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राम और रावण के बीच युद्ध अवश्यंभावी था-आज दशहरा पर हिन्दी लेख (ram aur rawan ke beech yuddha avashyambhavi tha-hindi lekh on today dashahara)


         आज पूरे देश में दशहरे का त्यौहार मनाया जा रहा है। जिस दिन भगवान श्रीराम जी ने रावण का वध किया उसी दिन को ‘दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पर्व मनाना और उससे निकले संदेश को समझना अलग अलग विषय हैं। ऐसे अवसर पर अपने इष्ट का स्मरण कर उनके चरित्र का स्मरण करने से पर्व मनाने में मजा आता है। देखा यह गया है की धार्मिक चित्तक समाज के सदस्यों को समाज समय पर एकत्रित होकर आध्यात्मिक चित्तन के लिए पर्वों जैसे अवसरों का निर्माण करते हैं बाज़ार उसे उत्सव जैसा बनाकर उपभोग की वस्तुएं बेचने का मार्ग बना लेता है, इस कारण ही चित्तन की बजाय उल्लास मनाने की प्रवृति पैदा होती है।
क्या राम और रावण के बीच केवल सीता की मुक्ति के लिये हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रतिप्रश्न है कि क्या अगर रावण सीता का अपहरण नहीं करता तो उनके बीच युद्ध नहीं होता?
         अगर तत्कालीन स्थितियों का अध्ययन करें तो यह युद्ध अवश्यंभावी था और रावण ने सीता का अपहरण इसी कारण किया कि भगवान श्रीराम अगर सामान्य मनुष्य हैं तो पहले तो सीता जी को ढूंढ ही न पायेंगे और उनके विरह में अपने प्राण त्याग देंगे। यदि पता लग भी गया और उनको वापस लाने के युद्ध करने लंका तक आये तो उन्हें मार दिया जायेगा। अगर भगवान हैं तो भी उनकी आजमायश हो जायेगी।
         जब भगवान राम लंका तक पहुंच गये तब रावण को आभास हो गया था कि भगवान श्री राम असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर तब वह उनसे समझौता करने की स्थिति में वह नहीं रहा था क्योंकि श्री हनुमान जी ने लंका दहन के समय उसके पुत्र अक्षयकुमार का वध कर दिया था। यह पीड़ा उसे शेष जीवन सहजता ने नहीं बिताने देती। ऐसे में युद्ध तो अवश्यंभावी था।
       अगर रावण श्रीसीता का अपहरण नहीं भी करता तो भी अपनी बनवास अवधि बिताने के लियें दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे श्रीराम जी से उसका युद्ध होना ही था। आखिर यह युद्ध क्यों होना था? इसे जरा आज के संदर्भ में देखें तो पता चलेगा कि अब फिर वैसे ही हालत निमित हो गये हैं हालांकि अब कोई न रावण जैसा ताकतवर दुष्ट है न ही भगवान श्रीराम जैसा शक्तिशाली और पराक्रमी।
          दरअसल रावण भगवान शिव का भक्त था और उसे अनेक प्रकार वरदान मिले जिससे वह अजेय हो गया। अपने अहंकार में न वह केवल भगवान शिव को भूल गया बल्कि अन्य ऋषियों, मुनियों, और तपस्वियों की दिनचर्या में बाधा डालने लगा था। वह उनके यज्ञ और हवन कुंडों को नष्ट कर देता और परमात्मा के किसी अन्य स्वरूप का स्मरण नहीं करने पर मार डालता। इसके लिये उसने बकायदा अपने सेवक नियुक्त कर रखे थे जिनका वध भगवान श्री राम के हाथ से सीता हरण के पूर्व ही हो गया था।
         भगवान श्रीराम को रावण की पूजा पद्धति से कोई बैर नहीं था। वह तो भगवान शिव जी भी आराधना करते थे। वह दूसरे की पूजा पद्धति को हेय और इष्ट को निकृष्ट कहने की रावण प्रवृत्ति के विरुद्ध थे। भगवान श्रीराम की महानता देखिये उन्होंने रावण के शव को उसकी परंपराओं के अनुसार ही अंतिम संस्कार की अनुमति दी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपना धर्म-उस समय धर्म का कोई नाम नहीं था इसलिये पूजा पद्धति भी कह सकते हैं-दूसरे पर लादने के विरुद्ध थे और यही कारण है कि उन्होंने अपने संदेशों में किसी खास पूजा पद्धति की बात नहीं कही है। इसके विरुद्ध अहंकारी रावण दूसरों की पूजा पद्धति में न केवल विघ्न डालता वरन् आश्रम और मंदिर भी तोड़ डालता था। श्री विश्वामित्र अपने यज्ञ और हवन में उसके अनुचरों की उद्दंडता को रोकने के लिये श्रीराम को दशरथ जी से मांग लाये थे और उसी दिन ये ही राम रावण का युद्ध शुरु हो गया था।
       रावण लोभ, लालच और दबाव के जरिये दूसरों पर अपना धर्म-पूजा पद्धति-लादना चाहता था। उसने दूसरी मान्यताएं मानने वाले समाजों की स्त्रियों का अपहरण कर उनको अपने राजमहल में जबरन रखा। उन पर लोभ, लालच, डर और मोह का जाल डालकर उनको अपने वश में किया ताकि दूसरा समाज तिरस्कृत हो। उसने श्रीसीता जी को भी साधारण स्त्री समझ लिया जो उसके आकर्षण में फंस सकती थी और यही गलती उसे ले डूबी पर इसका यह भी एक पक्ष भी है कि अन्य मान्यताओं के लोगों का वह जिस तरह विरोध कर रहा था अंततः उसे एक दिन श्रीराम जी समक्ष युद्ध करने जाना ही था।
         आज हम देखें तो हालत वैसे ही हैं। हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्मिक दर्शन ही धर्म हैं पर उसका कोई नाम नहीं है जबकि अन्य धर्मों में कर्मकांडों को भी उसके साथ जोड़ा जाता है। धर्म का अर्थ कोई विस्तृत नहीं है। निष्काम भाव से कर्म करना, निष्प्रयोजन दया करना, समस्त जीवों के प्रति समान भाव रखते हुए अपने इष्ट का ही स्मरण करना उसका एक रूप है। अन्य धर्मों में उससे मानने की अनेक शर्तें हैं और यह पहनने, ओढ़ने, नाम रखने और अभिवादन के तरीकों पर भी लागू होती हैं।
         इतिहास में हम देखें तो हमारे देश में किसी धर्म का नाम लेकर युद्ध नहीं हुआ बल्कि उसके तत्वों की स्थापना का प्रयास हुआ। धर्म के अनुसार ही राजनीति होना चाहिये पर राजनीतिक शक्ति सहारे धर्म चलाना गलत है। आज हो यह रहा है कि लालच, लोभ, मोह, और दबाव डालकर लोगों को न केवल अपना इष्ट बल्कि नाम तक बदलवा दिया जाता है। पूजा पद्धति बदलवा दी जाती है। यह सब अज्ञान और मोह के कारण होता है। इस तरह कौन खुश रह पाता है?
       चाणक्य और कबीर भी यही कहते हैं कि अपना इष्ट या वर्ग बदलने से आदमी तनाव में जीता है। हमने भी देखा है कि अनेक लोग अपना नाम, इष्ट और वर्ग बदल जाते हैं पर फिर भी उसकी चर्चा करते है जबकि होना चाहिये कि वह फिर अपने नाम, इष्ट और वर्ग की बात तक न करें। कहने को तो वह यह कहते हैं कि यह सब बदलाव की वजह से उनको धन, सफलता और सम्मान मिला पर भौतिक उपलब्धियों से भला कोई खुश रह सकता है?

