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प्रत्याशी पति-हिन्दी व्यंग्य लेख


उस दिन एक आटो रिक्शा से बार बार लाउडस्पीकर पर दोहराया जा रहा था कि अमुक महिला को पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाईये। पहली बार जब कान में यह शब्द गूंजा तो हमें पार्षद पद की जगह पति शब्द सुना ही दिया। फिर जब दूसरी बार ध्यान दिया तो पता लगा कि पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाने की अपील की जा रही है। स्थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिलाओं के लिये सुरक्षित रखे गये हैं। हमें इस निर्णय के श्रेष्ठ या गौण होने की मीमांसा नहीं कर रहे क्योकि एक आम आदमी के लिये बस इतना ही काफी है कि वह एक दिन मोहर लगाकर अपने काम में जुट जाये। हम भी यही करते हैं। जिस तरह फिल्म, व्यापार, और पत्रकारिता में नित परिवर्तन होते हैं क्योंकि इनका संबंध लोगों की रुचियों और मानसिकता को प्रभावित करने सै है तब खुली लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नीरसता के वातावरण को सरस बनाने के लिये इस तरह के परिवर्तन करना भी स्वाभाविक लगता हैं। भले ही यह प्रक्रिया एक व्यवसाय, फिल्म या पत्रकारिता जैसी न हो पर चूंकि लोगों में रुचि हमेशा बनी रहे इसलिये ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसका परिणाम भी परिलक्षित होता है।

स्थानीय चुनावों में वास्तव ही एक अलग किस्म का वातावरण दिखने लगा है। महिलायें चुनाव लड़ रही हैं, यह देखकर खुशी होती है पर कुछ ऐसी बातें होती हैं जो कभी हास्य तो कभी करुणा का भाव पैदा करती हैं। उस दिन एक मित्र रास्ते में मिले। वह पास के ही शहर में जा रहे थे। हमसे अभिवादन करने के बाद वह तत्काल बोले-‘‘यार, आज जरा जल्दी में हूं। घर जा रहा हूं। भाईसाहब पार्षद के लिये खड़े हुए हैं। उनके प्रचार का काम मैं ही देख रहा हूं। मेरा पूरा परिवार वहीं है और अब मैं भी जा रहा हूं।’
हमने कहा-‘अच्छा, चलो कोई बात नहीं, अगर आपके भाई पार्षद बन जायें तो अच्छी बात है।’
वह कुछ सोचते दिखे फिर बोले-दरअसल, भाईसाहब नहीं बल्कि भाभीजी खड़ी हैं। महिलाओं के लिये सुरक्षित स्थान है तो भाईसाहब तो खड़े नहीं हो सकते थे इसलिये उनको खड़ा करना पड़ा। वैसे हमारी भाभी तो अभी तक घर गृहस्थी संभालती आई हैं इसलिये भाई साहब को अपनी राजनीतिक जमीन पर उनको मैदान में उतारना पड़ा।’
जब वह अपनी बात कह रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई संकोच उनके मन में था जो चेहरे पर दिख रहा था।
एक अन्य मित्र ने भी अपना एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनके पड़ौस में ही एक महिला पार्षद पद की प्रत्याशी हैं। वह भी एक सामान्य गृहिणी हैं। अगर पड़ौसी चुनाव लड़ता तो कोई बात नहीं पर उसकी पत्नी चुनाव लड़ रही है और वह अपनी पड़ोसनों को भी प्रचार के लिये साथ लेती है। संयोग से उसी जगह उन्ही मित्र के एक पुराने परिचित की भी पत्नी चुनाव लड़ रही है। वह प्रत्याशी पति-हां, यही शब्द ठीक लगता है-उनके घर आया और बोला ‘‘यह तो मैं भी समझ रहा हूं कि पड़ौस की वजह से आपको उनका प्रचार करना ही है पर आप वोट मुझे ही देना।’
उन मित्र ने कहा-‘आपको!
वह प्रत्याशी थोड़ा हकलाते हुए बोले-हां, मतलब मेरी पत्नी के नाम पर मुहर लगाना।’
मतलब उनकी पत्नी के नाम पर मोहर लगाना उनको वोट देना ही था।
एक अन्य मित्र की एक रिश्तेदार चुनाव लड़ी रही है। वह तो साफ कह देती हे कि हमारा तो नाम है पर हमारे पति ही असल में चुनाव लड़ रहे हैं। वरना हम क्या जानते है इस राजनीति में।’
पुरुषों के मुकाबले महिलायें बहुत सरल और कोमल स्वभाव की होती हैं। छल, कपट, धोखा तथा बेईमानी से तो उनका करीब करीब नाता ही नहीं होता। मगर राजनीति का खेल अलग ही है। जो महिलायें राजनीति की अनुभवी हैं उनके लिये प्रचार वगैरह कोई असहज काम नहीं होता जबकि ऐसी सामान्य गृहणियां जो बरसों तक पर्दे में रही पर अब भले ही नाम के लिये प्रत्याशी बनती हैं तो उनको घर से बाहर निकलना ही पड़ता है। हालत यह हो जाती है कि जिन घरों में पर्द का बोलाबाला है वहां भी पुरुष अपनी राजनीतिक जमीन बचाने या बनाने के लिये इस परंपरा का त्याग करने के लिये प्रेरित करते है।
जगह जगह लगे बैनरों में प्रत्याशी महिलाओं के फोटो हैं। जिन महिलाओं ने अपनी राजनीतिक जमीन बनाय हैं वह तो अपना नाम ही लिखती हैं पर जिनको पति के नाम पर वोट चाहिये उनके नाम पीछे वह जुड़ा रहता है। जिनमें से तो कई ऐसी हैं जिनके परिवार वाले अगर कहीं उनके फोटो सार्वजनिक स्थान पर देखें तो आसमान सिर पर उठा डालें पर अब उनके पुरुष सदस्यों ने स्वयं ही लगाये हैं। फोटो में अधिकतर के सिर पर पल्लू हैं और मांग में सिंदूर भरा हुआ है। सच बात तो यह है कि सभी प्रत्याशी महिलायें भली हैं और अगर जैसा कि साफ सुथरी छबि की बात की जाती है तो सभी उस पर खरी उतरती हैं।
ऐसे में लगता है कि सभी जीत जायें मगर लोकतंत्र की भी सीमा है। वार्ड में एक को चुना जाना है और शहर का महापौर भी एक ही हो सकता है।
किसी भी महिला प्रत्याशी की आलोचना करने का मन भी नहीं करता। अगर पुरुष हो तो उस पर तो दस प्रकार की टिपपणियां की जा सकती हैं पर अपने घर की गृहस्थी को अपनी खून पसीने से सींच चुकी इन महिलाओं को इस तरह प्रचार के लिये जूझते देख मन द्रवित हो उठता है। संभव है कि इनमें कुछ महिलायें ऐसी हों जो घर का काम करने के बाद प्रचार के लिये जूझती हों। यह भी संभव है कि उन्होंने चुनाव के समय तक अपने मायके या ससुराल पक्ष से किसी को घर के काम के लिये बुलाया हो। इसके लिये उनके रिश्तेदार भी तैयार हुए हो। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पुरुष आम तौर से घर के बाहर रहते हुए अपने संपर्क व्यापक दायरे में बनाये रहता है और जब वह चुनाव लड़ता है तब वह पड़ौसियों और रिश्तेदारों पर बोझ नहीं डालता। इसके विपरीत महिलायें घर में रहते हुए अपने आसपास आत्मीय रिश्ते बना लेती हैं। घर में सीमित महिलायें व्यापक दायरे में संपर्क नहीं बना पाती पर अपने आसपास के उनके आत्मीय रिश्ते पुरुषों के औपचारिक रिश्तों से अधिक मजबूत तथा सार्थक होते हैं इस कारण उनकी आदत भी हो जाती है कि जब कहीं सार्वजनिक कार्यक्रम होता है तो वह अपने पड़ौस और रिश्तदारेां के समूह के साथ ही वहां पहुंचती हैं। ऐसे में अगर सामान्य गृहस्थ महिलायें मैदान में उतरे और अपने रिश्तेदारों के साथ पड़ौसियों को मोर्चे पर लेकर न निकले यह संभव नहीं है। एक पुरुष को मित्र, रिश्तेदार और पड़ोसी कोई भी बहाना बनाकर मना कर सकता है पर महिलाओं को कौन मना कर सकता है क्योंकि उनके आत्मीय संबंध एक आदत बन जाते हैं। कई गृहणियों को यह पार्षद पद का संघर्ष बैठे बिठायें मुसीबत लगता होगा। यह अलग बात है कि कुछ इसे अपने आत्मीय लोगों के बीच व्यक्त करती होंगी तो कुछ नहीं।
वैसे सरकार या प्रशासन कोई अदृश्य संस्था नहीं है बल्कि उसे वेतनभोगी लोग ही चलाते हैं जो कि अपने हिसाब से सारा काम करते हैं। उनको अपने हिसाब से चलाना कोई आसान काम नहीं है। यह सामान्य गृहणियां इस प्रशासन तंत्र को केसे साधेंगी यह प्रश्न अपने आप में गौण है क्योंकि चुने जाने के बाद उनके पति ही ‘पार्षद पति’ बनकर यह काम संभाल लेगें। बाकी तो छोड़िये आसपास के लोग भी अपने पार्षद के नाम पर उनके पति की ही नाम लेंगे जैसे गांवों में अभी तक सरपंच का नाम पूछने पर बताया जाता है कि अमुक पुरुष है। बाद में पता लगता है कि औपचारिक रूप से उनकी पत्नी ही सरपंच है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाद में यह गृहणियां किसी अन्य कार्य के तनाव से मुक्त रहती हैं। अलबत्ता चुनाव के समय उनके लिये यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी हो जाती है कि वह बाहर निकल कर अपने पति को पार्षद पति बनाने के लिये प्रयास करें ंवै से असली महारानी तो गृहणी ही होती है । पुरुष महाराजा हो साहूकार बाहर कितना भी कद्दावर दिखता हो पर घर में केवल पति का पत्नी होता है। दरअसल यह पार्षद पति शब्द एक ऐसी प्रत्याशी महिला के शब्दों से मिला जो स्वयं अपनी राजनीतिक जमीन बना चुकी है। उसके समर्थक ही कह रहे हैं कि ‘पार्षद पति’ नहीं बल्कि अपने यहां खुद काम करने वाला ‘पार्षद’ चुनो। बहरहाल लोकतंत्र में एक यह नजारा भी देखने में आ रहा है जिसे देखकर मन में उतार चढ़ाव तो आता ही है। शहरों में महिलाओं की यह भागीदारी दिलचस्प और रोमांचक तो दिखती है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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अपनी भाषा, गूंगी भाषा-हास्य व्यंग्य (apni bhasha,goongi bhasha-hasya vyangya)


