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खाने पीने में सुपाच्य पदार्थ ग्रहण करना आवश्यक-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


        देश में मैगी के भोज्य पदार्थ को लेकर विवाद का दौर चल रहा है। हमारी दृष्टि से  एक उत्पादक संस्थान पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं है। उपभोग की बदलती प्रवृत्तियों ने संगठित उत्पादक संस्थानों के भोज्य पदार्थों को उस भारतीय समाज का हिस्सा बना दिया है जो स्वास्थ्य का उच्च स्तर घरेलू भोजन में ढूंढने के सिद्धांत को तो मानता है पर विज्ञापन के प्रभाव में अज्ञानी हो जाता है। अनेक संगठित उत्पादक संस्थान खाद्य तथा पेय पदार्थों का विज्ञापन भारतीय चलचित्र क्षेत्र के अभिनेताओं से करवाते हैं।  उन्हें अपने विज्ञापनों में अभिनय करने के लिये भारी राशि देते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के प्रसारण प्रकाशन के लिये टीवी चैनल तथा समाचार पत्रों में भी भुगतान किया जाता है। इन उत्पादक संस्थानों के विज्ञापनो के दम पर कितने लोगों की कमाई हो रही है इसका अनुमान तो नहीं है पर इतना तय है कि इसका व्यय अंततः उपभोक्ता के जेब से ही निकाला जाता है। आलू चिप्स के बारे में कहा जाता है कि एक रुपये के आलू की चिप्स के  दस रुपये लिये जाते हैं।

        हमारे देश में अनेक  भोज्य पदार्थ पहलेे ही बनाकर बाद में खाने की परंपरा रही है। चिप्स, अचार, मिठाई तथा पापड़ आदि अनेक पदार्थ हैं जिन्हें हम खाते रहे हैं। पहले घरेलू महिलायें नित नये पदार्थ बनाकर अपना समय काटने के साथ ही परिवार के लिये आनंद का वातावरण बनाती थीं। अब समय बदल गया है। कामकाजी महिलाओं को समय नहीं मिलता तो शहर की गृहस्थ महिलाओं के पास भी अब नये समस्यायें आने लगी हैं जिससे वह परंपरागत भोज्य पदार्थों के निर्माण के लिये तैयार नहीं हो पातीं। उस पर हर चीज बाज़ार में पैसा देकर उपलब्ध होने लगी है। घरेलू भोजन में बाज़ार से अधिक शुद्धता की बात करना अप्रासंगिक लगता है। इसका बृहद उत्पादक संस्थानों को भरपूर लाभ मिला है।

       भारतीय समाज में चेतना और मानसिक दृढ़ता की कमी भी दिखने लगी है। अभी मैगी के विरुद्ध अभियान चल रहा है पर कुछ समय बाद जैसे ही धीमा होगा वैसे ही फिर लोग इसका उपभोग करने लगेंगे। पेय पदार्थों में तो शौचालय स्वच्छ करने वाले द्रव्य मिले होने की बात कही जाती है। फिर भी उसका सेवल धड़ल्ले से होता है। यह अलग बात है कि निजी अस्पतालों में बीमारों की भीड़ देखकर कोई भी यह कह सकता है कि यह सब बाज़ार के खाद्य तथा पेय पदार्थों की अधिक उपभोग के कारण हो रहा है।

        ऐसे में बृहद उत्पादक संस्थानों के खाद्य तथा पेय पदार्थों के प्रतिकूल अभियान छेड़ने से अधिक समाज में इसके दोषों की जानकारी देकर उसे जाग्रत करने की आवश्कयता अधिक लगती है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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रोटी की तलाश-हिन्दी कवितायें


महंगाई तो यूं ही

बढ़ती जायेगी।

भावनायें होंगी सस्ती

हृदय में संवेदनशीलता

घटती जायेगी।

कहें दीपक बापू भरे पेट से

सर्वशक्तिमान की हो

या देश की

भक्ति सहजता से होती है,

रोटी की तलाश में नाकामी

अपने से ही विश्वास खोती है,

मजबूरी बढ़ेगी जितनी

इंसानों में वफादारी उतनी ही

घटती जायेगी।

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निरर्थक विषय पर

बोलें या मौन रहें

कई बार भ्रम हो जाता है।

इंसानों के वादे पर

यकीन करें या उपेक्षा

सोच का क्रम खो जाता है।

कहें दीपक बापू घरती पर

फरिश्ते पैदा होते नहीं

आकाश से टपकना भी मुश्किल

इंसान के बने अंतरिक्ष यानों के बीच

मार्ग ढूंढते ढूंढते ही

उनका पूरा श्रम हो जाता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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नकारा आदमी की बदतमीजी सहने से कोई लाभ नहीं-भर्तृहरि नीति शतक


सामान्य मनुष्य की यह प्रवृत्ति रहती है कि वह उच्च पदस्थ, धनवान तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचे कथित सिद्ध पुरुषों की चाटुकारिता इस उद्देश्य से करता है कि पता नहीं कब उनमें काम पड़ जाये? जबकि शिखर पुरुषों की भी यह प्रकृत्ति है कि वह अपनी सुविधानुसार ही सामान्य लोगों को लाभ देने का अवसर प्रदान करते हैं।  वह दरियादिल नहीं होते पर समाज उनसे ऐसी अपेक्षा सदैव किये रहता है कि वह कभी न कभी दया कर सकते हैं।  माया के पुतले इन शिखर पुरुषों को अनावश्यक ही प्रतिष्ठा और सम्मान मिलता है जिस कारण हर कोई उन जैसा स्तर पाने की कामना करता है।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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फलमलशनाय स्वादु पानाय तोयं।

क्षितिरपि शयनार्थ वाससे वल्कलं च।

नवधन-मधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणामविनयमनुमन्तुं नौतसहे दुर्जनाम्।।

            हिन्दी में भावार्थ-खाने के लिये पर्याप्त धन, पीने के लिये मधुर जल, सोने के लिये प्रथ्वी और पहनने के लिये वृक्षों की छाल है तो हमारी नई ताजी संपदा की मदिरा पीकर मस्त हुए दुर्जनों की बदतमीजी सहने की कोई इच्छा नहीं है।

            योगी, सन्यासी और ज्ञानी इस मायावी संसार के सत्य को जानते हैं।  इसलिये ही जितना मिले उससे संतोष कर लेते हैं।  कहा भी जाता है कि संतोष ही सबसे बड़ा धन है जबकि असंतोष के वशीभूत होकर लोग न केवल अनुचित प्रयास करते हैं वरन् अनावश्यक ही धन, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों के दरवाजे अनावश्यक नत मस्तक होते हैं।  कालांतर में असंतोष से प्रेरित होकर किये गये प्रयास उन्हें भारी निराश करते हैं। हर व्यक्ति को एक बात याद रखना चाहिये कि उच्च पद, धनवान तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे लोग  कुछ देने के लिये हाथ जरूर उठाते हैं पर वह उनकी सुविधानुसार सकाम प्रयास होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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