       दशहरे के इस पावन पर्व पर हमें अपने इष्ट भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुए उनके चरित्र पर भी विचार करना चाहिए तभी पर्व मनाने का मजा है। इस अवसर पर हम अपने पाठकों, ब्लाग मित्रों और सहृदय सज्जनों के बधाई देते हैं।यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

अयोध्या में राम मंदिर और टीवी चैनल की सफलता-हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir aur tv chainal ka time-hindi hasya kavita)


टीवी चैनल के कर्मचारी ने
अपने प्रबंध निदेशक से पूछा
‘सर, आपका क्या विचार है
अयोध्या में राम जन्म भूमि पर
मंदिर बन पायेगा
यह मसला  कभी सुलझ पायेगा।’

सुनकर प्रबंध निदेशक ने कहा
‘अपनी खोपड़ी पर ज्यादा जोर न डालो
जब तक अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनेगा,
तभी तक अपने चैनल का तंबू बिना मेहनत के तनेगा,
बहस में ढेर सारा समय पास हो जाता है,
जब खामोशी हो तब भी
सुरक्षा में सेंध के नाम पर
सनसनी का प्रसंग सामने आता है,
अपना राम जी से इतना ही नाता है,
नाम लेने से फायदे ही फायदे हैं
यह समझ में आता है,
अपना चैनल जब भी राम का नाम लेता है
विज्ञापन भगवान छप्पड़ फाड़ कर देता है,
अगर बन जायेगा
तो फिर ऐसा मुद्दा हाथ नहीं आयेगा
कभी हम किसी राम मंदिर नहीं गये
पर राम का नाम लेना अब बहुत भाता है,
क्योंकि तब चैनल सफलता की सीढ़िया चढ़ जाता है,
इसलिये तुम भी राम राम जपते रहो,
इस नौकरी में अपनी रोटी तपते रहो,
अयोध्या में राम मंदिर बन जायेगा
तो उनके भक्तों का ध्यान वहीं होगा
तब हमारा चैनल ज़मीन पर गिर जायेगा।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मनु स्मृति दर्शन-संगीत का आनंद लेकर सोयें (manu smriti-sangeet ka anand)


