टीवी चैनल के कर्मचारी ने
अपने प्रबंध निदेशक से पूछा
‘सर, आपका क्या विचार है
अयोध्या में राम जन्म भूमि पर
मंदिर बन पायेगा
यह मसला कभी सुलझ पायेगा।’
सुनकर प्रबंध निदेशक ने कहा
‘अपनी खोपड़ी पर ज्यादा जोर न डालो
जब तक अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनेगा,
तभी तक अपने चैनल का तंबू बिना मेहनत के तनेगा,
बहस में ढेर सारा समय पास हो जाता है,
जब खामोशी हो तब भी
सुरक्षा में सेंध के नाम पर
सनसनी का प्रसंग सामने आता है,
अपना राम जी से इतना ही नाता है,
नाम लेने से फायदे ही फायदे हैं
यह समझ में आता है,
अपना चैनल जब भी राम का नाम लेता है
विज्ञापन भगवान छप्पड़ फाड़ कर देता है,
अगर बन जायेगा
तो फिर ऐसा मुद्दा हाथ नहीं आयेगा
कभी हम किसी राम मंदिर नहीं गये
पर राम का नाम लेना अब बहुत भाता है,
क्योंकि तब चैनल सफलता की सीढ़िया चढ़ जाता है,
इसलिये तुम भी राम राम जपते रहो,
इस नौकरी में अपनी रोटी तपते रहो,
अयोध्या में राम मंदिर बन जायेगा
तो उनके भक्तों का ध्यान वहीं होगा
तब हमारा चैनल ज़मीन पर गिर जायेगा।
———————
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नदियां यूं ही नहीं देवियां कही जाती हैं,
तभी तक सहती हैं
अपने रास्तों पर आशियानों बनना
जब तक इंसानों की तरह सहा जाता है,
बादलों से बरसा जो थोड़ा पानी
उफनती हुई अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाती हैं।
——–
यह कुदरत का ही करिश्मा है कि
विकास के मसीहाओं को भी
उसका सहारा मिल जाता है,
जब तक आगे बढ़ने का सहारा मिलता है
झूठे आंकडों से
वह अपनी छाती फुलाते हैं
बरसती है जब कहर की बाढ़
खुलती है पोल
तब दोष देते हैं कुदरत को
फिर राहत से कमाई की उम्मीद में
उनका चेहरा अधिक खिल जाता है।
———–
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हमदर्दी जताने की कला
हमें कभी नहीं आई
किसी का दर्द देखकर
मन रोया मन भर आंसु
पर आंखें दरिया न बन पाई।
शायद लोग दिमाग से सोचते हैं
इसलिये हमदर्दी के शब्द जल्दी ढूंढ लेते
दिल तक नहीं पहुंचता
दूसरे का दर्द
कर लेते हैं दिखावे में कमाई।
नहीं करना सीखा पाखंड
इसलिये दूसरे के घाव पर मरहम लगाकर भी
अपने लिये ओढ़ लेते हैं तन्हाई।
——————–
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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हिटलर तानाशाह पर उसने जर्मनी पर राज्य किया। कहते हैं कि वह बहुत अत्याचारी था पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हर जर्मनी नागरिक का मार दिया। उसके समय में कुछ सामान्य नागरिक असंतुष्ट होंगे तो तो कुछ संतुष्ट भी रहेंगे। कहने का मतलब यह कि वह एक तानाशाह पर उसके समय में जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग शांति से रह रहा था। सभी गरीब नहीं थे और न ही सभी अमीर रहे होंगे। इधर हम दुनियां के अमीर देशों में शुमार किये जाने वाले जापान को देखते हैं जहां लोकतंत्र है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां की सारी जनता अपनी व्यवस्था से खुश होगी। वहां भी अमीर और गरीब होंगे।
किसी राज्य में प्रजाजनों में सभी अमीर होंगे तो भी सभी संतुष्ट नहीं होंगे सभी गरीब होंगे तो सभी असंतुष्ट भी नहीं होंगे। कहने का मतलब यही है कि राज्य की व्यवस्था तानाशाही वाली है या प्रजातंात्रिक, आम आदमी को मतलब केवल अपने शांतिपूर्ण जीवन से है। अधिकतर लोग अपनी रोजी रोटी के साथ ही अपने सामाजिक जीवन में दायित्व निर्वाह के साथ ही धाार्मिक, जातीय, भाषाई तथा क्षेत्रीय समाजों द्वारा निर्मित पर्वों को मनाकर अपना जीवन अपनी खुशी और गमों के साथ जीते हैं। अलबत्ता पहले अखबार और रेडियो में समाचार और चर्चाओं से सामान्य लोगों को राजनीतिक दृष्टि विकसित होती थी । अब उनके साथ टीवी और इंटरनेट भी जुड़ गया है। लोग अपने मनपसंद विषयों की सामग्री पढ़ते, देखते और सुनते है और इनमें कुछ लोग भूल जाते हैं तो कुछ थोड़ी देर के लिये चिंतन करते है जो कि उनका एक तरह से बुद्धि विलास है। सामान्य आदमी के पास दूसरे की सुनने और अपनी कहने के अलावा कोई दूसरा न तो उपाय होता है न सक्रिय येागदान की इच्छा। ऐसे में जो खाली पीली बैठे बुद्धिजीवी हैं जो अपना समय पास करने के लिये सभाओं और समाचारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जिनके साथ अब टीवी चैनल भी जुड़ गये हैं। इनकी बहसों पेशेवर बौद्धिक चिंतक भाग लेते हैं। ऐसा नहीं है कि चिंतक केवल वही होते हैं जो सार्वजनिक रूप से आते हैं बल्कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चिंतन की अभिव्यक्ति केवल अपने व्यक्ति गत चर्चाओं तक ही सीमित रखते हैं।
ऐसे जो गैर पेशेवर बुद्धिजीवी हैं उनके लिये अपना चिंतन अधिक विस्तार नहीं पाता पर पेशेवर बुद्धिजीवी अपनी चर्चा को अधिक मुखर बनाते हैं ताकि प्रचार माध्यमों में उनका अस्तित्व बना रहे। कहते हैं कि राजनीति, पत्रकारिता तथा वकालत का पेशा अनिश्चिताओ से भरा पड़ा है इसलिये इसमें निरंतर सक्रियता रहना जरूरी है अगर कहीं प्रदर्शन में अंतराल आ गया तो फिर वापसी बहुत मुश्किल हो जाती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पत्रकारिता-समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो- में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के लिये पेशेवर बौद्धिक चिंतक निरंतर सक्रिय रहते हैं। यह सक्रियता इतनी नियमित होती है कि उनके विचार और अभिव्यक्ति का एक प्रारूप बन जाता है जिसके आगे उनके लिये जाना कठिन होता है और वह नये प्रयोग या नये विचार से परे हो जाते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के बौद्धिक चिंतक जिस विषय का निर्माण करते हैं उस पर दशकों तक बहस चलती है फिर उन्हें स्वामित्व में रखने वाले राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष अपना नाम निरंतर चर्चा में देख प्रसन्न भी होते हैं। इधर अब यह भी बात समाचार पत्र पत्रिकाओं में आने लगी है कि इन्हीं बौद्धिक चिंतकों के सामाजिक, आर्थिक शिखर पुरुषों से इतने निकट संबंध भी होते हैं कि वह अपनी व्यवसायिक, राजनीतिक तथा अन्य गतिविधियों के लिये उनसे सलाह भी लेते हैं-यह अलग बात है कि इसका पता वर्षों बाद स्वयं उनके द्वारा बताये जाने पर लगता है। यही कारण है कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव की बात तो सभी करते हैं पर जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके पास कोई चिंतन नहीं है और उनके आत्मीय बौद्धिक लोगों के पास चिंतन तो है पर उसमें बदलाव का विचार नहीं है। बदलाव लाने के लिये सभी तत्पर हैं पर स्वयं कोई नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे उसमें अपने अस्तित्व बने रहने की गुंजायश नहीं दिखती।
