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संत कबीरदास के दोहे-भगवान के साथ चतुराई मत करो


सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात

संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनाथ

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

भृतहरि शतकःआजीविका कमाते हुए मनुष्य की जिंदगी चली जाती है



हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमध्यिां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

हिंदी में भावार्थ-परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीविकोपार्जन के लिये कार्य करना पड़ता है पर वह केवल इससे संतुष्ट नहीं होता। उसने अनेक तरह के सामाजिक व्यवहारों की परंपरा बना ली है जिसके निर्वहन के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है। मनुष्य समुदाय ने कथित संस्कारों के नाम पर एक दूसरे मुफ्त में भोजन कराने के लिये ऐसे रीति रिवाजों की स्थापाना की है जिनको हरेक के लिये करना अनिवार्य हो गया है और जो नहीं करता उसका उपहास उड़ाया जाता है। अपने परिवार के भरण-पोषण करने के अलावा पूरे कथित समाज में सम्मान की चिंता करता हुआ आदमी पूरी जिंदगी केवल इसी में ही बिता देता है और कभी उसके पास भजन के लिये समय नहीं रह पाता। वह न तो अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर पाता है और न इस प्रकृति के विभिन्न रूपों को देख सकता है। बस अपना जीवन ढोता रहता है। अपने अंदर बौद्धिक गुणों का वह कभी उपयोग नहीं कर पाता।

संत कबीर वाणी:काटने पर भी लकडी जहाज बनकर पार लगाती है


तरुवर जड़ से काटिया, जबै तम्हारो जहाज
तारे पर बोरे नहीं, बांह गाहे की लाज

संत कबीर दास जी कहते हैं कि लोग वृक्ष को जड़ से काट डालते हैं, परन्तु उस वृक्ष की लकडी का जब जहाज बन जाता है, तब भी वह काटने वाले को नदी-समुद्र से पार लगाता है शत्रु मानकर डुबाता नहीं है। सच है, बडे लोग बांह पकड़ने में लज्जा करते हैं।

आशय- संत कबीर दास जी कहते वृक्ष से बड़प्पन का गुण लेने की सलाह देते हैं। आदमी लकडी को बेरहमी से काट कर नाव बनाता है इसके बावजूद वह बदला लेने के लिए उसे सागर में नहीं डुबाती। इसी तरह सज्जन लोग किसी पर क्रोध प्रदर्शन न कर परहित के कार्य में लगे रहते हैं ।

कबीर विषधर बहु मिलै, मणिधर मिला न कोय
विषधर को मणिधर मिलै, विष तजि अमृत होय

संत कबीर दास जी कहते हैं कि विषधर सर्प तो बहुत मिलते हैं पर मणि वाल सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाय तो विष मिटकर अमृत हो जाता है।

भावार्थ-कहते हैं कि जहाँ सांप ने काट लिया हो वहाँ मणि लगाने से विष निकल जाता है। वही मणि दूध में डाल कर पीया जाये उसका कोड भी दूर हो जाता है (हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है)। आशय यह है कि यहाँ बुर लोगों की संगत के कारण बुरी आदतें तो बहुत जल्दी आ जाती हैं पर अच्छे की संगत बहुत जल्दी नहीं मिल पाती है और अगर मिल जाये तो अपने आप ही अच्छे संस्कार विचार मन में आ जाते हैं।

संत कबीर वाणी:हाथी के मुहँ से गिरे दाने से चींटी पेट पालती है


कुंजी मुख से कन गिरा, खुटै न वाको आहार
कौड़ी कन लेकर चली, पोषन दे परिवार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि खाते हुए हाथी के मुख से यदि अन्न का दाना गिर जाये तो उसके आहार पर कोई अंतर नहीं पड़ता पर उसे चींटी ले जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। इस तरह यह संसार दया भाव पर चलता है।
भावे जाओ बादरी, भावै जावहु गया
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब ते बड़ी दया

सन्त शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि चाहे बद्रीनाथ जाओ या गया धाम, जहां अच्छा लगे वहां जाओं पर इस संसार में मन को प्रसन्न करने का केवल एक ही तरीका है कि दूसरे पर दया करो।
जहां दया वहां धर्म है, जहां लोभ तहं पाप
जहां क्रोध वहां काल है, वहां क्षमा वहां आप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जहां दया है वहीं धर्म स्थित होता है और जहां लोभ है वहां पाप है। जहां क्रोध है वहां काल और जहां क्षमा है वहां परमात्मा का वास है।

Sant Kabir speech: relevant to interfere with a devotional


inglish translation by googl tool

1.Sant Kabir G says that the head clean – clean water and clothes to wear a life spent in the nut account. Without the devotional guru spent his life meaningless, are receiving death

2.Sant Kabir G says head of the world’s increasing friendship with the people of God comes devotional doubleentry.xml.in.h obstacle. Ram sat in the privacy of a memorial should be relevant only if the sadhus, or can be devotional.