आजकल रेडियो या टेप में संगीत सुनने की बजाय टीवी और वीडियो पर उसका आनंद उठाने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह है कि टीवी में हम आंख तथा कान दोनों को सक्रिय रखते हैं इसलिये मजा उठाने से अधिक कष्ट मिलता है। संगीत सुनने का आनंद तो केवल कानों से ही है। वैसे शायद यही वजह है कि टीवी पर हर शो में फिल्मी गानों को पृष्ठभूमि में जोड़कर दृश्य को जानदार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। किसी धारावाहिक में अगर पात्र गुस्से में बोल रहा है तो भयानक संगीत का शोर जोड़कर उसे दमदार बनाने का प्रयास शायद इसलिये ही किया जाता है कि आजकल का अभिनय करने वाले पात्रों को न तो कला से मतलब है न उनमें योग्यता है। बहरहाल संगीत मानव मन की कमजोरी है और जहां तक मनोरंजन मिले वहां तक सुनना चाहिये। अति तो सभी जगह वर्जित है।
तत्र भुक्तपर पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः।
हिन्दी में भावार्थ-
भोजन करने के बाद गीत संगीत का आनंद उठाना चाहिये। उसके बाद ही शयन के लिये प्रस्थान करना उचित है।
एतद् विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेत्त्ु भृत्येषु विनियोजयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वस्थ होने पर अपने सारे काम स्वयं ही करना चाहिये। अगर शरीर में व्याधि हो तो फिर अपना काम विश्वस्त सेवकों को सौंपकर विश्राम भी किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक तरफ मनुस्मृति में प्रमाद से बचने का सुझाव आता है तो दूसरी जगह भोजन के बाद गीत संगीत सुनने की राय मिलती है। इसमें कहीं विरोधाभास नहीं समझा जा सकता। दरअसल मनुष्य की दिनचर्या को चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सायं काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष या निद्रा के लिये। जिस तरह आजकल चारों पहर मनोरंजन की प्रवृत्ति का निर्माण हो गया है उसे देखते हुए मनृस्मृति के संदेशों का महत्व अब समझ में आने लगा है।
आजकल रेडियो, टीवी तथा अन्य मनोंरजन के साधनों पर चौबीस घंटे का सुख उपलब्ध है। लोग पूरा दिन मनोरंजन करते हैं पर फिर भी मन नहीं भरता। इसका कारण यह है कि मनोंरजन से मन को लाभ मिले कैसे जब उसे कोई विश्राम ही नहीं मिलता। जब कोई मनुष्य प्रातः धर्म का निर्वहन तथा दोपहर अर्थ का अर्जन ( यहां आशय अपने रोजगार से संबंधित कार्य संपन्न करने से हैं) करता है वही सायं भोजन और मनोरंजन का पूर्ण लाभ उठा पाता है। उसे ही रात्रि को नींद अच्छी आती है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शाम को भोजन करने के बाद गीत संगीत सुनना चाहिये। अलबत्ता टीवी देखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि उसमें आंखें ही थकती हैं और दिमाग को कोई राहत नहीं मिलती। इसलिये टेप रिकार्ड या रेडियो पर गाने सुनने का अलग मजा है। वैसे भी देखा जाये तो आजकल अधिकर टीवी चैनल फिल्मों पर गीत संगीत बजाकर ही गाने प्रस्तुत किये जाते हैं-चाहे उनके हास्य शो हों या कथित वास्तविक संगीत प्रतियोगितायें फिल्मी धुनों से सराबोर होती हैं। देश के व्यवसायिक मनोरंजनक प्रबंधक जानते हैं कि गीत संगीत मनुष्य के लिये मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्त्रोत हैं इसलिये वह उसकी आड़ में अपने पंसदीदा व्यक्तित्वों को थोपते हैं। प्रसंगवश अभी क्रिकेट में भी चौका या छक्का लगने पर नृत्यांगना के नृत्य संगीत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। स्पष्टतः यह मानव मन की कमजोरी का लाभ उठाने का प्रयास है।
टीवी पर इस तरह के कार्यक्रम देखने से अच्छा है सीधे ही गाने सुने जायें। अलबत्ता यह भोजन करने के बाद कुछ देर तक ठीक रहता है। अर्थशास्त्र के उपयोगिता के नियम के अनुसार हर वस्तु की प्रथम इकाई से जो लाभ होता है वह दूसरी से नहीं होता। एक समय ऐसा आता है कि लाभ की मात्रा शून्य हो जाती है। अतः जबरदस्ती बहुत समय तक मनोरंजन करने का कोई लाभ नहीं है। सीमित मात्रा में गीत संगीत सुनना कोई बुरी बात नहीं है-मनोरंजन को विलासिता न बनने दें।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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श्रीगीता संदेश-स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद तामसी धारणाशक्ति के प्रतीक (gita sandesh in hindi)