लार्ड मैकाले वाकई एतिहासिक पुरुष है। उसने आज की गुलाम शिक्षा पद्धति का अविष्कार भारत पर अपने देश का शासन हमेशा बनाये रखने के लिये किया था पर उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके शासक यह देश छोड़ जायेंगे तब भी उनका अभौतिक अस्तित्व यहां बना रहेगा। इस शिक्षा पद्धति में नये चिंतन का अभाव रहता है। अगर आपको कोई विचार करना है तो उसके लिये आपके सामने अन्य देशों की व्यवस्था के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे या फिर विदेशी विद्वानों का ज्ञान आपके सामने रखा जायेगा। भारतीय सामाजिक सदंर्भों में सोचने की शक्ति बहुत कम लोगों के पास है-जो कम से कम देश में सक्रिय पेशेवर बुद्धिजीवियों के पास तो कतई नहीं लगती है।
इसका कारण यही है कि संगठित प्रचार माध्यमों-प्रकाशन संस्थान, टीवी चैनल और रेडियो-पर अभिव्यक्ति में भी एक तरह से जड़वाद हावी हो गया है। आपके पास कोई बड़ा पद, व्यवसाय या प्रतिष्ठा का शिखर नहीं है तो आप कितना भी अच्छा सोचते हैं पर आपके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा जितना पेशेवर बौद्धिक चिंतकों को दिया जाता है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं तो क्या आपक पत्र संपादक के नाम पत्र में छपेगा न कि किसी नियमित स्तंभ में। कई बार टीवी और रेडियो पर जब सम सामयिक विषयों पर चर्चा सुनते हैं तो लोग संबंधित पक्षों पर आक्षेप, प्रशंसा या तटस्थता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी घटना में सामान्य मनुष्य की प्रकृतियों और उसके कार्यों के परिणाम के कारण क्या हैं इस पर कोई जानकारी नहीं देता। एक बात याद रखना चाहिये कि एक घटना अगर आज हुई है तो वैसी ही दूसरी भी कहीं होगी। उससे पहले भी कितनी हो चुकी होंगी। ऐसे में कई बार ऐसा लगता है कि यह विचार या शब्द तो पहले भी सुने चुके हैं। बस पात्र बदल गये। ऐसी घटनाओं पर पेशेवर ंिचंतकोें की बातें केवल दोहराव भर होती है। तब लगता है कि चितकों के शब्द वैसे ही हैं जैसे पहले कहे गये थे।
चिंताओं की अभिव्यक्ति को चिंतन कह देना अपने आप में ही अजीब बात है। उनके निराकरण के लिये दूरगामी कदम उठाने का कोई ठोस सुझाव न हो तो फिर किसी के विचार को चिंतन कैसे कहा जा सकता है। यही कारण है कि आजकल जिसे देखो चिंता सभी कर रहे हैं। सभी को उम्मीद है कि समाज में बदलाव आयेगा पर यह चिंतन नहीं है। जो बदलाव आ रहे हैं वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से हैं न कि किसी मानवीय या राजकीय प्रयास से। हालांकि यह लेखक इस बात से प्रसन्न है कि अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिखर पर कुछ ऐसे लोग सक्रिय हैं जो शांति से काम करते हुए अभिव्यक्त हो रहे हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। फिर मुश्किल यह है कि बौद्धिक चिंतकों का भी अपना महत्व है जो प्रचार माध्यमों पर अपनी ढपली और अपना राग अलापते हैं। फिर आजकल यह देखा जा रहा है कि प्रचार माध्यमों में दबाव में कार्यकारी संस्थाओं पर भी पड़ने लगा है।
आखिरी बात यह है कि देश के तमाम बुद्धिजीवी समाज में राज्य के माध्यमों से बदलाव चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है राज्य का समाज में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिये। समाज के सामान्य लोगों को बुद्धिहीन, आदर्शहीन तथा अकर्मण्य मानकर चलना अहंकार का प्रमाण है। एक बात तय रही कि दुनियां में सभी अमीर, दानी ओर भले नहीं हो सकते। इसके विपरीत सभी खराब भी नहीं हो सकते। राजनीतिक, आर्थिक, और सामजिक शिखर पर बैठे लोग भी सभी के भाग्यविधाता नहीं बल्कि मनुष्य को निचले स्तर पर सहयेाग मिलता है जिसकी वजह वह चल पाता है। इसलिये देश के बुद्धिजीवी अपने विचारों में बदलाव लायें और समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो इसके लिये चिंतन करें-कम से कम जिन सामाजिक गतिविधियों में दोष है पर किसी दूसरे पर इसका बुरा प्रभाव नहीं है तो उसे राज्य द्वारा रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यंगकार स्वर्गीय शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में बरसों पहले लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरतस नहीं है। जो लोग यह काम करते हैं उनके पास लूटमार करने के लिये बहुत अमीर और बड़े लोग मौजूद हैं ऐसे में हम पर वह क्यों दृष्टिपात करेंगे।’ कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी इसलिये जिंदा है क्योंकि सभी आपस में मिलजुलकर चलते हैं न कि राज्य द्वारा उनको कोई प्रत्यक्ष मदद दी जाती है। ऐसे में समाज सहजता से चले और उसमें आपसी पारिवारिक मुद्दों पर कानून न हो तो ही अच्छा रहेगा क्योंकि देखा यह गया है कि उनके दुरुपयोग से आपस वैमनस्य बढ़ता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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वह डंडा लेकर उस मैदान में लड़ने पहुंचे। यह मैदान ‘धर्मकुश्ती’ के लिये विख्यात था। मैदान के मध्य में उन दोनों ने अपने अपने धर्म का नाम लेकर लड़ाई शुरु की। पहले एक दूसरे पर डंडे से प्रहार करते-साथ में अपने धर्म की जय भी बोलते जाते। डंडे से डंडे टकराते। वह उनको चलाते चलाते थक गये तब वह डंडे फैंककर दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। एक दूसरे पर घूंसे बरसाते जाते। काफी जमकर कुश्ती हुई। मगर कोई नहीं जीता। वह थककर वहीं बैठ गये। उनके हाथ पांव में घावों से रक्त भी बहता आ रहा था।
उनको प्यास लगी। वहीं से कुछ दूर मैदान के किनारे बने चबूतरे पर एक ज्ञानी भी बैठा था जिसके साथ पानी पिलाने वाला एक शिष्य था। अपने उसी शिष्य से उस ज्ञानी से कहा कि‘जाओ उनको पानी पिलाओ। अब वह थककर चूर होकर बैठे हैं।
वह पानी लेकर उनके पास पहुंचा और दोनों को ग्लास भरकर देने लगा। धर्मयोद्धाओं में से एक ने उससे पूछा-‘तुझे कैसे मालुम कि हमें पानी की प्यास लगी है।’
उस शिष्य ने कहा-‘यह मैदान धर्मकुश्ती के लिये विख्यात है। यहां आप जैसे अनेक लोग आते हैं। हमारे ज्ञानी जी यहां रोज आकर बैठते हैं क्योंकि उनको मालुम है कि यहां आकर धर्म कुश्ती करने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा पर प्यास तो योद्धाओं उनको लगेगी। वह परेशान न हों इसलिये मुझे भी साथ रखते हैं ताकि उनको पानी दे सकूं।’
दूसरे ने पूछा-‘तेरा धर्म क्या है?’
शिष्य ने जवाब दिया-‘पानी पिलाना।’
पहले ने कहा-‘यह भी कोई धर्म है?’
