हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता। अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है। कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं।
हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है। सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।
पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है। जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।
कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?
जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं। उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।
हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है। वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं। जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो। उनमें कितने मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।
वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है। इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये। वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।
ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
दीपक भारतदीप द्धारा
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हिन्दी में प्रकाशित किया गया
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सुना है आज घरती प्रहर दिवस मनाया जा रहा है। नयी सस्कृति अपना चुके इस देश में धीरे धीरे पाश्चात्य संस्कृति स्थापित करने के जो प्रयास अभी तक हुए हैं उसमें कई विद्वान लोगों को सफलता नहीं मिल पा रही है और अब प्रेम दिवस, शुभेच्छु दिवस, मित्र दिवस, नारी दिवस, माता दिवस तथा अन्य अनेक प्रकार के दिवस मनाने की प्रथा के सहारे यह प्रयास किया जा रहा है। पहले अनेक प्रकार के आधुनिक विचार लाकर देश में संस्कृति के विकास अवरुद्ध करने के साथ ही लोगों में चिंतन क्षमता का अकाल पैदा किया और अब नये नये दिवस मनवाकर उसी चिंतन क्षमता को नये रूप मेें स्थापित करने का जो प्रयास हो रहा है।
बहरहाल माता की ममता, सहृदय का प्रेम,तथा स्नेही की मित्रता ऐसे तत्व हैं जिसकी सुगंध को हमारे देश का आदमी स्वाभाविक रूप से अनुभव करता है। लार्ड मैकाले की गुलाम बनाने की शिक्षा के बावजूद हमारे देश में कुछ गुरु और माता पिता अपने बच्चे को अपनी संस्कृति से परिचित कराने के लिये प्रयास करते हैं जिसके कारण आज भी देश की अधिकतर आबादी उस नये परिवेश से परिचित नहीं है जिसका नये विद्वान प्रचार करते है।
ब्रह्मांड में धरती ही जीवन का सबसे बड़ा आधार है। जीवन निर्माण के साथ ही ब्रह्मा ने सभी मनुष्यों से कहा कि आप लोग यज्ञों द्वारा देवताओं की पूजा करें और वह अपने कर्म से धरती पर जीवन का संचार करें। धरती भी उनमें एक ऐसे देवता की तरह है जो अन्य देवताओं को भी अपने यहां ठहरने का आधार देती है ताकि उनकी कृपा मनुष्यों पर निंरतर बनी रहे। देवराज इंद्र की कृपा से वरुण देव जल बरसाते हैं और धरती उसका संचय करती है। जो वायु देवता उन बादलों को खींचकर अपने साथ लाते है उसकी शक्ति को पाताल में न जाकर अपने यहां ही बहने देती है ताकि वह जल को सूखे स्थानों तक पहुंचा सके। सूर्य की गर्मी के संचय से उष्मा संचय कर बादलों का पानी नीचे खींचने में सहायता करती है। अपनी शक्ति से समस्त देवताओं को बांधने वाली इस धरती पर वही इंसान कहर बरपाता है जिसके सुख के लिये वह सभी करती है।