यथा स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुमेंधा धृति सा पार्थ तामसी।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य में जिस धारणा शक्ति में स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद व्याप्त होते हैं उसे तामसी धारणाशक्ति कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पंचतत्वों से बनी यह देह नश्वर है पर मनुष्य अपना पूरा जीवन इसकी रक्षा करते हुए बिता देता है। यह देह जो कभी इस संसार को छोड़ देगी-इस सत्य से मनुष्य भागता है और इसी कारण उसे भय की भावना हमेशा भरी होती है। मनुष्य कितना भी धन प्राप्त कर ले पर फिर भी उसमें यह भय बना रहता है कि कभी वह समाप्त न हो जाये। परिणामतः वह निरंतर धन संग्रह में लगता है। भगवान की सच्ची भक्ति करने की बजाय वह दिखावे की भक्ति करता है-कहीं वह स्वयं को तो कहीं वह दूसरों को दिखाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण जुटाना ही उसका लक्ष्य रहता है।
दिन रात वह अपनी उपलब्धियों के स्वप्न देखता है। अगर आपको रात का सपना सुबह याद रहे तो इसका अर्थ यह है कि आप रात को सोये नहीं-निद्रा का सुख आपसे दूर ही रहा। लोग इसके विपरीत रात के स्वप्न याद रखकर दूसरों को सुनाते हैं। दिन में भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति का हर मनुष्य हर पल सपना देखता है। जो उसके पास है उससे संतुष्ट नहीं होता।

सभी जानते हैं कि इस संसार में जो आया है उसे एक दिन यह छोड़ना है पर फिर भी अपने सगे संबंधी के मरने पर वह दुःखी होता है। न हो तो भी जमाने को दिखाने के लिये शोक व्यक्त करता है।
यह देह कभी स्वस्थ होती है तो कभी अस्वस्थ हो जाती है। इस दैहिक विपत्ति से बड़े बड़े योगी मुक्त नहीं हो पाते पर मनुष्य के शरीर में जब पीड़ा होती है तब वह विषाद में सब भूल जाता हैं वह पीड़ा उसके मस्तिष्क और विचारों में ग्रहण लगा देती है। देह में यह परेशान मौसम, खान पान या परिश्रम से कभी भी आ सकती है और जैसे ही उसका प्रभाव कम हो जाता है वैसे ही मनुष्य स्वस्थ हो जाता है पर इस बीच वह भारी विषाद में पड़ा रहता है।
थोड़ा धन, संपदा और शक्ति प्राप्त होने से मनुष्य में अहंकार आ जाता है। उसे लगता है कि बस यह सब उसके परिश्रम का परिणाम है। सब के सामने वह उसका बखान करता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम दृष्टा की तरह इस संसार को देखें। गुण ही गुणों को बरतते हैं अर्थात हमारे अंदर सपनें, शोक, भय, विषाद और मद की प्रवृत्ति का संचालन वाले तत्व प्रविष्ट होते हैं जिनका अनुसरण यह देह सहित उसमें मौजूद इंद्रियां करती हैं। जब हम दृष्टा बनकर अपने अंदर की चेष्टाओं और क्रियाओं को देखेंगे तब इस बात का आभास होगा कि हम देह नहीं बल्कि आत्मा हैं।
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श्री गीता से-दूसरे के रोजगार का नाश करना तामस प्रकृत्ति का परिचायक (shri gita sandesh in hindi)


अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्रीच कर्ता तामस उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
युक्ति के बिना कार्य करने वाला, प्राकृत ( संसार की शिक्षा प्राप्त न करने वाला), स्तब्ध (इस संसार की भौतिकता को देखकर हैरान होने वाला, दुष्ट, किसी की कृति (जीविका) का नाश करने वाला, शोक करने वाला और लंबी चौड़ी योजनायें बनाकर काम करने वाला तामस प्रवृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर उत्पात मचाने वाले दूसरों पर आक्रमण करते हैं। दूसरे का रोजगार उनसे सहन नहीं होता और वह उसका नाश करने पर आमादा हो जाते हैं। सबसे हैरानी की बात तो तब होती है कि श्रीगीता को पवित्र मानने वाले लोग यह काम बेझिझक करते हैं। थोड़ी थोड़ी सी बात पर रास्ता जाम करना, दुकानें-बसें जलाना तथा राह चलते हुए लोगों और अपने रोजगार का कर्तव्य निभा रहे सुरक्षा जवानों पर पत्थर फैंकना कोई अच्छी बात नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन चलते हैं पर उनको चलाने का अहिंसक तरीका भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बता ही दिया है-जैसे सत्याग्रह और बहिष्कार। आज सारी दुनियां उनको मानती है पर इसी देश में जरा जरा सी बात पर हिंसा का तांडव दिखाई देता है। इस तरह युक्ति रहित आंदोलन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक हैं।

