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बाज़ार के सौदागर-हिंदी कविता (bazar ke saudagar-hindi kavita)


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझें यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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अकवि और असंत-हिंदी हास्य कविता


फंदेबाज घर आते ही बोला

‘‘दीपक बापू, तुम अध्यात्म पर

बहुत बतियाते हो,

जब मौका मिले

ज्ञानी बनकर मुझे लतियाते हो,

न तुम संत बन पाये,

न कवि की तरह जम पाये,

फ्लॉप रहे अपने काम में,

न पाया नामे में हिस्सा

न काम बना दाम में,

इससे अच्छा तो कोई आश्रम बनाओ,

नहीं तो कोई अपनी किताब छपवाओ,

इस तरह अंतर्जाल पर टंकित करते थक जाओगे,

कभी अपना नाम प्रचार के क्षितिज पर

चमका नहीं पाओगे।

सुनकर हंसे दीपक बापू

‘‘जब भी तू आता है,

कोई फंदा हमारे गले में डालने के लिये

अपने साथ जरूर लाता है,

कमबख्त!

जिनका हुआ बहुत बड़ा नाम,

बाद में हुए उससे भी ज्यादा बदनाम,

कुछ ने पहले किये अपराध,

फिर ज़माने को चालाकी से लिया साध,

जिन्होंने  अपने लिये राजमहल ताने,

काम किये ऐसे कि

पहुंच गये कैदखाने,

संत बनने के लिये

ज्ञानी हों या न हों,

ज्ञान का रटना जरूरी है,

माया के खेल के खिलाड़ी हों शातिर

मुंह पर सत्य का नाम लेते रहें

पर हृदय से रखना  दूरी है,

न हम संत बन पाये

न सफल कवि बन पायेंगे,

अपने अध्यात्मिक चिंत्तन के साथ

कभी कभी हास्य कविता यूं ही  बरसायेंगे,

मालुम है कोई सम्मान नहीं मिलेगा,

अच्छा है कौन

बाद में मजाक के दलदल में गिरेगा,

चाटुकारिता करना हमें आया नहीं,

किसी आका के लिये लिखा गीत गाया नहीं,

पूज्यता का भाव आदमी को

कुकर्म की तरफ ले जाता है,

जिन्होंने सत्य को समझ लिया

जीना उनको ही आता है,

तुम हमारे लिये सम्मान के लिये क्यों मरे जाते हो,

हमेशा आकर हमारे फ्लाप होने का दर्द

हमसे ज्यादा तुम गाते हो,

तुम हमारी भी सुनो,

फिर अपनी गुनो,

अक्सर हम सोचते हैं कि

हमसे काबिल आदमी हमें

मानेगा नहीं,

हमारे लिखे का महत्व

हमसे कम काबिल आदमी जानेगा नहीं,

सम्मान देने और लेने का नाटक तो

उनको ही करना आता है,

जिन्हें अपने ही लिखने पर

मजा लेना नहीं भाता है,

हमारे लिये तो बस इतना ही बहुत है कि

तुम हमें मानते हो,

कभी कवि तो कभी संत की तरह जानते हो,

पाखंड कर बड़े हुए लोगों को

बाद में कोई दिल से याद नहीं करता,

यह अलग बात है कि

उनकी जन्मतिथि तो कभी पूण्यतिथि पर

दिखावे के आंसु जमाना भरता है,

हमारे लिये  तो इतना ही बहुत है

अपनी हास्य कवितायें इंटरनेट पर

रहेंगी हमेशा

जो अपनी हरकतों से तुम छपवाओगे।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख-अयोग्य शिष्य गुरू को भी डुबो देते हैं


         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्यंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