शिष्य ने कहा-‘हमारे गुरुजी कहते हैं कि आज के अक्षरज्ञानी विद्वानों ने कुश्ती प्रदर्शन के लिये धर्मों का नाम रख लिया है। मनुष्य का आचरण, व्यवहार, कर्म तथा विचार से ही पता लगता है कि वह धर्मी है या अधर्मी।
पहले धर्म के नाम पर बांटकर लोगों पहले राज्य किया जाता है आज व्यापार भी किया जाता है। आप यहां कुश्ती करने आये कल यह खबर सभी जगह चमकेगी तो बताओ खबरफरोशों का धंधा हुआ कि नहीं।’
उन दोनों ने पानी पिया और सुस्ताने लगे। उसी समय एक आदमी आया और बोला-‘शांति रखो! शांति रखो। सभी धर्म एक समान है। सभी धर्म शांति, अहिंसा और प्रेम का संदेश देते हैं।’
इससे पहले वह महायोद्धा कुछ कहते वह चला गया। इस तरह चार लोग शांति संदेश देकर चले गये। एक महायोद्धा ने शिष्य से पूछा-‘यह लोग कौन हैं?’
शिष्य ने कहा-‘‘ इनके नाम भी कल अपनी खबर के साथ देख लेना। यह पंच लोग हैं जो इस बात का इंतजार करते हैं कि कब यहां कुश्ती हो और शांति संदेश सुनाने पहुंच जायें। यह शांति सन्देश देकर अपना धर्म निभाते हैं। वैसे यह भी लोग नहीं जानते कि धर्म क्या है?’
दूसरे महायोद्धा ने कहा-‘पर इनका शांति संदेश तो ठीक लगता है। तुम्हारे गुरु जी किस धर्म को मानते हैं’।’
शिष्य ने कहा-‘वह ज्ञानी हैं और वह कहते हैं कि हमारे महापुरुषों तो अच्छे आचरण, व्यवहार, कर्म तथा सुविचार को ही धर्म मानते हैं और इसके विपरीत अधर्म। मेरा धर्म है प्यासे को पानी पिलाना और उनका धर्म है ज्ञान देना।’
एक महायोद्धा ने कहा-‘हम उनसे ज्ञान लेना चाहते हैं।’
शिष्य ने कहा-‘यह उनका ज्ञान देने का समय नहीं है। वह तो यहां इसलिये आते हैं ताकि ऐसी कुश्तियों से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें। यहां आकर योद्धा आपस में मूंहवाद भी करते हैं। अपने अपने तर्क देते हैं उन्हें सुनकर वह अपना मंतव्य निर्धारित करते हैं। अब आप बाहर जाकर अपने जख्मों का इलाज कराओ। वहां भी एक चिकित्सक हैं जो सेवा भाव से धर्म कुश्ती में घायल होने वालों का इलाज करते हैं।’
वह दोनों लड़खड़ाते हुए बाहर चल दिये। चलते चलते भी दोनों एक दूसरे को गालियां देते रहे।
इधर यह शिष्य अपने गुरू के पास लौटा। गुरू ने उससे पूछा-‘उनको ठीक ढंग से पानी पिलाये आये?’
‘हां, गुरुजी, मैंने अपना धर्म निभा दिया।’शिष्य ने कहा।
गुरुजी अपने ध्यान में लीन हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली तो इधर अचानक शिष्य की नजर उन दो डंडों पर पड़ी जो दोनों योद्धा उस मैदान में छोड़ गये थे। वह बोला-‘गुरूजी! उनके डंडे छूट गये हैं। वह ले जाकर उनको वापस कर आता हूं। वह जरूर उसी डाक्टर के पास होंगे।’
गुरुजी ने कहा-‘रहने दे! डंडे अब उनके किसी काम के नहीं है। वह दोनों शांत हो गये हैं। अगर डंडा हाथ में लेंगे तो कहीं उनकी आग फिर भड़क उठी तो गलत होगा। तेरा काम पानी पिलाना है न कि आग लगाना।’
शिष्य ने कहा-‘नहीं गुरुजी, आपने कहा है कि हर किसी की मदद करना चाहिये। इन डंडों को वापस करना अच्छा होगा।’
इससे पहले गुरुजी कुछ समझाते वह भाग कर चला गया। कुछ देर बाद शिष्य लौटा तो उसके बदन पर भी पट्टी बंधी हुई थी। गुरुजी के कारण पूछने पर वह बोला-‘वह दोनों अपने जख्मों पर पट्टी बंधवा चुके थे। जब मैंने जाकर उनको डंडे दिये तो दोनों ने यह कहते हुए मुझ पर डंडे बरसाये कि तू हमारी इजाजत के बगैर हमारी कुश्ती देख कैसे रहा था?’
गुरुजी ने कहा-‘मैंने तुझसे कहा था कि तेरा धर्म पानी पिलाना पर तू आग लगाने पहुंच गया। यह धर्म परिवर्तन करना ही तेरे लिये घातक रहा। तेरे संस्कारों में डंडा चलाना नहीं लिखा तो तू चला भी नहीं सकता। इसलिये उसे हाथ लगाना भी तेरे लिये अपराध है। फिर तू उन लोगों की संगत करने गया जिनके संस्कार तेरे ठीक विपरीत हैं। तू धर्म ईमानदारी से निभाता है उन धर्मकुश्ती करने वाले योद्धाओं से पानी पिलाने तक ही तेरा संबंध ठीक था। इससे आगे तो यही होना था।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’
सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।
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होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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लोगों में सोच जगाने के लिये चला रहे सभी अभियान।
किताबों के गुलाम मिटाने निकले हैं गुलामी के निशान।।
नारी स्वतंत्रता का नारा लगाते हुए वह मुस्कराते हैं
गृहस्थी में पुरुष को बैल बनाने में ही देखते नारी की शान।।
पूरी जिंदगी दिखाया समाज को उन्होंने नया रास्ता
अपनी सोच से पैदल रहे,पराये ख्याल पर पाया सम्मान।।
मसीहा बनने की चाहत में ओढ़ लिया अपने आगे अंधेरा
अमन में इधर उधर ढूंढते हैं, जमाने में जंग के पैगाम।।
काट कर लोगों को कर दिया पहले अलग अलग
फिर मांगने निकले है लोगों से एकता का दान।।
कहैं दीपक बापू, बड़े बन गये कई छोटी सोच के कई लोग
चेहरे उनके पर्दे पर चमकते दिखते, पर डोलता लगता ईमान।।
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सप्ताह में सात दिन और दिन में 24 धंटे पर मंगलवार का सुबह 11.45 मिनट का समय सभी लोगों के लिये भारी होता है-जी नहीं! यह खबर किसी भारतीय ज्योतिषवेता की नहीं बल्कि पश्चिम के शोधकर्ताओं की है। इसे शिरोधार्य करना चाहिये क्योंकि वह तमाम तरह के प्रयोग करते हैं और किसी ज्योतिष गणना का सहारा नहीं लेते। अगर कोई भारतीय विशेषज्ञ ज्योतिषी कहता तो शायद लोग उसका मखौल उड़ाते।
वैसे भारतीय ज्योतिष में भी मंगल को एक तरह से भारी ग्रह माना जाता है और जिसकी राशि का स्वामी होता है उसके लिये जीवन साथी भी वैसा ही ढूंढना पड़ता है। लड़के और लड़की की जाति बंधन के साथ आजकल ग्रह बंधन भी हो गया है। इस देश में दो प्रकार के अविवाहित युवक युवतियां होती हैं-एक जो मांगलिक हैं दूसरे जो नहीं है। हम अब यह तो कतई नहीं कह सकते कि एक मांगलिक दूसरे अमांगलिक क्योंकि इससे अर्थ का अनर्थ हो जायेगा।
अनेक बार लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देते हुए कहते हैं कि ‘तुम्हारा मंगल हो‘, ‘तुम्हारा पूरा दिन मंगलमय हो’ या ‘तुम्हारा अगला वर्ष मंगलमय हो‘। इसके बावजूद भारतीय ज्योतिष में मंगल ग्रह एक भारी ग्रह माना जाता है।