नैतिक और धार्मिक सहिष्णुता और दृढ़ता हमारे भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति है। जीवन मरण तो सभी के साथ लगा रहता है। मुख्य बात यह है कि कोई मनुष्य किस तरह जिया-उसने सात्विक, राजस या तामस
में से किस प्रवृत्ति को उसने अपनाया। इस देश की विचारधारा को इतनी चुनौती मिलती हैं पर फिर भी वह अक्षुण्ण बनी हुई क्योंकि वह उस सृष्टि के उस सत्य को जानती है जिस पर पश्चिम अब काम कर रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूह के सदस्यों की संख्या अधिक है या कम-देखा तो यह जाता है कि उस समूह के सदस्य किस प्रवृत्ति-सात्विक, राजस या तामस-के हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर कोई दूसरा मनुष्य हमसे अलग भी हो तो भी उसकी जीविका का नाश करना अधर्म है-हमें यह नहीं देखना चाहिये कि उसका समूह या वह क्या करता है बल्कि इस बात पर दृष्टि रखना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं? हमारा और समूह का आचरण दृढ़ और धर्म पर आधारित होना चाहिये और यह निश्चय शक्तिशाली बना सकता है।
आज के कठिन युग में जहां तक हो सके दूसरे को रोजगार में सहायता देना चाहिये। इसके लिये अपनी तरफ से कोई प्रयास करना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिये। यह न कर सकें तो कम से कम इतना तो करना चाहिये कि दूसरे के रोजगार का नाश न हो।
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भर्तृहरि नीति शतक-रोजी पाने वाले से प्रणाम पाकर आदमी को अंहकार का बुखार चढ़ जाता है (ahankar ka bukhar-adhyatmik sandesh)


स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।

न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
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विवाद करने वाले श्री राम का चरित्र नहीं पढ़ते-आलेख