शाम के समय दीपक बापू अपने घर से बाहर निकल एक निकट के उद्यान में हवा खाने पहुंचे। अंदर प्रवेश करने से पहले ही द्वार पर खड़े होकर उन्होंने देखा कि आदमी को देखा जिसकी पीठ उनकी तरफ थी। उसके बाल कंधे गर्दन तक लटके हुए थे। सिर और शरीर चैड़ा था। उसने चूड़ीदार पायजामा और चमकदार पीला कुर्ता पहने रखा था। दीपक बापू का अनुमान था कि वह आलोचक महाराज ही होंगे इसलिये वह अंदर जायें कि नहीं इस विचार में खड़े हो गये। वह नहीं चाहते थे कि आलोचक महाराज के कटु शब्द वहां घूम रहे अन्य लोगों के सामने सुनकर अपनी भद्द पिटवायें।
इससे पहले वह कोई निर्णय करते उस आदमी ने अपना मुंह फेर कर उनकी तरफ किया। दीपक बापू की घिग्घी बंध गयी। वह आलोचक महाराज ही थे। दीपक बापू खीसें निपोड़ते हुए उनके पास पहुंच गये और हाथ जोड़कर बोले-नमस्ते महाराज, यह आप तफरी के लिये आये हैं! अच्छा है, इससे तंदुरस्ती बढ़ती है।’
आलोचक महाराज ने बिना किसी भूमिका बांधे कहा-‘हम तो पहले ही तंदुरस्त हैं। देखो इतनी बड़ी देह के साथ ही समाज में भी हमारी इज्जत है! तुम्हारी तरह कीकड़ी कवि नहीं है कि अनजान होकर इधर बाग में टहलने आयें। हमें पता था कि तुम शाम को यहां आते हो इसलिये ही तुम्हारा इंतजार कर रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज, अभी तो हम तफरी के मूड में हैं फिर कभी बात करेंगे।’
आलोचक महाराज बोले-‘वह फंदेबाज तुम्हारा दोस्त है न! उसे जरा समझा देना। अपने किये की माफी मांग ले वरना हम तुम्हारी कविताओं को अखबार में छपना बंद करवा देंगे।’
दीपक बापू ने अपनी टोपी उतारी और सिर पर हाथ फेराने लगे। आलोचक महाराज बोले-डर गये न!’
दीपक बापू बोले-‘नहीं डरे काहे को? हम तो यह सोच रहे हैं कि कहां आपने मुसीबत ले ली। फंदेबाज हमारे गले में दोस्त की तरह फंसा है वरना हमारा उससे क्या वास्ता? उसकी बेवकूफियों की वजह से हम हास्य कवितायें लिखते हैं वरना तो जोरदार साहित्यकार होते! आप उससे सुलह कर लीजिये वरना वह आपको परेशान करेगा। वैसे आपका झगड़ा हुआ किस बात पर था?’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हारी बात को लेकर। वह एक कार्यक्रम में पहुंच गया। वहां हमने तुम्हारा उदाहरण देकर नये कवियों को समझाया कि देखो उस फ्लाप दीपक बापू को! कभी एक विषय पर ढंग से नहीं लिखता। योजनाबद्ध ढंग से नहीं लिखता। बस वह फंदेबाज मंच पर चढ़ आया और हमें लात घूंसे दिखाने लगा। कुछ बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोल रहा था। हमने तो पहचान लिया क्योंकि उस लफंगे को कई बार तुम्हारे साथ साइकिल पर पीछे बैठे जाते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘शर्मनाक! उसने आप जैसे महान आदमी को अपनी गूंगी मातृभाषा में इतनी भद्दी गालियां दी। हम तो यह गालियां अपनी जुबान से भी नहीं निकाल सकते।’
आलोचक महाराज चैंके-‘वह गालियां दे रहा था! उसकी भाषा अपने समझ में नहीं आयी। हमने तो उसे कई बार अपनी भाषा में बोलते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज उसकी मात्ृभाषा गूंगी है। उसी मेें वह आपको गालियां दे रहा था।
आलोचक महाराज-‘यह कौनसी भाषा है?’
दीपक बापू-‘हमें नहीं मालुम।’
आलोचक महाराज-‘तो तुम्हें मालुम क्या है?’
दीपक बापू-‘यही कि उसकी मातृभाषा गूंगी है। जब वह गुस्से में होता है तब यही भाषा बोलता है।’
आलोचक महाराज बोले-‘उसका मोबाइल नंबर दो। अभी उसको फोन करता हूं और जो शराब की बोतल के पैसे उसको दिये वापस मांगता हूं। मैंने यह सोचकर उस कार्यक्रम में उससे हंगामा फिक्स किया था कि वह तुम्हारा दोस्त है। इससे तुम्हें भी प्रचार मिल जायेगा और तुम कहते हो कि दोस्त नहीं है तो अब देखो उसकी क्या हालत करता हूं? हमें गूंगी भाषा में गालियां देता है। देखो तुम अपनी भाषा वाले हो। हमारा साथ देना। उसके खिलाफ बयान अखबार में देना। यह गूंगी भाषा वाला समझता क्या है?
दीपक बापू ने रुमाल आलोचक महाराज की तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘लीजिये महाराज, आवेश में आपका पसीना निकल रहा है। यह आपका हंगामा फिक्स था तो फिर हमेें काहे धमकाने आये।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘उसने यह शर्त रखी थी कि उसकी तरफ से तुम्हारे प्रति वफादारी का प्रमाण पत्र पेश करूं। मगर अब मामला भाषा का है। तुम हम एक हो जाते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘कतई नहीं महाराज! आपका झगड़ा हुआ है और इसमें हम कतई नहीं पड़ेंगे। झगड़ा किसी बात पर और नाम जाति, भाषा और धर्म का लेकर लोगों को लड़ाने का प्रयास कम से कम हमारे साथ तो नहीं चलेगा। रहा अखबार में छपने का सवाल तो हम आपके पास नहीं लायेंगे अपनी रचना!
आलोचक महाराज बोले-‘नहीं तुम लाना! पर हम नहीं छपवायेंगे अखबार में। जब लाओगे और नहीं छपेगा तभी तो हमारे गुस्से का पता चलेगा? अपनी भाषा में हमारी जो इज्जत है उसकी परवाह न करने का परिणाम कैसे चलेगा तुमको?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज हमें पता है! आप हमारी कविताओं के विषय चुराकर दूसरों को सुनाकर उनसे दूसरी रचनायें लिखवाते हो। आपके पास विषय चिंतन तो है ही नहीं। एकाध बार साल में कहीं रचना छपवाकर एहसान हम पर करते हैं! नमस्कार हम चलते हैं! वैसे आप इस विषय को यहीं बंद कर दें क्योंकि आपने यह राज उजागर कर ही दिया है कि वह हंगामा फिक्स था!’
दीपक बापू घर वापस चल पड़े। रात हो चली थी। इधर दारु की बोतल के साथ फंदेबाज भी उनको अपने ही घर के बाहर खड़ा मिला। उनको देखते ही बोला-‘आओ दीपक बापू। आज तुम्हारे लिये जोरदार खबर लाया हूं। आज मैंने आलोचक महाराज की क्या धुर उतारी है! तुम देखते तो वाह वाह कर उठते! इसी खुशी में यह बोतल खरीद कर अपने घर ले जा रहा था। सोचा तुम्हें बताता चलूं।’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘हमें पता है! आलोचक महाराज ने गुस्से में बता दिया कि यह हंगामा फिक्स था! अब तुम अपनी सफाई मत देना।’
फंदेबाज बोला-‘उसने ऐसा किया? अभी जाकर उसकी खबर लेता हूं।’
दीपक बापू बोले-‘यह बोतल घर ले जाकर पीओ। वरना यह भी छिन जायेगी। वह बहुत गुस्से में हैं। वहां जो तुम बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोले रहे थे उसका मतलब उनके समझ में आ गया है।’
फंदेबाज बोला-‘पर वह तो मैं ऐसे ही कर रहा था1’
दीपक बापू-‘हमने उनसे कह दिया कि वह अपनी मात्ृभाषा गूंगी में आपको गालियां दे रहा था। तुम कहते भी हो कि मेरी मातृभाषा गूंगी है!’
फंदेबाज-‘वह तो इसलिये कि मेरी माताजी गूंगी है। यह कोई अलग से भाषा नहीं है। तुमने यह क्या आग लगाई।’
दीपक बापू बोले-‘लगाई तो तुमने! हमने तो बुझाई। दोनों ने हमारा नाम लेकर हंगामा किया और हमने दोनों की कराई लड़ाई।’
दीपक बापू अंदर चले गये इधर फंदेबाज बुदबुदाया-‘अब इसका क्या नशा चढ़ेगा! इनको तो पता चल गया कि यह हंगामा फिक्स था! फिर यह अपनी भाषा और गूंगी भाषा का मुद्दा चिपकाये आये हैं। वह आलोचक महाराज पूरा खब्ती है। खबरों में छपने के लिये वह कुछ भी कर सकता है। इससे पहले कि वह कुछ करे उसे समझाये आंऊ कि गूंगी कोई अलग से भाषा नहीं है। इस दीपक बापू का क्या? यह तो हास्य कविता लिखकर फारिग हो लेगा। मेरी शामत आयेगी। यह बोतल भी आलोचक महाराज को वापस कर आता हूं
वह तुरंत वहां से चल पड़ा।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना-हास्य व्यंग्य (yah hindi sammelan-hindi hasya vyangya)


