बम के धमाके से कांप गये शहर
इमारते कांपने लगी
वाहन उड़ गये हवा में
बिछ गयी लाशें सड़कों पर
पसर गया चारों और खून
दानव अट्टहास करते हुए बोला
‘’अब देवता धरती पर नहीं आते
मेरे अवतार होने के भय से वह भी घबड़ाते
पर मुझे भी वहां जाने की क्या जरूरत
इंसानों ने ही धर लिया है मेरा भेष
मुझसे काम अधिक तो वही कर आते
मैं तो देवताओं के चाहने वालों पर ही
करता था हमला
वह तो चाहे जिसे मारकर चले जाते
आम इंसानों के दिल में
बहुत समय तक दहशत फैलाकर
मेरे को ठंडक पहुंचाते
इंसान के मरने से अधिक
उसके तड़पने के अंदाज मुझे भाते
दानव का अब अवतार नहीं होता
धरती पर कुछ इंसान मेरे भेष में भी हैं
यह बात सब नहीं जान पाते’’
………………………………..
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यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये
कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये
शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये
जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………
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हर पल लोगों के सामने
अपना कद बढाने की कोशिश
हर बार समाज में
सम्मान पाने की कोशिश
आदमी को बांधे रहती है
ऐसे बंधनों में जो उसे लाचार बनाते
ऐसे कायदों पर चलने की कोशिश जो
सर्वशक्तिमान के बनाए बताये जाते
कई किताबों के झुंड में से
छांटकर लोगों को सुनाये जाते
झूठ भी सच के तरह बताते
सब जानते हैं कि भ्रम रचे गए हैं
आदमी को पालतू बनाने के लिए
उड़ न सके कभी आजाद पंछी की तरह
फिर भी कोई नहीं चाहता
अपने बनाए रास्ते पर
क्योंकि जहाँ तकलीफ हो वहाँ चिल्लाते
जहाँ फायदा हो वहाँ हाथ फैलाकर खडे हो जाते
समाज कोई इमारत नहीं है
पर आदमी इसमें पत्थर की तरह लग जाते
आदमी अकेला आया है
और अकेला ही जाता भी है
पर ताउम्र उठाता है ऐसे भ्रमों का बोझ
जो कभी सच होते नहीं दिख पाते
लोग पंछियों की तरह उड़ने की चाहत लिए
इस दुनिया से विदा हो जाते
———————————————–
अपने बुत वह बनवा रहे हैं
अपने मरने की बाद पूजने के लिए
भरोसा नहीं इस बात का कि
उनको बाद में कोई याद करेगा के नहीं
क्योंकि काम ही नहीं ऐसे किए
अपनों से अंहकार का व्यवहार
दूसरे का किया हमेशा तिरस्कार
बहुत है दूसरों को याद दिलाने के लिए
पर कोई ऐसा आईना बना ही नहीं
जो अपने छिद्र आदमी को दिखा सके
अपनी असलियत बताने के लिए
यही वजह है कि
हर आदमी उठाए जा रहा है
अपनी जिन्दगी का बोझ
बिना किसी का सहारा लिए
भीड़ तो बहुत जुटा लेता है
हर आदमी यहाँ पर
जिंदा रहने की कोशिश करता है
मरने की बाद जिंदा रहने के लिए
————————————————–
एक तरफ आजादी से उड़ने की चाहत
दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के काँटों में
फंसकर करते अपने को आहत
अपने क़दमों पर चलते हुए भी
अपनी अक्ल के मालिक होते हुए भी
तमाम तरह के बोझ उठाते हैं
समाज से जुड़ने बाबत
जमीन पर चलने वाले इंसान को
परिंदों की तरह पंख भी होते तो
कभी उड़ता नहीं
क्योंकि अपने मन में डाले बैठा है
सारे संसार को अपना बनाने की चाहत
हाथ में कुछ आने का नहीं
पर जूझ रहा है सब समेटने के लिए
नहीं माँगता कभी मन की तसल्ली या राहत
अगर चैन से चलना सीख लेता
अपने क़दमों को अपनी ही तय दिशा
पर चलने देता