In the context of the current interpretation – devotional people have stressed from the noise are cosy. Temples and prayer houses of worship in the pattern of film songs to hear such people are dancing as if he were God’s devotional. Groups in cities away by making statues in the temples of philosophy to go. While the show itself and others, is devotional, not on the mind of satisfaction. The devotional man’s mind so that it will be received on such a crowded, noisy, the cosy God in vain to remember because our focus is not on the one hand remains. The fact is that in the privacy of devotional and meditation. Concentration will be the same as in the ideas of cleanliness and purity will. If we think that a fellow with us in this devotional, it became not possible. If a person is or will be with us much attention, and it will take devotional sense of concentration can not come. If we want God’s peace of mind, the devotional met in art should try to privacy.

संत कबीर वाणी:पढ़-लिख कर खुद न समझे, दूसरे को पढाये


पढी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत पढ़-लिखकर दूसरों को पढाने और उपदेश देने लगे पर अपने को नहीं समझा पाए तो कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अपना खुद का जीवन तो व्यर्थ ही जा रहा है।

भावार्थ- आज के संदर्भ में भी उनके द्वारा यह सत्य हमें साफ दिखाई देता है, अपने देखा होगा कि दूसरों को त्याग और परोपकार का उपदेश देने वाले पाखंडी साधू अपने और अपने परिवार के लिए धन और संपत्ति का संग्रह करते हैं और अपनी गद्दी भी अपने किसी शिष्य को नहीं बल्कि अपने खून के रिश्ते में ही किसी को सौंपते हैं। ऐसे लोगों की शरण लेकर भी किसी का उद्धार नहीं हो सकता।

पढ़त गुनत रोगी भया, बडा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, बड़ी न पड़ती सान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कुछ लोग किताबें पढ़, सुन और गुनकर रोगी हो गये और उन्हें अभिमान हो जाता है। जगत को विषय-कामनाओं का ताप भीतर ताप रहा है, घड़ी भर के लिए शांति नहीं मिलती है।
भावार्थ-आपने देखा होगा कि कुछ लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़कर दूसरों को समझाने लगते हैं। दरअसल उनको इस बात का अहंकार होता है कि हमें ज्ञान हो गया है जबकि वह केवल शाब्दिक अर्थ जानते हैं पर उसके भावार्थ को स्वयं अपने मन में उन्होने धारण नहीं किया होता है।

तरुवर जड़ से काटिया, जबै तम्हारो जहाज
तारे पर बोरे नहीं, बांह गाहे की लाज

संत कबीर दास जी कहते हैं कि लोग वृक्ष को जड़ से काट डालते हैं, परन्तु उस वृक्ष की लकडी का जब जहाज बन जाता है, तब भी वह काटने वाले को नदी-समुद्र से पार लगाता है शत्रु मानकर डुबाता नहीं है। सच है, बडे लोग बांह पकड़ने में लज्जा करते हैं। आशय- संत कबीर दास जी कहते वृक्ष से बड़प्पन का गुण लेने की सलाह देते हैं। आदमी लकडी को बेरहमी से काट कर नाव बनाता है इसके बावजूद वह बदला लेने के लिए उसे सागर में नहीं डुबाती। इसी तरह सज्जन लोग किसी पर क्रोध प्रदर्शन न कर परहित के कार्य में लगे रहते हैं । कबीर विषधर बहु मिलै, मणिधर मिला न कोय विषधर को मणिधर मिलै, विष तजि अमृत होय
संत कबीर दास जी कहते हैं कि विषधर सर्प तो बहुत मिलते हैं पर मणि वाल सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाय तो विष मिटकर अमृत हो जाता है। भावार्थ-कहते हैं कि जहाँ सांप ने काट लिया हो वहाँ मणि लगाने से विष निकल जाता है। वही मणि दूध में डाल कर पीया जाये उसका कोड भी दूर हो जाता है (हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है)। आशय यह है कि यहाँ बुर लोगों की संगत के कारण बुरी आदतें तो बहुत जल्दी आ जाती हैं पर अच्छे की संगत बहुत जल्दी नहीं मिल पाती है और अगर मिल जाये तो अपने आप ही अच्छे संस्कार विचार मन में आ जाते हैं।

नोट- थके हारे योग साधना शुरू करें-यह लेख अवश्य पढें उसका पता नीचे लिखा हुआ है ।
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