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कभी गाड़ी नाव पर चढ़ी, कभी नाव गाड़ी पर पड़ी-हिन्दी व्यंग्य और हास्य कविता (naav aur gaadi-hindi vyangya and hasya kavita)


भगवान श्री राम की महिमा विचित्र है। बड़े ऋषि, मुनि तथा संत यही कहते हैं कि उनकी भक्ति के बिना उनको समझा नहीं जा सकता और भक्ति के बाद भी कोई जान ले इसकी गारंटी नहीं है। राम अपने भक्तों की परीक्षा इतने लंबे समय तक लेते हैं कि वह हृदय में बहुत व्यथा अनुभव करता है। मगर जब परिणाम देते हैं तो भले ही क्षणिक सुख मिले पर वह पूरी पीड़ा को हर लेता है। हम बात कर रहे हैं अयोध्या में राम मंदिर मसले पर अदालती फैसले की। अभी यह मसला ऊंची अदालत में जा सकता है-ऐसी संभावना दिखाई देती है- इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि राम मंदिर बनना तय है। हम यहां अदालत के फैसले पर टीका टिप्पणी नहीं कर रहे पर इस मसले को भावनात्मक रूप से भुनाकर लेख लिखकर या बयान देकर प्रसिद्ध बटोरने वालों की हालत देखकर हंसी आती है। यह सभी लोग इस पर होने वाली बहस के लाभों से वंचित होने पर रुदन कर रहे हैं हालांकि दावा यह कि वह तो राम मंदिर विरोधियों के साथ हुए अन्याय का विरोध कर रहे हैं। जो लोग राम मंदिर समर्थक हैं उनकी बात हम नहीं कर रहे पर जो इसके नाम पर सर्वधर्मभाव की कथित राज्यीय नीति बचाने के लिये इसका विरोध करते हैं उनका प्रलाप देखने लायक है। उनका रुदन राम भक्तों को सुख का अहसास कराता है।
याद आते हैं वह दिन कथित सभी धर्मों की रक्षा की नीति की आड़ में राम भक्तों को अपमानित करते रहते थे। उनके बयान और लेख हमेशा राम मंदिरों का दिल दुखाने के लिये होते थे ताकि राम मंदिर विरोधियों से उनको निरंतर बोलने और लिखने के लिये प्रायोजन मिलता रहे। मुश्किल यह है कि ऐसे बुद्धिजीवी आज़ादी के बाद से ही छद्म रूप से भारत हितैषी संस्थाआंें से प्रयोजित रहे। हिन्दी के नाम पर इनको इनाम तो मिलते ही हैं साथ ही हिन्दी को समृद्ध करने के नाम पर अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवाद का काम भी मिलता है। यह अपने अनुवादित काम को ही हिन्दी का साहित्य बताते रहे हैं। अब आप इनसे पूछें कि हर देश की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा भौगोलिक स्थिति अलग अलग होती है तो वहां के पात्र या विचाराधाराऐं किस आधार पर यहां उपयुक्त हो सकती हैं? खासतौर से जब हमारे समाज में अभी तक धर्म से कम ही धन की प्रधानता रही है।
बहरहाल अब इनका रुदन राम भक्तों की उस पीड़ा को हर लेता है जो इन लोगों ने कथित रूप से सभी धर्म समान की राज्यीय नीति की आड़ में उसका समर्थन करते हुए नाम तथा नामा पाने के लिये बयान देकर या लेख लिखकर दी थी। हालांकि इनकी रुदन क्षमता देखकर हैरानी हो रही है कि वह बंद ही नहीं होता। गाहे बगाहे अखबार या टीवी पर कोई न कोई आता ही रहता है जो राम मंदिर बनने की संभावनाओं पर रुदन करता रहता है। कहना चाहिये कि राम भक्तों की हाय उनको लग गई है। सच कहते हैं कि गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। भारत में गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है पर इनमें अनेक भगवान राम मंदिर में अटूट आस्था रखते हैं। यह लोग किसी का प्रायोजन नहीं कर सकते जबकि राम मंदिर विरोधियों में यह क्षमता है कि वह बुद्धिजीवी और प्रचार कर्मियों को प्रायोेजित कर सकते हैं। ऐसे में अल्पधनी राम भक्त सिवाय हाय देने के और क्या कर सकते थे? कहते हैं जो होता है कि राम की मर्जी से होता है। राम से भी बड़ा राम का नाम कहा जाता है। यही कारण है कि राम मंदिर के विरोधी भी राम का नाम तो लेते हैं इसलिये उन पर माया की कृपा हो ही जाती है। अलबत्ता अंततः राम भक्तों की हाय उनको लग गयी कि अब उनका रुदन सुखदायी रूप में प्रकट हुआ।
इस पर प्रस्तुत है एक हास्य कविता
————————–
जब से राम मंदिर बनने की संभावना
सभी को नज़र आई है,
विरोधियों की आंखों से
आंसुओं की धारा बह आई है।
कहते हैं कि चलती रहे जंग यह
हमें आगे करना और कमाई है,
उनका कहना है कि न राम से काम
न वह जाने सीता का नाम,
बस, मंदिर नहीं बने,
ताकि लोग रहें भ्रम में
और विदेशी विचाराधाराओं की आड़ में
उनकी संस्थाओं का तंबु तने,
मंदिर में जो चढ़ावा जायेगा,
हमारी जेब को खाली कराऐगा,
इसलिये सभी धर्मो की रक्षा के नाम पर
राम मंदिर न बनने देने की कसम उन्होंने खाई है,
जिसके जीर्णोद्धार की संभावनाओं ने
मिट्टी लगाई है।
कौन समझाये उनको
राम से भी निराला है उनका चरित्र
उन्होंने कभी नाव लादी गाड़ी पर
कभी गाड़ी नाव पर चढ़ाई है।
————

