर बैठकर कहीं जा रहे थे और फंदेबाज ने दीपक बापू को देख लिया। उसने नुक्ताचीनी साहब को इशारा किया। दोनों गाड़ी मोड़कर उनके सामने आ गये। दीपक बापू अपनी साइकिल की चैन चढ़ाने से उखड़ी सांसों को राहत दे नहीं पाये थे कि दोनों संकट उनके सामने आ गये।

फंदेबाज तो वह शख्स था जिसने उनकी कलम की धार ऐसी बिगाड़ी थी कि कविता लिखते तो बेतुकी हो जाती, व्यंग्य रोता हुआ बनता और चिंतन एक चुटकुले की तरह लगने लगता।

दीपक बापू बहुत समय पहले नुक्ताचीनी साहब के यहां एक बार गये थे तो वहां अच्छा कवि और लेखक न बनने की शाप लेकर लौटे । वैसे नुक्ताचीनी उम्र में दीपक बापू से सात आठ साल बड़े थे और उनका रुतवा भी था। हुआ यूं कि नुक्ताचीनी साहब का एक मित्र दीपक बापू से कोई शायरी लिखवा गया। उसने दीपक बापू को बताया कि एक शायर की प्रेमिका का दिल अपहृत करना है और इसके लिये काई शायरी जरूरी है। वह भी दीपक बापू से आयु में बड़ा था इसलिये उन्होंने आदर पूर्वक एक छंटाक भर शायरी उसे लिख कर दे दी। वह असल में नुक्ताचीनी साहब का प्रतिद्वंद्वी था और प्रेम त्रिकोण में उनको पराजित करना चाहता था। दीपक बापू ने एक पर्ची लिखकर दी फिर वह उसे भूल गये, मगर नुक्ताचीनी साहब ने जो दर्द उस शायरी से झेला तो फिर वह इंतजार करने लगे कि कभी तो वह शिकार आयेगा अपने लेखक और कवि होने का प्रमाण पत्र मांगने। आखिर शहर भर के अनेक लेखक उनको सलाम बजाते थे। यह अलग बात है कि जिन्होंने उनकी शरण ली वह नुक्ताचीनी साहब की सलाहों का बोझ नहीं उठा सके और लिखना ही छोड़ गये।

जब दीपक बापू आधिकारिक रूप से लेखक और कवि बनने को तैयार हुए यानि अपनी रचनायें इधर उधर भेजने का विचार किया तो किसी ने सलाह दी कि पहले अपनी रचनायें नुक्ताचीनी साहब को दिखा दो।

वह बिचारे अपनी साइकिल पर फाइल दबाये नुक्ताचीनी साहब के घर पहुंचे। तब तक उनका विवाह भी हो गया था पर पुराना दिल का घाव अभी भरा नहीं था। दीपक बापू को देखते ही वह बोले-‘आओ, महाराथी मैं तुम्हारा कितने दिनोंे से इंंतजार कर रहा हूं। तुम वही आदमी हो न! जिसने मेरे उस दोस्त रूपी दुश्मन को वह शायरी लिखकर दी थी जिसने मेरी प्रेयसी का दिल चुरा लिया।’

दीपक बापू तो हक्का बक्का रह गये। फिर दबे स्वर में बोले-‘साहब, वह तो आपका मित्र था। मुझे तो पता ही नहीं। आप दोनों मेरे से बड़े थे। भला मैं क्या जानता था। मैंने तो उसे बस एक छंंटाक भर शायरी लिखकर कर दी थी। मुझे क्या पता वह उसका उपयोग कैसे करने वाला था। अब तो आपसे क्षमा याचना करता हूं। आप तो मेरी इन नवीनतम रचनाओं पर अपनी दृष्टि डालिये। अपनी सलाह दीजिये ताकि इनको कहीं भेज सकूं।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘बेतुकी शायरियां लिखते हो यह मैं जानता हूं। छंटाक भर की उस शायरी ने मेरे को जो टनों का प्रहार किया उसे मैं भूल नहीं सकता। लाओ! अपनी यह नवीनतम रचानायें दिखाओ! क्या लिखा है?’

