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इश्क पर हास्य कविता-हिन्दी काव्य प्रस्तुति (ishq par hasya kavita-hindi comic poem)


पुरानी प्रेमिका मिली अपने
पुराने प्रेमी कवि से बहुत दिनों बाद
और बोली,
‘कहो क्या हाल हैं,
तुम्हारी कविताओं की कैसी चाल है,
सुना है तुम मेरी याद में
विरह गीत लिखते थे,
तुम पर सड़े टमाटर और फिंकते थे,
अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की
वरना पछताती,
कितना बुरा होता जब बेस्वादी चटनी से
बुरे आमलेट ही जीवन बिताती,
तुम भी दुःखी दिखते हो
क्या बात है,
पिचक गये तुम्हारे दोनों गाल हैं,
मेरी याद में विरह गीत लिखते तुम्हारा
इतना बुरा क्यों हाल है।’
सुनकर कवि बोला
‘तुमसे विरह होना अच्छा ही रहा था,
उस पर मेरा हर शेर हर मंच पर बहा था,
मगर अब समय बदल गया है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया संकट खड़ा,
लड़कियों की हो गयी कमी
हर नवयुवक इश्क की तलाश में परेशन है बड़ा,
जिनकी जेब भरी हुई है
वह कई जगह साथ एक जगह जुगाड़ लगाते हैं,
जिनके पास नहीं है खर्च करने को
वह केवल आहें भर कर रह जाते हैं,
विरह गीतों का भी हाल बुरा है,
हर कोई सफल कवि हास्य से जुड़ा है,
इश्क हो गयी है बाज़ार में बिकने की चीज,
पैसा है तो करने में लगता है लज़ीज,
एक से विरह हो जाने से कौन रोता है,
दौलत पर इश्क यूं ही फिदा होता है,
दिल से नहीं होते इश्क कि टूटने पर कोई हैरान हो,
कल दूसरे से टांका भिड़ जाता है
फिर क्यों कोई विरह गीत सुनने के लिये परेशान हो,
जिन्होंने बस आहें भरी हैं
उनको भी इश्क पर हास्य कविता
सुनने में मजा आता है,
आशिक माशुकाओं का खिल्ली उड़ाने में
उनका दिल खिल जाता है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया कचड़ा समाज का,
इश्क पर फिल्में बने या गीत लिखे जा रहे ज्यादा
मगर तरस रहा इसके लिये आम लड़का आज का,
तुम्हारे विरह का दर्द तो अभी अंदर है
मगर उस पर छाया अब हास्य रस का जाल है।
———–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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‘सच का सामना’ वह ख्याल से कर रहे होते-हास्य व्यंग्य और कवितायें (sach se samana-hindi vyangya aur kavitaen)


ख्याल कभी सच नहीं होते
आदमी की सोच में बसते ढेर सारे
पर ख्याल कभी असल नहीं होते।
कत्ल का ख्याल आता है
कई बार दिल में
पर सोचने वाले सभी कातिल नहीं होते।
धोखे देने के इरादे सभी करते
पर सभी धोखेबाज नहीं होते।
हैरानी है इस बात की
कत्ल और धोखे के ख्याल भी
अब बीच बाजार में बिकने लगे हैं
सच की पहचान वाले लोग भी अब कहां होते।।

…………………………..