ब्लागर उस समय सो रहा था कि चेले ने आकर उसके हाथ हिलाकर जगाया। ब्लागर ने आखें खोली तो चेले ने कहा-‘साहब, बाहर कोई आया है। कह रहा है कि मैं ब्लागर हूं।’
ब्लागर एकदम उठ बैठा और बोला-‘जाकर बोल दे कि गुरुजी घर पर नहीं है।’
चेले ने कहा-’साहब, मैंने कहा था। तब उसने पूछा ‘तुम कौन हो’ तो मैंने बताया कि ‘मैं उनका शिष्य हूं। ब्लाग लिखना सीखने आया हूं’। तब वह बोला ‘तब तो वह यकीनन अंदर है और तुम झूठ बोल रहे हो, क्योंकि उसने सबसे पहले तो तुम्हें पहली शिक्षा यही दी होगी कि आनलाईन भले ही रहो पर ईमेल सैटिंग इस तरह कर दो कि आफलाईन लगो। जाकर उससे कहो कि तुम्हारा पुराना जानपहचान वाला आया है। और हां, यह मत कहना कि ब्लागर दोस्त आया है।’

ब्लागर बोला-‘अच्छा ले आ उसे।’
शिष्य बोला-‘आप   निकर छोड़कर पेंट  पहन लो। वरना क्या कहेगा।’
ब्लागर ने कहा-‘ क्या कहेगा ? वह कोई ब्लागर शाह है। खुद भी अपने घर पर इसी तरह तौलिया पहने  कई बार मिलता है। मैं तो फिर भी आधुनिक प्रकार की  नेकर पहने रहता  हूं, जिसे पहनकर लोग सुबह मोर्निंग वाक् पर जाते हैं।’
इधर दूसरे ब्लागर ने अंदर प्रवेश करते ही कहा-‘यह शिष्य कहां से ले आये? और यह ब्लागिंग में सिखाने लायक है क्या? बिचारे से मुफ्त में सेवायें ले रहे हो?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘अरे, यह तो दोपहर ऐसे ही सीखने आ जाता है। मैं तुम्हारी तरह लोगों से फीस न लेता न सेवायें कराता हूं। बताओ कैसे आना हुआ।’
दूसरे ब्लागर ने कंप्यूटर की तरफ देखते हुए पूछा-‘यह तुम्हारा कंप्यूटर क्यों बंद है? आज कुछ लिख नहीं रहे। हां, भई लिखने के विषय बचे ही कहां होंगे? यह हास्य कवितायें भी कहां तक चलेंगी? चलो उठो, मैं तुम्हारे लिखने के लिये एक जोरदार समाचार लाया हूं। ब्लागर सम्मेलन का समाचार है इसे छाप देना।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम खुद क्यों नहीं छाप देते। तुम्हें पता है कि ऐसे विषयों पर मैं नहीं लिखता।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अरे, यार मैं अपने काम में इतना व्यस्त रहता हूं कि घर पर बैठ नहीं पाता। इसलिये कंप्यूटर बेच दिया और इंटरनेट कनेक्शन भी कटवा दिया। अब अपने एक दोस्त के यहां बैठकर कभी कभी ब्लाग लिख लेता हूं।’
पहले ब्लागर ने घूरकर पूछा-‘ब्लाग लिखता हूं से क्या मतलब? कहो न कि अभद्र टिप्पणियां लिखने के खतरे हैं इसलिये दोस्त के यहां बैठकर करता हूं। तुमने आज तक क्या लिखा है, पता नहीं क्या?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘क्या बात करते हो? आज इतना बड़ा सम्मेलन कराकर आया हूं। इसकी रिपोर्ट लिखना है।’
पहले ब्लागर ने इंकार किया तो उसका शिष्य बीच में बोल पड़ा-‘गुरुजी! आप मेरे ब्लाग पर लिख दो।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अच्छा तो चेले का ब्लाग भी बना दिया! चलो अच्छा है! तब तो संभालो यह पैन ड्ाईव और कंप्यूटर खोलो उसमें सेव करो।’
शिष्य ने अपने हाथ में पैन ड्राईव लिया और कंप्यूटर खोला।
पहले ब्लागर ने पूछा-‘यह फोटो कौनसे हैं?
दूसरे ब्लागर ने एक लिफाफा उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा‘-जब तक यह इसके फोटो सेव करे तब तक तुम उसको देखो।
ब्लागर ने फोटो को एक एक कर देखना शुरु किया। एक फोटो देखकर उसने कहा-‘यह फोटो कहीं देखा लगता है। तुम्हारा जब सम्मान हुआ था तब तुमने भाषण किया था। शायद…………….’
दूसरे ब्लागर ने बीच में टोकते हुए कहा-‘शायद क्या? वही है।’
दूसरा फोटो देखकर ब्लागर ने कहा-‘यह चाय के ढाबे का फोटो। अरे यह तो उस दिन का है जब मेरे हाथ से नाम के लिये ही उद्घाटन कराकर मुझसे खुद और अपने चेलों के लिये चाय नाश्ते के पैसे खर्च करवाये थे। मेरा फोटो नहीं है पर तुम्हारे चमचों का…….’’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘अब मैं तुम्हारे इस चेले को भी चमचा कहूं तो तुम्हें बुरा लगेगा न! इतनी समझ तुम में नहीं कि ब्लागिंग कोई आसान नहीं है। जितना यह माध्यम शक्तिशाली है उतना कठिन है। लिखना आसान है, पर ब्लागिंग तकनीकी एक दिन में नहीं सीखी जा सकती। इसके लिये किसी ब्लागर गुरु का होना जरूरी है। सो किसी को तो यह जिम्मा उठाना ही है। तुम्हारी तरह थोड़े ही अपने चेले को घर बुलाकर सेवा कराओ। अरे ब्लागिंग सिखाना भी पुण्य का काम है। तुम तो बस अपनी हास्य कवितायें चिपकाने को ही ब्लागिंेग कहते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, यह तो है! यह तीसरा फोटो तो आइस्क्रीम वाले के पास खड़े होकर तुम्हारा और चेलों का आईस्क्रीम खाने का है। यह आईसक्रीम वाला तो उस दिन मेरे सामने रास्ते पर तुमसे पुराना उधार मांग रहा था। तब तुमने मुझे आईसक्रीम खिलाकर दोनों के पैसे दिलवाकर अपनी जान बचाई थी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘मेरे फोटो वापस करो।’
पहले ब्लागर ने सभी फोटो देखकर उसे वापस करते हुए कहा-‘यार, पर इसमें सभी जगह मंच के फोटो हैं जिसमें तुम्हारे जान पहचान के लोग बैठे हैं। क्या घरपर बैठकर खिंचवायी है या किसी कालिज या स्कूल पहुंच गये थे। सामने बैठे श्रोताओं और दर्शकों का कोई फोटो नहीं दिख रहा।’
दूसरे ब्लागर ने पूछा-‘तुम किसी ब्लागर सम्मेलन में गये हो?’
पहले ब्लागर ने सिर हिलाया-‘नहीं।’
दूसरा ब्लागर-‘तुम्हें मालुम होना चाहिये कि ब्लागर सम्मेलन में सिर्फ ब्लागर की ही फोटो खिंचती हैं। वहां कोई व्यवसायिक फोटोग्राफर तो होता नहीं है। अपने मोबाइल से जितने और जैसे फोटो खींच सकते हैं उतने ही लेते हैं। ज्यादा से क्या करना?
पहला ब्लागर-हां, वह तो ठीक है! ब्लागर सम्मेलन में आम लोग कहां आते हैं। अगर वह हुआ ही न हो तो?
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया-‘लाओ! मेरे फोटो और पैन ड्राइव वापस करो। तुमसे यह काम नहीं बनने का है। तुम तो लिख दोगे ‘ न हुए ब्लागर सम्मेलन की रिपोर्ट’।
पहला ब्लागर ने कहा-‘क्या मुझे पागल समझते हो। हालांकि तुम्हारे कुछ दोस्त कमेंट में लिख जाते हैं ईडियट! मगर वह खुद हैं! मैं तो लिखूंगा ‘छद्म सम्मेलन की रिपोर्ट!’
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया उसने कंप्यूटर में से खुद ही पेनड्राइव निकाल दिया और जाने लगा।
फिर रुका और बोला-‘पर इस ब्लागर मीट पर रिपोर्ट जरूर लिखना। हां, इस ब्लागर सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना। तुम जानते नहीं इंटरनेट लेखकों के सम्मेलन और चर्चाऐं कैसे होती हैं? इंटरनेट पर अपने बायोडाटा से एक आदमी ने अट्ठारह लड़कियों को शादी कर बेवकूफ बनाया। एक आदमी ने ढेर सारे लोगों को करोड़ों का चूना लगाया। इस प्रकार के समाचार पढ़ते हुए तुम्हें हर चीज धोखा लगती है। इसलिये तुम्हें समझाना मुश्किल है। कभी कोई सम्मेलन किया हो तो जानते। इंटरनेट पर कैसे सम्मेलन होते हैं और उनकी रिपोर्ट कैसे बनती है, यह पहले हमसे सीखो। सम्मेलन करो तो जानो।’
पहले ब्लागर ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा-ऐसे सम्मेलन कैसे कराऊं जो होते ही नहीं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘होते हैं, करना हमसे सीख लो।’
वह चला गया तो पहला ब्लागर सामान्य हुआ। उसने शिष्य से कहा-‘अरे, यार कम से कम उसके फोटो तो कंप्यूटर में लेना चाहिये थे।’
शिष्य ने कहा-‘ गुरुजी फोटो तो मैंने फटाफट पेनड्राइव से अपने कंप्यूटर से ले लिये।’
पहला ब्लागर कंप्यूटर पर बैठा और लिखने लगा। शिष्य ने पूछा’क्या लिख रहे हैं।
पहले ब्लागर ने कहा-‘जो उसने कहा था।’
शिष्य ने पूछा-‘यही न कि इस मुलाकात की बात लिख देना।’
ब्लागर ने जवाब दिया‘नहीं! उसने कहा था कि ‘इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना’।’’
……………………….
नोट-यह व्यंग्य पूरी तरह से काल्पनिक है। किसी घटना या सम्मेलन का इससे कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो यह एक संयोग होगा। इसका लेखक किसी दूसरे ब्लागर से ब्लागर से मिला तक नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा-व्यंग्य आलेख (insan aur bandar-hindi hasya vyangya)