दीपक बापू ने बड़ी प्रसन्नता के साथ पूरी की पूरी फाइल उनके सामने रख दी। उन्होंने सरसरी तौर से उनको देखा और फिर जोर से पूरी फाइल उड़ा दी। सभी कागज हवा में उड़ गये और जमीन पर ऐसे ही गिरे जैसे कभी नुक्ताचीनी साहब के दिल टुकड़ होकर कोई यहां तो कोई वहां गिरा था। उन्होंने कुटिलता से मुस्कराते हुए कहा-‘बेकार हैं सब। दूसरा जाकर लिख लाओ। कवितायेंे बेतुकी हैं। व्यंग्य रुलाने वाले हैं और चिंतन तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई गमगीन चुटकुला हो। तुम कभी भी कवि और लेखक नहीं बन सकते। मेरे विचार से तुम कहीं क्लर्क बन जाओ। वहां भी पत्र वगैरह लिखने का काम नहीं करना क्योंकि तुम्हारी भाषा लचर है।’

दीपक बापू अपने कागज समेटने में लग चुके थे। वह बोले-‘नुक्ताचीनी साहब आप जो कहैं सो ठीक, पर अच्छे होने का वरदान या बुरे होने का शाप तो दे सकते हैं पर लेखक और कवि न बन पाने की बात कहने का हक आपको नहीं है। हम बुरे रहे या अच्छे लेखक और कवि तो रहेंगे। जहां तक प्रभाव का सवाल है तो वह छंटाक भर की शायरी जो काम कर गयी। उसे तो आप जानते हैं।

यह बात सुनते ही नुक्ताचीनी साहब चिल्ला पड़े-‘गेट आउट फ्राम हियर (यहां से चले जाओ)।’
दीपक बापू वहां से हाथ एक हाथ में फाइल और दूसरे हाथ में साइकिल लेकर वहां से ऐसे फरार हुए कि नुक्ताचीनी साहब के घर से बहुत दूर चलने पर उनको याद आया कि साइकिल पर चढ़कर चला भी जाता है।

कई बार नुक्ताचीनी साहब रास्ते पर दिखाई देते पर दीपक बापू कन्नी काट जाते या रास्ता बदल देते। कहीं किसी दुकान पर दिखते तो वहां चीज खरीदना होती तब भी वहां नहीं जाते।

आज फंदेबाज उन्हीं नुक्ताचीनी साहब को लेकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो रहा थां दीपक बापू यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनके इन दोनों प्रकार के संकट का आपसे में लिंक कैसे हुआ!

फंदेबाज बोला-‘अच्छा ही हुआ यहां तुम मिल गये। बड़ी मुश्किल से इन नुक्ताचीनी साहब से मुलाकात का समय मिला। यह बहुत बड़े साहित्यक सिद्ध हैं। इनकी राय लेकर अनेक लोग बड़े लेखक और कवि बन गये हैं ऐसा मैंने सुना था। मैं साइबर कैफे में अंतर्जाल पर तुम्हारी पत्रिकायें दिखाने जा रहा था। उस पर यह अपनी राय देंगे। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे ऊपर लगा फ्लाप लेखक का लेबल हट जाये और हिट बन जाओ। इसलिये इनको साथ ले जा रहा हूं कि शायद यह कोई नया विचार दें ताकि तुम हिट हो जाओ।

इससे पहले ही कि दीपक बापू कुछ कहते नुक्ताचीनी साहब उनके पास पहुंच गये और बोले-‘तो वह तू है। जिसकी इंटरनेट पर पत्रिकायें हैं और यह मुझे दिखाने ले जा रहा था। तू ने अभी तक लिखना बंद नहीं किया और अब मुझे शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भिजवाकर अपनी अंतर्जाल पत्रिकाओं के बारे में बताकर अपनी बात जंचाना चाहता है। अब सौदा किया है तो चल देख लेते हैं तेरी उन आकाशीय करतूतों को।’