श्रीराम द्वारा रावण वध के बाद श्रीलंका से वापस आने पर श्रीसीता जी की अग्नि परीक्षा लेने का प्रसंग बहुत चर्चित है। अक्सर भारतीय धर्म की आलोचना करने वाले इस प्रसंग को उठाकर नारी के प्रति हमारे समाज के खराब दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं। दरअसल समस्या वही है कि आक्षेप करने वाले रामायण पढ़ें इसका तो सवाल ही नहीं पैदा होता मगर उत्तर देने वाले भी कोई इसका अध्ययन करते हों इसका आभास नहीं होता। तय बात है कि कहीं भी चल रही बहस युद्ध में बदल जाती है। इन बहसों को देखकर ऐसा लगता है कि किसी भी विद्वान का लक्ष्य निष्कर्ष निकालने से अधिक स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है।
यह लेखक मध्यप्रदेश का है और यहां के लोग ऐसी लंबी बहसों में उलझने के आदी नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि देश में चल रहे वैचारिक संघर्षों से हम बहुत दूर रहे हैं और अब अंतर्जाल पर देखकर तो ऐसा लगता है कि बकायदा कुछ ऐसे संगठन हैं जिन्होंने तय कर रखा है कि भारतीय धर्म की आलोचना कर विदेशी विचाराधाराओं के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास करते रहेंगे। उनका यह कार्य इतना योजनाबद्ध ढंग से है कि वह बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में भारतीय धर्म के प्रति अरुचि पैदा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे वह भारतीय समाज को अस्थिर कर सकते हैं। हालांकि उनकी यह योजना लंबे समय में असफल हो जायेगी इसमें संशय नहीं है।
आईये हम उस प्रसंग की चर्चा करें। नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने रामायण नहीं पढ़ी। श्रीसीता जी जब रावण वध के बाद श्रीराम के पास आयी तो वह उनको देखना भी नहीं चाहते थे-इसे यह भी कह सकते हैं कि वह इतनी तेजस्वी थी कि एकदम उन पर दृष्टि डालना किसी के लिये आसान नहीं था। वहां श्रीरामजी ने उनको बताया कि चूंकि वह दैववश ही रावण द्वारा हर ली गयी थी और उनका कर्तव्य था कि उसकी कैद से श्रीसीता को मुक्त करायें। अब यह कर्तव्य सिद्ध हो गया है इसलिये श्रीसीता जी जहां भी जाना चाहें चली जायें पर स्वयं स्वीकार नहीं करेंगे।
यह आलोचक कहते हैं कि श्रीसीता के चरित्र पर संदेह किया। यह पूरी तरह गलत है। दरअसल उन्होंने श्रीसीता से कहा कि ‘रावण बहुत क्रूर था और आप इतने दिन वहां रही इसलिये संदेह है कि वह आपसे दूर रह पाया होगा।’
तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम ने श्रीसीता के नहीं बल्कि रावण के चरित्र पर ही संदेह किया था। बात केवल इतनी ही नहीं है। रावण ने श्रीसीता का अपहरण किया तो उसके अंग उनको छू गये। यह दैववश था। श्रीराम जी का आशय यह था कि इस तरह उसने अकेले में भी उनको प्रताड़ित किया होगा-श्रीसीता जी के साथ कोई जबरदस्ती कर सके यह संभव नहीं है, यह बात श्रीराम जानते थे।
भगवान श्रीराम और सीता अवतार लेकर इस धरती पर आये थे और उनको मानवीय लीला करनी ही थी। ऐसे में एक वर्ष बाद मिलने पर श्रीराम का भावावेश में आना स्वाभाविक था। दूसरा यह कि श्रीसीता से तत्काल आंख न मिलाने के पीछे यह भी दिखाना था कि उनको स्वयं की गयी गल्तियां का भी आभास है। एक तो वह अच्छी तरह जानते थे कि वह मृग सोने का नहीं बल्कि मारीचि की माया है। फिर भी उसके पीछे गये। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि श्रीसीता जी उनको किसी भी प्रकार की हिंसा करने से रोकती थीं। सोने का वह मृग भी श्रीसीता ने जीवित ही मांगा था। एक तरह से देखा जाये तो श्रीसीता अहिंसा धर्म की पहली प्रवर्तक हैं। श्रीसीता जी के रोकने के बावजूद श्रीराम धर्म की स्थापना के लिये राक्षसों का वध करते रहे। उसकी वजह से रावण उनका दुश्मन हो गया और श्रीसीता जी को हभी उसका परिणाम भोगना पड़ा। मानव रूप में भगवान श्रीराम यही दिखा रहे थे कि किस तरह पति की गल्तियों का परिणाम पत्नी को जब भोगना पड़ता है और फिर पति को अपनी पत्नी के सामने स्वयं भी शर्मिंदा होना पड़ता है।
मानव रूप में कुछ अपनी तो कुछ श्रीसीता की गल्तियों का इंगित कर वही जताना चाहते थे कि आगे मनुष्यों को इससे बचना चाहिये।
भरी सभा में श्रीसीता से भगवान श्रीराम ने प्रतिकूल बातें कही-इस बात पर अनेक आलोचक बोलते हैं पर सच बात तो यह है कि श्रीसीता ने भी श्रीराम को इसका जवाब दिया है। उन्होंने श्रीराम जी से कहा-‘आप ऐसी बातें कर रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी स्त्री से नहीं कहता।’
