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शिष्य की जीवन नैया पर लगाने वाले गुरु बहुत कम है-गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिंदी लेख


         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

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बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।

सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।

कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।

    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।

           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 

     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

संत कबीरदास के दोहे-भगवान के साथ चतुराई मत करो


सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात

संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनाथ

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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अयोध्या में राम मंदिर और टीवी चैनल की सफलता-हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir aur tv chainal ka time-hindi hasya kavita)


टीवी चैनल के कर्मचारी ने
अपने प्रबंध निदेशक से पूछा
‘सर, आपका क्या विचार है
अयोध्या में राम जन्म भूमि पर
मंदिर बन पायेगा
यह मसला  कभी सुलझ पायेगा।’

सुनकर प्रबंध निदेशक ने कहा
‘अपनी खोपड़ी पर ज्यादा जोर न डालो
जब तक अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनेगा,
तभी तक अपने चैनल का तंबू बिना मेहनत के तनेगा,
बहस में ढेर सारा समय पास हो जाता है,
जब खामोशी हो तब भी
सुरक्षा में सेंध के नाम पर
सनसनी का प्रसंग सामने आता है,
अपना राम जी से इतना ही नाता है,
नाम लेने से फायदे ही फायदे हैं
यह समझ में आता है,
अपना चैनल जब भी राम का नाम लेता है
विज्ञापन भगवान छप्पड़ फाड़ कर देता है,
अगर बन जायेगा
तो फिर ऐसा मुद्दा हाथ नहीं आयेगा
कभी हम किसी राम मंदिर नहीं गये
पर राम का नाम लेना अब बहुत भाता है,
क्योंकि तब चैनल सफलता की सीढ़िया चढ़ जाता है,
इसलिये तुम भी राम राम जपते रहो,
इस नौकरी में अपनी रोटी तपते रहो,
अयोध्या में राम मंदिर बन जायेगा
तो उनके भक्तों का ध्यान वहीं होगा
तब हमारा चैनल ज़मीन पर गिर जायेगा।

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पसीने की सुगंध-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें


अकल से भैंस कभी बड़ी नहीं होती,
अगर होती तो, खूंटे से नहीं बंधी होती।
यह अलग बात है कि इंसान नहीं समझते
इसलिये उनकी अक्ल भी अमीरों की खूंटी पर टंगी होती।
भैंस चारा खाकर, संतोष कर लेती है,
मगर इंसान की अकल, पत्थरों की प्रियतमा होती।
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कभी मेरे बहते हुए पसीने पर
तुम तरस न खाना,
यह मेरे इरादे पूरे करने के लिये
बह रहा है मीठे जल की तरह,
इसकी बदबू तुम्हें तब सुगंध लगेगी
जब मकसद समझ जाओगे।
सिमट रहा है ज़माना वातानुकुलित कमरे में
सूरज की तपती गर्मी से लड़ने पर
जिंदगी थक कर आराम से सो जाती,
खिले हैं जो फूल चमन में
पसीने से ही सींचे गये
वरना दुनियां दुर्गंध में खो जाती,
जब तक हाथ और पांव से
पसीने की धारा नहीं प्रवाहित कर करोगे
तब अपनी जिंदगी को हाशिए पर ही पाओगे।

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अपनी जिंदगी-हिन्दी शायरी (apni zindagi-hindi shayari)


यकीन करो दूसरों के अधिकार और उद्धार की
लड़ाई लड़ने की बात जो करते हैं
वह संजीदा नहीं है,
क्योंकि उधार के ख्याल पर
गुजारी है उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी।

सारी उम्र लगा दी लोगों का भला करते हुए
पर एक बंदा भी वह खुश नहीं दिखा सकते,
ज़माने के कमजोर मोहरे ही
सोच रूपी शतरंज की बिसात पर वह मारते हैं,
अमन के लिये करते हैं कलह,
पैगाम सुनाते हुए दहाड़ते हैं।

इसलिये अपने दर्द
दिल में रखना सीख लो,
वरना बिक जायेंगे जज़्बात बीच बाज़ार,
न दिल भरेगा न जेब
हो जाओगे बेजार,
भलाई करने वाले जिंदा ही
नहीं मरों को भी हक दिलाते हैं,
धंधा है उनका कहीं देते भाषण तो
कहीं शब्दों की जंग सिखाते हैं।
अपनी लड़ाई के अकेले सिपाही
अपनी ताकत से ही जीतोगे अपनी जिंदगी।
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हिन्दू धर्म संदेश-पैसा कमाने से कभी फुर्सत नहीं मिल सकती


किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि भुज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
उस संपत्ति से क्या लाभ जो केवल घर की अपने ही उपयोग में आती हो। जिसका पथिक तथा अन्य लोग उपयोग करें वही संपत्ति श्रेष्ठ है।
धनेषु जीवतिव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु।
अतृप्तः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च।।
हिन्दी में भावार्थ-
धन और भोजन के सेवन तथा स्त्री के विषयों में लिप्त रहकर भी अनेक मनुष्य अतृप्त रह गए, रह जाते हैं और रह जायेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के लोभ की सीमा अनंत है। वह जितना ही धन संपदा के पीछे जाता है उतना ही वह एक तरह से दूर हो जाती हैं। किसी को सौ रुपया मिला तो वह हजार चाहता है, हजार मिला तो लाख चाहता है और लाख मिलने पर करोड़ की कामना करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दौलत की यह दौड़ कभी समाप्त नहीं होती। आदमी का मन मरते दम तक अतृप्त रहता है। जितनी ही वह संपत्ति प्राप्त करता है उससे ज्यादा पाने की भावना उसके मन में जाग्रत होने लगती है।
आखिर अधिकतर लोग संपत्ति का कितना उपयोग कर पाते हैं। सच तो यह है कि अनेक लोग जीवन में जितना कमाते हैं उतना उपभोग नहीं कर पाते। उनके बाद उसका उपयोग उनके परिजन करते हैं। बहुत कम लोग हैं जो सार्वजनिक हित के लिये दान आदि कर समाज हित का काम करते हैं। ऐसे ही लोग सम्मान पाते हैं। जिन लोगों की अकूल संपत्ति केवल अपने उपयोग के लिये है तो उसका महत्व ही क्या है? संपत्ति तो वह अच्छी है जिसे समाज के अन्य लोग भी उपयोग कर सके। जब समाज किसी की संपत्ति का उपयोग करता है तो उसको याद भी करता है।  इसके बावजूद इंसान संचय करने में लगा रहता है और भक्ति तथा ज्ञान से परे हो जाता है।

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फरिश्तों की दरबार-हिन्दी शायरी


फरिश्तों की दरबार में
क्यों हाजिरी लगाने जाते हो,
हो सकता है वहां रोज सुबह फर्श धोया जाता हो
रंगीन रात के जश्न की धूल धोने के लिये
तुम सफेद चेहरों की
काली नीयत क्यों नहीं समझ पाते हो।
पत्थर के बुतों की तरह खड़े हैं फरिश्ते वहां
सांसें लेने के लिये नहीं है, दिल की इबादत जहां
अपने दिल और दिमाग की
जगह साफ कर
फरिश्तों की दरबार अपने अंदर ही
क्यों नहीं सजाते हो।
अपनी रूह से ही
अपनी जिंदगी की रोशनी क्यों नहीं जलाते हो।
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बुरे आदमी से संगत सांप पालने से अधिक दुःखदायी-हिन्दी संदेश


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नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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झगड़ा भी एक शय की तरह बिकता-हिन्दी व्यंग्य कविता


झगड़ा भी एक शय है जो
बड़ा पाव की तरह बाजार में बिकती।
अमन के आदी लोगों में चैन कहां
कहीं शोर देखने की चाहत उनमें दिखती।
इसलिये लिख वह चीज जो
बाजार में बड़े दाम पर बिकती।
अठखेलियां करती कवितायें
मन भाती कहानियां और
अमन के गीत लिखना है तो
अपने दिल के सुकूल के लिये लिख
शोर से दूर एक अजूबा दिख
दुनियां में उनके चाहने वाले
गुणीजनों की अधिक नहीं गिनती।
अमन का पैगाम लिखकर क्या करेगा
जब तक उसमें शोर नहीं भरेगा
सौदागरों ने रची है तयशुदा जंग
उस पर रख अपने ख्याल
जिससे बचे बवाल
सजा दिया है उन्होंने बाजार
वहां शब्दों की जंग महंगी बिकती।
सोचता है अपना
दूसरा ही है तेरा सपना
नहीं बहना विचारों की सतही धारा में
तो तू अपना ही लिख
गहरे में डूबकर नहीं ढूंढ सके मोती
वही नकली ख्याल बहा रहे हैं
सब तरफ बवाल मचा रहे हैं
अपनी सोच की गहराई में उतर जा
कभी न कभी तेरे नाम का भी बजेगा डंका
सच्चे मोती की माला
कोई यूं ही नहीं फिंकती।
………………………………

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जज़्बात एक शय है-.हिन्दी शायरी


इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
……………………….
एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
……………………………..
छायागृह में चलचित्र के
एक दृश्य में
नायक घायल हो गया तो
एक महिला दर्शक रोने लगी।
तब पास में बैठी दूसरी महिला बोली
‘अरे, घर पर रोना होता है
इसलिये मनोरंजन के लिये यहां हम आते हैं
पता नहीं तुम जैसे लोग
घर का रोना यहां क्यों लाते हैं
अब बताओ
क्या सास ने मारकर घर से निकाला है
या बहु से लड़कर तुम स्वयं भगी
जो हमारे मनोरंजन में खलल डालने के लिये
इस तरह जोर जोर से रोने लगी।’
……………………………….
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हैती का भूंकप, ज्योतिष,पूंजीवाद और साम्यवाद-हिन्दी लेख


हैती में भूकंप, ज्योतिष, पूंजीवाद और समाजवाद जैसे विषयों में क्या साम्यता है। अगर चारों को किसी एक ही पाठ में लिखना चाहेंगे तो सब गड्डमड्ड हो जायेगा। इसका कारण यह है कि भूकंप का ज्योतिष से संबंध जुड़ सकता है तो पूंजीवाद और समाजवाद को भी एक साथ रखकर लिखा जा सकता है पर चार विषयों के दोनों समूहों को मिलाकर लिखना गलत लगेगा, मगर लिखने वाले लिख रहे हैं।
पता चला कि हैती में भूकंप की भविष्यवाणी सही निकली। भविष्यवक्ताओं को अफसोस है कि उनकी भविष्यवाणी सही निकली। पूंजीवादी देश हैती की मदद को दौड़ रहे हैं पर साम्यवादी बुद्धिजीवी इस हानि के लिये पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा यहां तक किया गया है कि पहले आये एक भूकंप में साम्यवादी क्यूबा में 10 लोग मरे जबकि हैती यह संख्या 800 थी-उस समय तक शायद पूंजीवादी देशों की वक्र दृष्टि वहां नहीं पड़ी थी। अब इसलिये लोग अधिक मरे क्योंकि पूंजीवाद के प्रभाव से वहां की वनसंपदा केवल 2 प्रतिशत रह गयी है। अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी देशों ने वहां की प्रकृति संपदा का दोहन किया जिससे वहां भूकंप ने इतनी विनाशलीला मचाई।
इधर ज्योतिष को लेकर भी लोग नाराज हैं। पता नहीं फलित ज्योतिष और ज्योतिष विज्ञान को लेकर भी बहस चल रही है। फलित ज्योतिष पीड़ित मानवता को दोहन करने के लिये है। ऐसे भी पढ़ने को मिला कि अंक ज्योतिष ने-इसे शायद कुछ लोग खगोल शास्त्र से भी जोड़ते है’ फिर भी प्रगति की है पर फलित ज्योतिष तो पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।
एक साथ दो पाठ पढ़े। चारों का विषय इसलिये जोड़ा क्योंकि हैती के भूकंप की भविष्यवाणी करने वाले की आलोचना उस साम्यवादी विचारक ने भी बिना नाम लिये की थी। यहां तक लिखा कि पहले भविष्यवाणी सही होने का दावा कर प्रचार करते हैं फिर निराशा की आत्मस्वीकृति से भी उनका लक्ष्य ही पूरा होता है। इधर फलित ज्योतिषियों पर प्रहार करता हुए पाठ भी पढ़ा। उसका भी अप्रत्यक्ष निशाना वही ज्योतिष ब्लाग ही था जिस पर पहले हैती के भूकंप की भविष्यवाणी सत्य होने का दावा फिर अपने दावे के सही होने को दुर्भाग्यपूणी बताते हुए प्रकाशित हुई थी। चार तत्व हो गये पर पांचवा तत्व जोड़ना भी जरूरी लगा जो कि प्रकृति की अपनी महिमा है।
मगर यह मजाक नहीं है। हैती में भूकंप आना प्राकृतिक प्रकोप का परिणाम है पर इतनी बड़ी जन धन हानि यकीनन मानवीय भूलों का नतीजा हो सकती है। हो सकता है कि साम्यवादी विचारक अपनी जगह सही हो कि पूंजीवाद ने ही हैती में इतना बड़ा विनाश कराया हो। ऐसी प्राकृतिक विपदाओं पर होने वाली हानि पर अक्सर प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी अपने हिसाब से पूंजीवाद और साम्राज्यवादी को निशाना बनाते हैं। उनको अमेरिका और ब्रिटेन पर निशाना लगाना सहज लगता है। वह इससे आगे नहीं जाते क्योंकि प्रकृति को कुपित करने वालों में वह देश भी शामिल हैं जो ऐसे बुद्धिजीवियों को प्रिय हैं। हमारा तो सीधा आरोप है कि वनों की कटाई या दोहन तो उन देशों में भी हो रहा है जो साम्यवादी होने का दावा करते हैं और इसी कारण कथित वैश्विक तापवृद्धि से वह भी नहीं बचे।