——————–

बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।

सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।

कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।

    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।

           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 

     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

विज्ञापन में महाबहस-हिंदी व्यंग्य कविता


कुछ लोग हर विषय पर बोलेंगे,

फिर अपने प्रचार की तराजु में

अपनी इज्जत का वजन तोलेंगे।

कहें दीपक बापू

हर जगह छाये हैं वह चेहरे

बाज़ार के सौदागरों से लेकर दाम,

प्रचारकों के साथी होकर करते काम,

अपने लफ्जों की कीमत लेकर ही

हर बार अपना मुंह खोलेंगे,

नाम वाले हो या बदनाम

पर्दे पर विज्ञापनों के बीच 

महाबहस के लिये

सामान जुटायेंगे वही लोग

जो पहले मशहुर होकर

शौहरत के लिये इधर उधर डोलेंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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अपने जीवन में दृष्टा भाव से जीयें तो अलग ही मज़ा आता है प्रस्तुत है इस पर यह वीडियो चर्चा


हम अगर अपने जीवन में दृष्ट भाव से जीयें तो अलग ही मज़ा आता है प्रस्तुत है इस पर यह वीडियो चर्चा|

गुलामी अब भी चालू है-हिन्दी हास्य व्यंग्य


             ब्रिटेन के राजघराने की उनके देश में ही इतनी इज्जत नहीं है जितना हमारे देश के प्रचार माध्यम देते हैं। आधुनिक लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन बहुत पहले ही राजशाही से मुक्ति पा चुका है पर उसने अपने पुराने प्रतीक राजघराने को पालने पोसने का काम अभी तक किया है। यह प्रतीक अत्यंत बूढ़ा है और शायद ही कोई ब्रिटेन वासी दुबारा राजशाही को देखना चाहेगा। इधर हमारे समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में सक्रिय बौद्धिक वर्ग इस राजघराने का पागलनपन की हद तक दीवाना है। ब्रिटेन के राजघराने के लोग मुफ्त के खाने पर पलने वाले लोग है। कोई धंधा वह करते नहीं और राजकाज की कोई प्रत्यक्ष उन पर कोई जिम्मेदारी नहीं है तो यही कहना चाहिए कि वह एक मुफ्त खोर घराना है। इसी राजघराने ने दुनियां को लूटकर अपने देश केा समृद्ध बनाया और शायद इसी कारण ही उसे ब्रिटेनवासी ढो रहे हैं। इसी राजघराने ने हमारे देश को भी लूटा है यह नहीं भूलना चाहिए।
               कायदा तो यह है कि देश को आज़ादी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले हमारे प्रचारकगण इस राजघराने के प्रति नफरत का प्रसारण करें पर यहां तो उनके बेकार और नकारा राजकुमारों के प्रेम प्रसंग और शादियों की चर्चा इस तरह की जाती है कि हम अभी भी उनके गुलाम हैं। खासतौर से हिन्दी समाचार चैनल और समाचार पत्र अब उबाऊ हो गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल अपने विज्ञापनदाताओं के गुलाम हैं। इनके विज्ञापनदाता अपने देश से अधिक विदेशियों पर भरोसा करते हैं। यही कारण है कि कुछ लोगों के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह यहां से पैसा बैगों में भरकर विदेश जमा करने के लिये ले जाते हैं। हैरानी होती है यह सब देखकर। अपने देश के सरकारी बैंक आज भी जनता के भरोसा रखते हैं पर हमारे देश के सेठ साहुकार विदेशों में पैसा रखने के लिये धक्के खा रहे हैं।
बहरहाल भारतीय सेठों का पांव भारत में पर आंख और हृदय ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ लगा रहता है। कई लोगों को देखकर तो संशय होता है कि वह भारत के ही हैं या पिछले दरवाजे से भारतीय होने का दर्जा पा गये। अमेरिका की फिल्म अभिनेत्री को जुकाम होता है तो उसकी खबर भी यहां सनसनी बन जाती है। प्रचार माध्यमों के प्रबंधक यह दावा करते हैं कि जैसा लोग चाहते हैं वैसा ही वह दिखा रहे हैं पर वह इस बात को नही जानते कि उनको दिखाने पर ही लोग देख रहे हैं। उसका उन पर प्रभाव होता है। वह समाज में फिल्म वालों की तरह सपने बेच रहे हैं। विशिष्ट लोग की आम बातों को विशिष्ट बताने वाले उनके प्रसारण का लोगों के दिमाग पर गहरा असर होता है। ऐसा लगता है कि समाज में से पैसा निकालने की विधा में महारत हासिल कर चुके हमारे बौद्धिक व्यवसायी किसी नये सृजन की बजाय केवल परंपरागत रूप से विशिष्ट लोगों की राह पर चलने के लिये विवश कर रहे हैं।