आदमी कभी बंदर रहा होगा-इस सिद्धांत पर यकीन नहीं होता। दरअसल बरसों पहले यह पश्चिमी सिद्धांत पढ़ा था कि आदमी पहले बंदर था या इसे यूं कहें कि बंदर धीरे धीरे आदमी बन गया। दरअसल हमने चालीस बरसों से किसी बंदर को आदमी बनते हुए नहीं देखा। कहा जाता है कि आदमी की बुद्धि इस सृष्टि में सबसे तीव्र है इसलिये ही वह पशु और पक्षियों तथा अन्य जीवों पर नियंत्रण कर लेता है और जिसमें बंदर भी शामिल है।
कई बार हमने बंदर को देखा है। उसे कभी हमलावर नहीं पाया। हमारे देश में कई ऐसे पवित्र स्थान हैं जहां बंदरों के झुंड के झुंड रहते हैं। वहां उनका आचरण आदमी से मेल नहीं खाता नजर नहीं आता। बंदर शरारती होते हैं पर खूंखार नहीं। आदमी अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कब खूंखार हो जाये कहना कठिन है।
इस सिद्धांत को न मानने के अनेक तर्क हैं। सबसे पहला तो यह है कि इंसान अगर बंदर था तो वह वर्तमान स्थिति में कभी नहीं आता। इधर हमने अध्यात्मिक ग्रंथ भी छान मारे पर कहीं इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि आदमी पहले कभी बंदर था। वैसे यह खोज पश्चिम की है इसलिये इस पर आपत्ति करना आसान नहीं है पर उनके इस सिद्धांत में अविश्वास के कारण है। एक तो यह है कि सृष्टि के प्रारंभ में ही सभी प्रकार के जीव प्रकट हो गये थे। सभी का चाल चलन, रहन सहन, आयु और स्वभाव के मूल तत्व कभी नहीं बदले। इसी स्वभाव के वशीभूत हर जीवन अपने कर्म करता है।

एक बार हम दूसरे कोटा (राजस्थान)शहर गये। वहां मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर पर प्रसाद चढ़ाया और हाथ में उसका लिफाफा लिये परिक्रमा लगाने गये। परिक्रमा के बीच में मंदिर के पीछे एक बंदर आया और हमारे हाथ से वह लिफाफा ऐसे लेकर चलता बना जैसे कि उसको देने ही आये थे। बाद में हमने देखा कि वह आराम से अपने परिवार के साथ वह खा रहा है।
हम यह कहें कि उसने छीना तो यह एक अपराध की तरह है। उस समय वह इतने आराम से ले गया कि हाथ से जाने के बाद हमें पता लगा कि वह तो लिफाफा ले गया।
हम मंदिर के बाहर निकले तो वहां अनेक भिखारी प्रसाद मांग रहे थे। हमारे हाथ से लिफाफा जा चुका था इसलिये हम तो चुपचाप चले आये। घर आकर मेजबान से कहा तो उन्होंने कहा-‘हां, ऐसा होता है। कई लोगों के साथ ऐसा हुआ है पर हम भी कई बार वहां गये पर ऐसी घटना नहीं हुई।
कुछ दिन पहले एक मंदिर के बाहर एक औरत चिल्ला रही थी। कोई उसका पर्स उसके हाथ से छीनकर भाग गया था। वह चिल्लाती रही पर जब तक किसी का ध्यान इस ओर जाता तब तक छीनने वाला लोगों की नजरों से ओझल हो गया।
तब हमें उस बंदर की याद आयी। हम सोच रहे थे कि ‘क्या उसके द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद का लेना क्या छीनना कहा जा सकता है?’
उत्तर भी हमने दिया ‘नहीं’।
इंसान दो ही काम कर सकता है-भीख मांगना या छीनना। भीख मांगने और छीनने वाला भी इंसान है पर इसी इंसान की फितरत है कि अगर कोई इंसान बंदर की तरह आराम से चीज ले जाये तो हल्ला मचा देगा। भीख देगा पर यह नहीं चाहेगा कि कोई उसकी चीज को अपनी समझकर ले जाये। छीन जाये अलग बात है। आशय यह है कि लेनदेन में सहजता का भाव तो नहीं रह सकता जैसे कि बंदर द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद लेने पर हुआ था। हमने जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। सोचा भूखा होगा? फिर आये भी तो वानरराज हनुमान जी के मंदिर में थे। अगर वहां कोई इंसान होता तो उससे प्रतिवाद कर वह लिफाफा वापस लेते पर बंदर से हमें स्वयं ही डर लग रहा था कि कहीं हमला कर भाग गया तो कहां उसे पकड़ पायेंगे?
तब ही हमेें इस बात पर यकीन हो गया था कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा। बंदर के पीछे हम नहीं भाग सकते पर वह हमारे पीछे भाग सकता है। वह हमसे डरता है पर हमेशा नहीं! हां, हम उससे हमेशा डरते हैं।
बंदर की पतली टांगें और हाथ तथा देह की लंबाई चैड़ाई देखकर नहीं लगता कि उसकी कोई पीढ़ी आगे इंसान भी बन सकती है। बंदर में अपने भोजन का संचय करने की प्रवृत्ति नहीं होती। इंसान में तो वह इतनी विकट है कि उसका कहीं अंत नहीं है। सोने के लिये बिस्तरा और खाने के लिये रोटी चाहिये पर इंसान को उससे भी चैन कहां? उसे तो बैंक खाते में भी एक बड़ा आंकड़ा चाहिये जिससे देखकर उसका मन हमेशा अपने साहूकार होने के भ्रम में जीता रहे।
जब भी हम कहीं बंदर देखते हैं तब सोचते हैं कि क्या कभी इंसान भी ऐसा रहा होगा? तमाम तरह के विचार मंथन किये पर इस सिद्धांत को मन नहीं मानता। बंदर शरारती होता है पर अपराधी नहीं।
हम एक बार एक उठावनी कार्यक्रम में गये थे। वहां पर एक स्कूटर के पास खड़े थे जिस पर बंदर चढ़ा और हमारा चश्मा लेकर पास ही खड़े मकान की गैलरी पर बनी लोहे की सींखचों से चिपक कर बैठ गया। एक लड़का उसे पत्थर मारकर वह चश्मा वापस लेने का प्रयास करने लगा। वहां खड़े एक आदमी ने कहा कि ’कोई खाने वाली चीज फैंको तो उसे लेने के चक्कर में वह चश्मा नीचे फैंक देगा।’

