कविवर रहीम कहते हैं कि
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वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत
स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।
सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।
सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है।
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अर्थाधीतांश्च यैवे ये शुद्रान्नभोजिनः
मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः
जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।
सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबऔं की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि क्या आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।
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बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि
कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।
आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।
समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।
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शक्यो वारयितं जलेन हुतभुक् छत्त्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ
व्याधिर्भैषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगग्र्विषम्
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्
हिंदी में भावार्थ-आग का पानी से धूप का छाते से, मद से पागल हाथी का अंकुश से, बैल और गधे का डंडे से, बीमारियों का दवा से और विष का मंत्र के प्रयोग निवारण किया जा सकता है। शास्त्रों के अनेक विकारों और बीमारियों के प्रतिकार का वर्णन तो है पर मूर्खता के निवारण के लिये कोई औषधि नहीं बताई गयी है।
येषा न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मत्र्यलोके भुवि भारतूवा
मनुष्य रूपेणः मृगाश्चरन्ति।।
हिंदी में भावार्थ-जिन मनुष्यों में दान देने की प्रवृत्ति, विद्या, तप,शालीनता और अन्य कोई गुण नहीं है और वह इस प्रथ्वी पर भारत के समान है। वह एक मृग के रूप में पशु की तरह अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
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आकीर्ण मण्डलं सव्र्वे मित्रैररिभिरेव च
सर्वः स्वार्थपरो लोकःकुतो मध्यस्थता क्वचित्
सारा विश्व शत्रु और मित्रों से भरा है। सभी लोग स्वार्थ से भरे हैं ऐसे में मध्यस्थ के रूप में निष्पक्ष व्यवहार कौन करता है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्यूपीडयेत्
अत्यन्तं विकृतं तन्यात्स पापीयान् रिमुर्मतः
यदि अपना भला करने वाला मित्र भोग विलास में लिप्त हो तो उसे त्याग देना चाहिए। जो अत्यंत बुरा करने वाला हो उस पापी मित्र को दंडित अवश्य करना चाहिए।
मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यजेत्
त्यजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हि
अपने मित्र के बारे में अनेक प्रकार से विचार करना चाहिए। अगर उसमें दोष दिखाई दें तो उसका साथ छोड़ देने में ही अपना हित समझें। अगर ऐसे दुर्गुणी मित्र का साथ नहीं त्यागेंगे तो तो उससे अपने ही धर्म और अर्थ की हानि होती है।
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जब भी मिले राह पर चलते हुए
कभी हमने उनके घर का पता पूछा नहीं
कई बार मुलाकात अकस्मात ही हुई
उनका हिसाब हमने रखा नहीं
जब भी मिले बहुत गर्मजोशी दिखाई
हर मौके पर काम आने की कसम खाई
रिश्ते का नाम दिया कभी मोहब्बत और
तो कभी कहा दोस्ती
हमने कभी नहीं मांगी सफाई
मिलना फिर बंद हो गया
समय-दर समय गुजरता रहा
हम राह तकते रहे
चेहरा उनका कभी नजर नहीं आया
हमने समझा हो गई जुदाई
कई बरस बाद फिर मिले उसी राह पर
चेहरा बुझा हुआ और
उम्र से अधिक लग रही थी काया
हमने जब वजह पूछी तो कहा
‘किसी के कहने पर बदला था रास्ता
चले उसी के कहने पर
ठोकरे थी नसीब में वही पायी
अपना नाम तक भूल गए
अपनी पहचान तक गंवाई
अपनी देह और दिल से उठाते रहे
अपने ही सपनों का बोझ
जो कभी नही बने सच्चाई
वह एक चमकीला पत्थर था जिसके पीछे
हमने अपनी उम्र गंवाई
वह क्या देता
हमने की खुद से बेवफाई
दीपक भारतदीप द्धारा
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