संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।
उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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वह एक ब्राह्म्ण लेखक का पाठ था-ऐसा उन्होंने अपने पाठ में स्वयं ही बताया था। उसने बताया कि राजस्थान के सीमावर्ती गांवों में विभाजन के समय आये सिंधी किस तरह अपनी संस्कृति को संजोये हुए हैं। एक सिंधी ने उससे कहा कि ‘आपमें और हममें बस इतना अंतर है कि हम अभी कुछ समय पहले वहां से आये हैं और आप तीन चार सौ साल पहले बाहर से आये हैं।’
उस लेखक ने इसी आधार पर अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा कि बाहर से कितने ही आक्रांता इस देश के लूटने आये पर यहां के लोगों ने उनके विचारों में नयापन होने के कारण स्वीकार किया। यहां नित नित नये समाज बने। उस लेखक ने यह भी लिखा है कि इस समाज की यह खूबी है कि वह नये विचारों को ग्रहण करने को लालायित रहता है।
उस लेखक और इस पाठ के लेखकों में विचारों की साम्यता लगी और ऐसा अनुभव हुआ कि इस देश के इतिहास में कई ऐसी सामग्री हैं जिनका विश्लेषण नये ढंग से किया जाना चाहिये। हुआ यह है कि मैकाले की शिक्षा पद्धति से शिक्षित इस देश बौद्धिक समाज दूसरे द्वारा थोपे गये विषयों पर विचार भी उनके ढंग से करता है। पिछले तीस चालीस वर्ष के समाचार पत्र पत्रिकायें उठाकर देख लीजिये इतिहास की गिनी चुनी घटनाओं के इर्दगिर्द ही नये ढंग से विचार ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे नया हो।
अधिकतर तो हम पिछले बासठ वर्ष के इतिहास पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो कभी कभी हजारों वर्ष पीछे चले जाते हैं। इन सबमें हम अपना गौरव ढूंढने से अधिक कुछ नहीं करते। इससे कभी निराशा का भाव आता है। दरअसल हमारी समस्या यह है कि हम यथास्थिति से आत्ममुग्ध हैं और उसमें अपना गौरव ढूंढना ही अधिक सुविधाजनक लगता है।
इसमें एक गौरव पूर्ण बात कही जाती है कि हिन्दू धर्म कभी इतना विस्तृत था कि उसका विस्तार मध्य एशिया तक था। मध्य एशिया में बने हिन्दू मंदिरों को अपना गौरव बताने की यह प्रवृत्ति हमारे देश में बहुत है। इसके पीछे वास्तविकता क्या है और नये संदर्भों में हम उसे कैसे देखें? यह विचार करने का साहस कोई विद्वान नहीं करता। आईये हम कुछ इस पर प्रकाश डालें।
एक पश्चिमी विद्वान ने खोजकर बताया था कि मनुष्य की उत्पति दक्षिण अफ्रीका में हुई। वह वहां बिल्कुल बंदरों की तरह था। उसके बाद वह भारत आया और वहां उसने ज्ञान प्राप्त किया फिर वह मध्य एशिया में गया जहां उसने सभ्यता का नया स्वरूप प्राप्त किया। फिर वह भारत की तरफ लौटा और बौद्धिक रूप से परिष्कृत होकरउसके बाद अन्य स्थानों पर गया। हम इसे अगर सही माने तो आज भी कुछ नहीं बदला। भारत आकर इंसान ने यहां की आबोहवा मेें राहत अनुभव की और अपने प्रयोग से उसने सत्य का ज्ञान प्राप्त किया। उसके प्रचार के लिये वह मध्य एशिया में गया जहां उसे सांसरिक और भौतिकता का ज्ञान भी मिला। दोनों ही ज्ञानों में संपन्न होने के बाद वह पूरे विश्व में फैला। इसमें एक बात निश्चित रही कि जिस तत्व ज्ञान की वजह से भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु है उसका आभास इसी धरती पर होता है। मुश्किल यह है कि तत्व ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म और संक्षिप्त है और बाह्य रूप से उसका आकर्षण दिखता नहीं है। जब इंसान अपने अंदर की आंखों खोले तभी उसका महत्व उसे अनुभव हो सकता है।
भारत में हमेशा ही प्रकृति की कृपा रहने के साथ जनसंख्या का भी घनत्व हमेशा अधिक रहा है इसलिये यहां हमेशा आदमी खातापीता रहा हैं इसके विपरीत अन्य देशों में इतना प्राकृतिक कृपा नहीं है इसलिये यहां का भौतिक आकर्षण विदेशियों को हमेशा ही यहां खींच लाता है। इनमें कुछ पर्यटक के रूप में आते हैं तो कोई आक्रांता के रूप में।
विदेशों से यहां आवागमन हमेशा रहा है और तय बात है कि विदेशों से जो लोग आये उनकी सभ्यता भी यहां मिलती गयी। यही कारण है कि हम अनेक समाजों के कर्मकांडों में विविधता देखते हैं। इतिहासकारों के अनुसार भारत में मूर्तिपूजा का प्रवृत्ति मध्य एशिया से आयी है। उनकी बात में दम इसलिये भी नजर आती है कि भारतीय धर्म ग्रंथों मेें यज्ञ हवन आदि की चर्चा तो होती है पर मूर्ति पूजा यहां के मूल धर्म का भाग हो ऐसा नहीं लगता। रामायण काल में भी रावण द्वारा यज्ञों में विध्वंस पैदा करने की घटनाओं की चर्चा होती है पर मंदिर आदि पर हमला कहीं हुआ हो इसकी जानकारी नहीं मिलती।
श्रीगीता में भी द्रव्य यज्ञ और ज्ञान यज्ञ की चर्चा होती है। द्रव्य यज्ञ से आशय वही यज्ञ हैं जिनमें धन का व्यय होता है और निश्चित रूप से उनका आशय उन यज्ञों से है जिनमें भौतिक सामग्री का प्रयोग होता है।