तब एक बिस्कुट लेकर उसकी तरफ उछाला गया। उसे पकड़ने के चक्कर में वह चश्मा उसके हाथ से छूट गया और हमने नीचे उसे लपक लिया। वह बिस्कुट भी नीचे आ गिरा पर हमने उसे स्कूटर पर रख दिया और वहां से हट गये और वह उसे लेकर चला गया। उसने उस चश्मे को नष्ट करने का प्रयास नहीं किया बस उसे पकड़े रहा। तब उसकी इस शरारत पर हमें हंसी आयी। तब भी यही ख्याल आया कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा।
एक आदमी ने हमें एक बात बताई थी पता नहीं वह सच है कि झूठ। उसने बताया था कि भुटटे लगाने वाले खेतिहर यह दुआ करते हैं कि कोई बंदर उनके खेत पर आये। होता यह है कि बंदर एक भुट्टा उठाकर अपनी कांख में दबाता है फिर दूसरा तोड़ता है। बंदर इस तरह बहुत से भुट्टे तोड़कर खेत स्वामी की मेहनत बचाता है। आखिर तक उसकी कांख में एक ही भुट्टा बना रहता है। कुछ न कहो कहीं से बंदिरया की आवाज आये तो वह भी छोड़ कर चलता बने। इंसान ऐसा कभी नहीं रहा होगा।
बंदरों की मस्ती देखते ही बनती है। इंसान प्रकृत्ति की मस्ती को समझता नहीं है बल्कि उसे उजाड़ कर कागजी मुद्रा में परिवर्तित कर वह बहुत प्रसन्न होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा। यह सच है कि इस सृष्टि में परिवर्तित होते रहते हैं। कई प्रकार के जीव बनते और बिगड़ते हैं, पर उनके स्वरूप में बदलाव नहीं आता। यह स्वरूप उनका मूल स्वभाव निर्धारित करता है। हो सकता है कि इंसानों जैसे बंदर रहे हों पर उनसे यह इंसान बना होगा यह संभव नहीं है। वह मिट गये होंगे पर इंसान नहीं बने होंगे। इंसान तो शुरु से ऐसा था और ऐसा ही रहा होगा। जीवों के मूल स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता भले ही वह मिट जाते हों।
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‘सच का सामना’ वह ख्याल से कर रहे होते-हास्य व्यंग्य और कवितायें (sach se samana-hindi vyangya aur kavitaen)


ख्याल कभी सच नहीं होते
आदमी की सोच में बसते ढेर सारे
पर ख्याल कभी असल नहीं होते।
कत्ल का ख्याल आता है
कई बार दिल में
पर सोचने वाले सभी कातिल नहीं होते।
धोखे देने के इरादे सभी करते
पर सभी धोखेबाज नहीं होते।
हैरानी है इस बात की
कत्ल और धोखे के ख्याल भी
अब बीच बाजार में बिकने लगे हैं
सच की पहचान वाले लोग भी अब कहां होते।।

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आदमी का दिमाग काफी विस्तृत है और इसी कारण उस अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है। यह दिमाग उसे अगर श्रेष्ठ बनाता है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उस पर कोई कब्जा कर ले तो वह गुलाम भी बन जाता है। इसलिये इस दुनियां में समझदार आदमी उसे ही माना जाता है जो बिना अस्त्र शस्त्र के दूसरे को हरा दे। अगर हम यूं कहे कि बिना हिंसा के किसी आदमी पर कब्जा करे वही समझदार है। हम इसे अहिंसा के सिद्धांत का परिष्कृत रूप भी कह सकते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को डेढ़ सौ साल गुलाम बनाये रखा। वह हमेशा इसे गुलाम बनाये नहीं रख सकते थे इसलिये उन्होंने ऐसी योजना बनायी जिससे इस देश में अपने गोरे शरीर की मौजूदगी के बिना ही इस पर राज्य किया जा सके। इसके लिये उन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति का सहारा लिया। बरसों से बेकार और निरर्थक शिक्षा पद्धति से इस देश में कितनी बौद्धिक कुंठा आ गयी है जिसे अभी दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना में देखा जा सकता है।
‘आप अपने पति का कत्ल करना चाहती थीं?’
‘आप अपनी पत्नी को धोखा देना चाहते थे?’
पैसे मिल जायें तो कोई भी कह देगा हां! हैरानी है कि समाचार चैनल कह रहे हैं कि ‘हां, कहने से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया।’
सबसे बड़ी बात यह है कि लोग सच और ख्याल के बीच का अंतर ही भूल गये हैं। कत्ल का ख्याल आया मगर किया तो नहीं। अगर करते तो जेल में होते। अगर धोखे का ख्याल आया पर दिया तो नहीं फिर अभी तक साथ क्यों होते?
वह यूं घबड़ा रहे हैं
जानते हैं कि झूठ है सब
फिर भी शरमा रहे हैं।
सच की छाप लगाकर ख्याल बेचने के व्यापार से
वह इसलिये डरे हैं कि
उसमें अपनी जिंदगी के अक्स
उनको नजर आ रहे हैं।
कहें दीपक बापू
ख्यालों को हवा में उड़ते
सच को सिर के बल खड़े देखा है
कत्ल और धोखे का ख्याल होना
और सच में करना
अलग बात है
ख्याल तो खुद के अपने
चाहे जहां घुमा लो
सच बनाने के लिये जरूरत होती है कलेजे की
साथ में भेजे की
अक्ल की कमी है जमाने के
इसलिये सौदागर ख्याल को सच बनाकर
बाजार में बेचे जा रहे हैं।
ख्यालों की बात हो तो
हम एक क्या सौ लोगों के कत्ल करने की बात कह जायें
सामना हो सच से तो चूहे को देखकर भी
मैदान छोड़ जायें
पैसा दो तो अपना ईमान भी दांव पर लगा दें
सर्वशक्तिमान की सेवा तो बाद में भी कर लेंगे
पहले जरा कमा लें
बेचने वालों पर अफसोस नहीं हैं
हैरानी है जमाने के लोगों पर
जो ख्वाबों सच के जज्बात समझे जा रहे हैं
शायद झूठ में जिंदा रहने के आदी हो
हो गये हैं सभी
इसलिये ख्याली सच में बहे जा रहे हैं।

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नकली और मिलावटी आतंक-हास्य व्यंग्य (nakli aur milavti atank)