अब विश्व में तापमान बढ़ने की बात कर लें। हाल ही मे पड़ी सर्दी ने कथित शोधकर्ताओं के होश उड़ा दिये हैं। पहले कह रहे थे कि प्रथ्वी गर्म हो रही है और अब कहते हैं कि ठंडी हो रही है। भारत के कुछ समझदार कहते हैं कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी रक्षा भी करती है इसलिये गर्मी होते होते ही सर्दी होने लगी। दूसरी भी एक बात है कि भले ही सरकारी क्षेत्र में हरियाली कम हो रही है और कालोनियां बन रही हैं पर दूसरा सच यह भी है कि निजी क्षेत्र में पेड़ पौद्ये लगाने की भावना भी बलवती हो रही है। इसलिये हरित क्षेत्र का संकट कभी कभी कम होता लगता है हालांकि वह संतोषजनक नहीं है। गैसों का विसर्जन एक समस्या है पर लगता है कि प्रकृत्ति उनके लिये भी कुछ न कुछ कर रही है इसी कारण गर्मी होते होते सर्दी पड़ने लगी।
मुख्य मुद्दा यह है कि परमाणु बमों और उसके लिये होने वाले प्रयोगों पर कोई दृष्टिपात क्यों नहीं किया जाता? चीन, अमेरिका और सोवियत संघ ने बेहताश परमाणु विस्फोट किये हैं। इन परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी हानि पहुंची है उसका आंकलन कोई क्यों नही करता? हमारी स्मृति में आज तक गुजरात का वह विनाशकारी भूकंप मौजूद है जो चीन के परमाणु विस्फोट के कुछ दिन बाद आया था। इन देशों ने न केवल जमीन के अंदर परमाणु विस्फोट किये बल्कि पानी के अंदर भी किये-इनके विस्फोटों का सुनामी से कोई न कोई संबंध है ऐसा हमारा मानना है। यह हमारा आज का विचार नहीं बल्कि गुजरात भूकंप के बाद ऐसा लगने लगा है कि कहीं न कहीं परमाणु विस्फोटों का यह सिलसिला भी जिम्मेदारी है जो ऐसी कयामत लाता है। साम्यवादी विचारक हमेशा ही अमेरिका और ब्रिटेन पर बरस कर रह जाते है पर रूस के साथ चीन को भी अनदेखा करते हैं।
हमारा मानना है कि अगर यह चारों देश अपने परमाणु प्रयोग बंद कर सारे हथियार नष्ट कर दें तो शायद विश्व में प्रकृति शांत रह सकती है। विश्व में न तो पूंजीवाद चाहिये न समाजवाद बल्कि सहजवाद की आवश्यकता है। साम्राज्यवादी के कथित विरोधी देश इतने ही ईमानदार है तो क्यों पश्चिमी देशों की वीजा, पासपोर्ट और प्रतिबंधों की नीतियों पर चल रहे हैं। चीन क्यों अपने यहां यौन वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगा रहा है जैसे कि अन्य देश लगाते हैं। वह अभी भी आदमी का मूंह बंद कर उसे पेट भरने के लिये बाध्य करने की नीति पर चल रहा है।
जहां तक ज्योतिष की बात है तो अपने देश का दर्शन कहता है कि जब प्रथ्वी पर बोझ बढ़ता है तो वह व्याकुल होकर भगवान के पास जाती है और इसी कारण यहां प्रलय आती है। वैसे पश्चिम अर्थशास्त्री माल्थस भी यही कहता था कि ‘जब आदमी अपनी जनंसख्या पर नियंत्रण नहीं करती तब प्रकृति यह काम स्वयं करती है।’ यह सब माने तो ऐसे भूकंप और सुनामियां तो आती रहेंगी यह एक निश्चिम भविष्यवाणी है। प्रसिद्ध व्यंगकार स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरसत नहीं है। मारने वालों के पास हमसे बड़े लक्ष्य पहले से ही मौजूद है।’
इसी तर्ज पर हम भी यह कह सकते हैं कि धरती बहुत बड़ी है और वह क्रमवार अपनी देह को स्वस्थ कर रही है और जहां हम हैं वहां का अभी नंबर अभी नहीं आया है। कभी तो आयेगा, भले ही उस समय हम उस समय यहां न हों।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पेशेवर बौद्धिक विलासी- हिन्दी आलेख (peshevar buddhi vilasi)