तो ले पाता आजादी की सांस
पर जकड़ लिया झूठे रीतिरिवाज के
बन्धन अपने
और फिर भी पालता आजादी की चाहत
—————————-
जब भी अपनों से मन ऊब जाता
गैरों में अपनत्व ढूँढने आदमी चला जाता
अपनी ख्वाहिशों का बोझ उठाये है सभी
कोई आकर उतारे यही सोच चलता जाता
सच्चा प्यार ढूँढने सब निकलते
पर मतलब किसी के समझ में नहीं आता
आसामान से टपकती हैं उम्मीद
यही सोच ऊपर देखता चला जाता
जिन्दगी में खुशियों के लिए ढूँढता बहाने
ग़मों को बुलावा देकर आता
बाहर ढूंढें जिसको खजाना उसका दिल में है
इसे कोई-कोई शख्स ही जान पाता
शराब के नशे में वादे
कर वह सुबह भूल जाते हैं
पूरे करने की बात कहो तो
याद करने के लिए बोतल
मांगने लग जाते हैं
———————
आदमी पीता है शराब
या आदमी को शराब
यह एक यक्ष प्रश्न है
जिसका नहीं ढूंढ पाया
कोई भी जवाब
—————-
सिर पर चढ़ती शराब
आदमी को शेर बना देती है
दौड़ता है इधर उधर बेलगाम
काबू में नहीं रहती जुबान
उतरती चूहा बना देती है
घबडा जाता है आदमी
ढूंढता है छिपने की जगह
अपने ही हाथ में नहीं रहती
अपने दिमाग की कमान
———————————-
शराब में डूबकर अगर जिन्दगी के
सफर में पार हो जाते
तो फिर फिर झूठी क़समें और
वादों को इस दुनिया में कहाँ देख पाते
दीपक भारतदीप द्धारा
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धीरे अस्ताचल को जाता सूरज
अपनी रोशनी समेत लेता है
जहाँ भी धरती को अंधरे में
छोड़ता है उदासी से उसका
तेज मद्धिम होता चला जाता
‘कितना अँधेरा होगा इस धरती पर
यह सोचकर आँखें बंद कर लेता है’
फिर खोलकर देखता है
नीचे टिमटिमाते हुए छोटा दीपक
जो लहराते हुए अपनी रौशनी
जैसे कह रहा हों
”सुबह तक तुम्हारा कुछ काम
मेरा कंधा भी संभाल लेता है’
मुस्कराता हुआ सूरज सोचता है
‘चंद्रमा से तो यह दीपक भला
जो मेरा काम संभालने के लिए
मुझसे ही रोशनी उधार लेता है
छोटा दीपक होकर भी
जमीन पर अँधेरे से बखूबी लड़ लेता है .
——————————————–
उधार लेकर
आंखों को चकाचौंध करने वाले
बल्बों से रोशन करना अपने घर
अब नहीं सुहाता
इससे तो अन्धेरे भले
जिनमें चैन तो आता
कुछ पल चिराग जलाकर
तसल्ली कर लो
सुबह सूरज सभी नकली
रौशनी को फीका कर जाता
————————————-
दीपक भारतदीप द्धारा
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शांति से अपने तेज को समेटता सूरज
दिन को विराम देता
रात्रि को आमंत्रण भेजता
कोई आवाज नहीं
दिन भर प्रकाश बिखेरा पर
अहंकार का भाव नहीं
आकाश में चंद्रमा की आने की आहट
अपना स्थान उसे देने में
कभी नही दिखाता घबराहट
चला जा रहा है अस्ताचल में कहीं
रोज उगते और डूबते उसे
देख कर भी
क्यों नहीं सीखता कि
उगना और डूबना इस सृष्टि की नियति है
इसे क्या घबडाना
बचने का क्यों ढूंढते बहाना
अपनी विरासत दूसरे के हाथ में
जाते देख शुरू करते हैं शोर मचाना
सदियों पुराना सच जानते हैं
पर भूलने का ढूंढते बहाना
कभी सोचा हैं कि
झूठ के पाँव होते नहीं
और यह बदल सकता नहीं
दीपक भारतदीप द्धारा
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अस्त्र-शस्त्र के सहारे अपनी देह की
सुरक्षा ढूंढते हुए बडे लोग
समाज में फैलता भय का रोग
बंदूक में भी गोली लगाईये
शीशी में भी भरकर आईये
भर ली है समाज की पूरी दौलत घर में
गरीबी के झुंड में अमीरी ऐसे घिरी