इतिहास में इस बात की चर्चा होती है कि मध्य एशिया में किसी समय अनेक देवी देवताओं की पूजा होती थी और इस कारण वहां सामाजिक वैमनस्य भी बहुत था। लोग अपने देवी देवताओं को श्रेष्ठ बताने के लिये आपस में युद्ध करते थे। इन देवी देवताओं की संख्या भारत में वर्तमान में प्रचलित देवी देवताओं से कई गुना अधिक थी।
इतिहासकारों के अनुसार वहां एक राजा हुआ जो सूर्य का उपासक था। उसने सूर्य को छोड़कर अन्य देवी देवताओं की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया। दरअसल उसका मानना था कि सूर्य ही सृष्टि का आधार है और वही पूज्यनीय है। उसने अन्य देवी देवताओं के मंदिर और मूर्तियां तुड़वा दीं। इससे लोग नाराज हुए और उसे इतिहास का क्रूर राजा माना गया। बाद में उस राजा की हत्या हो गयी। इतिहासकार मानते हैं कि भले ही उसकी जनता उससे नाराज थी पर उसने यह सत्य स्थापित तो कर ही दिया कि इस सृष्टि का स्वामी एक परमात्मा है।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि उस राजा के मरने के बाद फिर पुनः विभिन्न देवी देवताओं की पूजा होने लगी। नतीजा फिर आपसी संघर्ष बढ़ने लगे और यह तब तक चला जब तक वहां एक ईश्वर का सिद्धांत ताकत के बल पर स्थापित नहीं हो गया।
दरअसल हम इतिहास पर विचार करें तो मूर्ति पूजकों और उनके विरोधियों का संघर्ष वहीं से होता भारत तक आ पहुंचा। भारत में इसे अधिक महत्व नहीं मिला क्योंकि यहां तत्व ज्ञान हमेशा ही अपना काम करता रहता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में पूरी तरह वर्णित है। इसके अलावा एक अन्य बात यह भी है कि भारतीय समाज मानता है कि समय समय पर महापुरुष पैदा होकर समाज सुधार के लिये कुछ न कुछ करते रहते हैं और उनका यह विश्वास गलत नहीं है। आधुनिक काल में कबीर, तुलसी, रहीम, मीरा, रैदास तथा अन्य संत कवियों ने अपनी रचनाओं ने केवल तत्व ज्ञान का प्रचार किया बल्कि भक्ति के ऐसे रस का निर्माण किया जिसके सेवन से यह समाज हमेशा ही तरोताजा रहता है। इसके विपरीत जहां नवीन विचारों के आगमन पर रोक है वह समाज जड़ता को प्राप्त हो गये हैं।
पूर्व में ऋषियों मुनियों और तपस्वियों द्वारा खोजे गये तत्व ज्ञान तथा आधुनिक काल के संत कवियों के भक्ति तत्व का प्रचार हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। अगर हम यह कहते हैं कि मध्य एशिया में फैले मंदिर हमारे गौरव हैं तो यह भी याद रखिये वह मंदिर हमारे तत्वज्ञान और भक्ति भाव का प्रतीक नहीं है। इसके अलावा सूर्य मंदिरों का मध्य एशिया में होना तो कोई अजूबा नहीं है क्योंकि वहां कभी उनकी पूजा होती है। हम उनके साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को नहीं जोड़ सकते क्योंकि उनके साथ आपसी खूनी संघर्षों का इतिहास भी जुड़ा है। कहने को तो भारत में भी विभिन्न धार्मिक मतों को लेकर विवाद होते रहे हैं पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसको लेकर किसी ने किसी पर हमला किया हो।
हमारी वर्तमान सभ्यता, संस्कृति और धर्म अनेक तरह के प्रयोगों के दौर से होते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है। इसके आधार स्तंभ तत्व ज्ञान और भक्ति ही हमारी वास्तविक पहचान है। एक बात याद रखिये इतिहासकार कहते हैं कि दक्षिण अफ्रीका से चलकर इंसान भारत में ज्ञानी हुआ और फिर प्रचार के लिये मध्य एशिया में गया जहां उसे अन्य ज्ञान मिला। वह उसे प्राप्त कर यहां लौटा फिर पूरी तरह से परिष्कृत होकर अन्य जगह पर गया। इसका आशय यह है कि अतीत का गौरव जो हमारे देश में यहीं को लोगों की तपस्य और परिश्रम से निर्मित हुआ है वही श्रेष्ठ है और उससे आगे की सीमा का गौरव तो धूल धुसरित हो गया है। यह वहां रहे लोगों को तलाशना है उस पर हमें गर्व करना बेकार है। इसलिये कहीं मध्य एशिया के पुराने मंदिर ही नहीं बल्कि पश्चिम देशों में बनने वाले मंदिरों में अपने धर्म का गौरव ढूंढना का प्रयास किसी को अच्छा लग सकता है पर अघ्यात्मिक ज्ञानी जानते हैं कि यह केवल एक क्षणिक मानसिक सुख है और इसका उस ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है जिसकी वजह से यह देश विश्व का अध्यात्मिक गुरु माना जाता है।
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पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः
हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।
संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।
आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।
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