हिटलर तानाशाह पर उसने जर्मनी पर राज्य किया। कहते हैं कि वह बहुत अत्याचारी था पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हर जर्मनी नागरिक का मार दिया। उसके समय में कुछ सामान्य नागरिक असंतुष्ट होंगे तो तो कुछ संतुष्ट भी रहेंगे। कहने का मतलब यह कि वह एक तानाशाह पर उसके समय में जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग शांति से रह रहा था। सभी गरीब नहीं थे और न ही सभी अमीर रहे होंगे। इधर हम दुनियां के अमीर देशों में शुमार किये जाने वाले जापान को देखते हैं जहां लोकतंत्र है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां की सारी जनता अपनी व्यवस्था से खुश होगी। वहां भी अमीर और गरीब होंगे।
किसी राज्य में प्रजाजनों में सभी अमीर होंगे तो भी सभी संतुष्ट नहीं होंगे सभी गरीब होंगे तो सभी असंतुष्ट भी नहीं होंगे। कहने का मतलब यही है कि राज्य की व्यवस्था तानाशाही वाली है या प्रजातंात्रिक, आम आदमी को मतलब केवल अपने शांतिपूर्ण जीवन से है। अधिकतर लोग अपनी रोजी रोटी के साथ ही अपने सामाजिक जीवन में दायित्व निर्वाह के साथ ही धाार्मिक, जातीय, भाषाई तथा क्षेत्रीय समाजों द्वारा निर्मित पर्वों को मनाकर अपना जीवन अपनी खुशी और गमों के साथ जीते हैं। अलबत्ता पहले अखबार और रेडियो में समाचार और चर्चाओं से सामान्य लोगों को राजनीतिक दृष्टि विकसित होती थी । अब उनके साथ टीवी और इंटरनेट भी जुड़ गया है। लोग अपने मनपसंद विषयों की सामग्री पढ़ते, देखते और सुनते है और इनमें कुछ लोग भूल जाते हैं तो कुछ थोड़ी देर के लिये चिंतन करते है जो कि उनका एक तरह से बुद्धि विलास है। सामान्य आदमी के पास दूसरे की सुनने और अपनी कहने के अलावा कोई दूसरा न तो उपाय होता है न सक्रिय येागदान की इच्छा। ऐसे में जो खाली पीली बैठे बुद्धिजीवी हैं जो अपना समय पास करने के लिये सभाओं और समाचारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जिनके साथ अब टीवी चैनल भी जुड़ गये हैं। इनकी बहसों पेशेवर बौद्धिक चिंतक भाग लेते हैं। ऐसा नहीं है कि चिंतक केवल वही होते हैं जो सार्वजनिक रूप से आते हैं बल्कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चिंतन की अभिव्यक्ति केवल अपने व्यक्ति गत चर्चाओं तक ही सीमित रखते हैं।
ऐसे जो गैर पेशेवर बुद्धिजीवी हैं उनके लिये अपना चिंतन अधिक विस्तार नहीं पाता पर पेशेवर बुद्धिजीवी अपनी चर्चा को अधिक मुखर बनाते हैं ताकि प्रचार माध्यमों में उनका अस्तित्व बना रहे। कहते हैं कि राजनीति, पत्रकारिता तथा वकालत का पेशा अनिश्चिताओ से भरा पड़ा है इसलिये इसमें निरंतर सक्रियता रहना जरूरी है अगर कहीं प्रदर्शन में अंतराल आ गया तो फिर वापसी बहुत मुश्किल हो जाती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पत्रकारिता-समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो- में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के लिये पेशेवर बौद्धिक चिंतक निरंतर सक्रिय रहते हैं। यह सक्रियता इतनी नियमित होती है कि उनके विचार और अभिव्यक्ति का एक प्रारूप बन जाता है जिसके आगे उनके लिये जाना कठिन होता है और वह नये प्रयोग या नये विचार से परे हो जाते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के बौद्धिक चिंतक जिस विषय का निर्माण करते हैं उस पर दशकों तक बहस चलती है फिर उन्हें स्वामित्व में रखने वाले राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष अपना नाम निरंतर चर्चा में देख प्रसन्न भी होते हैं। इधर अब यह भी बात समाचार पत्र पत्रिकाओं में आने लगी है कि इन्हीं बौद्धिक चिंतकों के सामाजिक, आर्थिक शिखर पुरुषों से इतने निकट संबंध भी होते हैं कि वह अपनी व्यवसायिक, राजनीतिक तथा अन्य गतिविधियों के लिये उनसे सलाह भी लेते हैं-यह अलग बात है कि इसका पता वर्षों बाद स्वयं उनके द्वारा बताये जाने पर लगता है। यही कारण है कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव की बात तो सभी करते हैं पर जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके पास कोई चिंतन नहीं है और उनके आत्मीय बौद्धिक लोगों के पास चिंतन तो है पर उसमें बदलाव का विचार नहीं है। बदलाव लाने के लिये सभी तत्पर हैं पर स्वयं कोई नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे उसमें अपने अस्तित्व बने रहने की गुंजायश नहीं दिखती।