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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धर्म और अवतार-हिंदी हास्य कविता


फंदेबाज मिला रास्ते में
और बोला
‘चलो दीपक बापू
तुम्हें एक सम्मेलन में ले जायें।
वहां सर्वशक्तिमान के एक नये अवतार से मिलायें।
हमारे दोस्त का आयोजन है
इसलिये मिलेगा हमें भक्तों में खास दर्जा,
दर्शन कर लो, उतारें सर्वशक्तिमान का
इस जीवन को देने का कर्जा,
इस बहाने कुछ पुण्य भी कमायें।’

सुनकर पहले चौंके दीपक बापू
फिर टोपी घुमाते हुए बोले
‘कमबख्त,
न यहां दुःख है न सुख है
न सतयुग है न कलियुग है
सब है अनूभूति का खेल
सर्वशक्तिमान ने सब समझा दिया
रौशनी होगी तभी
जब चिराग में होगी बाती और तेल,
मार्ग दो ही हैं
एक योग और दूसरा रोग का
दोनों का कभी नहीं होगा मेल,
दृश्यव्य माया है
सत्य है अदृश्य
दुनियां की चकाचौंध में खोया आदमी
सत्य से भागता है
बस, ख्वाहिशों में ही सोता और जागता है
इस पूर्ण ज्ञान को
सर्वशक्मिान स्वयं बता गये
प्रकृति की कितनी कृपा है
इस धरा पर यह भी समझा गये
अब क्यों लेंगे सर्वशक्तिमान
कोई नया अवतार
इस देश पर इतनी कृपा उनकी है
वही हैं हमारे करतार
अब तो जिनको धंधा चलाना है
वही लाते इस देश में नया अवतार,
कभी देश में ही रचते
या लाते कहीं लाते विदेश से विचार सस्ते
उनकी नीयत है तार तार,
हम तो सभी से कहते हैं
कि अपना अध्यात्म्किक ज्ञान ही संपूर्ण है
किसी दूसरे के चंगुल में न आयें।
ऐसे में तुम्हारे इस अवतारी जाल में
हम कैसे फंस जायें?
यहां तो धर्म के नाम पर
कदम कदम पर
लोग किसी न किसी अवतार का
ऐसे ही जाल बिछायें।

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अवतार का जाल-हिंदी हास्य कविता (Embodiment of the web – Hindi humor poetry)