वैदिक धर्म ने अनेक ऐसे यज्ञों का प्रवर्तन किया जिससे धरती पर प्राकृतिक संतुलन बना रहे। प्राचीन काल मेंें राजा भागीरथ ने घोर तपस्या कर गंगा नदी को स्वर्ग से जमीन पर उतारा। गंगा जी में इतना तेज था कि उनके धरती पर न रुककर पाताल में घुस जाने की संभावना थी इसलिये राजा भागीरथ ने उनकी गति की तीव्रता कम रखने के लिये भगवान शिव जी की तपस्या की और उन्होंने उसे अपनी जटाओं में धारण किया। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे प्राचीनतम अध्यात्मिक दर्शन में प्रथ्वी पर जीवन सतत प्रवाहित करने के लिये मनुष्यों से प्रयास किये जाने की अपेक्षा की जाती है। यह माना जाता है कि मनुष्य प्रथ्वी पर पर्यावरण संतुलन करने के लिये जल और वायु प्रदूषण रोकने के साथ ही कृषि, वन, खनिज, और पशु संपदा की रक्षा और शुद्धता के लिये मनुष्य स्वयं निरंतर प्रयत्नशील रहे न कि किसी अवतार का इंतजार करे। यही कारण है कि उसके लिये कोई एक दिन तय नहीं किया गया।
हमने पाश्चात्य शैली का विलासी और सुविधाभोगी जीवन तो अपना लिया है पर धरती पर फैलते जा रहे पर्यावरण प्रदूषण को विचार तो तभी कर सकते हैं जब अपने देह की परवाह कर लें। सभी लोग उपभोग की प्रवृतियों में अपना दिमाग लगाये बैठे हैं। देह, मन और विचार के विकारों को निकालने के लिये लिये कोई प्रयास नहीं करते। अब यह कहना कठिन है कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण लोग मनोरोगी हो रहे हैं या वह मनोरोगी हो गये हैं इसलिये पर्यावरण प्रदूषण फैल रहा है। अब समस्या यह भी है कि पहले पर्यावरण प्रदूषण दूर हो या पहले लोगों की मानसिकता में पवित्रता का भाव आये। तय बात है कि ब्रह्मा जी ने मनुष्यों ये देवताओं को प्रसन्न करने के लिये यज्ञ और देवताओं से प्रथ्वी के समस्त जीवों मेंे जीवन का संचार करने का जो आदेश दिया उसका उल्लंघन हो गया है। देवता तो अपनी कृपा करते रहते हैं पर मनुष्य यज्ञ कहां कर रहा है? पेड़ पौद्यों को काटकर वहां पत्थर के शहर बनाने वाला इंसान पत्थर होता जा रहा है। वैसे आज भी कुछ लोग हैं जो पेड़ पोद्यों की रक्षा करने केे लिये प्रयासरत हैं-यह भी एक तरह का यज्ञ है। हमारे देश में अनेक अवसरों पर पेड़ पौद्यों पर जल चढ़ाने की पंरपरा का कुछ लोग मजाक उड़ाते हैं पर उसका महत्व वह नहीं जानते। दरअसल हमारे कुछ यज्ञ भले ही आधुनिक समय में पाखंड लगते हैं पर उनका कोई न कोई वैज्ञानिक महत्व रहा है और इसे कई लोग प्रमाणित कर चुके है।
सच बात तो यह है कि पर्यावरण प्रदूषण से बचने के लिये प्राकृतिक संपदा की रक्षा के लिये लोगों में चेतना जाग्रत कर उनसे सहायता की अपील करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि यह चेतावनी देने की जरूरत है कि अगर विश्व में इसी तरह गर्मी बढ़ती रही तो न केवल वह स्वयं बल्कि उनकी आने वाली पीढि़यां ही अपंग और मनोरोगी पैदा होंगी। अपनी सात पीढि़यों तक को खिलाने के लिये कमाकर रखने का विचार करने वाले धनी लोगों को यह समझाना भी जरूरी है कि उनकी आने वाली पीढि़यां नाम के लिये मनुष्य होगी पर उसका चालचलन पशुओं की तरह हो जायेगा। वैसे भी देश में आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रसित है पर मनोरोगी कितने हैं कोई नहीं जानता। पूरी तरह विक्षिप्त होना ही मनोरोग नहीं होता बल्कि अनावश्यक बातों से तनाव में आना, जल्दी थक जाना तथा निराशा में रहना भी एक तरह से मनोरोग हैं जिनका पता तो रोगी को भी नहीं चलता। कोई कहता है कि देश के चालीस प्रतिशत लोग मनोरोगी है तो कोई कहता है कि इससे भी ज्यादा हैं। अगर हम अपनी चिंतन क्षमता को जाग्रत करें तो यह अनुभव कर सकते हैं कि अधिकतर लोगों की मनोदशा बहुत खराब है। तय बात है कि बढ़ती गर्मी और प्राणवायु में कमी ही ऐसी दशा में इंसान को डालती है।
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