इतनी भरी सभा में श्रीसीता ने जिस तरह श्रीराम की बातों का प्रतिकार किया उसकी चर्चा कोई नहीं करता। सभी के सामने अपने ही पति को ‘निम्न श्रेणी के पुरुषों से भी कमतर कहकर उन्होंने यह साबित किया कि वह पति से बराबरी का व्यवहार करती थीं। श्रीराम दोबारा कुछ न कह सके और इससे यह प्रमाणित होता है कि वह उस लीला का विस्तार कर रहे थे।
यहां यह याद रखने लायक बात है कि श्रीसीता अग्नि से सुरक्षित निकलने की कला संभवतः जानती थी और यह रहस्य श्रीराम जी को पता था। जब श्री हनुमान जी ने लंका में आग लगायी तब वह श्रीसीता की चिंता करने लगे। जब अशोक वाटिका में पहुंचे तो देखा कि केवल श्रीसीताजी ही नहीं बल्कि पूरी अशोक वाटिका ही सुरक्षित है। तब उनको आभास हो गया कि श्रीसीता कोई मामूली स्त्री नहीं है बल्कि उनका तपबल इतना है कि आग उनके पास पहुंच भी नहीं सकती। श्रीसीता को पुनः स्त्री जाति में एक सम्मानीय स्थान प्राप्त हो इसलिये ही श्रीराम ने इस रहस्य को जानते हुए ही इस तरह का व्यवहार किया।
श्रीराम ने गलती की थी कि वह जानते हुए भी मारीचि के पीछे गये। रक्षा के लिये उन्होंने अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मण को छोड़ा। जब श्रीराम जी का बाण खाकर मारीचि ‘हा लक्ष्मण’ कहता हुआ जमीन पर गिरा तब उनको समझ में आया कि वह क्या गलती कर चुके हैं।
उधर श्रीलक्ष्मण भी समझ गये कि मरने वाला मारीचि ही है पर श्रीसीता ने उन पर दबाव डाला कि वह अपने बड़े भाई को देखने जायें। श्रीलक्ष्मण जाने को तैयार नहीं थे श्रीसीता ने भी उन पर आक्षेप किये। यह आक्षेप लक्ष्मण जी का चरित्र हनन करने वाले थे। भगवान श्रीराम इस बात से भी दुःखी थे और उन्हें इसलिये भी श्रीसीता के प्रति गुस्सा प्रकट किया।
यह आलेख नारी स्वतंत्रय समर्थकों को यह समझाने के लिये नहीं किया गया कि कथित रूप से वह भगवान श्रीराम पर श्रीसीता के चरित्र पर लांछन लगाने का आरोप लगाते हैं जबकि भगवान श्रीराम ने कभी ऐसा नहीं किया। उल्टे उन्होंने उनके प्रिय भ्राता श्रीलक्ष्मण पर आक्षेप किये थे। हमारा आशय तो भारतीय धर्म के समर्थकों को यह समझाना है कि आप जब बहस में पड़ते हैं तो इस तरह के विश्ेलषण किया करें। रामायण पर किसी भी प्रकार किसी भी स्त्री के चरित्र पर संदेह नहीं किया गया। जिन पर किया गया है उनमें रावण और श्रीलक्ष्मण ही हैं जो पुरुष थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रंथों में परिवार और समाज को लेकर अनेक प्रकार के पात्र हैं उनमें मानवीय कमजोरियां होती हैं और अगर न हों तो फिर सामान्य मनुष्य के लिये किसी भी प्रकार संदेश ही नहीं निकल पायेगा। फिर पति पत्नी का संबंध तो इतना प्राकृतिक है कि दोनों के आपसी विवाद या चर्चा में आये संवाद या विषय लिंग के आधार पर विचारणीय नहीं होते। मुख्य बात यह होती है कि इन ग्रंथों से संदेश किस प्रकार के निकलते हैं और उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ता है? श्रीसीता जी एकदम तेजस्वी महिला थी। लंका जलाने के बाद श्रीहनुमान ने उनसे कहा कि ‘आप तो मेरी पीठ पर बैठकर चलिये। यह राक्षण कुछ नहीं कर सकेंगे।’
श्रीसीता ने कहा-‘मैं किसी पराये मर्द का अंग अपनी इच्छा से नहीं छू सकती। रावण ने तो जबरदस्ती की पर अपनी इच्छा से मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूंगी। दूसरा यह है कि मैं चाहती हूं कि मेरे पति की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वह होगी क्योंकि तुम जैसे सहायक हों तब उनकी जीत निश्चित है।’
इससे आप समझ सकते हैं कि श्रीसीता कितनी दृढ़चरित्र से परिपूर्ण हो गयी थी कि अवसर मिलने पर भी वह लंका से नहीं भागी चाहे उनको कितना भी कष्ट झेलना पड़ा। वह कोमल हृदया थी पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बिचारी या अबला थी।
नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने हमेशा ही इस मसले को उठाया है और यह देखा गया है कि भारतीय धर्म समर्थक इसका जवाब उस ढंग से नहीं दे पाते जिस तरह दिया जाना चाहिये। अक्सर वह लोग श्रीसीता को अबला या बेबस कहकर प्रचारित करते हैं जबकि वह दृढ़चरित्र और तपस्वी महिला थी। वह भगवान श्री राम की अनुगामिनी होने के साथ ही उनकी मानसिक ऊर्जा को बहुत बड़ा स्त्रोत भी थीं। भगवान श्रीराम महान धनुर्धर पुरुष थे तो श्रीसीता भी ज्ञानी और विदुषी स्त्री थी। यही कारण है कि पति पत्नी की जोड़ी के रूप में वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन के मूल आधार कहलाते हैं।
शेष फिर कभी
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रहीम दास के दोहे:स्वार्थ के कारण हुआ प्रेम घटता जाता है