                 यह भी लगता है कि सेठ लोगों की देह हिन्दुस्तानी है पर दिल अमेरिका या ब्रिटेन का है। उनको लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस उनके अपने देश हैं और उनकी तर्फ से वहां केवल धन वसूली करने के लिये पैदा हुए हैं। अगर यह सच नहीं है तो फिर विदेशी बैंकों में भारी मात्रा में भारत से पैसा कैसे जमा हो रहा है? सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों को विदेश बहुत भाता है और राष्ट्रीय स्तर की बात छोड़िये स्थानीय स्तर के शिखर पुरुष बहाने निकालकर विदेशों का दौरा करते हैं।
प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि जिस तरह पश्चिमी देशों में भारत की गरीबी, अंधविश्वास तथा जातिवादपर आधारित कहानियां पसंद की जाती हैं उसी तरह भारत के लोगों को पश्चिम के आकर्षण पर आधारित विषय बहुत लुभाते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन के बुढ़ा चुके राजघराने की परंपरा के वारिसों की कहानियां यहां सुनाई जाती हैं।
                 बहरहाल ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल बहुत कम खर्च पर अधिक और महंगे विज्ञापन प्रसारित कर रहे हैं। इन समाचार चैनलों के पास मौलिक तथा स्वरचित कार्यक्रम तो नाम को भी नहीं। स्थिति यह है कि सारे समाचार चैनल आत्मप्रचार करते हुए अधिक से अधिक समाचार देने की गारंटी प्रसारित करते हैं। मतलब उनको मालुम है कि लोग यह समझ गये हैं कि समाचार चैनलों का प्रबंधन कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं के प्रचार के लिये हैं न कि समाचारों के लिये। आखिर समाचार चैनलों को समाचार की गारंटी वाली बात कहनी क्यों पड़ी रही है? मतलब साफ है कि वह जानते हैं कि उनके प्रसारणों में बहुत समय से समाचार कम प्रचार अधिक रहा है इसलिये लोग उनसे छिटक रहे हैं या फिर वह समाचार प्रसारित ही कब करते हैं इसलिये लोगांें को यह बताना जरूरी है कि कभी कभी यह काम भी करते हैं। विशिष्ट लोगों की शादियों, जन्मदिन, पुण्यतिथियों तथा अर्थियों के प्रसारण को समाचार नहीं कहते। इनका प्रसारण शुद्ध रूप से चमचागिरी है जिसे अपने विज्ञापनदाताओं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है न कि लोगों के रुझान को ध्यान में रखा जाता है।
                  शाही शादी जैसे शब्द हमारे देश के अंग्रेजी के देशी गुलामों के मुख से ही निकल सकते हैं भले ही वह अपने को बौद्धिक रूप से आज़ाद होने का दावा करते हों।
                 बहरहाल जिस तरह के प्रसारण अब हो रहे हैं उसकी वजह से हम जैसे लोग अब समाचार चैनलों से विरक्त हो रहे हैं। अगर किसी दिन घर में किसी समाचार चैनल को नहीं देखा और ऐसी आदत हो गयी तो यकीनन हम भूल जायेंगे कि हिन्दी में समाचार चैनल भी हैं। जैसे आज हम अखबार खोलते हैं तो उसका मुख पृष्ठ देखने की बजाय सीधे संपादकीय या स्थानीय समाचारों के पृष्ठ पर चले जाते हैं क्योंकि हमें पता है कि प्रथम प्रष्ठ पर क्रिकेट, फिल्म या किसी विशिष्ट व्यक्ति का प्रचार होगा। वह भी पहली रात टीवी पर देखे गये समाचारों जैसा ही होगा। समाचार पत्र अब पुरानी नीति पर चल रहे हैं। उनको पता नहीं कि उनके मुख पृष्ठ के समाचार छपने से पहले ही बासी हो जाते हैं। हिन्दी समाचार चैनलों को भी शायद पता नहीं उनके प्रसारण भी बासी हो जाते हैं क्योंकि वही समाचार अनेक चैनलों पर प्रसारित होता है जो वह कर रहे होते हैं। एक ही प्रसारण सारा दिन होता है। शादियों और जन्मदिनों का सीधा प्रसारण पहले और बाद तक होता है।
कितने मेहमान आने वाले हैं, कितने आ रहे हैं, कितनी जगहों से आ रहे हैं। फिर कब जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं जैसे जुमले सुने जा सकते हैं। संवाददाता इस तरह बोल रहे होते हैं जैसे आकाश से बिजली गिरने का सीधा प्रसारण कर रहे हों। वैसे ही टीवी अब लोकप्रियता खो रहा है। लोग मोबाइल और कंप्यूटर की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। खालीपीली की टीआरपी चलती रहे तो कौन देखने वाला है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
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बाज़ार जो बुलवाए-हिंदी व्यंग्य चिंत्तन