अपने यहां एक कहावत भी है कि ‘मंगल को होये दिवारी, हंसे किसान रोये व्यापारी‘। वैसे मंगल कामनायें कृषि के लिये नहीं बल्कि व्यापार में अधिक दी जाती हैं। कृषि के लिये तो सारे दिन एक जैसे हैं। अपने यहां पहले मंगलवार को ही व्यापार में अवकाश रखने का प्रावधान अधिक था। समय के साथ अब लोग रविवार को भी अवकाश रखने लगे।
शोधकर्ताओं ने मंगल 11.45 मिनट का समय इसलिये भारी बताया है कि शनिवार और रविवार के अवकाश-जी हां, वहां दो दिन का अवकाश ही रखा जाता है-के बाद आदमी सोमवार को अलसाया हुआ रहता है और पूरा दिन ऐसे ही निकाल देता है। मंगलवार को काम के मूड में सुबह वह काम पर आता है तो उसे पता लगता है कि उसके सामने तो काम बोझ रखा हुआ है। सुबह काम शुरु करने के बाद यह सोच 11.45 मिनट के आसपास उसके दिमाग में आता है। शोधकर्ताओं ने पांच हजार कर्मचारियों पर यह शोध किया।
वैसे नहीं मानने वाले अब भी यह नहीं मानेंगे कि भारतीय ज्योतिष ग्रहों के मनुष्य के दिमाग पर परिणाम की जो व्याख्या करता है वह सच है। वैसे देखा जाये तो सुबह उठकर जब यह याद आता है कि आज अवकाश का दिन है तो आदमी के दिमाग में एक स्वतः तरोताजगी आती है इसका किसी वार से कोई संबंध नहीं है। उसी तरह जब सुबह यह याद आता है कि आज काम पर जाना है तब तनाव भी स्वाभाविक रूप से आता है।
भारतीय ज्योतिष को लेकर अनेक तरह के विवाद हैं। दो ज्योतिषी एक मत नहीं होते। इसके अलावा एक बात जो स्पष्ट नहीं होती कि ज्योतिष और खगोलशास्त्र में क्या अंतर है? खगेालशास्त्र में ग्रहों की गति के आधार पर समय और अन्य गणनायें की जाती हैं। भारतीय खगोलशास्त्र कितना संपन्न है कि उनकी गणना के अनुसार सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण उसी समय पर आते हैं जब पश्चिम के वैज्ञानिक बताते हैं। भारतीय खगोलशास्त्रियेां की उनकी कई ऐसी गणनायें और खोज हैं जिनकी पश्चिम के वैज्ञानिक अब प्रमाणिक पुष्टि करते हैं। बुध,शुक्र,शनि,मंगल,गुरु तथा अन्य ग्रहों के बारे में भारतीय खगोलशास्त्री बहुत पहले से जानते हैं। भारत में सात वार है और पश्चिम में भी-इससे यह तो प्रमाणित होता कि कहीं न कहीं हमारे खगोलशास्त्री विश्व के अन्य देशों से आगे थे। संभवतः ज्योतिष विद्या उन ग्रहों की स्थिति के ह आधार पर मनुष्य और धरती पर पड़ने वाले प्रभावों की व्याख्या करने वाली विद्या मानी जा सकती है।
चंद्रमा हमारे सबसे निकट एक ग्रह है इसलिये उसके प्रभाव की अनुभूति तत्काल की जा सकती है। गर्मी में जब सूर्यनारायण दिन भर झुलसा देते हैं तब रात को आकाश में चंद्रमा आंखों मेें जो ठंडक देता है उसे हम उसे शीघ्र अनुभव करते हैं। अन्य ग्रह कुछ अधिक दूर है इसलिये उनके प्रभावों का एकदम पता नहीं चलता-उनका प्रभाव होता है यह तो हम मानते हैं।
समस्या इस बात की है कि ज्योतिष के नाम पर ढोंग और पाखंड अधिक हो गया है। कुछ कथित ज्योतिषी अपने पैसे कमाने के लिये तमाम तरह के ऐसे हथकंडे अपनाते हैं जिससे समाज में ज्योतिष विद्या की छबि खराब होती है। वैसे इन ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचने का एक ही उपाय है परमात्मा की सच्चे मन से भक्ति और निष्काम भाव से अपना कर्म करते रहना। अगर आदमी निष्काम भाव से रहे तो फिर उसके लिये अच्छा क्या? बुरा क्या? अपना क्या? पराया क्या?
योग साधन, ध्यान, मंत्र जाप और प्रार्थना से मनुष्य को अपनी देह में ही ऐसी शक्तियों का आभास होता है जो उसका बिगड़ता काम बना देती है। लक्ष्य उनके कदम चूमता है। हां, सकाम रूप से भक्ति और अन्य कार्य करने वालों की ही ज्योतिष की सहायता की आवश्यकता होती है। बहरहाल यह कहना कठिन है कि इस देश में कितने ज्योतिष ज्ञानी है और कितने अल्पज्ञानी। अलबत्ता धंधा केवल वही कर पाते हैं जिनके पास व्यवसायिक चालाकियां होती हैं।
इन ज्योतिष ज्ञानियों द्वारा दी गयी जानकारियों में विरोधाभास अक्सर देखने को मिलता है। इंटरनेट पर इसका एक रोचक अनुभव हुआ। एक महिला ज्योतिष विद् ने इस लेखक के ब्लाग/पत्रिका पर टिप्पणी की। वह ज्योतिष के नाम पर होने वाले पाखंड के विरुद्ध अभियान शुरु किये हुए हैं-उन्होंने अपनी प्रकाशित एक किताब की जानकारी भी भेजी। उन्होंने अध्यात्म ब्लाग पर लिखने के लिये इस लेखक की प्रशंसा करते हुए अपने अभियान में समर्थन का आश्वासन मांगा। मुझे बहुत खुशी हुई। लेखक ने जवाब में समर्थन के आश्वासन के साथ अंतर्जाल पर सक्रिय एक अन्य ज्योतिषी के ब्लाग का पता भी दिया और साथ में यह राय भी कि आप उनका ब्लाग देखकर उनसे भी इस मामले में सहायता मांगे। लौटती डाक से जवाब आया कि ‘वह उन ज्योतिषी की गणनाओं से सहमत नहीं है।’
तब यह देखकर हैरानी हुई कि दो ज्योतिष विशारद आखिर क्यों आपस में इस तरह असहमत होते हैं? हम तो इस मामले में पैदल हैं इसलिये कहते हैं कि यह भी सही और वह भी सही मगर जब जानकार लोग इस तरह भ्रम पैदा करें तो…………..शायद यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष विश्व में कभी वह स्थान प्राप्त नहीं कर पाया जिसकी अपेक्षा की जाती रही है। हां , उपरोक्त शोध से एक बात तो सिद्ध हो गयी कि भारतीय ज्योतिष का भी कोई न कोई तार्किक आधार होगा तभी इतने लंबे समय से वहा प्रचलन में है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अध्यात्मिक ज्ञान का एक भाग ज्योतिष ज्ञान भी माना जाता है। पश्चिम के वैज्ञानिकों के शोध के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि ‘भारतीय ज्योतिष की जय हो’
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उन्होंने जैसे ही दोपहर में बजट देखने के लिये टीवी खोला वैसे ही पत्नी बोली-‘सुनते हो जी! कल तुमने दो हजार रुपये दिये थे सभी खर्च हो गये। अब कुछ पैसे और दो क्योंकि अभी डिस्क कनेक्शन वाला आने वाला होगा। कुछ देर पहले आया तो मैंने कहा कि बाद में आना।’
उन्होंने कहा-‘अरे, अब तो बैंक से पैसे निकालने पड़ेंगे। अभी तो मेरी जेब में पैसा नहीं है। अभी तो टीवी परबजट सुन लूं।’
पत्नी ने कहा-‘इस बजट की बजाय तुम अपने घर का ख्याल करो। अभी डिस्क कनेक्शन वाले के साथ धोबी भी आने वाला है। मुन्ना के स्कूल जाकर फीस जमा भी करनी है। आज आखिरी तारीख है।’
वह टीवी बंदकर बाहर निकल पड़े। सोचा पान वाले के यहां टीवी चल रहा है तो वहां पहुंच गये। दूसरे लोग भी जमा थे। पान वाले ने कहा-‘बाबूजी इस बार आपका उधार नहीं आया। क्या बात है?’