फंदेबाज मिला रास्ते में
और बोला
‘चलो दीपक बापू
तुम्हें एक सम्मेलन में ले जायें।
वहां सर्वशक्तिमान के एक नये अवतार से मिलायें।
हमारे दोस्त का आयोजन है
इसलिये मिलेगा हमें भक्तों में खास दर्जा,
दर्शन कर लो, उतारें सर्वशक्तिमान का
इस जीवन को देने का कर्जा,
इस बहाने कुछ पुण्य भी कमायें।’

सुनकर पहले चौंके दीपक बापू
फिर टोपी घुमाते हुए बोले
‘कमबख्त,
न यहां दुःख है न सुख है
न सतयुग है न कलियुग है
सब है अनूभूति का खेल
सर्वशक्तिमान ने सब समझा दिया
रौशनी होगी तभी
जब चिराग में होगी बाती और तेल,
मार्ग दो ही हैं
एक योग और दूसरा रोग का
दोनों का कभी नहीं होगा मेल,
दृश्यव्य माया है
सत्य है अदृश्य
दुनियां की चकाचौंध में खोया आदमी
सत्य से भागता है
बस, ख्वाहिशों में ही सोता और जागता है
इस पूर्ण ज्ञान को
सर्वशक्मिान स्वयं बता गये
प्रकृति की कितनी कृपा है
इस धरा पर यह भी समझा गये
अब क्यों लेंगे सर्वशक्तिमान
कोई नया अवतार
इस देश पर इतनी कृपा उनकी है
वही हैं हमारे करतार
अब तो जिनको धंधा चलाना है
वही लाते इस देश में नया अवतार,
कभी देश में ही रचते
या लाते कहीं लाते विदेश से विचार सस्ते
उनकी नीयत है तार तार,
हम तो सभी से कहते हैं
कि अपना अध्यात्म्किक ज्ञान ही संपूर्ण है
किसी दूसरे के चंगुल में न आयें।
ऐसे में तुम्हारे इस अवतारी जाल में
हम कैसे फंस जायें?
यहां तो धर्म के नाम पर
कदम कदम पर
लोग किसी न किसी अवतार का
ऐसे ही जाल बिछायें।

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इस तरह वह शादी न हो सकी-हास्य कविता


मंडप में पहुंचने से पहले ही
दूल्हे ने दहेज़ में
मोटर साइकल देने की माँग उठाई
उसके पिता ने दुल्हन के पिता को
इसकी जानकारी भिजवाई
मच गया तहलका
दुल्हन के पिता ने
आकर दूल्हे से किया आग्रह
शादी के बाद मोटर साइकल देने का
दिया आश्वासन
पर दूल्हे ने अपनी माँग
तत्काल पूरी करने की दोहराई

मामला बिगड़ गया
दूल्हे के साथ आए बरातियों ने
दुल्हन पक्ष की कंगाल कहकर
जमकर खिल्ली उडाई
दूल्हन का बाप रोता रहा ख़ून के आंसू
दूल्हे का जमकर हंसता रहा
आख़िर कुछ लोगों को आया तरस
और बीच-बचाव के लिए दोनों की
आपस में बातचीत कराई
मोटर साइकल जितने पैसे
नकद देने पर सहमति हो पाई

दुल्हन के सहेलियों ने देखा मंजर
पूरी बात उसे सुनाई
वह दनदनाती सबके सामने आयी
और बाप से बोली
‘पापा आपसे शादी से पहले ही
मैंने शर्त रखी थी कि मेरे
दूल्हे के पास होनी चाहिए कार
पर यह तो है बेकार
मोटर साईकिल तक ही सोचता है
क्या खरीदेगा कार
मुझे यह शादी मंजूर नहीं है
तोड़ तो यह शादी और सगाई’

अब दूल्हा पक्ष पर लोग हंस रहे थे
‘अरे, लड़का तो बेकार है
केवल मोटर साइकिल तक की सोचता है’
बाद में क्या करेगा अभी से ही
दुल्हन के बाप को नोचता है
क्या करेंगे ऐसा जमाई’