जैसे फंसी अधर में
कैसे न फैलें राजरोग
सुख को समझें भोग
कह गए दास कबीर
जब जल और धन बढ़ने लगे
तो उलीचते जाइये
पर अब दौलत से अंधे
और शौहरत से बहरे लोगों
क्या सुनाएं और पढाएं
आगे-आगे देखिये होता है क्या
अपनी कुर्सी तो दर्शकों में लगाईये
एक तरफ हैं भूख से
हिंसक जंग में लड़ने वाले
दूसरी तरफ हैं अपने सुख को ही
जगत का सुख मानने वाले
किसको कैसे समझाईये
चिंता के समान शत्रु नहीं
मधुमेह, उच्च रक्तचाप और
दिल की धक्-धक् से
पहले अपने को बचाईये
दीपक भारतदीप द्धारा
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जब लगे हम लोगों में उपेक्षित हो रहे हैं
भीड़ में घिरे होकर भी
अकेले हो रहे हैं
तब समझ लो मन में ही
कई जगह है अपने ही भारीपन
जिसका बोझ हम ढो रहे हैं
भला कौन यहाँ किसकी परवाह करता है
सामने करें कोई तारीफ
पीठ फेरते ही वह जहर भी उगलता है
इस दुनिया में सबके साथ होते हादसे
जिसके साथ हो वही अपने साथ ही हुआ
समझता है
इसलिए सब भीड़ में अकेले हो रहे हैं
कौन किसको सम्मान देता है
बिना मतलब कौन किसको दान देता है
सब अपने आप में खो रहे हैं
सबका दर्द और दुख एक जैसा होता है
यह भ्रम है कि हम ही उसे ढो रहे हैं
दीपक भारतदीप द्धारा
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कुछ यूंही ख्याल कभी आता है
भला सबके बीच में भी
आदमी खुद को
अकेलेपन के साथ क्यों पाता है
शायद दिल नहीं समझता दिल की बात
अपनों और गैरों में फर्क कर जाता है
अपनों के बीच गैरों की फिक्र
और गैरों के बीच
अपनों की याद में खो जाता है
कभी बाद में तो कभी पहले दौड़ता है
पर वक्त की नजाकत नहीं समझ पाता है
दूसरों पर नजरिया तो दिमाग खूब बनाता
पर अपना ख्याल नहीं कर पाता है
बाहर ही देखता है
आदमी इसलिए अन्दर से खोखला हो जाता है
अपने लिए कहीं आसरा
ढूढने से अच्छा है
हम ही लोगों के सहारा बन जाएं
किसी से प्यार मांगे
इससे अच्छा है कि
हम लोगों को अपना प्यार लुटाएं
किसी से कुछ पाने की ख्वाहिश
पालने से अच्छा है कि
हम लोगों के हमदर्द बन जाएं
जिन्दगी में सभी हसरतें पूरी नहीं होती
कुछ अपने ही हिस्से का सुख काम करते जाएं
आकाश की लंबाई से अधिक है
चाहतों के आकाश का पैमाना
सोचें दायरों से बाहर हमेशा
पर अपनी जरूरतें
दायरों में ही रखते जाएं
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दीपक भारतदीप द्धारा
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पेट भरते ही भले लोग
सिगडी की बुझा देते आग
पर जिनके मन में है
दौलत और शौहरत की आग
वह कभी नहीं बुझती
वह कभी शहर तो कभी ग्राम में
गली और मुहल्ले में भड़काते हैं आग
हर गरीब को खिलाते ख्याली पुलाव
ऐसे रास्ते का पता देते
जिसकी मंजिल कहीं नहीं
बस है इधर से उधर घुमाव
दिन में गाली देते अमीर को
रात को करते हैं जुडाव
चारों और से रंगे हैं
पर उजियाले में नहीं दिखता दाग
अनपढ़ को देते सपनों की किताब
कंगाल को समझाते अमीरी का हिसाब
अपनी ताकत के नशे में झूमते
किसी से नहीं मिलता मिजाज
बाद में बुझाने के लिए जूझते नजर आते
पहले लगाते आग
यह कभी यहाँ जलेगी
कभी वहाँ लगेगी
जब तक आम आदमी में नही जागेगी
चेतना और जागरूकता की आग
तब तक जलती रहेगी यह नफरत की आग
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