उन्होंने कहा-‘दे दूंगा। अभी जरा बजट तो सुन लूं। घर पर लाईट नहीं थी। अपना पर्स वहीं छोड़ आया।’
उनकी बात सुनते ही पान वाला खी खी कर हंस पड़ा-‘बाबूजी, आप हमारे बजट की भी ध्यान रखा करो।’
दूसरे लोग भी उनकी तरफ घूरकर देखने लगे जैसे कि वह कोई अजूबा हों।
वह अपना अपमान नही सह सके और यह कहकर चल दिये कि‘-अभी पर्स लाकर तुमको पैसा देता हूं।’
वहां से चले तो किराने वाले के यहां भी टीवी चल रहा था। वह वहां पहुंचे तो उनको देखते ही बोला-‘बाबूजी, अच्छा हुआ आप आ गये। मुझे पैसे की जरूरत थी अभी थोक दुकान वाला अपने सामान का पैसा लेने आता होगा। आप चुका दें तो बड़ा अहसान होगा।’
उन्होंने कहा-‘अभी तो पैसे नहीं लाया। बजट सुनकर चला जाऊंगा।’
किराने वाले ने कहा-‘बाबूजी अभी तो टीवी पर बजट आने में टाईम है। अभी घर जाकर ले आईये तो मेरा काम बन जायेगा।’
वहां भी दूसरे लोग खड़े थे। इसलिये तत्काल ‘अभी लाया’ कहकर वह वहां से खिसक लिये।
फिर वह चाय के होटल की दुकान पर पहुंचे। वहां चाय वाला बोला-‘बाबूजी, क्या बात इतने दिन बाद आये। न आपने चाय पी न पुराना पैसा दिया। कहीं बाहर गये थे क्या?’
दरअसल अब उसकी चाय में मजा नहीं आ रहा था इसलिये उन्होंने दो महीने से उसके यहां चाय पीना बंद कर दिया था। फिर इधर डाक्टर ने भी अधिक चाय पीने से मना कर दिया था। चाय पीना बंद की तो पैसा देना भी भूल गये।
वह बोले-यार, अभी तो पैसा नहीं लाया। हां, बजट सुनकर वापस घर जाकर पर्स लेकर तुम्हारा पैसा दे जाऊंगा।’
चाय वाला खी खी कर हंस पड़ा। एक अन्य सज्जन भी वहां बजट सुनने वहां बैठे थे उन्होंने कहा-‘आईये बैठ जाईये। जनाब! पुराना शौक इसलिये छूटता नहीं इसलिये बजट सुनने के लिये घर से बाहर ही आना पड़ता है। घर पर बैठो तो वहां इस बजट की बजाय घर के बजट को सुनना पड़ता है।’
यह कटु सत्य था जो कि सभी के लिये असहनीय होता है। अब तो उनका बजट सुनने का शौक हवा हो गया था। वह वहां से ‘अभी लाया’ कहकर निकल पड़े। जब तक बजट टीवी पर चलता रहा वह सड़क पर घूमते रहे और भी यह बजट तो कभी वह बजट उनके दिमाग में घूमता रहा।
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भूख भला कभी किसी की मिटी है-हिंदी शायरी (hindi shayri)
गरीब के घर पैदा होने पर
आयु पूरी होने से पहले मर नहीं जाते।
अमीर घर में लेकर जन्म
कोई सोने की रोटी नहीं खाते।
लेकर बड़े घरों से उधर का नजरिया
देख रहे हैं इस रंग बिरंगी दुनियां को
फिर कमजोर की शिकायत क्यों करने आते।
कपड़े मैले हो सकते हैं
हाथ में पकड़े थैले फटे हो सकते हैं
जरूरतों जितना सामान हो तो ठीक
सामान जितनी जरूरतें क्यों नहीं रख पाते।
अपनी झौंपड़ी मे रहते हुए
महलों के सुख यूं ही बड़े नजर आते।
गलतफहमियों में जिंदगी अमीर की भी रहती
गरीब भी कोई सच्चाई के साथ नहीं आते।
भूख भला कभी किसी की मिटी है
जो उसे मिटाने के सपने दिखाये जाते
जिसमें गरीब भी बह जाते।
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नारी स्वतंत्रता समिति की बैठक आनन फानन में बुलाई गयी। अध्यक्षा का फोन मिलते ही कार्यसमिति की चारों सदस्य उनके घर बैठक करने पहुंच गयी। चारों को देखकर अध्यक्षा बहुत खुश हो गयी और बोली-‘इसे कहते हैं सक्रिय समाज सेवा! एक फोन पर ही कार्यसमिति की चारों सदस्यायें पहुंच गयी।’
एक ने कहा-‘क्या बात है? आपने अचानक यह बैठक कैसे बुलाई। मैं तो आटा गूंथ रही थी। जैसे ही आपका मोबाइल पर संदेश मिला चली आयी। जब से इस समिति की कार्यसमिति मैं आयी हूं तब से हमेशा ही बैठक में आने को तैयार रहती हूं। बताईये काम क्या है?’
अध्यक्षा ने कहा-‘हां आपकी प्रतिबद्धता तो दिख रही है। आपने अपने हाथ तक नहीं धोये। आटे से सने हुए हैं, पर कोई बात नहीं। दरअसल आज मुझे इंटरनेट पर पता लगा कि आज ‘पितृ दिवस’ है। इसलिये सोचा क्यों न आज पुरुषों के लिये कोई सहानुभूति वाला प्रस्ताव पास किया जाये।’
यह सुनते ही दूसरी महिला नाराज हो गयी और वह अपने हाथ में पकड़ा हुआ बेलन लहराते हुए बोली-‘कर लो बात! पिछले पांच साल से पुरुष प्रधान समाज के विरुद्ध कितने मोर्चे निकलवाये। बयान दिलवाये। अब यह सफेद झंडा किसलिये दिखायें। इससे तो हमारी समिति का पूरा एजेंडा बदल जायेगा। आपकी संगत करते हुए इतना तो अहसास हो गया है कि जो संगठन अपने मूल मुद्दे से हट जाता है उसकी फिल्म ही पिट जाती है।’
अध्यक्षा ने उससे पूछा-‘क्या तुम रोटी बेलने की तैयारी कर रही थी।’
उसने कहा -‘हां, पर आप चिंता मत करिये यह बेलन आपको मारने वाली नहीं हूं। इसके टूटने का खतरा है। कल ही अपने पड़ौसी के लड़के चिंटू की बाल छत पर आयी मैंने उस गेंद को गुस्से में दूर उड़ाने के लिये बेलन मारा तो वह टूट गया। अब यह पुराना अकेला बेलन है जो मैं आपको मारकर उसके टूटने का जोखिम नहीं उठा सकती। वैसे आपके प्रस्ताव पर मुझे गुस्सा तो खूब आ रहा है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘देखो! जरा विचार करो। आजकल वह समय नहीं है कि रूढ़ता से काम चले। अपनी समिति के लिये चंदा अब कम होता जा रहा है इसलिये कुछ धनीमानी लोगों को अपने ‘स्त्री पुरुष समान भाव’ से प्रभावित करना है। फिर 364 दिन तो हम पुरुषों पर बरसते हैं। यहां तक वैलंटाईन डे और मित्र दिवस जो कि उनके बिना नहीं मनते तब भी उन्हीं पर निशाना साधते हैं। एक दिन उनको दे दिया तो क्या बात है? मुद्दों के साथ अपने आर्थिक हित भी देखने पड़ते हैं। अच्छा तुम बताओ? क्या तुम अपने बच्चों के पिता से प्यार नहीं करती?’
तीसरी महिला-जो फोन के वक्त अपने बेटे की निकर पर प्र्रेस कर रही थी-उसे लहराते हुए बोली-‘बिल्कुल नहीं! आपने समझाया है न! प्यार दिखाना पर करना नहीं। बस! प्यार का दिखावा करती हैं। वैसे यह निकर सफेद है पर हमसे यह आशा मत करिये कि ‘पितृ दिवस’ पर इसे फहरा दूंगी। पहले तो यह बताईये कि इस पितृ दिवस पर पुरुषों के लिए हमदर्दी वाला प्रस्ताव पास करने का विचार यह आपके दिमाग में आया कैसे?’
