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शिष्य की जीवन नैया पर लगाने वाले गुरु बहुत कम है-गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिंदी लेख


         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

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बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।

सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।

कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।

    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।

           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 

     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

सहज तथा असहज योग-हिन्दी लेख(sahaj yog aur asahaj yog-hindi lekh)


धार्मिक विषयों पर अच्छी या बुरी चर्चायें अब इस लेखक पर प्रभाव नहीं डालती। इसका कारण यह है कि हमें लगता है कि श्रीगीता से पृथक होकर कोई भी ज्ञान चर्चा पूर्णता की तरफ जा ही नहीं सकती। दूसरा यह कि लोग श्रीमद्भागवतगीता को पढ़े बिना ही समझते हैं-मतलब यह है कि किसी के मुखार बिंद से सुन लिया और वही सत्य मान लिया। जबकि वास्तविकता यह है जैसे जैसे यह लेखक श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन कर रहा है उससे लगता है कि केवल भाषा के शब्द तथा व्याकरण का ही ज्ञान होना पर्याप्त नहीं बल्कि अपने अंदर यह संकल्प होना भी आवश्यक है कि यह पुस्तक एकमेव ज्ञान विज्ञान की पुस्तक है जिससे भक्ति और जिज्ञासा से पढ़कर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
अनेक लोगों ने श्रीगीता का अध्ययन इस उददृेश्य से किया है कि उसे पढ़कर अपना ज्ञान दूसरे लोगों को बेच सकें और समाज भी उन्हें एक संत मान लेता है जबकि सच यह है कि वह स्वयं ही नहीं जानते कि उस स्वर्णिक ज्ञान का मोल क्या है?
कहते हैं कि कोई भी आदमी अपने परिवार के किसी भी सदस्य को श्रीगीता पढ़ने का उपदेश नहीं   देता कि कहीं वह वैरागी न हो जाये। सच यही है कि आदमी उससे वैरागी होता है पर कर्म से पलायन नहीं करता। अलबत्ता जैसे जैसे ज्ञान चक्षु खुलते जाते हैं वह अकेला होता चला जाता है। इसलिये कहीं बड़ी सभा या बैठक में वह दूसरों की आदर्शवादी बातों से प्रभावित नहीं होता क्योंकि बहुत जल्दी उसे वहां पाखंड की अनुभूति हो जाती है।
इस समय देश में धर्म, जाति, वर्ण तथा अर्थ के आधार पर अनेक समूहों के बीच संघर्ष चल रहे हैं। उस पर बहसें केवल हास्यास्पद और समय बिताने का मार्ग ही लगती हैं यही कारण है कि संगठित प्रचार माध्यम उसे भुना रहे हैं। कभी कभी तो लगता है कि समाज के मानसिक तथा वैचारिक अंतद्वंद्व प्रचार माध्यमो में बिकने वाले विषय बन गये हैं।
एक मजे की बात यह है कि हिन्दू धर्म की रक्षा के नाम पर जितना नाटक इस देश में चलता रहा है उसके लिये लोगों का अज्ञान ही जिम्मेदार है। श्रीमद्भागवत गीता को लेकर एक बात आश्चर्य में डालती है कि वह कौन महान विभूतियां रही होंगी जिन्होंने महाभारत ग्रंथ से श्रीगीता को अलग कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उनके इस प्रयास ने न केवल भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को एक महान स्त्रोत प्रदान किया वरन् उसे विश्व में एकमेव ज्ञान विज्ञान का ग्रंथ बना दिया। अगर यह महाभारत से पृथक नहीं किया जाता तो शायद इसकी मान्यता इतनी नहीं रह जाती।

भारतीय धर्म के आलोचकों की बात सुनकर अनेक बुद्धिजीवी उत्तेजित होकर अपनी आस्था पर प्रहार के विरुद्ध झंडा तो उठा लेते हैं पर श्रीगीता के ज्ञान के अभाव में कोई तर्क उनको नहीं सूझता। शायद वह नहीं जानते कि इस संसार में मनुष्य मन के-आदमी चलता है अपने मन की गति और चाल से ही है, यह सभी जानते हैं- चलने के दो ही मार्ग है। एक तो श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सहज योज दूसरा है उससे पृथक असहज योग। आशय यह है कि योग तो हर इंसान करता ही है पर ज्ञान सहज योग तो अज्ञानी असहज योग में तत्पर होते हैं। जहां असंतोष, हिंसा, लालच, ईर्ष्या, लोभ तथा भेदभाव की प्रवृत्ति है वहां असहजता का भाव तनाव का अंधेरा फैलाता है और जहां संतोष, प्रेंम तथा समदर्शिता का भाव है वहां आनंद की रौशनी फैलती है। तय बात है कि इस संसार में अंधेरा पसंद लोगों की संख्या ज्यादा है जो उधार की रौशनी चाहते हैं जबकि ज्ञानी कम ही है जो अपने ज्ञान के प्रकाश में ही आनंद की अनुभूति करते हैं। दूसरी बात यह कि गुण ही गुणों को बरतते हैं यह वैज्ञानिक सूत्र है जिसके प्रतिकुल संसार की गतिविधियां तो हो ही नहीं सकती। रसायनों के अधिक प्रयोग से खान पान तथा रहन सहन में विषैले तत्वों का समावेश हो रहा है ऐसे में यह संभव नहीं है कि अमृत ज्ञान की चाहत सभी में हो। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ज्ञान की बात करें तो पागल समझ लिये जाते हैं। शायद यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता का ज्ञान केवल अपने भक्तों में ही करने का उपदेश दिया है। इसलिये भारतीय धर्म के आलोचकों को निरुतर करने के लिये श्रीगीता के संदेश का उपयोग  करना भी कुछ विद्वानों को अच्छा नहीं लगता। बहरहाल यह अंतिम सत्य है कि विज्ञान तथा ज्ञान की एकमेव पुस्तक श्रीगीता का अध्ययन अपने आप में बहुत दिलचस्प तथा ज्ञान वर्द्धक है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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