बात बिगड़ गयी
अब लड़के वाले गिडगिडाने लगे थे
अपनी मोटर साइकल की माँग से
वापस जाने लगे थे
दूल्हा गया दुल्हन के पास
और बोला
‘मेरी शराफत समझो तुम
मोटर साइकल ही मांगी
मैं कार भी माँग सकता था
तब तुम क्या मेरे पास हवाई जहाज
होने का बहाना बनाती
अब मत कराओ जग हँसाई’
दुल्हन ने जवाब दिया
‘ तुम अभी भी अपनी माँग का
अहसान जता रहे हो
साइकिल भी होती तुम्हारे पास
मैं विवाह से इनकार नहीं करती
आज मांग छोड़ दोगे फिर कल करोगे
मैंने तुममें देखा है कसाई’
दूल्हा अपना मुहँ लेकर लॉट गया
इस तरह शादी नही हो पायी
——————-

दर्द कितना था और कितने जाम पिये -हिंदी शायरी



यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये

कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये

शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये

जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

‘चक दे इंडिया’ नहीं ‘सच देख इंडिया’-व्यंग्य


बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं ‘चक दे इंडिया’। जब देखों कोई थोड़ी बहुत अच्छी खबर होती है गूंजने लगता है टीवी चैनलों पर ‘चक दे इंडिया’‘। एक काल्पनिक कहानी पर फिल्म बनी जिसमें भारतीय महिला हाकी टीम को विश्वविजेता बता कर पूरे देश को भरमाने की कोशिश की गयी। सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों में भारत किसी भी खेल में विश्व कप जीता नहीं था पर एक फिल्म में काल्पनिक रूप से मिली जीत को भी एक सच की तरह भुनाया गया। भ्रम पैदा कर लोगों की भावनाओं से जुड़े व्यवसाय में किस तरह कमाई हो सकती है ऐसा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिल सकता।

अनेक विज्ञापन वाले अपने माडल कों किसी काल्पनिक प्रतियोगिता में जितवाकर अपने द्वारा विज्ञापित वस्तु दिखाते हुए उससे गंवाने लगते हैं ‘चक दे इंडिया’। कोई ‘रीयल्टी शो’ होता है तो उसमें कई बार प्रतियोगी गाने लगते हैं तो कई बार उस शो की समप्ति पर विजेता के सम्मान में भी गाया जाता है ‘चक दे इंडिया’। धीरे धीरे लोग इसे भूलने लगे थे पर क्रिकेट के बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने पर तो जैसे प्रचार माध्यमों की उचट कर लग गयी। जिसे देखो वही बजाये जा रहा था। यहीं से उनको अवसर मिला। क्रिकेट में उसके बाद कोई भी छोटी मोटी जीत मिली तो यही गाना चैनलों पर सुनाई देता है। जब हार जाती है तो उसके लिये कोई मातमी धुन बजना चाहिए पर एसा कोई भी नहीं करता जबकि फिल्मों ने कई ऐसे मातमी गीत और संगीत के कार्यक्रम बना रखे हैं। जब टीम पिट जाती है उस समय अपने खिलाडि़यों को थोड़ा बहुत कोसकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं।

काल्पनिक कहानियों से कुछ नहीं होता। फिल्म और उसके गीत क्षणिक रूप से आनंद प्रदान करते है, पर जीवन के लिये वह निरर्थक हैं। पहले लोग फिल्म देखकर भूल जाते थे और जो गाने जीवन के लिये थोड़ा बहुत अर्थ रखते थे तो उसे गुनागनाने लगते थे पर आज के प्रचार माध्यम तो उन गानों को भुनाने के लालायित रहते हैं। कई बार तो समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने किसी सकारात्मक लेख या समाचार को प्रभावी बनाने के लिये लिख देते है ‘चक दे इंडिया’ ।

वैसे देखा जाये तो बजाय ‘चक दे इंडिया की जगह होना चाहिए ‘सच देख इंडिया‘। सच तो यह है कि इस लेखक को गीत नहीं लिखना आता वरना लिख देता ‘सच देख इंडिया’। अगर प्रयास भी किया तो तुक मिलाने के चक्कर में शब्द गड़बड़ा जायेंगे और अगर उनको ठीक रखने का प्रयास किया तो तुक नहीं बनेगी। चलिये इस पर एक गीतनुमा एक हास्य कविता लिखने का प्रयास करके देखते हैं।