अध्यक्षा ने कहा-‘ पहली बात तो यह है कि तुम मेरे सामने ही मेरे संदेश को उल्टा किये दे रही हो। मैंने कहा है कि अपने बच्चों के पिता से प्यार करो पर दिखाओ नहीं। दूसरी बात यह कि आजकल हमारी गुरुमाता इंटरनेट पर भी अपने विचार लिखती हैं। उन्होंने ही आज उस पर लिखा था ‘पितृ दिवस पर सभी पुरुषों के साथ हमदर्दी’। सो मैंने भी विचार किया कि आज हम एक प्रस्ताव पास करेंगे।’
चौथी महिला चीख पड़ी। उसके हाथ मे कलम और पेन थी वह गुस्सा होते हुए बोली-‘आज आप यह क्या बात कर रही हैं। आपकी बताई राह पर चलते हुए मैंने एक वकील साहब के यहां इसलिये नौकरी की ताकि उनके सहारे अपने आसपास पीड़ित महिलाओं की कानूनी सहायता कर सकूं। देखिये यह एक पति के खिलाफ नोटिस बना रही थी।’
अध्यक्षा ने एकदम चौंकते हुए कहा-‘अरे, क्या बात कर रही हो। पति तो एक ही होता है? उसे नोटिस क्यों थमा रही हो? मेरे हिसाब से तुम्हारा पति गऊ है।’
‘‘उंह…उंह….मैं अपने पति को बहुत प्यार करती हूं पर आपके कहे अनुसार दिखाती नहीं हूं। पर वह गऊ नहीं है। हां, यह नोटिस एक पीड़ित महिला के पति के लिये बना रही हूं।’चौथी महिला ने हंसते हुए कहा-‘खाना बनाते समय कई बार जब मेरे रोटी पकाते वक्त पीछे से बेलन दिखाते है और जब सामने देखती हूं तो रख देते है। मेरे बेटे ने एक बार उनकी अनुपस्थिति में बताया।’
अध्यक्षा ने कहा-‘पहले तो तुम रोटी पकाती थी न?’
चौथी वाली ने कहा-‘आपकी शिष्या बनने के बाद यह काम छोड़ दिया है। मेरे पति सुबह खाना बनाने और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद काम पर जाते हैं और मैं सारा दिन समाज सेवा में आराम से बिताती हूं। आपने जो राह दिखाई उसी पर चलने में आनंद है पर यह आप आज क्या लेकर बैठ गयीं। हमें यह मंजूर नहीं है। अब अगर सफेद झंडे दिखाये तो मुझे रोटी पकानी पड़ेगी। नहीं बाबा! न! आप आज यह भूल जाईये। 364 दिन मुट्ठी कसी रही तो ठीक ही है। एक दिन ढीली कर ली तो फिर अगले 364 दिन तक बंद रखना कठिन होगा।’
अध्यक्षा ने कहा-‘तुम अपने घर पर यह मत बताना।’
पहली वाली ने कहा-‘पर अखबार में तो आप यह सब खबरें छपवा देंगी। हमारे पति लोग पढ़ लेंगे तो सब पोल खुल जायेगी।’
अध्यक्षा ने पूछा-‘कैसी नारी स्वतंत्रता सेनानी हो? क्या पति से छिपकर आती हो?’
दूसरी वाली ने कहा-‘नहीं! उनको पता तो सब है पर अड़ौस पड़ौस में ऐसे बताते हैं कि पतियों से छिपकर बाहर जाते हैं। अरे, भई इसी तरह तो हम बाकी महिलाओं को यह बात कह सकते हैं कि हम कितनी पीड़ित हैं और उनको अपने ही घरों में विद्रोह की प्रेरणा दे सकते हैं। अपना घर तो सलामत ही रखना है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘भई, इसी कारण कह रही हूं कि आज पुरुषों के लिये संवेदना वाला प्रस्ताव करो। ताकि उनमें कुछ लोग हमारी मदद करने को तैयार हो जायें। यह सोचकर कि 364 दिन तो काले झंडे दिखाती हैं कम से कम एक दिन तो है जिस दिन हमारे साथ संवेदनाऐं दिखा रही हैं।’
तीसरी वाली ने अपनी हाथ में पकड़े सफेद नेकर फैंक दी और बोली-‘नहीं, हम आपकी बात से सहमत नहीं हैं।’
चौथी वाली ने कहा-‘आपके कहने पर इतना हो सकता है कि यह नोटिस आज नहीं कल बना दूंगी पर आप मुझसे किसी ऐसे प्रस्ताव पर समर्थन की आशा न करें।’
अध्यक्षा ने कहा-‘अच्छा समर्थन न करो। कम से कम कम एक प्रस्ताव तो लिखकर दो ताकि अखबार में प्रकाशित करने के लिये भेज सकूं। तुम्हें पता है कि मुझे केवल गुस्से में ही लिखना आता है प्रेम से नहीं।’
चौथी वाली महिला तैयार नहीं थी। इसी बातचीत के चलते हुए एक बुजुर्ग आदमी ने अध्यक्षा के घर में प्रवेश किया। वह उसके यहां काम करने वाली लड़की का पिता था। अध्यक्षा ने उसे देखकर अपने यह काम करने वाली लड़की को पुकारा और कहा-‘बेटी जल्दी काम खत्म करो। तुम्हारे पिताजी लेने आये हैं।’
वह लड़की बाहर आयी और बोली-‘मैडम मैंने सारा खत्म कर दिया है। बस, आप चाय की पतीली उतार कर आप स्वयं और इन मेहमानों को भी चाय पिला देना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘बेटी, तुम सभी को चाय पानी पिलाकर आओ। मैं बाहर बैठा इंतजार करता हूं। आधे घंटे में कुछ बिगड़ नहीं जायेगा।’
लड़की ने कहा-‘बापू, आप भी तो मजदूरी कर थक गये होगे। घर देर हो जायेगी।’
लड़की के पिता ने कहा-‘कोई बात नहीं।
वह बाहर चला गया। लड़की चाय लेकर आयी। अध्यक्षा ने कहा-‘तुम एक कप खुद भी ले लो और पिताजी को भी बाहर जाकर दो।’
लड़की ने कहा-‘मैं तो किचन में चाय पीने के बाद कप धोकर ही बाहर जाऊंगी। मेरे बापू शायद ही यहां चाय पियें। इसलिये उनको कहना ठीक नहीं है। वह मुझसे कह चुके हैं कि किसी भी मालिक के घर लेने आंऊ तो मुझे पानी या चाय के लिये मत पूछा करो।’
लड़की और उसके पिताजी चले गये। उस समिति की सबसे तेजतर्रार सदस्या च ौथी महिला ने बहुत धीमी आवाज में अध्यक्षा से कहा-‘आप कागज दीजिये तो उस पर प्रस्ताव लिख दूं।’
फिर वह बुदबुदायी-‘पिता क्या कम तकलीफ उठाता है।’
ऐसा कहकर वह छत की तरफ आंखें कर देखने लगी। तीसरी वाली महिला ने वह सफेद निकर अपने हाथ में ले ली। दूसरी वाली महिला ने अपना बेलन पीछे छिप लिया और पहली वाली ग्लास लेकर अपना हाथ धोने लगी।
नोट-यह एक काल्पनिक व्यंग्य रचना है। इसका किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा। यह लेखक किसी भी नारी स्वतंत्रता समिति का नाम नहीं जानता है न उसकी सदस्या से मिला है।
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कभी कभी यह मन होता है कि किसी ब्लाग लेखक के लिखे पाठ के विषय पर कुछ हम भी लिखें। इसका कारण यह है कि किसी भी विषय के अनेक दृष्टिकोण होते हैं और किसी अन्य लेखक के विषय ने अपने दृष्टिकोण से लिखा होता है तो हमारे मन में यह आता है कि अन्य दृष्टिकोण से उस पर लिखें और इसके लिये अगर उस लेखक की कुछ पंक्तियां अपने पाठ में उद्धृत करें तो अच्छा रहेगा। अंतर्जाल पर लिखते हुए इस मामलें में एक आसानी होती है कि उस लेखक की पंक्तियां कापी कर उसे अपने पाठ पर लिखें ताकि पाठकों को यह पता लगे कि अन्य लेखक ने भी उस पर कुछ लिखा है। इससे दोनों लेखकों का दृष्टिकोण पाठकों के समक्ष आता है।
मगर अब समस्या यह आने लगी है कि दूसरों की देखा देखी हमने भी अपने ब्लाग पर ताला लगा दिया है। इसलिये किसी की शिकायत तो कर ही नहीं सकते क्योंकि अंतर्जाल पर अपने पाठों की चोरी की समस्या से अनेक लेखक परेशान हैं। हमारे लिये कभी अधिक परेशानी नहीं रही क्योंकि हमारा लिखा चुराने लायक हैं यह नहीं लगता पर दूसरों की देखा देखी ताला लगा दिया तो लगा दिया। हम किसी के पाठ की चोरी नहीं करते पर जिसका विषय पसंद आये उस पर लिखते हैं और उस लेखक का उल्लेख करने में हमें कोई झिझक नहीं होती-सोचते हैं हो सकता है कि उसके नाम से हम भी कहीं हिट हो जायें। अब जाकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर ताला भी इसलिये नहीं लगाया कि हमें अपने पाठ के चोरी होने का खतरा है बल्कि पाठकों और मित्रों को लगे कि ऐसा लिखता होगा कि उसे चोरी का खतरा अनुभव होता है।
बात करें ब्लाग/पत्रिका पर ताले के चोरी होने की। यह एक ऐसा साफ्टवेयर है जिसको अपने ब्लाग पर लिंक करने पर उसके पाठ की कोई कापी नहीं कर सकता। हालांकि इसका कोई तोड़ नहीं होगा यह कहना कठिन है क्योंकि अंतर्जाल पर अनेक तकनीकी खिलाड़ी ऐसे हैं जो तालों को तोड़ने वाले हथोड़े या तालियां बनाकर उसे तोड़ भी सकते हैं। वैसे भी मनुष्य में रचनात्मक विचार से अधिक विध्वंस की भावना अधिक होती है। इस ताले की वजह से हमें तीन चार बार स्वयं ही परेशानी झेलनी पड़ी। उस दिन एक मित्र ब्लाग लेखक का पाठ हमें बहुत अच्छा लगा। सोचा चलो कि उसके अंश लेकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर चाप देते हैं और साथ में अपनी बात भी जोड़ लेंगे। जब उसकी कापी करने लगे तो वहां कर्सर काम नहीं कर रहा था। बहुत माथापच्ची की। फिर उनके ब्लाग का मुआयना किया तो देखा कि वहां एक साफ्टवेयर का लिंक है जो इसके लिये इजाजत नहीं देगा हालांकि उसके साथ ताले का लिंक भी था पर हमें वह दिखाई नहीं दिया। मन मारकर हमें अपना इरादा बदलना पड़ा। तब हमने उसी साफ्टवेयर का लिंक अपने ब्लाग पर लगाया। मगर देखा कि अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में हमारे पाठ की कापी कर टिप्पणियां कर रहे हैं। तब हैरानी हुई। हमने सोचा चलने दो। दो तीन दिन पहले एक ब्लाग के ताले पर नजर पड़ी। तब वहां से हमने ताले का साफ्टवेयर लिया और अपने ब्लाग@पत्रिकाओं पर लगा दिया। इस तरह अपना ब्लाग सुरक्षित कर लिया।
किसी ने विरोध नहीं किया पर आज एक ब्लाग से जब पाठ का अंश लेने का विचार आया तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ है। सच बात तो यह है कि यह ताला इसलिये लगाया जाता है कि कोई मेहनत से लिखे गये पाठों से कापी नहीं कर सके मगर मुश्किल इसमें यह आने वाली है कि इससे आपस में एक दूसरे से जुड़े ब्लाग लेखक उन ब्लाग के पाठों की कापी नहीं कर पायेंगे जिन पर ताले लगे हुए हैं और वह उन पर लिखना चाहते हैं। हालांकि इसका एक तरीका यह भी है कि अपने मित्र ब्लाग लेखक को ईमेल कर उस पाठ की कापी मांगी जा सकती है और वह दे भी देंगे पर लिखने का एक मूड और समय होता है। ईमेल भेजने और उत्तर आने के बीच मूड और समय के बदलने की पूरी गुंजायश होती है।
वैसे भी ताले केवल सामान्य इंसान का मार्ग अवरुद्ध करता है। चोर उठाईगीरे और डकैतों के लिये निर्जीव ताले कोई अवरोध नहीं खड़े कर पाते। अंतर्जाल पर जिस तरह की घटनायें सुनने को मिलती हैं उससे तो नहीं लगता कि ताला उनके लिये कोई अवरोध खड़ कर पायेगा। जिस तरह समाज की स्थिति है उससे अंतर्जाल अलग तो हो नहीं सकता। जिस तरह समाज में विध्वसंक और विलासी लोगों के बाहुल्य है वैसी ही हालत इंटरनेट पर भी है। रचनात्मक लोगां की कमी यहां भी है अगर ऐसा नहीं होता तो हिंदी में लिखने वालों की संख्या देश की हिंदी आबादी के हिसाब से इतनी कम नहीं होती। इतने सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं और सर्च इंजिनों पर हिंदी भाषियों की खोज का दृष्टिकोण देखें तो वह फिल्मी अभिनेत्रियों पर केंद्रित है।
भले ही किसी ब्लाग लेखक का पाठ उपयोग न हो पर ताला तोड़कर अपनी तकनीकी शक्ति का प्रदर्शन करने वाले भी यहां आत्मसंतुष्टि के लिये कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ तकनीकी जानकार पढ़ने लिखने की बजाय ब्लाग पर लगा ताला देखकर ही उसका तोड़ निकालने में ही अपना समय नष्ट करें क्योंकि कुछ लोगों को विध्वंस करने में मजा आता है। हम अपने आसपास कई ऐसे लोग देख सकते हैं जो किसी बेहतर चीज को देखकर उससे प्रसन्न होने की बजाय उसके नष्ट होने के उपायों पर विचार करने लगते हैं।
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कहां जाकर दिल बहलायें
सभी जगह दर्द का दरिया बहता पायें
ढूंढते हैं कुछ हंसते हुए चेहरे
और खुश दिल
पर कोई जानता ही नहीं
कैसे जिंदगी को जिया जाता है
सभी को अपने दर्द सहता पायें
जुबानों में ढूंढते हैं अपने लिये प्यार भरे शब्द
पर लोग अपनी दौलत और शौहरत के
ढेर पर बैठकर इतरायें
जो हाल पूछो तो
अपनी तकलीफों का सागर दिखायें
कहीं खामोशी से बैठकर सोचते हैं
तब लगता है कि
भीड़ में कहीं चैन नहीं मिलता
अकेले में बैठकर कुछ गीत गुनगुनायें
लोगों के जिस्म हैं नासाज
दिल हैं टूटे हुए
उनसे भला क्या उम्मीद लगायें
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अपने कुछ ब्लाग/पत्रिका का नामकरण हमने मस्तराम के नाम पर आज कर ही दिया। आज होली का पर्व है और एक लेखक के नाते ऐसा समय हमारे लिये अकेले चिंतन करने का होता है। पिछले दो वर्षों से हम अंतर्जाल पर जूझ रहें पर अभी तक फ्लाप बने हुए हैं। हिंदी के सभी ब्लाग जबरदस्त हिट पाते जा रहे हैं और हम है कि ताकते रह जाते हैं।
यह बात यह ठीक है जो हिट हैं वह हमसे अच्छा और प्रासंगिक लिखते हैं पर और एक लेखक मन इस बात को कहां मानता है कि हम खराब लिखते हैं। इधर हमसे पुराने ब्लाग नित नयी बातें सामने रखकर विचलित कर देते हैं तो फिर दिमाग में आता है कि कोई ऐसी रणनीति बनाओ कि खुद भी हिट हो जायें। बहुत दिन से संकोच हो रहा था पर आज सारा संकोच त्याग कर अपने उन ब्लाग/पत्रिकाओं में अपने नाम के आगे मस्तराम शब्द जोड़ ही दिया जिन पर पहले लिखकर हटा लिया था।