आतंक कोई बाहर विचरने वाला पशु नहीं बल्कि मानव के मन में रहने वाला भाव है जो उसके सामने तब उपस्थित होता है जब वह अपने लिये कठिन हालत पाता है। पूरे विश्व के साथ भारत में भी आंतक फैले होने की बात की जाती है पर अन्य से हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। दूसरे देश कुछ लोगों द्वारा उठायी गयी बंदूकों के कारण आतंक से ग्रसित हैं पर भारत में तो यह आतंक का एक हिस्सा भर है। यह अलग बात है कि हमारे देश के बुद्धिमान बस उसी बंदूक वाले आतंक पर ही लिखते हैं।
बहुत दिन से हम देख रहे हैं कि हम सारे जमाने के आतंक पर लिख रहे हैं पर अपने मन में जिनका आंतक है उसकी भी चर्चा कर लें। सच बात तो यह है हम नकली नोटों और मिलावटी सामान से बहुत आतंकित हैं।
बाजार में जब किसी को पांच सौ का नोट देते हैं तो वह ऐसे देखता है कि जैसे कि किसी अपराधी ने उसे अपने चरित्र का प्रमाणपत्र देखने के लिये दिया हो। जब तक वह दुकानदार लेकर अपनी पेटी में वह नोट डालकर सौदा और बचे हुए पैसे वापस नहीं करता तब तक मन में जो उथल पुथल होती है उसमें हम कितनी बार घायल होते हैं यह पता ही नहीं-याद रहे पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र यह कहता है कि तनाव से जो मनुष्य के दिमाग को क्षति पहुंचती है उसका पता उसे तत्काल नही चलता।
हमने अनेक दुकानदारों के सामने ताल ठौंकी-अरे, भईया हम यह नोट ए.टी.एम से ताजा ताजा निकाल कर लाये हैं।’
वह कहते हैं कि ‘साहब, आजकल तो ए़.टी.एम. से भी नकली नोट निकल आते हैं और वह सभी ताजा ही होते हैं।’
उस समय सारा आत्मविश्वास ध्वस्त नजर आता है। ऐसा लगता है कि जैसे बम फटा हो और हम अपनी किस्मत से साबित निकल गये।
यही मिलावटी सामान का हाल है। बाजार में खाने के नाम पर दिन-ब-दिन डरपोक होते जा रहे हैं। इधर टीवी पर सुना कि मिलावटी दूध में ऐसा सामान मिलाया जा रहा है जिसमें एक फीसदी भी शरीर के लिये पाचक नहीं हैं। मतलब यह कि पूरा का पूरा कचड़ा है जो पेट में जमा होता है और समय आने पर अपना दुष्प्रभाव दिखाता है। अभी उस दिन समाचार सुना कि एक तेरहवीं में विषाक्त खोये की मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार पड़ गये। उस समय हमारी सांसें उखड़ रही थी। उसी दौरान एक मित्र का फोन आया और उसने पूछा-‘क्या हालचाल हैं? तुम्हारे ब्लाग हिट हुए कि नहीं। अगर हो गये हों तो मिठाई खिला देना। हम अंधेरे में बैठे हैं और आज तुम्हारा ब्लाग नहीं देख पा रहे।’
हमने कहा-‘अच्छा है बैठे रहो। अगर लाईट आ गयी तो तुम टीवी समाचार भी जरूर देखोगे। वहां जब मिठाई खाकर बीमार पड़ने वालों की खबर सुनोगे तो फिर मिठाई नहीं मांगोगे बल्कि मिठाई खाना ही भूल जाओगे।’
मित्र ने कहा-‘’तुम चिंता मत करो। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। तुम कभी हिट नहीं बनोगे इसलिये मिठाई भी नहीं मिलेगी सो खतरा कम है। पर यार, वाकई बाहर खाने में हम दिमाग तनाव मे आ जाता है कि कहीं गलत चीज तो नहीं खा ली। उस दिन एक जगह चाय पी और बीच में छोड़ कर दुकानदार को पैसे दिये और उससे कहा‘यह हमारी इंसानियत ही समझना कि हमने पैसे दिये वरना तुम्हारा दूध खराब है उसमें बदबू आ रही है।’ उसने भी हमसे पैसे ले लिये। हैरानी की बात यह है कि लोग उसी चाय को पी रहे थे किसी ने उससे कुछ कहा नहीं।’’
पिछली दो दीवाली हमने बिना खोये की मिठाई खाये बिना ही मनाई हैं। कहां हमें उस दिन मिठाई खाने का शौक रहता था पर मिलावट के आतंक ने उसे छीन लिया। वजह यह है कि इधर दीवाली के दिन शुरु हुए उधर टीवी पर मिलावटी दूध के समाचार शुरु हो जाते हैं कहते हैं कि
1-शहरों में खोवा आ कहां से रहा है जबकि उस क्षेत्र में इतनी भैंसे ही नहीं्र है।
2-खोये में तमाम ऐसे रसायन मिले होते हैं जो पेट की आंतों में भारी हानि पहुंचाते हैं।
3-घी भी पूरी तरह से नकली बन रहा है।’
ऐसे समाचार जो दिमाग में आंतक फैलाते हैं वह बारूद के आतंक से कहीं कम नहीं होते। आप ही बताईये खोय की विषाक्त मिठाई खाकर 1200 लोग एक साथ बीमार हों तो उसे भला छोटी घटना माना जा सकता है? क्या जरूरी है कि दुनियां के किसी हिस्से में बारूद से लोग मरे उसे ही आतंकवादी घटना माना जायेगा?
समस्या यह नहीं है कि दूध, घी या खोवा मिलावटी सामान बन रहा है बल्कि हल्दी, मिर्ची और शक्कर में मिलावट की बात भी सामने आती है। इतना ही नहीं अब तो यह भी कहने लगे है कि सब्जियों और फलों में भी दवाईयां मिलाकर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है और वह भी कम मनुष्य देह के लिये कम खतरनाक नहीं है।

जब बारूदी आतंक का समाचार चारों तरफ गूंज रहा होता है तब कुछ देर उस पर ध्यान अधिक रहता है पर जब अपने जीवन में कदम कदम पर नकली और खतरनाक सामान से सरोकार होने की आशंका है तो वह भी अब कम आतंकित नहीं करती। मतलब यह है कि चारों तरफ आंतक है पर हमारे देश के बुद्धिमान लोगों की आदत है कि विदेश के बताये रास्ते पर ही अपने विषय चुंनते हैं। हम इससे थोड़ा अलग हैं और हर विषय को एक आईना बनाकर अपने आसपास देखते हैं तब लगता है कि इस विश्व में बारूदी आतंक खत्म वैसे ही न होने वाला पर जो यह नकल और मिलावट का यह अप्रत्यक्ष आतंक है उसके परिणाम उससे कहीं अधिक गंभीर हैं। सोचने का अपना अपना तरीका है कोई सहमत न हो यह अलग बात है।
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यौन वेबसाइट का मुद्दा-व्यंग्य आलेख (hindi satire on the ben website)


समाज के बिगड़ने का खतरा किससे है? इंटरनेट की वेबसाईटों पर यौन साहित्य-लोगों का दिल रखने के लिये इसे हम शिक्षाप्रद भी मान लेते हैं- पढ़ने वालों की संख्या अधिक है कि समलैंगिकों की। हम क्या समझें कि यह यौन वेबसाईटें अधिक खतरनाक हैं या समलैंगिकता की प्रथा?
जहां तक हमारा सवाल है तो मानते हैं कि समाज के बनने और बिगड़ने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे कोई चला और बदल नहीं सकता। अच्छी और बुरी मानसिकता वाले लोग इस धरती पर विचरते रहेंगे-संख्या भले लोगों की अधिक होगी अलबत्ता बेहूदेपन की चर्चा अधिक दिखाई और सुनाई देगी। समलैंगिकता या यौन साहित्य पर प्रतिबंध हो या नहीं इस पर अपनी कोई राय नहीं है। हम तो बीच बहस कूद पड़े हैं-अपने आपको बुद्धिजीवी साबित करने की यही प्रथा है। वैसे तो हम अपने मुद्दे लेकर ही चलते हैं पर इससे हमेशा हाशिये पर रहते हैं। देश में वही लोकप्रिय बुद्धिजीवी है जो विदेशी पद्धति वाले मुद्दों पर बहस करता है।
अब देश के अधिकतर बुद्धिजीवी बंदूक वाले आतंकवाद पर बहस करते हैं तो उनको खूब प्रचार मिलता है। हम नकल और मिलावट के आतंक की बात करते हैं तो कोई सुनता ही नहीं। इसलिये सोचा कि अंतर्जाल के यौन साहित्य और समलैंगिकता के मुद्दे पर लिखकर थोड़ा बहुत लोगों का ध्यान आकर्षित करें। वैसे इन दोनों मुद्दों पर हम पहले लिख चुके हैं पर यौन साहित्य वाली एक सविता नाम की किसी वेबसाईट पर प्रतिबंध पर हमारे एक पाठ को जबरदस्त हिट मिले तब हम हैरान हो गये।
ऐसे में सोचा कि चलो कुछ अधिक हिट निकालते हैं। दूसरा पाठ भी जबरदस्त हिट ले गया। समलैंगिता वाला पाठ भी हिट हुआ पर अधिक नहीं। हम दोनों विषयों को भुला देना चाहते थे पर टीवी और अखबारों में समलैंगिकता का मुद्दा बहस का विषय बना हुआ है। इस मुद्दे पर पूरे समाज के बिगड़ने की आशंका जताई जा रही है जो निरर्थक है। हमारा दावा है कि इस देश में एक या दो लाख से अधिक समलैंगिक प्रथा को मानने वाले नहीं होंगे। इधर अंतर्जाल पर भी इसी मुद्दे पर अधिक लिखा जा रहा है।