            यह हैरानी की बात है कि दिल्ली में एक युवती के साथ सामुहिक दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या की घटना के बाद जहां सारे देश में आक्रोश फैला वहीं अनेक लोगों को अपना नाम चमकाने के लिये बहसें करने के साथ ही बयान देने का अवसर मिला।  बाज़ार के सौदागरों के उत्पाद बिकवाने वाले प्रचार माध्यमों ने इस अवसर पर खूब नाटकबाजी की।  कहने को तो प्रचार माध्यमों में प्रस्तोता और बहसकर्ता शोकाकुल थे पर कहीं न कहीं जहां विज्ञापनों के माध्यम से कमाई हो रही थी तो विवादस्पद बयानों के माध्यम से अनेक लोगों को चमकाया जा रहा था।
           इस मामले में एक ऐसे गायक कलाकार  का नाम सामने आया जिसका नाम आम लोगों में तब तक प्रचलित नहीं था। उस गायक कलाकार के गीत में महिलाओं को लेकर कोई अभद्र टिप्पणी थी।  संभव है देश के कुछ युवा लोग उसका नाम जानते हों पर पर सामान्य रूप से वह इतना प्रसिद्ध नहीं था।  प्रचार माध्यम उसके पीछे हाय हाय करके पड़ गये। बाद में उस गायक कलाकार ने दावा किया कि वह गीता उसका गाया हुआ ही नहीं है।  यह मामला थम गया पर उस गायक कलाकार का नाम तब तक सारा देश जान गया।  क्या इसमें कोई व्यवसायिक चालाकी थी, यह कहना कठिन है।
      प्रचार माध्यमों ने पीड़िता का नाम गुप्त रखने की कानूनी बाध्यता जमकर बखानी।  यह सही है कि दैहिक जबरदस्ती की शिकार का नाम नहीं दिया जाना चाहिये पर यह शर्त इसलिये डाली गयी है ताकि उसे भविष्य में सामाजिक अपमान का सामना न करना पड़े।  जिसका देहावसान हो गया हो उसके लिये फिर मान अपमान का प्रश्न ही कहां रह जाता है?  हां, उसके माता पिता के लिये थोड़ा परेशानी का कारण होता है पर दिल्ली में दरिंदों की शिकार उस बच्ची का नाम उसके पिता ने ही उजागर कर दिया है। इंटरनेट पर ट्विटर पर आई एक मेल में एक अखबार की चर्चा है जिसमें उसके पिता का बयान भी है।  हम नाम नहीं लिखते क्योंकि हमारा उद्देश्य किसी घटना में समाज के उन पहलुओं पर विचार करना होता है जिन्हें लोग अनदेखा कर देते हैं-नाम अगर सार्वजनिक हुआ हो तो भी नहीं लिखते।
      इधर हम देख रहे हैं कि सामूहिक दुष्कर्म पर अनेक लोग बयानबाजी कर रहे हैं।  हमें अफसोस होता है यह देखकर कि वह बच्ची तो अपने दुर्भाग्य का शिकार हो गयी पर उसे विषय बनाकर लोग जाने क्या क्या कर रहे हैं।  हमने पहले भी यह कहा था कि यह घटना आम घटनाओं से अलग है। कहीं न कहीं इसमें राज्य प्रबंध का दोष है। अब तो यह भी मानने है कि समाज का भी इसमें कम दोष नहीं। लड़की के साथ जो लड़का था वह बच गया और उसके जो बयान आये हैं वह दूसरा पक्ष भी रख रहे हैं।  वह उसे दुर्भाग्यशाली बच्ची ने दरिंदों की क्रुरता तो झेली ही सज्जनों की उपेक्षा को भी झेला।  लड़की साथ वाले लड़के के अनुसार वह घायलवास्था में  सड़क पर पड़े आते जाते लोगों से मदद की याचना करता रहा पर लोग देखकर जाते रहे।  दुर्जनों की सक्रियता और सज्जनों की निष्क्रियता दोनों को उन दोनों ने जो रूप देखा वह हैरान करने वाला है।  उनकी उपेक्षा करने वाले मनुष्य थे कोई गाय या भैंस नहीं।