दरअसल हुआ यूं कि पुराने ब्लाग लेखकों ने अपने पाठों में बताया कि इंटरनेट पर हिंदी विषयों के शब्द गूगल के सर्च इंजिनों में बहुत कम ढूंढे जाते जाते हैं-आशय यह है कि चाहे रोमन लिपि में हो या देवनागरी लिपि में लोग इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने के बहुत कम इच्छुक हैं। वैसे हमने स्वयं सर्च इंजिनों के ट्रैंड में जाकर यह बात पहले भी देखी थी और उसी आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे पर सफलता नहीं मिली। कल फिर गूगल के सर्च इंजिन ट्रैंड को देखा तो यथावत स्थिति दिखाई दी। वैसे हमने यह तो पहले ही देख लिया था कि मस्त राम शब्द की वजह से पाठक अधिक ही मिलते हैं। अपने एक ब्लाग पर हमने अपने नाम के आगे मस्त राम लिखकर छोड़ दिया तो देखा कि एक महीने तक नहीं लिखने पर भी वहां पाठक अच्छी संख्या में आते हैं और वह अपने अधिक पाठकों की संख्या के कीर्तिमान को स्वयं ही ध्वस्त करता जाता है जबकि सामान्य ब्लाग तरसते लगते हैं। हमारा यह ब्लाग बिना किसी फोरम की सहायता के ही 6500 से अधिक पाठक जुटा चुका है। एक अन्य ब्लाग भी तीन हजार के पास पहुंच गया था पर वहां से जैसे ही मस्तराम शब्द हटाया वह अपने पाठक खो बैठा।
ऐसे में सोचा कि जिन ब्लाग पर हमने ‘मस्त राम’ जोड़कर पाठक जुटाये और फिर हटा लिया तो क्यों न उनको पुराना ही रूप दिया जाये? एक मजे की बात यह है कि हमने मस्त राम का शब्द उपयोग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं किया था। हमारी नानी हमको इसी नाम से पुकारती थी। जब ब्लाग@पत्रिका बनाना प्रारंभ किया तो बस ऐसे ही यह नाम उपयोग में लिया। बाद में समय के साथ अनेक अनुभव हुए तब पता लगा कि उत्तर प्रदेश में यह नाम अधिक लोकप्रिय रहा है और धीरे धीरे पूरे देश में फैल रहा है।
इस होली पर बैठे ठाले यह ख्याल आया कि क्यों न हम साल भर तक अपनी स्वर्गीय नानी द्वारा प्रदत्त प्यार का नाम मस्त राम का प्रयोग करते रहेंगे। वैसे वर्डप्रेस के हमारे अनेक ब्लाग स्वतः ही पाठक जुटा रहे हैं पर संख्या स्थिर हैं।
हमने अनेक शब्दों का प्रयोग करके देखा तो भारी निराशा हाथ लगी पर साथ में आशा की किरण जाग्रत हुई। लोगों का भगवान राम के प्रति लगाव है और सर्च इंजिनों में रोमन में उनका नाम लिखकर तलाश होती रहती है। जिन टैगों का हम उपयोग करते हैं उनका कोई ग्राफ नहीं मिला। तय बात है कि उनकी संख्या अधिक नहीं है। जहां तक मस्त राम का सवाल है तो हमारे सामान्य ब्लाग@पत्रिका में जो टैग मस्त राम के नाम पर है वहां भी पाठक पहुंचते हैं।
फिल्मी हीरोईनों के नाम पर सर्च इंजिनों में भारत के इंटरनेट सुविधाभोगी भीड़ लगाये हुए हैं। हैरानी होती है यह देखकर! टीवी, रेडियो और अखबारों में उनके नाम और फोटो देखकर भी उनका मन नहीं भरता। कहते हैं कि परंपरागत प्रचार माध्यमों से ऊबकर भारत के लोग इंटरनेट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं पर उनका यह रवैया इस बात को दर्शाता कि उनकी मानसिकता में बदलाव केवल साधन तक ही सीमित है साध्य के स्वरूप में बदलाव में उनकी रुचि नहीं हैं। अब इसके कारणों में जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि हिंदी में मौलिक, स्वतंत्र और नया लिखने वाले सीमित संख्या में है। अभी तक लोग या तो दूसरों की बाहर लिखी रचनायें यहां लिख रहे हैं या अनुवाद प्रस्तुत कर अपना ब्लाग सजाते हैं। अगर मौलिक लेखक है तो शायद वह इतना रुचिकर नहीं है जितना होना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि अंतर्जाल पर दूसरे के लिखे की नकल चुरा लिये जाने का पूरा खतरा है दूसरा यह कि मौलिक लेखक के हाथ से लिखने और टाईप करने में स्वाभाविक रूप से अंतर आ जाता है। ऐसे में आम पाठकों की कमी से मनोबल बढ़ता नहीं है इसलिये बड़ी रचनायें लिखना समय खराब करना लगता है। जब यह पता लगता है कि हिंदी में नगण्य पाठक है तो ऐसे ब्लाग लेखक निराश हो ही जाते जिनके लिये यहां न नाम है न नामा। इतना ही नहीं कुछ वेबसाइटें तो ऐसी हैं जो ब्लाग लेखकों के टैग और श्रेणियों के सहारे सर्च इंजिनों में स्वयं को स्थापित कर रही हैं। हिंदी के चार फोरमों के लिये तो कोई शिकायत नहीं की जा सकती पर कुछ वेबसाईटें इस तरह व्यवहार कर रहीं हैं जैसे कि ब्लाग लेखक उनके लिये कच्चा माल हैं। यह सही है कि उनकी वजह से भी बहुत सारे पाठक आ रहे हैं पर सवाल यह है कि इससे ब्लाग लेखक को क्या लाभ है?
यह सच है कि अंतर्जाल पर हिंदी की लेखन यात्रा शैशवकाल में है। लिखने वाले भी कम है तो पढ़ने वाले भी कम। ऐसे में ब्लाग लेखक के लिये यह भी एक रास्ता है कि वह अपने लिखने के साथ ऐसे भी मार्ग तलाशे जहां उसे पाठक अधिक मिल सकें। यही सोचकर हमने होली के अवसर पर यही सोचा कि अब अपनी नानी द्वारा प्रदत्त नाम का भी क्यों न नियमित रूप से उपयोग करके देखें जिसकों लेकर अभी तक गंभीर नहीं थे। इस होली पर बोलो मस्त राम………………………………की हिप हुर्र हुर्र।
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एक बच्चे के पैदा होने पर
घर में खुशी का माहौल छा जाता है
भागते हैं घर के सदस्य इधर-उधर
जैसी कोई आसमान से उतरा हो
ढूढे जाते हैं कई काम जश्ने मनाने के लिए
आदमी व्यस्त नजर आता है
एक देह से निकल गयी आत्मा
शव पडा हुआ है
इन्तजार है किसी का, आ जाये तो
ले जाएं और कर दें आग के सुपुर्द
तमाम तरह के तामझाम
रोने की चारों तरह आवाजें
कई दिन तक गम मनाना
दिल में न हो पर शोक जताना
आदमी व्यस्त नजर आता है
निभा रहे हैं परंपराएं
अपने अस्तित्व का अहसास कराएं
चलता है आदमी ठहरा हैं मन
बंद हैं जमाने के बंदिशों में
लगता है आदमी काम कर रहा है
पर सच यह है कि वह भाग रहा है
अपने आपसे बहुत दूर
जिंदा रहने के बहाने तलाशता
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