सच देख इंडिया, सच देख इंडिया
ख्वाब देखा तो सच से मूंह फेर लिया
सच देख इंडिया
परदे पर देखा होगा, अपने लिये विश्व कप
पर कीर्तिमानों में देश को जीरो ने घेर लिया
सच देख इंडिया
हाकी में नहीं जा रही इंडिया की टीम
सच में कभी नहीं जमती, देश के जीत की थीम
सच देख इंडिया
दुनियां भर के खिलाड़ी दिखायेंगे बीजिंग में अपने जौहर
इंडिया में बैठकर देखेंगे, परायों को बीबी और शौहर
सच देख इंडिया
सास-बहु सीरियल में सुनकर धमाके दिल बहालाआगे
शहर में होने वाले असली धमाकों से कान नहीं बचा पाओगे
काल्पनिक कहानियां कितना भी डरायें
सच भयानक दृश्यों से ज्यादा डरावनी नहीं होती
उनमें कितना भी खूबसूरत अहसास हो
जिंदगी इतनी खुशनुमा भी नहीं होती
सच देख इंडिया
…………………………………

हां, यह सच है कि यह गीत की तरह नहीं लिखा पर जब कड़वे सच हों तो शब्दों को बाहर आने देने से रोकना भी अच्छा नहीं लगता नहीं तो वह रुके हुए पानी की तरह अंदर ही अंदर गंदा होकर हृदय को खोखला कर देते हैं। कभी ‘ये है मेरा इंडिया’ तो कभी ‘मेड इन इंडिया’ तो कभी ‘चक दे इंडिया’ जैसे फिल्मी वाक्यों को जीवन में दोहराते रहने से सच नहीं बदल जायेगा। एक अजीब माहौल है। यहां दर्द है, संवेदना है और अभिव्यक्ति के साधन है पर फिर भी वह सब कुछ हो रहा है जिसे नहीं होना चाहिए। पहले कथा कहानियां सुनाकर इस देश को भ्रमित किया गया और फिल्म की काल्पनिक कहानियों से कुछ वाक्यांश लेकर उसमें देश के लोगों का दिल और दिमाग भटकाना एक व्यापार हो सकता है पर इससे पूरी कौम मानसिक रूप से कितनी कमजोर हो गयी है जो इंतजार करती है किसी घटना का ताकि उस संवेदना व्यक्त की जा सकें। आम आदमी का समझ में तो आ सकता है पर जिन लोगों खेल और समाज के संबंध में कुछ करने का दायित्व है उनकी नाकामी एक चिंता का विषय है। लोग अपनी तकलीफों के साथ जी रहे हैं उसे भुलाने के लिये वह इन काल्पनिक कहानियों में मन बहला रहे हैं पर समाज और राष्ट्र को आगे ले जाने वाला चिंतन और अध्ययन का भाव उनमें लुप्त होता जा रहा है। फिल्मी वाक्यांशों से इस देश की वास्तविकता नहीं बदल सकती। इसके लिये पहले ‘चक दे इंडिया’ की जगह कहना पड़ेगा ‘सच देख इंडिया’
……………………………………………..

यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेख के अन्य ब्लाग।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

अपनी जरूरतें दायरों में ही रखें


अपने लिए कहीं आसरा
ढूढने से अच्छा है
हम ही लोगों के सहारा बन जाएं
किसी से प्यार मांगे
इससे अच्छा है कि
हम लोगों को अपना प्यार लुटाएं
किसी से कुछ पाने की ख्वाहिश
पालने से अच्छा है कि
हम लोगों के हमदर्द बन जाएं
जिन्दगी में सभी हसरतें पूरी नहीं होती
कुछ अपने ही हिस्से का सुख काम करते जाएं
आकाश की लंबाई से अधिक है
चाहतों के आकाश का पैमाना
सोचें दायरों से बाहर हमेशा
पर अपनी जरूरतें
दायरों में ही रखते जाएं
——————

उधार की बैसाखियाँ


आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता है वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा