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भारत आज भी सोने की चिड़िया है-हिन्दी व्यंग्य लेख (bharat aaj bhi sone ki chidiya hai-hindi vyangya lekh)


          कौन कहता है कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। अब यह क्यों नहीं कहते कि भारत सोने की चिड़िया है। कम से कम देश में जिस तरह महिलाओं और पुरुषों के गले से चैन लूटने की घटनायें हो रही हैं उसे तो प्रमाण मिल ही जाता है। हमें तो नहीं लगता कि शायद का देश कोई भी शहर हो जिसके समाचार पत्रों में चैन खिंचने या लुटने की घटना किसी दिन न छपती हो। अभी तक जिन शहरों के अखबार देखे हैं उनमें वहीं की दुर्घटना और लूट की वारदात जरूर शामिल होती है इसलिये यह मानते हैं कि दूसरी जगह भी यही होगा।
          खबरें तो चोरी की भी होती हैं पर यह एकदम मामूली अपराध तो है साथ ही परंपरागत भी है। मतलब उनकी उपस्थिति सामान्य मानी जाती है। वैसे तो लूट की घटनायें भी परंपरागत हैं पर एक तो वह आम नहीं होती थीं दूसरे वह किसी सुनसान इलाके में होने की बात ही सामने आती थी। अब सरेआम हो लूट की वारदात हो रही हैं। वह भी बाइक पर सवार होकर अपराधी आते हैं।
         हमारे देश मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने की फुरसत नहीं है। उनका मानना था कि हमसे अधिक अमीर इतनी संख्या में हैं कि लुटने के लिये पहले उनका नंबर आयेगा और लुटेरे इतनी कम संख्या में है कि उनको समझ में नहीं आता कि किसे पहले लूंटें और किसे बाद में। इसलिये लूटने से पहले पूरी तरह मुखबिरी कर लेते हैं। यह बहुत पहले लिखा गया व्यंग्य था। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। हम ख्वामख्वाह में कहते है  कि अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ गयी हैं। आंकड़ें गवाह है कि देश में अमीरों की संख्या बढ़ गयी है। अब यह तय करना मुश्किल है कि इन दोनों के बढ़ने का पैमाना कितना है। अनुपात क्या है? वैसे हमें नहीं लगता कि स्वर्गीय शरद जोशी के हाथ से व्यंग्य लिखने और आजतक के अनुपात में कोई अंतर आया होगा। साथ ही हमारी मान्यता है कि अपराधी और अमीरों की संख्या इसलिये बढ़ी है क्योंकि जनसंख्या बढ़ी है। विकास की बात हम करते जरूर है पर जनसंख्या में गरीबी बढ़ी है। मतलब अपराध, अमीरी और गरीबी तीनों समान अनुपात में ही बढ़ी होगी ऐसा हमारा अनुमान है।
          सीधी बात कहें तो चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीकठाक है। विकास बढ़ा, जनंसख्या बढ़ी, अमीर बढ़े तो अपराध भी बढ़े और गरीबी भी यथावत है। तब रोने की कोई बात नहीं है। फिर हम इस बात को इतिहास की बात क्यों मानते हैं  कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। हम यह क्यों गाते हैं कि कभी कभी डाल पर करती थी सोने की चिड़िया बसेरा, वह भारत देश है मेरा। हम थे की जगह हैं शब्द क्यों नहीं उपयोग करते। अभी हमारे देश के संत ने परमधाम गमन किया तो उनके यहां से 98 किलो सोना और 307 किलो चांदी बरामद हुई। टीवी और अखबारों के समाचारों के अनुसार कई ऐसे लोग पकड़े गये जिनके लाकरों से सोने की ईंटे मिली।
          वैसे तो सोना पूरे विश्व के लोगों की कमजोरी है पर भारत में इसे इतना महत्व दिया जाता है कि दस हजार रुपये गुम होने से अधिक गंभीर और अपशकुन का मामला उतने मूल्य का सोना खोना या छिन जाना माना जाता है। बहु अगर कहीं पर्स खोकर आये तो वह सास को न बताये कि उसमें चार पांच हजार रुपये थे। यह भी सोचे सास को क्या मालुम कि उसमें कितने रुपये थे पर अगर पांच हजार रुपये की चैन छिन जाये तो उसके लिये धर्म संकट उत्पन्न हो जाता है क्योंकि वह सास के सामने हमेशा दिखती है और यह बात छिपाना कठिन है।
           एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के अनुसार भारत के लोगों के पास सबसे अधिक सोना है। इसमें शक भी नहीं है। भारत में सोने का आभूषण विवाह के अवसर पर बनवाये जाते हैं। इतने सारे बरसों से इतनी शादिया हुई होंगी। उस समय सोना इस देश में आया होगा। फिर गया तो होगा नहीं। अब कितना सोना लापता है और कितना प्रचलन में यह शोध का विषय है पर इतना तय है कि भारत के लोगों के पास सबसे अधिक सोना होगा यह तर्क कुछ स्वाभाविक लगता है।
            भारत के लोग दूसरे तरीके से भी सबसे अधिक भाग्यशाली हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ कहते हैं कि भूजल स्तर भारत में सबसे अधिक है। यही कारण है कि हमारा देश अन्न के लिये किसी का मुंह नहीं ताकता। हमारे ऋषि मुनि हमेशा ही इस बात को बताते आये हैं पर अज्ञान के अंधेरे में भटकने के आदी लोग इसे नहीं समझ पाते। कहा जाता है कि भारत का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य के अधिक निकट है। हमें लगता है कि ऋषि मुनियों के लिये तत्व ज्ञान की खोज करना तथा सत्य तत्व को प्रतिष्ठित करना कोई कठिन काम नहीं रहा होगा क्योंकि मोह माया में फंसा इतना व्यापक समाज उनको यहां मिला जो शायद अन्यत्र कहीं नहीं होगा। अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाना भला कौनसा कठिन काम रहा होगा?
             वैसे देखा जाये तो सोना तो केवल सुनार के लिये ही है। बनना हो या बेचना वही कमाता है। लोग सोने के गहने इसलिये बनवाते हैं वक्त पर काम आयेगा पर जब बाज़ार में बेचने जाते हैं तो सुनार तमाम तरह की कटौतियां तो काट ही लेता हैं। अगर आप आज जिस भाव कोई दूसरी चीज खरीदने की बजाय सोना खरीदें  और कुछ वर्ष बाद खरीदा सोना बेचें तो पायेंगे कि अन्य चीज भी उसी अनुपात में महंगी हो गयी है। मतलब वह सोना और अन्य चीज आज भी समान मूल्य की होती है। अंतर इतना है कि अन्य चीज पुरानी होने के कारण भाव खो देती है और सोना यथावत रहता है। हालांकि उसमें पहनने के कारण उसका कुछ भाग गल भी जाता है जिससे मूल्य कम होता है पर इतना नहीं जितना अन्य चीज का। संकट में सोने से सहारे की उम्मीद ही आदमी को उसे रखने पर विवश कर देती है।
          जब रोज टीवी पर दिख रहा है और अखबार में छप रहा है तब भी भला कोई सोना न पहनने का विचार कर रहा है? कतई नहीं! अगर महिला सोना नहीं पहनती उसे गरीब और घटिया समझा जाता है। सोना पहने है तो वह भले घर की मानी जाती है। भले घर की दिखने की खातिर महिलायें जान का जोखिम उठाये घूम रही है। धन के असमान वितरण ने कथित भले और गरीब घरों में अंतर बढ़ा दिया है। वैसे कुछ घर अधिक भले भी हो गये हैं क्योंकि उनकी महिलाऐं चैन छिन जाने के बाद फिर दूसरी खरीद कर पहनना शुरु देती हैं। बड़े जोश के साथ बताती हैं कि सोना चला गया तो क्या जान तो बच गयी।’
        भारत में वैभव प्रदर्शन बहुत है इसलिये अपराध भी बहुत है। वैभव प्रदर्शन करने वाले यह नहीं जानते कि उनके अहंकार से लोग नाखुश हैं और उनमें कोई अपराधी भी हो सकता है। पैसे, प्रतिष्ठा और पद के अहंकार में चूर लोग यही समझते हैं कि हम ही इस संसार में है। वैसे ही जैसे बाइक पर सवार लोग यह सोचकर सरपट दौड़ते हुए दुर्घटना का शिकार होते हैं कि हम ही इस सड़क पर चल रहे हैं या सड़क पर नहीं आसमान में उड़ रहे हैं वैसे ही वैभव के प्रदर्शन पर भी अपराध का सामना करने के लिये तैयार होना चाहिए। टीवी पर चैन छीनने की सीसीटीवी में कैद दृश्य देखकर अगर कुछ नहीं सीखा तो फिर कहना चाहिए कि पैसा अक्ल मार देता है।
        कुछ संस्थाओं ने सुझाव दिया है कि देश में अनाज की बरबादी रोकने के लिये शादी के अवसर पर बारातियों की संख्या सीमित रखने का कानून बनाया जाये। इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अनाज की बर्बादी शादी से अधिक तो उसके भंडारण में हो रही है। अनेक जगह बरसात में हजारों टन अनाज होने के साथ कहीं ढूलाई में खराब होकर दुर्गति को प्राप्त होता है और उसकी मात्रा भी कम नहीं है। हम इस विवाद में न पड़कर शादियों में बारातियों की संख्या सीमित रखने के सुझाव पर सोच रहे हैं। अगर यह कानून बन गया तो फिर इस समाज का क्या होगा जो केवल विवाहों के अवसर के लिये अपने जीवन दांव पर लगा देता है। उस अवसर का उपयोग वह ऐसा करता है जैसे कि उसे पद्म श्री या पद्मविभूषण  मिलने का कार्यक्रम हो रहा है। बाराती कोई इसलिये बुलाता कि उसे उनसे कोई स्नेह या प्रेम है बल्कि अपने वैभव प्रदर्शन के लिये बुलाता है। यह वैभव प्रदर्शन कुछ लोगों को चिढ़ाता है तो कुछ लोगों को अपने अपराध के लिये उपयुक्त लगता है। ऐसा भी हुआ है कि शादी के लिये रखा गया पूरा सोना चोरी हो गया। सोने से जितना सामान्य आदमी का प्रेम है उतना ही डकैतों, लुटेरों और चोरों को भी है। सौ वैभव प्रदर्शन और चोरी, लूट और डकैती का रिश्ता चलता रहेगा। पहले बैलगाड़ी और घोड़े पर आदमी चलता था तो अपराधी भी उस पर चलते थे। अब वह पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का उपयोग कर रहा है तो अपराधी भी वही कर रहे हैं। जो भले आदमी की जरूरत है वही बुरे आदमी का भी सहारा है। सोना तो बस सोना है। हम इन घटनाओं को देखते हुए तो यह कहते है कि भारत आज भी सोने की चिड़िया है।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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फैशन की मार-हिन्दी हास्य व्यंग (fashan ki mar-hashya vyangya)