लार्ड मैकाले वाकई एतिहासिक पुरुष है। उसने आज की गुलाम शिक्षा पद्धति का अविष्कार भारत पर अपने देश का शासन हमेशा बनाये रखने के लिये किया था पर उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके शासक यह देश छोड़ जायेंगे तब भी उनका अभौतिक अस्तित्व यहां बना रहेगा। इस शिक्षा पद्धति में नये चिंतन का अभाव रहता है। अगर आपको कोई विचार करना है तो उसके लिये आपके सामने अन्य देशों की व्यवस्था के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे या फिर विदेशी विद्वानों का ज्ञान आपके सामने रखा जायेगा। भारतीय सामाजिक सदंर्भों में सोचने की शक्ति बहुत कम लोगों के पास है-जो कम से कम देश में सक्रिय पेशेवर बुद्धिजीवियों के पास तो कतई नहीं लगती है।
इसका कारण यही है कि संगठित प्रचार माध्यमों-प्रकाशन संस्थान, टीवी चैनल और रेडियो-पर अभिव्यक्ति में भी एक तरह से जड़वाद हावी हो गया है। आपके पास कोई बड़ा पद, व्यवसाय या प्रतिष्ठा का शिखर नहीं है तो आप कितना भी अच्छा सोचते हैं पर आपके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा जितना पेशेवर बौद्धिक चिंतकों को दिया जाता है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं तो क्या आपक पत्र संपादक के नाम पत्र में छपेगा न कि किसी नियमित स्तंभ में। कई बार टीवी और रेडियो पर जब सम सामयिक विषयों पर चर्चा सुनते हैं तो लोग संबंधित पक्षों पर आक्षेप, प्रशंसा या तटस्थता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी घटना में सामान्य मनुष्य की प्रकृतियों और उसके कार्यों के परिणाम के कारण क्या हैं इस पर कोई जानकारी नहीं देता। एक बात याद रखना चाहिये कि एक घटना अगर आज हुई है तो वैसी ही दूसरी भी कहीं होगी। उससे पहले भी कितनी हो चुकी होंगी। ऐसे में कई बार ऐसा लगता है कि यह विचार या शब्द तो पहले भी सुने चुके हैं। बस पात्र बदल गये। ऐसी घटनाओं पर पेशेवर ंिचंतकोें की बातें केवल दोहराव भर होती है। तब लगता है कि चितकों के शब्द वैसे ही हैं जैसे पहले कहे गये थे।
चिंताओं की अभिव्यक्ति को चिंतन कह देना अपने आप में ही अजीब बात है। उनके निराकरण के लिये दूरगामी कदम उठाने का कोई ठोस सुझाव न हो तो फिर किसी के विचार को चिंतन कैसे कहा जा सकता है। यही कारण है कि आजकल जिसे देखो चिंता सभी कर रहे हैं। सभी को उम्मीद है कि समाज में बदलाव आयेगा पर यह चिंतन नहीं है। जो बदलाव आ रहे हैं वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से हैं न कि किसी मानवीय या राजकीय प्रयास से। हालांकि यह लेखक इस बात से प्रसन्न है कि अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिखर पर कुछ ऐसे लोग सक्रिय हैं जो शांति से काम करते हुए अभिव्यक्त हो रहे हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। फिर मुश्किल यह है कि बौद्धिक चिंतकों का भी अपना महत्व है जो प्रचार माध्यमों पर अपनी ढपली और अपना राग अलापते हैं। फिर आजकल यह देखा जा रहा है कि प्रचार माध्यमों में दबाव में कार्यकारी संस्थाओं पर भी पड़ने लगा है।
आखिरी बात यह है कि देश के तमाम बुद्धिजीवी समाज में राज्य के माध्यमों से बदलाव चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है राज्य का समाज में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिये। समाज के सामान्य लोगों को बुद्धिहीन, आदर्शहीन तथा अकर्मण्य मानकर चलना अहंकार का प्रमाण है। एक बात तय रही कि दुनियां में सभी अमीर, दानी ओर भले नहीं हो सकते। इसके विपरीत सभी खराब भी नहीं हो सकते। राजनीतिक, आर्थिक, और सामजिक शिखर पर बैठे लोग भी सभी के भाग्यविधाता नहीं बल्कि मनुष्य को निचले स्तर पर सहयेाग मिलता है जिसकी वजह वह चल पाता है। इसलिये देश के बुद्धिजीवी अपने विचारों में बदलाव लायें और समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो इसके लिये चिंतन करें-कम से कम जिन सामाजिक गतिविधियों में दोष है पर किसी दूसरे पर इसका बुरा प्रभाव नहीं है तो उसे राज्य द्वारा रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यंगकार स्वर्गीय शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में बरसों पहले लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरतस नहीं है। जो लोग यह काम करते हैं उनके पास लूटमार करने के लिये बहुत अमीर और बड़े लोग मौजूद हैं ऐसे में हम पर वह क्यों दृष्टिपात करेंगे।’ कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी इसलिये जिंदा है क्योंकि सभी आपस में मिलजुलकर चलते हैं न कि राज्य द्वारा उनको कोई प्रत्यक्ष मदद दी जाती है। ऐसे में समाज सहजता से चले और उसमें आपसी पारिवारिक मुद्दों पर कानून न हो तो ही अच्छा रहेगा क्योंकि देखा यह गया है कि उनके दुरुपयोग से आपस वैमनस्य बढ़ता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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तयशुदा लड़ाई-हिन्दी लघुकथा (fix religion war-hindi short story)


