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अपने आपसे दूर हो जाता आदमी-साहित्य कविता


जीवन के उतार चढाव के साथ
चलता हुआ आदमी
कभी बेबस तो कभी दबंग हो जाता
सब कुछ जानने का भ्रम
उसमें जब जा जाता तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

दुख पहाड़ लगते
सुख लगता सिंहासन
खुली आँखों से देखता जीवन
मन की उथल-पुथल के साथ
उठता-बैठता
पर जीवन का सच समझ नहीं पाता
जब अपने से हटा लेता अपनी नजर तब
अपने आप से दूर हो जाता आदमी

मेलों में तलाशता अमन
सर्वशक्तिमान के द्वार पर
ढूँढता दिल के लिए अमन
दौलत के ढेर पर
सवारी करता शौहरत के शेर पर
अपने इर्द-गिर्द ढूँढता वफादार
अपने विश्वास का महल खडा करता
उन लोगों के सहारे
जिनका कोई नहीं होता आधार तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

जमीन से ऊपर अपने को देखता
अपनी असलियत से मुहँ फेरता
लाचार के लिए जिसके मन में दर्द नहीं
किसी को धोखा देने में कोई हर्ज नहीं
अपने काम के लिए किसी भी
राह पर चलने को तैयार होता है तब
अपने आपसे दूर हो जाता आदमी

खजाना उसका दिल में है


जब भी अपनों से मन ऊब जाता
गैरों में अपनत्व ढूँढने आदमी चला जाता
अपनी ख्वाहिशों का बोझ उठाये है सभी
कोई आकर उतारे यही सोच चलता जाता
सच्चा प्यार ढूँढने सब निकलते
पर मतलब किसी के समझ में नहीं आता
आसामान से टपकती हैं उम्मीद
यही सोच ऊपर देखता चला जाता
जिन्दगी में खुशियों के लिए ढूँढता बहाने
ग़मों को बुलावा देकर आता
बाहर ढूंढें जिसको खजाना उसका दिल में है
इसे कोई-कोई शख्स ही जान पाता

उसके नाम पर


उसके नाम पर चल रहा है
पूरी दुनिया का राज्य
पर उसे खबर नहीं
अरबों रुपये की मदद आती है
पर उसे मिलती नहीं
अस्पतालों में ढेर चिकित्सक
इलाज में जुटे हैं
दवाओं के नाम पर
लाखों के ढेर लुटे हैं
पर फिर भी
स्वास्थ्य उसे नसीब नहीं
अनेक लेखकों ने बेचा उसका दर्द
पढ़ने वाले बने हमदर्द
पर उसे किसी का साथ मिलता नहीं
गरीब अभी भी जूझता है
अपनी जिन्दगी से
भले ही उसके अहसास पर लगी
प्रदर्शनी में उसका फोटो
देखकर वाह-वाही होती है
पर उसके शख्सियत के दर्शन से
किसी को भी खुशी मिलती नहीं
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तब तक जलती रहेगी यह आग


पेट भरते ही भले लोग
सिगडी की बुझा देते आग
पर जिनके मन में है
दौलत और शौहरत की आग
वह कभी नहीं बुझती
वह कभी शहर तो कभी ग्राम में
गली और मुहल्ले में भड़काते हैं आग

हर गरीब को खिलाते ख्याली पुलाव
ऐसे रास्ते का पता देते
जिसकी मंजिल कहीं नहीं
बस है इधर से उधर घुमाव
दिन में गाली देते अमीर को
रात को करते हैं जुडाव
चारों और से रंगे हैं
पर उजियाले में नहीं दिखता दाग

अनपढ़ को देते सपनों की किताब
कंगाल को समझाते अमीरी का हिसाब
अपनी ताकत के नशे में झूमते
किसी से नहीं मिलता मिजाज
बाद में बुझाने के लिए जूझते नजर आते
पहले लगाते आग
यह कभी यहाँ जलेगी
कभी वहाँ लगेगी
जब तक आम आदमी में नही जागेगी
चेतना और जागरूकता की आग
तब तक जलती रहेगी यह नफरत की आग

रास्ता


अपने घर से बाजार
बाजार से अपने घर
रास्ता चलता हूँ दिन भर
कभी सोचता हूँ इधर जाऊं
कभी सोचता हूँ उधर जाऊं
सोच नहीं पाटा जाऊं किधर
रास्ते पर जाते हुए चौपाये
और आकाश में उड़ते पंछी
कितनी बिफिक्री से तय करते हैं
अपनी-अपनी मंजिल
मैं अपनी फिक्र छिपाऊँ तो कहाँ और किधर
रास्ते में पढ़ने वाले मंदिर में
जब जाकर सर्वशक्तिमान की
मूर्ति पर शीश नवाता हूँ
तब कुछ देर चैन पाता हूँ
लगता है कोई साथ है मेरे
क्यों जाऊं किधर

तिजोरी भरी दिल है खाली-व्यंग्य कविता


बंद तिजोरियों को सोने और रुपयों की
चमक तो मिलती जा रही है
पर धरती की हरियाली
मिटती जा रही है
अंधेरी तिजोरी को चमकाते हुए
इंसान को अंधा बना दिया है
प्यार को व्यापार
और यारी को बेगार बना दिया है
हर रिश्ते की कीमत
पैसे में आंकी जा रही है
अंधे होकर पकडा है पत्थर
उसे हाथी बता रहे हैं
गरीब को बदनसीब और
और छोटे को अजीब बता रहे हैं
दौलत से ऐसी दोस्ती कर ली है की
इस बात की परवाह नहीं कि
इंसान के बीच दुश्मनी बढ़ती जा रही है

दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग


कहीं खुश दिखने की
तो कहीं अपना मुहँ बनाकर
अपने को दुखी दिखाने की कोशिश करते लोग
अपने जीवन में हर पल
अभिनय करने का है सबको रोग
अपने पात्र का स्वयं ही सृजन करते
और उसकी राह पर चलते
सोचते हैं’जैसा में अपने को दिख रहा हूँ
वैसे ही देख रहे हैं मुझे लोग’

अपना दिल खुद ही बहलाते
अपने को धोखा देते लोग
कभी नहीं सोचते
‘क्या जैसे दूसरे जैसे दिखना चाहते
वैसे ही हम उन्हें देखते हैं
वह जो हमसे छिपाते
हमारी नजर में नहीं आ जाता
फिर कैसे हमारा छिपाया हुआ
उनकी नजरों से बच पाता’
इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग
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जहरीला शिकारी


सांप के पास जहर है
पर डसने किसी को खुद नहीं जाता
कुता काट सकता है
पर अकारण नहीं काटने आता
निरीह गाय नुकीले सींग होते
हुए भी खामोश सहती हैं अनाचार
किसी को अनजाने में लग जाये अलग बात
पर उसके मन में किसी को मरने का
विचार में नहीं आता
भूखा न हो तो शेर भी
कभी शिकार पर नहीं जाता
हर इंसान एक दूसरे को
सिखाता हैं इंसानियत का पाठ
भूल जाता हां जब खुद का वक्त आता
एक पल की रोटी अभी पेट मह होती है
दूसरी की जुगाड़ में लग जाता
पीछे से वार करते हुए इंसान
जहरीले शिकारी के भेष में होता है जब
किसी और जीव का नाम
उसके साथ शोभा नहीं पाता
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