          इस  पर एक वाक्य याद आ रहा है। हमें पता नहीं किसी फिल्म में था या कहीं पढ़ा है।  इसमें एक धर्म विशेष को लेकर कहा गया कि ‘………धर्म हमें या तो आतंकवादी बनाता है या फिर बेबस’!
    यह वाकया देखकर हमें लग रहा है कि नाम से पहचाने जाने वाले सारे धर्मो की स्थिति यही है।  जहां तक भारतीय अध्यात्म का प्रश्न है वह पवित्र आचरण तथा अच्छे व्यवहार को ही धर्म मानता है।  श्रीमद्भागवत गीता में धर्म का कोई नाम नहीं बल्कि आचरण से उसे जोड़ा गया है।  कष्टकारक बात यह है कि श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ने  का दावा करने वाले लोग यह मानते है कि वह महाज्ञानी हो गये और फिर वह उसकी व्याख्या मनमाने तरीके से करते हैं। उससे भी ज्यादा हैरान यह बात करती है कि जिन लोगों का यह दावा कि वह भारतीय धर्मो की समझ रखते हैं वही ऐसी बातें करते हैं जिनका सिर पैर नहीं होता।
    सामूहिक दुष्कर्म की घटना में वास्तविक रूप से क्या हुआ, यह तो वह लड़का भी एकदम पूरी तरह से नहीं बता सकता जो उस समय लड़की के साथ था।  अपने ऊपर वार होने की वजह से वह घायल होकर अपनी सुधबुध खो बैठा था  हालांकि पूरे हादसे के समय वह उस पीड़ा झेल रहा था। ऐसे में यह कहना कि उस लड़की को यह करना चाहिये था यह वह करना चाहिए था यह हास्यास्पद है।  इस घटना के परिप्रेक्ष्य में संपूर्ण समाज की स्थिति में देखना भी ठीक नहीं है।  जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर अपराध और पीड़ित को देखने वाले केवल दुर्भाग्यशाली पीड़िता के नाम के साथ अन्याय कर रहे हैं।  यह सच है कि मनुष्य एक शक्तिशाली जीव है पर भाग्य का अपना रूप है।  एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर जो लोग टिप्पणी कर रहे हैं उनका मुख्य उद्देश्य पर्दे पर अपना चेहरा और कागजों पर नाम चमकते देखने के अलावा कुछ नहीं है।  उनको ऐसा लगता है कि अगर हमने इस पर कुछ नहीं बोला तो प्रचार युद्ध में हम अपने प्रतिद्वंद्वियों से  पिछड़ जायेंगे।  फिर हम प्रचार माध्यमों की तरफ देखते हैं कि अगर उनके पास सनसनी पूर्ण समाचार और विवादास्पद बहसें नहीं होंगी तो उनके विज्ञापन का समय कैसे पास होगा।  बाज़ार के पास प्रचार है तो बोलने वाले बुत भी हैं। यह बुत अपना मुख प्रचार के भोंपुओं की तरफ हमेशा किये खड़े रहते हैं, मानो कह रहे हों कि ‘बोल बाज़ार।’
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
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