वह डंडा लेकर उस मैदान में लड़ने पहुंचे। यह मैदान ‘धर्मकुश्ती’ के लिये विख्यात था। मैदान के मध्य में उन दोनों ने अपने अपने धर्म का नाम लेकर लड़ाई शुरु की। पहले एक दूसरे पर डंडे से प्रहार करते-साथ में अपने धर्म की जय भी बोलते जाते। डंडे से डंडे टकराते। वह उनको चलाते चलाते थक गये तब वह डंडे फैंककर दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। एक दूसरे पर घूंसे बरसाते जाते। काफी जमकर कुश्ती हुई। मगर कोई नहीं जीता। वह थककर वहीं बैठ गये। उनके हाथ पांव में घावों से रक्त भी बहता आ रहा था।
उनको प्यास लगी। वहीं से कुछ दूर मैदान के किनारे बने चबूतरे पर एक ज्ञानी भी बैठा था जिसके साथ पानी पिलाने वाला एक शिष्य था। अपने उसी शिष्य से उस ज्ञानी से कहा कि‘जाओ उनको पानी पिलाओ। अब वह थककर चूर होकर बैठे हैं।
वह पानी लेकर उनके पास पहुंचा और दोनों को ग्लास भरकर देने लगा। धर्मयोद्धाओं में से एक ने उससे पूछा-‘तुझे कैसे मालुम कि हमें पानी की प्यास लगी है।’
उस शिष्य ने कहा-‘यह मैदान धर्मकुश्ती के लिये विख्यात है। यहां आप जैसे अनेक लोग आते हैं। हमारे ज्ञानी जी यहां रोज आकर बैठते हैं क्योंकि उनको मालुम है कि यहां आकर धर्म कुश्ती करने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा पर प्यास तो योद्धाओं उनको लगेगी। वह परेशान न हों इसलिये मुझे भी साथ रखते हैं ताकि उनको पानी दे सकूं।’
दूसरे ने पूछा-‘तेरा धर्म क्या है?’
शिष्य ने जवाब दिया-‘पानी पिलाना।’
पहले ने कहा-‘यह भी कोई धर्म है?’
शिष्य ने कहा-‘हमारे गुरुजी कहते हैं कि आज के अक्षरज्ञानी विद्वानों ने कुश्ती प्रदर्शन के लिये धर्मों का नाम रख लिया है। मनुष्य का आचरण, व्यवहार, कर्म तथा विचार से ही पता लगता है कि वह धर्मी है या अधर्मी।
पहले धर्म के नाम पर बांटकर लोगों पहले राज्य किया जाता है आज व्यापार भी किया जाता है। आप यहां कुश्ती करने आये कल यह खबर सभी जगह चमकेगी तो बताओ खबरफरोशों   का धंधा हुआ कि नहीं।’
उन दोनों ने पानी पिया और सुस्ताने लगे। उसी समय एक आदमी आया और बोला-‘शांति रखो! शांति रखो। सभी धर्म एक समान है। सभी धर्म शांति, अहिंसा और प्रेम का संदेश देते हैं।’
इससे पहले वह महायोद्धा कुछ कहते वह चला गया। इस तरह चार लोग शांति संदेश देकर चले गये। एक महायोद्धा ने शिष्य से पूछा-‘यह लोग कौन हैं?’
शिष्य ने कहा-‘‘ इनके नाम भी कल अपनी खबर के साथ देख लेना। यह पंच लोग हैं जो इस बात का इंतजार करते हैं कि कब यहां कुश्ती हो और शांति संदेश सुनाने पहुंच जायें। यह शांति सन्देश देकर अपना धर्म निभाते  हैं।  वैसे यह भी लोग नहीं जानते कि धर्म क्या है?’
दूसरे महायोद्धा ने कहा-‘पर इनका शांति संदेश तो ठीक लगता है। तुम्हारे गुरु जी किस धर्म को मानते हैं’।’
शिष्य ने कहा-‘वह ज्ञानी हैं और वह कहते हैं कि हमारे महापुरुषों तो अच्छे आचरण, व्यवहार, कर्म तथा सुविचार को ही धर्म मानते हैं और इसके विपरीत अधर्म। मेरा धर्म है प्यासे को पानी पिलाना और उनका धर्म है ज्ञान देना।’