दीपक बापू ने हाथ जोड़ते हुए कहा-‘अब छोडि़ये भी नुक्ताचीनी साहब। यह मेरा दोस्त तो नादान हैं। भला आप ही बताइये बेतुकी कवितायें, रोते हुए व्यंग्य और चुटकुले नुमा िचंतन लिखकर भला कोई कहीं हिट हो सकता है। यह तो पगला गया है ओर दूसरो की तरह हमको भी हिट देखना चाहता है ताकि दोस्तों और रिश्तेदारों मेंें हमसे दोस्ती का रौब जमा सके।’

नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘तो तू अब अंतर्जाल की पत्रिकायें दिखाने में डर रहा है। तुझे लग रहा है कि हम तेरी लिखी रचनाओं का बखिया उधेड़ देंगे।’
दीपक बापू बोले-‘नहीं आप तो बड़े दयालू आदमी है। वैसे मेरी सभी रचनायें बिना बखिया की हैं इसलिये उधेड़ने का सवाल ही नहीं हैं।’
नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘यह तेरी टोपी,धोती और कुर्ते पर काले दाग क्यों हैं। शायद साइकिल की चैन ठीक कर रहा था। अरे तेरे को शर्म नहीं आती। हम जैसे बड़े आदमी को चला रहा हैं। चल अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें दिखा। यह तुझे पसीना क्यों आ रहा है? हम देखेंगे तेरी बेतुकी कवितायें, रोते व्यंग्य और चुटकुले नुमा चिंतन।’
इस पर फंदेबाज उखड़ गया और बोला-‘लगता है आप मेरे इस दोस्त को पहले से ही जानते हैंं पर आप इनके पसीने का मजाक न उड़ायें। वैसे मैंने आपको शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट इसके फ्लाप होने के कारणों को बताने के लिये नहीं बल्कि हिट होने के लिये राय देने के लिये किया है। आप इस तरह बात नहीं कर सकते। आपकी मोटर साइकिल में पैट्रोल भी भरवाया है।’

दीपक बापू ने फंदेबाज से कहा-‘चुप कर! तू जानता नहीं कितने बड़े आदमी से बात कर रहा है। एक बात समझ नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक!’

फिर वह नुक्ताचीनी साहब से बोले-‘आप अभी चले जाईये। शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भी भला कोई चीज है किसी दिन मैं आपके घर आकर और भी सामान लाऊंगा। आप तो मेरे प्रेरणा स्त्रोत है। पहले थोड़ा अच्छा लिख लूं। फिर अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें आपको दिखाऊंगा।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘यकीन नहीं होता कि तुम कभी अच्छा लिखा पाओगे। पर अभी जाता हूं और तुम्हारा इंतजार करूंगा।’

उनके जाने के बाद फंदेबाज बोला-‘तुमने मेरा कम से कम पांच सौ रुपये का नुक्सान करा दिया।’

दीपक बापू बोले-‘यह बरसों से खाली बैठा है। लिखता कुछ नहीं है पर अपनी राय से कई लोगों का लिखवाना बंद कर चुका है। अगर कहीं इसने अंतर्जाल पर पत्रिकायें देखते हुए कहीं लिखना सीख लिया तो समझ लो कि अपना लिखना गया तो तेल लेने। अपने पुराने लिखे पर ही सफाई देते हुए पूरी जिंदगी निकल जायेगी। समझे!

वहां से फंदेबाज भी चला गया। दीपक बापू काले धब्बे की अपनी टोपी से ही अपने को हवा लेने लगे। वहां पास में ही एक चाय के ठेले के पास गये और वहां छांव में रखी बैंच पर बैठ कर हुक्म लड़के से कहा-‘एक कट चाय अभी ले आओ। दूसरी थोड़ी देर बाद लाना। डबल टैंशन झेला है और डबल कट बिना नहीं उतरेगा।’

फिर वह सोचने लगे कि आखिर उनसे यह किसने कहा था कि साइकिल की चैन का उतरना वैसे ही अशुभ है जैसे रात में उल्लू का घर की छत पर बोलना।’
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