अखबार में पढ़ने को मिला कि ब्रिटेन में महिलायें क्रिसमस पर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनने के लिये इंजेक्शन लगवा रही हैं। उससे छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता-भारतीय महिलायें इस बात पर ध्यान दें कि अंग्रेजी दवाओं के कुछ बुरे प्रभाव ( साईड इफेक्ट्स) भी होते हैं। हम तो समझते थे कि केवल भारत की औरतें ही ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनकर ही दर्द झेलती हैं अब पता लगा कि यह फैशन भी वहीं से आयातित है जहां से देश की शिक्षा पद्धति आई है।

एक बार हम एक अन्य दंपत्ति के साथ एक शादी में गये।  उस समय हमारे पास स्कूटर नहीं था सो टैम्पो से गये।  कुछ देर पैदल चलना पड़ा। वह दंपति भी चल तो रहे थे पर महिला बहुत परेशान हो रही थी।  उसने हाई हील की चप्पल पहन रखी थी।

बार बार कहती कि ‘इतनी दूर है। रात का समय आटो वाला मिल जाता तो अच्छा रहता। मैं तो थक रही हूं।’

हमारी श्रीमती जी भी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) पहने थी पर वह अधिक ऊंची नहीं थी।  उन्होंने उस महिला से कहा कि-‘यह बहुत ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाले जूते या चप्पल पहनने पर होता है। इसलिये मैं कम ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली पहनती हूं।’

वह बोली-‘नहीं, ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से से कोई फर्क नहीं पड़ता।’

बहरहाल उस शादी के दौरान ही उनकी चप्पल की एड़ी निकल गयी।  अब यह तो ऐसा संकट आ गया जिसका निदान नहीं था।  अगर चप्पल सामान्य ढंग के होती तो घसीटकर चलाई जा सकती थी पर यह तो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली थी। अब वह उसके पति महाशय हमसे बोले-‘यार, जल्दी चलो। अब तो टैम्पो तक आटो से चलना पड़ेगा।’

हमने हामी भर दी। संयोगवश एक दिन हम एक दिन जूते की दुकान पर गये वहां से वहां उसने हमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते दिखाये पर हमने मना कर दिया क्योंकि हमें स्वयं भी यह आभास हो गया था कि जब ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते टूटते हैं तो क्या हाल होता है? उनको देखकर ही हमें अपनी ऐड़ियों में दर्द होता लगा।