एक महायोद्धा ने कहा-‘हम उनसे ज्ञान लेना चाहते हैं।’
शिष्य ने कहा-‘यह उनका ज्ञान देने का समय नहीं है। वह तो यहां इसलिये आते हैं ताकि ऐसी कुश्तियों से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें। यहां आकर योद्धा आपस में मूंहवाद भी करते हैं। अपने अपने तर्क देते हैं उन्हें सुनकर वह अपना मंतव्य निर्धारित करते हैं। अब आप बाहर जाकर अपने जख्मों का इलाज कराओ। वहां भी एक चिकित्सक हैं जो सेवा भाव से धर्म कुश्ती में घायल होने वालों का इलाज करते हैं।’
वह दोनों लड़खड़ाते हुए बाहर चल दिये। चलते चलते भी दोनों एक दूसरे को गालियां देते रहे।
इधर यह शिष्य अपने गुरू के पास लौटा। गुरू ने उससे पूछा-‘उनको ठीक ढंग से पानी पिलाये आये?’
‘हां, गुरुजी, मैंने अपना धर्म निभा दिया।’शिष्य ने कहा।
गुरुजी अपने ध्यान में लीन हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली तो इधर अचानक शिष्य की नजर उन दो डंडों पर पड़ी जो दोनों योद्धा उस मैदान में छोड़ गये थे। वह बोला-‘गुरूजी! उनके डंडे छूट गये हैं। वह ले जाकर उनको वापस कर आता हूं। वह जरूर उसी डाक्टर के पास होंगे।’
गुरुजी ने कहा-‘रहने दे! डंडे अब उनके किसी काम के नहीं है। वह दोनों शांत हो गये हैं। अगर डंडा हाथ में लेंगे तो कहीं उनकी आग फिर भड़क उठी तो गलत होगा। तेरा काम पानी पिलाना है न कि आग लगाना।’
शिष्य ने कहा-‘नहीं गुरुजी, आपने कहा है कि हर किसी की मदद करना चाहिये। इन डंडों को वापस करना अच्छा होगा।’
इससे पहले गुरुजी कुछ समझाते वह भाग कर चला गया। कुछ देर बाद शिष्य लौटा तो उसके बदन पर भी पट्टी बंधी हुई थी। गुरुजी के कारण पूछने पर वह बोला-‘वह दोनों अपने जख्मों पर पट्टी बंधवा चुके थे। जब मैंने जाकर उनको डंडे दिये तो दोनों ने यह कहते हुए मुझ पर डंडे बरसाये कि तू हमारी इजाजत के बगैर हमारी कुश्ती देख कैसे रहा था?’
गुरुजी ने कहा-‘मैंने तुझसे कहा था कि तेरा धर्म पानी पिलाना पर तू आग लगाने पहुंच गया। यह धर्म परिवर्तन करना ही तेरे लिये घातक रहा। तेरे संस्कारों में डंडा चलाना नहीं लिखा तो तू चला भी नहीं सकता। इसलिये उसे हाथ लगाना भी तेरे लिये अपराध है। फिर तू उन लोगों की संगत करने गया जिनके संस्कार तेरे ठीक विपरीत हैं। तू धर्म ईमानदारी से निभाता है उन धर्मकुश्ती करने वाले योद्धाओं से पानी पिलाने तक ही तेरा संबंध ठीक था। इससे आगे तो यही होना था।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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अपनी रचनाएँ भुनाओ-हास्य कविता (apni rachna-hindi hasya kavita)


श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’

सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।

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दीपावली का पर्व निकल गया-आलेख


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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