कविवर रहीम कहते हैं कि
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वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है।

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कबीर के दोहे: विवेकहीन को अच्छे बुरे की पहचान नहीं होती


फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.

वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।

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रहीम के दोहे:बन्दर कभी हाथी नहीं हो सकता


बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि

कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।

समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।

भृतहरि शतकःगुणहीन व्यक्ति पशु समान जीवन बिताते हैं


शक्यो वारयितं जलेन हुतभुक् छत्त्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ
व्याधिर्भैषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगग्र्विषम्
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्

हिंदी में भावार्थ-आग का पानी से धूप का छाते से, मद से पागल हाथी का अंकुश से, बैल और गधे का डंडे से, बीमारियों का दवा से और विष का मंत्र के प्रयोग निवारण किया जा सकता है। शास्त्रों के अनेक विकारों और बीमारियों के प्रतिकार का वर्णन तो है पर मूर्खता के निवारण के लिये कोई औषधि नहीं बताई गयी है।
येषा न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मत्र्यलोके भुवि भारतूवा
मनुष्य रूपेणः मृगाश्चरन्ति।।

हिंदी में भावार्थ-जिन मनुष्यों में दान देने की प्रवृत्ति, विद्या, तप,शालीनता और अन्य कोई गुण नहीं है और वह इस प्रथ्वी पर भारत के समान है। वह एक मृग के रूप में पशु की तरह अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्रःमित्रों और शत्रुओं से भरे विश्व में निष्पक्ष व्यवहार करने वाले कम ही हैं


आकीर्ण मण्डलं सव्र्वे मित्रैररिभिरेव च
सर्वः स्वार्थपरो लोकःकुतो मध्यस्थता क्वचित्

सारा विश्व शत्रु और मित्रों से भरा है। सभी लोग स्वार्थ से भरे हैं ऐसे में मध्यस्थ के रूप में निष्पक्ष व्यवहार कौन करता है।

भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्यूपीडयेत्
अत्यन्तं विकृतं तन्यात्स पापीयान् रिमुर्मतः

यदि अपना भला करने वाला मित्र भोग विलास में लिप्त हो तो उसे त्याग देना चाहिए। जो अत्यंत बुरा करने वाला हो उस पापी मित्र को दंडित अवश्य करना चाहिए।

मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यजेत्
त्यजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हि

अपने मित्र के बारे में अनेक प्रकार से विचार करना चाहिए। अगर उसमें दोष दिखाई दें तो उसका साथ छोड़ देने में ही अपना हित समझें। अगर ऐसे दुर्गुणी मित्र का साथ नहीं त्यागेंगे तो तो उससे अपने ही धर्म और अर्थ की हानि होती है।
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मनुस्मृतिःक्रोध जैसे दोष लालच से भी पैदा होते हैं


पैशुन्यं साहसं मोहं ईष्र्याऽसूयार्थ दूषणम।
वाग्दण्डवं च पारुष्यं क्रोधजोऽपिगणोऽष्टकः।।

मनुष्य में क्रोध से आठ दोष उत्पन्न होते हैं
1.दूसरे की चुगली करना 2.दुस्साहस 3.ईष्र्या करना 4.अन्य व्यक्तियों में दोष देखना 5.दूसरों के पैसे को हड़पना 7.अभद्र शब्दों का प्रयोग करना 8.अन्य लोगों के साथ दुव्र्यवहार करना

द्वयोरष्येतयार्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं त्यनेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ।।

विद्वान लोगों का कहना है कि जो दोष काम और क्रोध से उत्पन्न होते हैं वही लालय से भी पैदा होते हैं। अतः सभी लोगों को अपनी लालच की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखना चाहिए।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

रहीम के दोहःगुरु से शिक्षा लेकर अपनी राह चलें


कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय

कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।

इतना ही नहीं जब अपने माग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।

यह इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति-पत्रिका’ पर प्रकाशित है। यह व्याख्या मौलिक है तथा इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

भृतहरि शतकःआजीविका कमाते हुए मनुष्य की जिंदगी चली जाती है



हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमध्यिां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

हिंदी में भावार्थ-परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीविकोपार्जन के लिये कार्य करना पड़ता है पर वह केवल इससे संतुष्ट नहीं होता। उसने अनेक तरह के सामाजिक व्यवहारों की परंपरा बना ली है जिसके निर्वहन के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है। मनुष्य समुदाय ने कथित संस्कारों के नाम पर एक दूसरे मुफ्त में भोजन कराने के लिये ऐसे रीति रिवाजों की स्थापाना की है जिनको हरेक के लिये करना अनिवार्य हो गया है और जो नहीं करता उसका उपहास उड़ाया जाता है। अपने परिवार के भरण-पोषण करने के अलावा पूरे कथित समाज में सम्मान की चिंता करता हुआ आदमी पूरी जिंदगी केवल इसी में ही बिता देता है और कभी उसके पास भजन के लिये समय नहीं रह पाता। वह न तो अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर पाता है और न इस प्रकृति के विभिन्न रूपों को देख सकता है। बस अपना जीवन ढोता रहता है। अपने अंदर बौद्धिक गुणों का वह कभी उपयोग नहीं कर पाता।