हमारे रिश्ते की एक शिक्षा जगत से जुड़ी महिला हैं जो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूतों की बहुत आलोचक हैं।  अनेक बार शादी विवाह में जब वह किसी महिला ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहने देखती हैं तो कहती हैं कि -‘तारीफ करना चाहिये इन महिलाओं की इतनी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनकर चलती हैं। हमें तो बहुत दर्द होता है। इनके लिये भी कोई पुरस्कार होना चाहिए।’

एक दिन ऐसे ही वार्तालाप में अन्य बुजुर्ग महिला ने उनसे कहा कि-‘ अरे भई, आज समय बदल गया है।  हम तो पैदल घूमते थे पर आजकल की लड़कियों को तो मोटर साइकिल और कार में ही घूमना पड़ता है इसलिये ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनने का दर्द पता ही नहीं लगता। जो बहुत पैदल घूमेंगी वह कभी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की  चप्पल नहीं पहन सकती।’

उनकी यह बात कुछ जमी। ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते का फैशन परिवहन के आधुनिक साधनों की वजह से बढ़ रहा है। जो पैदल अधिक चलते हैं उनके िलये यह संभव नहीं है कि ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहने।

वैसे भी हमारे देश में जो सड़कों के हाल देखने, सुनने और पड़ने को मिलते हैं उसमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल और जूता पहनकर क्या चला जा सकता है? अरे, सामान्य ऐड़ी वाली चप्पलों से चलना मुश्किल होता है तो फिर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से खतरा ही बढ़ेगा। बहरहाल फैशन तो फैशन है उस पर हमारा देश के लोग चलने का आदी है। चाहे भले ही कितनी भी तकलीफ हो। हमासरे देश का आदमी  अपने हिसाब से फैशन में बदलाव करेगा पर उसका अनुसरण करने से नहीं चूकेगा।

दहेज हमारे यहां फैशन है-कुछ लोग इसे संस्कार भी मान सकते हैं।  आज से सौ बरस पहले पता नहीं दहेज में कौनसी शय दी जाती होगी- पीतल की थाली, मिट्टी का मटका, एक खाट, रजाई हाथ से झलने वाला पंख और धोती वगैरह ही न! उसके बाद क्या फैशन आया-बुनाई वाला पलंग, कपड़े सिलने की मशीन और स्टील के बर्तन वगैरह। कहीं साइकिल भी रही होगी पर हमारी नजर में नहीं आयी। अब जाकर कहीं भी देखिये-वाशिंग मशीन, टीवी, पंखा,कूलर,फोम के गद्दे,फ्रिज और मोटर साइकिल या कार अवश्य दहेज के सामान में सजी मिलती है। कहने का मतलब है कि घर का रूप बदल गया। शयें बदल गयी पर दहेज का फैशन नहीं गया। अरे, वह तो रीति है न! उसे नहीं बदलेंगे। जहां माल मिलने का मामला हो वहां अपने देश का आदमी संस्कार और धर्म की बात बहुत जल्दी करने लगता है।

हमारे एक बुजुर्ग थे जिनका चार वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया। उनकी पोती की शादी की बात कहीं चल रही थी। मध्यस्थ ने उससे कहा कि ‘लड़के के बाप ने  दहेज में कार मांगी है।’

वह बुजुर्ग एकदम भड़क उठे-‘अरे, क्या उसके बाप को भी दहेज में कार मिली थी? जो अपने लड़के की शादी में मांग रहा है!

बेटे ने बाप को  समझाकर शांत किया। आखिर में वह कार देनी ही पड़ी। कहने का तात्पर्य यह है कि बाप दादों के संस्कार पर हमारा समाज इतराता बहुत है पर फैशन की आड़ लेने में भी नहीं चूकता।  नतीजा यह है कि सारे कर्मकांड ही व्यापार हो गये हैं। शादी विवाह में जाने पर ऐसा लगता है कि जैसे खाली औपचारिकता निभाने जा रहे हैं।

बहरहाल अभी तक भारतीय महिलाओं को यह पता नहीं था कि कोई इंजेक्शन लगने पर छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता वरना उसका भी फैशन यहां अब तक शुरु हो गया होता। अब जब अखबारों में छप गया है तो यह आगे फैशन आयेगा।  जब लोगों ने फैशन के नाम पर अपने शादी जैसे पवित्र संस्कारों को महत्व कम किया है तो वह अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ से भी बाज नहीं आयेंगे।  औरते क्या आदमी भी यही इंजेक्शन लगवाकर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनेंगे। कभी कभी तो लगता है कि यह देश धर्म से अधिक फैशन पर चलता है।



 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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