सवाल यह है कि सविता भाभी नाम की उस वेबसाईट पर प्रतिबंध को लेकर कोई जिक्र क्यों नहंी कर रहा जिसके बारे में कहा जाता है कि पूरे देश के बच्चों को बिगाड़े दे रही थी। एक अखबार में यह खबर देखी पर उसके बाद से उसकी चर्चा बंद ही है। टीवी वालों ने तो इस पर एकदम ध्यान ही नहीं दिया-यह एक तरह से जानबूझकर किया गया उपेक्षासन है क्योंकि वह नहीं चाहते होंगे कि लोग उस वेबसाईट का नाम भी जाने। उसका प्रचार कर टीवी वाले अपने दर्शक नहीं खोना चाहेंगे। हो सकता है कि यौन साहित्य वाली वेबसाईटों को यही टीवी वाले अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रहे हों। वैलंटाईन डे पर अभिव्यक्ति की आजादी पर बवाल मचाने वाले लोग पता नहीं कहां गायब हो गये हैं। गुलाबी चड्डी प्रेषण को आजादी का प्रतीक मानने वाले अब नदारत हैं। यह हैरान करने वाला विषय है।
समलैंगिकता पर बहस सुनते और पढ़ते हमारे कान और आंख थक गये हैं पर फिर भी यह दौर थम नहीं रहा।
हम बड़ी उत्सुकता से सविता भाभी वेबसाईट पर प्रतिबंध के बारे में बहस सुनना चाहते हैं-करना नहीं। बड़े बड़े धर्माचार्य और समाजविद् समलैंगिकता के मुद्दे पर उलझे हैं।
1.पूरा समाज भ्रष्ट हो जायेगा।
2.मनुष्य की पैदाइश बंद हो जायेगी।
3.यह अप्राकृतिक है।
बहस होते होते भ्रुण हत्या, बलात्कार और जिंदा जलाने जैसे ज्वलंत मुद्दों की तरफ मुड़ जाती है पर नहीं आती तो इंटरनेट पर यौन साहित्य लिखने पढ़ने की तरफ।
इसका कारण यह भी हो सकता है कि समलैंगिकता पर बहस करने के लिये दोनों पक्ष मिल जाते हैं। कोई न कोई धर्माचार्य या समलैंगिकों का नेता हमेशा बहस के लिये इन टीवी वालों को उपलब्ध मिलते हैं। सविता भाभी प्रकरण में शायद वजह यह है कि इसमें सक्रिय भारतीय रचनाकार (?) कहीं गायब हो गये हैं। एक संभावना हो सकती है कि वह सभी छद्म नाम से लिखने वाले हों ऐसे में जो पहले से डरे हुए हैं वह क्या सामने आयेंगे? उन लोगों ने कोई सविता भाभी सेव पोजेक्ट बना लिया है पर अंतर्जाल के बाहर उनका संघर्ष अधिक नहीं दिख रहा। उनका सारा संघर्ष कंप्यूटर पर ही केंद्रित है। एक वजह और भी हो सकती है कि इंटरनेट पर काम करने वालों का कुछ हद तक सामाजिक जीवन प्रभावित होता है इसलिये वह अपने बाह्य संपर्क जीवंत बना नहीं पाते और जिनके हैं उनकी निरंतरता प्रभावित होती है। शायद इसलिये सविता भाभी के कर्णधारों को बाहर कोई नेतृत्व नहीं मिल रहा जबकि समलैंगिकों के सामने कोई समस्या नहीं है।
समाज के बिगड़ने वाली वाली हमारे कभी समझ में नहीं आती। यौन साहित्य तो तब भी था जब हम पढ़ते थे और आज भी है। इस समय जो लोग अपनी उम्र की वजह से इसका विरोध कर रहे हैं यकीनन उन्होंने भी कहीं न कहीं ऐसा साहित्य पढ़ा होगा। हमने भी एकाध पढ़ा पर मजा नहीं आया पर पढ़ा तो!
समलैंगिकता से पूरा समाज बिगड़ जायेगा यह बात केवल हंसी ही पैदा कर सकती है वैसे ही जैसे यौन साहित्य से सभी बच्चे बिगड़ जायेंगे? इस देश का हर समझदार बच्चा जाता है कि समलैंगिकता एक अप्राकृतिक क्रिया है।
यौन साहित्य की बात करें तो क्या देश में कभी बच्चों ने ऐसा साहित्य पढ़ा नहीं है? क्या सभी बिगड़ गये हैं? एक आयु या समय होता है जब ऐसी बातें मनुष्य को आकर्षित करती हैं पर फिर वह इससे स्वतः दूर हो जाता है।
हम तो मिलावटी खाद्य सामग्री और नकली नोटों के आतंक की बात करते थक गये। इधर समलैंगिकता पर चल रही बहस उबाऊ होती जा रही है। इसलिये कहते हैं कि-‘यार, सविता भाभी वेबसाईट पर लगे प्रतिबंध पर भी कुछ बहस करो तो हम समझें कि बुद्धिजीवी संपूर्णता से समाज की फिक्र करते हैं।’
हम तो समर्थन या विरोध से परे होकर बहस सुनना चाहते हैं। बीच बहस में भी हम कोई तर्क नहीं दे रहे बल्कि बता रहे हैं कि यह भी एक मुद्दा जिस पर बहस होना चाहिए।
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‘नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक’-हास्य व्यंग्य


भरी दोपहर में दीपक बापू अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे कि अचानक चैन उतर गयी। दीपक बापू साइकिल के चैन उतरना ऐसे ही अशुभ मानते थे जैसे रात में उल्लू का बोलना। फिर भी उन्होंने अपने दिल को समझाया कोई बात नहीं ‘अभी चैन चढ़ाकर दौड़ाते हैं’।
वह साइकिल से उतरे। दो दिन पहले ही उन्होंने साइकिय में तेल डलवाया था और चैन अभी उसमें नहाई हुई थी। वह उसे चढ़ाने लगे तो उनके हाथ काले होते चले गये।
चैन चढ़ाकर उन्होंने इधर उधर देखा कि कहीं उनकी यह दुर्दशा देखने वाला कोई कवि या लेखक तो नहंी है जो इस पर लिख सके। पहले दाएं तरफ देखा। लोगों में किसी का ध्यान उनकी तरफ नहीं था। तसल्ली हो गयी पर जैसे ही बायें तरफ मूंह किया तो होठों से निकल पड़ा-‘एक नहीं दो संकट एक साथ आ गये।’

फंदेबाज और नुक्ताचीनी साहब अपनी मोटर साइकिलों पर बैठकर कहीं जा रहे थे और फंदेबाज ने दीपक बापू को देख लिया। उसने नुक्ताचीनी साहब को इशारा किया। दोनों गाड़ी मोड़कर उनके सामने आ गये। दीपक बापू अपनी साइकिल की चैन चढ़ाने से उखड़ी सांसों को राहत दे नहीं पाये थे कि दोनों संकट उनके सामने आ गये।

फंदेबाज तो वह शख्स था जिसने उनकी कलम की धार ऐसी बिगाड़ी थी कि कविता लिखते तो बेतुकी हो जाती, व्यंग्य रोता हुआ बनता और चिंतन एक चुटकुले की तरह लगने लगता।

दीपक बापू बहुत समय पहले नुक्ताचीनी साहब के यहां एक बार गये थे तो वहां अच्छा कवि और लेखक न बनने की शाप लेकर लौटे । वैसे नुक्ताचीनी उम्र में दीपक बापू से सात आठ साल बड़े थे और उनका रुतवा भी था। हुआ यूं कि नुक्ताचीनी साहब का एक मित्र दीपक बापू से कोई शायरी लिखवा गया। उसने दीपक बापू को बताया कि एक शायर की प्रेमिका का दिल अपहृत करना है और इसके लिये काई शायरी जरूरी है। वह भी दीपक बापू से आयु में बड़ा था इसलिये उन्होंने आदर पूर्वक एक छंटाक भर शायरी उसे लिख कर दे दी। वह असल में नुक्ताचीनी साहब का प्रतिद्वंद्वी था और प्रेम त्रिकोण में उनको पराजित करना चाहता था। दीपक बापू ने एक पर्ची लिखकर दी फिर वह उसे भूल गये, मगर नुक्ताचीनी साहब ने जो दर्द उस शायरी से झेला तो फिर वह इंतजार करने लगे कि कभी तो वह शिकार आयेगा अपने लेखक और कवि होने का प्रमाण पत्र मांगने। आखिर शहर भर के अनेक लेखक उनको सलाम बजाते थे। यह अलग बात है कि जिन्होंने उनकी शरण ली वह नुक्ताचीनी साहब की सलाहों का बोझ नहीं उठा सके और लिखना ही छोड़ गये।

जब दीपक बापू आधिकारिक रूप से लेखक और कवि बनने को तैयार हुए यानि अपनी रचनायें इधर उधर भेजने का विचार किया तो किसी ने सलाह दी कि पहले अपनी रचनायें नुक्ताचीनी साहब को दिखा दो।

वह बिचारे अपनी साइकिल पर फाइल दबाये नुक्ताचीनी साहब के घर पहुंचे। तब तक उनका विवाह भी हो गया था पर पुराना दिल का घाव अभी भरा नहीं था। दीपक बापू को देखते ही वह बोले-‘आओ, महाराथी मैं तुम्हारा कितने दिनोंे से इंंतजार कर रहा हूं। तुम वही आदमी हो न! जिसने मेरे उस दोस्त रूपी दुश्मन को वह शायरी लिखकर दी थी जिसने मेरी प्रेयसी का दिल चुरा लिया।’

दीपक बापू तो हक्का बक्का रह गये। फिर दबे स्वर में बोले-‘साहब, वह तो आपका मित्र था। मुझे तो पता ही नहीं। आप दोनों मेरे से बड़े थे। भला मैं क्या जानता था। मैंने तो उसे बस एक छंंटाक भर शायरी लिखकर कर दी थी। मुझे क्या पता वह उसका उपयोग कैसे करने वाला था। अब तो आपसे क्षमा याचना करता हूं। आप तो मेरी इन नवीनतम रचनाओं पर अपनी दृष्टि डालिये। अपनी सलाह दीजिये ताकि इनको कहीं भेज सकूं।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘बेतुकी शायरियां लिखते हो यह मैं जानता हूं। छंटाक भर की उस शायरी ने मेरे को जो टनों का प्रहार किया उसे मैं भूल नहीं सकता। लाओ! अपनी यह नवीनतम रचानायें दिखाओ! क्या लिखा है?’

दीपक बापू ने बड़ी प्रसन्नता के साथ पूरी की पूरी फाइल उनके सामने रख दी। उन्होंने सरसरी तौर से उनको देखा और फिर जोर से पूरी फाइल उड़ा दी। सभी कागज हवा में उड़ गये और जमीन पर ऐसे ही गिरे जैसे कभी नुक्ताचीनी साहब के दिल टुकड़ होकर कोई यहां तो कोई वहां गिरा था। उन्होंने कुटिलता से मुस्कराते हुए कहा-‘बेकार हैं सब। दूसरा जाकर लिख लाओ। कवितायेंे बेतुकी हैं। व्यंग्य रुलाने वाले हैं और चिंतन तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई गमगीन चुटकुला हो। तुम कभी भी कवि और लेखक नहीं बन सकते। मेरे विचार से तुम कहीं क्लर्क बन जाओ। वहां भी पत्र वगैरह लिखने का काम नहीं करना क्योंकि तुम्हारी भाषा लचर है।’

दीपक बापू अपने कागज समेटने में लग चुके थे। वह बोले-‘नुक्ताचीनी साहब आप जो कहैं सो ठीक, पर अच्छे होने का वरदान या बुरे होने का शाप तो दे सकते हैं पर लेखक और कवि न बन पाने की बात कहने का हक आपको नहीं है। हम बुरे रहे या अच्छे लेखक और कवि तो रहेंगे। जहां तक प्रभाव का सवाल है तो वह छंटाक भर की शायरी जो काम कर गयी। उसे तो आप जानते हैं।

यह बात सुनते ही नुक्ताचीनी साहब चिल्ला पड़े-‘गेट आउट फ्राम हियर (यहां से चले जाओ)।’
दीपक बापू वहां से हाथ एक हाथ में फाइल और दूसरे हाथ में साइकिल लेकर वहां से ऐसे फरार हुए कि नुक्ताचीनी साहब के घर से बहुत दूर चलने पर उनको याद आया कि साइकिल पर चढ़कर चला भी जाता है।

कई बार नुक्ताचीनी साहब रास्ते पर दिखाई देते पर दीपक बापू कन्नी काट जाते या रास्ता बदल देते। कहीं किसी दुकान पर दिखते तो वहां चीज खरीदना होती तब भी वहां नहीं जाते।

आज फंदेबाज उन्हीं नुक्ताचीनी साहब को लेकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो रहा थां दीपक बापू यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनके इन दोनों प्रकार के संकट का आपसे में लिंक कैसे हुआ!

फंदेबाज बोला-‘अच्छा ही हुआ यहां तुम मिल गये। बड़ी मुश्किल से इन नुक्ताचीनी साहब से मुलाकात का समय मिला। यह बहुत बड़े साहित्यक सिद्ध हैं। इनकी राय लेकर अनेक लोग बड़े लेखक और कवि बन गये हैं ऐसा मैंने सुना था। मैं साइबर कैफे में अंतर्जाल पर तुम्हारी पत्रिकायें दिखाने जा रहा था। उस पर यह अपनी राय देंगे। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे ऊपर लगा फ्लाप लेखक का लेबल हट जाये और हिट बन जाओ। इसलिये इनको साथ ले जा रहा हूं कि शायद यह कोई नया विचार दें ताकि तुम हिट हो जाओ।

इससे पहले ही कि दीपक बापू कुछ कहते नुक्ताचीनी साहब उनके पास पहुंच गये और बोले-‘तो वह तू है। जिसकी इंटरनेट पर पत्रिकायें हैं और यह मुझे दिखाने ले जा रहा था। तू ने अभी तक लिखना बंद नहीं किया और अब मुझे शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भिजवाकर अपनी अंतर्जाल पत्रिकाओं के बारे में बताकर अपनी बात जंचाना चाहता है। अब सौदा किया है तो चल देख लेते हैं तेरी उन आकाशीय करतूतों को।’

दीपक बापू ने हाथ जोड़ते हुए कहा-‘अब छोडि़ये भी नुक्ताचीनी साहब। यह मेरा दोस्त तो नादान हैं। भला आप ही बताइये बेतुकी कवितायें, रोते हुए व्यंग्य और चुटकुले नुमा िचंतन लिखकर भला कोई कहीं हिट हो सकता है। यह तो पगला गया है ओर दूसरो की तरह हमको भी हिट देखना चाहता है ताकि दोस्तों और रिश्तेदारों मेंें हमसे दोस्ती का रौब जमा सके।’

नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘तो तू अब अंतर्जाल की पत्रिकायें दिखाने में डर रहा है। तुझे लग रहा है कि हम तेरी लिखी रचनाओं का बखिया उधेड़ देंगे।’
दीपक बापू बोले-‘नहीं आप तो बड़े दयालू आदमी है। वैसे मेरी सभी रचनायें बिना बखिया की हैं इसलिये उधेड़ने का सवाल ही नहीं हैं।’
नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘यह तेरी टोपी,धोती और कुर्ते पर काले दाग क्यों हैं। शायद साइकिल की चैन ठीक कर रहा था। अरे तेरे को शर्म नहीं आती। हम जैसे बड़े आदमी को चला रहा हैं। चल अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें दिखा। यह तुझे पसीना क्यों आ रहा है? हम देखेंगे तेरी बेतुकी कवितायें, रोते व्यंग्य और चुटकुले नुमा चिंतन।’
इस पर फंदेबाज उखड़ गया और बोला-‘लगता है आप मेरे इस दोस्त को पहले से ही जानते हैंं पर आप इनके पसीने का मजाक न उड़ायें। वैसे मैंने आपको शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट इसके फ्लाप होने के कारणों को बताने के लिये नहीं बल्कि हिट होने के लिये राय देने के लिये किया है। आप इस तरह बात नहीं कर सकते। आपकी मोटर साइकिल में पैट्रोल भी भरवाया है।’

दीपक बापू ने फंदेबाज से कहा-‘चुप कर! तू जानता नहीं कितने बड़े आदमी से बात कर रहा है। एक बात समझ नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक!’

फिर वह नुक्ताचीनी साहब से बोले-‘आप अभी चले जाईये। शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भी भला कोई चीज है किसी दिन मैं आपके घर आकर और भी सामान लाऊंगा। आप तो मेरे प्रेरणा स्त्रोत है। पहले थोड़ा अच्छा लिख लूं। फिर अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें आपको दिखाऊंगा।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘यकीन नहीं होता कि तुम कभी अच्छा लिखा पाओगे। पर अभी जाता हूं और तुम्हारा इंतजार करूंगा।’

उनके जाने के बाद फंदेबाज बोला-‘तुमने मेरा कम से कम पांच सौ रुपये का नुक्सान करा दिया।’

दीपक बापू बोले-‘यह बरसों से खाली बैठा है। लिखता कुछ नहीं है पर अपनी राय से कई लोगों का लिखवाना बंद कर चुका है। अगर कहीं इसने अंतर्जाल पर पत्रिकायें देखते हुए कहीं लिखना सीख लिया तो समझ लो कि अपना लिखना गया तो तेल लेने। अपने पुराने लिखे पर ही सफाई देते हुए पूरी जिंदगी निकल जायेगी। समझे!

वहां से फंदेबाज भी चला गया। दीपक बापू काले धब्बे की अपनी टोपी से ही अपने को हवा लेने लगे। वहां पास में ही एक चाय के ठेले के पास गये और वहां छांव में रखी बैंच पर बैठ कर हुक्म लड़के से कहा-‘एक कट चाय अभी ले आओ। दूसरी थोड़ी देर बाद लाना। डबल टैंशन झेला है और डबल कट बिना नहीं उतरेगा।’

फिर वह सोचने लगे कि आखिर उनसे यह किसने कहा था कि साइकिल की चैन का उतरना वैसे ही अशुभ है जैसे रात में उल्लू का घर की छत पर बोलना।’
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उनको नाचते देखना-व्यंग्य कविता


बिकने के लिए तैयार है तो
फिर सौदे जैसा लिख और दिख

बाज़ार के कायदे हैं अपने
जहां मत देख ईमानदार बने रहने के सपने
दाम तेरी पसंद का होगा
काम खरीददार के मन जैसा होगा
भाव होगा वैसा ही होगा जैसा दाम
शब्द होंगे तेरे, पर नाम कीमत देने वाले होगा
अपने नाम को आसमान में
चमकता देने की चाहत छोड़ देना होगा
वहां तो उसको ही शौहरत मिलेगी
जिसका घर भी उड़ता होगा
तू जमीन में रेंगना सीख ले
इशारों को समझ कर लिख
जैसा वह चाहें वैसा दिख

मत कर भरोसा शब्दों की जंग लड़ने वालों पर
अपनी जिन्दगी में तरसे हैं
वह कौडियों के लिए
उनका लिखा बेशकीमती हो गया
उनके मरने के बाद
अमीरों पर उनके नाम से रूपये बरसे हैं
पेट में भूख हो तो कलम तलवार नहीं हो सकती
करेगी प्रशस्ति गान किसी का
तभी तेरी रोटी पक सकती
कब तक लिखेगा लड़ते हुए
स्याही भी कोई मुफ्त नहीं मिल सकती
शब्दों को सजाये कई लोग घूम रहे हैं
पर खरीददार नहीं मिलता
मिल जाए तो बिक जाना
या फिर छोड़ दे ख्वाहिश
शब्दों से पेट भरने का
किसी से लड़ने का
दिल को तसल्ली दे वाही लिख
जैस मन चाहे वैसा दिख
फेर ले शब्दों के सौदागरों से मुहँ
वह तुझे देखते रहे
तू भी नज़रें घुमा कर देखता रहना
उनका पुतले और पुतलियों की तरह
दूसरों के इशारों नाचना भी
तेरी कई रचनाओं को जन्म देगा
पर ऐसा करता बिलकुल मत दिख
बस अपना लिख

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