आदमी का दिमाग काफी विस्तृत है और इसी कारण उस अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है। यह दिमाग उसे अगर श्रेष्ठ बनाता है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उस पर कोई कब्जा कर ले तो वह गुलाम भी बन जाता है। इसलिये इस दुनियां में समझदार आदमी उसे ही माना जाता है जो बिना अस्त्र शस्त्र के दूसरे को हरा दे। अगर हम यूं कहे कि बिना हिंसा के किसी आदमी पर कब्जा करे वही समझदार है। हम इसे अहिंसा के सिद्धांत का परिष्कृत रूप भी कह सकते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को डेढ़ सौ साल गुलाम बनाये रखा। वह हमेशा इसे गुलाम बनाये नहीं रख सकते थे इसलिये उन्होंने ऐसी योजना बनायी जिससे इस देश में अपने गोरे शरीर की मौजूदगी के बिना ही इस पर राज्य किया जा सके। इसके लिये उन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति का सहारा लिया। बरसों से बेकार और निरर्थक शिक्षा पद्धति से इस देश में कितनी बौद्धिक कुंठा आ गयी है जिसे अभी दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना में देखा जा सकता है।
‘आप अपने पति का कत्ल करना चाहती थीं?’
‘आप अपनी पत्नी को धोखा देना चाहते थे?’
पैसे मिल जायें तो कोई भी कह देगा हां! हैरानी है कि समाचार चैनल कह रहे हैं कि ‘हां, कहने से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया।’
सबसे बड़ी बात यह है कि लोग सच और ख्याल के बीच का अंतर ही भूल गये हैं। कत्ल का ख्याल आया मगर किया तो नहीं। अगर करते तो जेल में होते। अगर धोखे का ख्याल आया पर दिया तो नहीं फिर अभी तक साथ क्यों होते?
वह यूं घबड़ा रहे हैं
जानते हैं कि झूठ है सब
फिर भी शरमा रहे हैं।
सच की छाप लगाकर ख्याल बेचने के व्यापार से
वह इसलिये डरे हैं कि
उसमें अपनी जिंदगी के अक्स
उनको नजर आ रहे हैं।
कहें दीपक बापू
ख्यालों को हवा में उड़ते
सच को सिर के बल खड़े देखा है
कत्ल और धोखे का ख्याल होना
और सच में करना
अलग बात है
ख्याल तो खुद के अपने
चाहे जहां घुमा लो
सच बनाने के लिये जरूरत होती है कलेजे की
साथ में भेजे की
अक्ल की कमी है जमाने के
इसलिये सौदागर ख्याल को सच बनाकर
बाजार में बेचे जा रहे हैं।
ख्यालों की बात हो तो
हम एक क्या सौ लोगों के कत्ल करने की बात कह जायें
सामना हो सच से तो चूहे को देखकर भी
मैदान छोड़ जायें
पैसा दो तो अपना ईमान भी दांव पर लगा दें
सर्वशक्तिमान की सेवा तो बाद में भी कर लेंगे
पहले जरा कमा लें
बेचने वालों पर अफसोस नहीं हैं
हैरानी है जमाने के लोगों पर
जो ख्वाबों सच के जज्बात समझे जा रहे हैं
शायद झूठ में जिंदा रहने के आदी हो
हो गये हैं सभी
इसलिये ख्याली सच में बहे जा रहे हैं।

……………………………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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तंबू फिर तनेगा-त्रिपदम


क्यों डरे हो
काफिला लुट गया
फिर बनेगा।

यह तूफान
उड़ा ले गया तंबू
फिर तनेगा।

हार या जीत
का चक्र चलता है
खेल जमेगा।

बिखर गया
साथियों का हुजूम
फिर लगेगा।

खुद को धोखा
देने से बचे रहो
रंग जमेगा।

एक बार में
टूट गया ख्वाब
फिर बढ़ेगा।

चिपको मत
अपनी नाकामी से
मन डरेगा ।

मकसद को
जिंदा रखो जरूर
वह जमेगा।

तुम न रहे
कोई दूसरा वीर
जंग लड़ेगा।

……………………….

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जुबान में ढूंढते हैं प्यार भरे शब्द-हिंदी शायरी


कहां जाकर दिल बहलायें
सभी जगह दर्द का दरिया बहता पायें
ढूंढते हैं कुछ हंसते हुए चेहरे
और खुश दिल
पर कोई जानता ही नहीं
कैसे जिंदगी को जिया जाता है
सभी को अपने दर्द सहता पायें
जुबानों में ढूंढते हैं अपने लिये प्यार भरे शब्द
पर लोग अपनी दौलत और शौहरत के
ढेर पर बैठकर इतरायें
जो हाल पूछो तो
अपनी तकलीफों का सागर दिखायें
कहीं खामोशी से बैठकर सोचते हैं
तब लगता है कि
भीड़ में कहीं चैन नहीं मिलता
अकेले में बैठकर कुछ गीत गुनगुनायें
लोगों के जिस्म हैं नासाज
दिल हैं टूटे हुए
उनसे भला क्या उम्मीद लगायें

…………………………………
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जिंदा रहने के बहाने तलाशता आदमी-हिंदी शायरी


एक बच्चे के पैदा होने पर
घर में खुशी का माहौल छा जाता है
भागते हैं घर के सदस्य इधर-उधर
जैसी कोई आसमान से उतरा हो
ढूढे जाते हैं कई काम जश्ने मनाने के लिए
आदमी व्यस्त नजर आता है

एक देह से निकल गयी आत्मा
शव पडा हुआ है
इन्तजार है किसी का, आ जाये तो
ले जाएं और कर दें आग के सुपुर्द
तमाम तरह के तामझाम
रोने की चारों तरह आवाजें
कई दिन तक गम मनाना
दिल में न हो पर शोक जताना
आदमी व्यस्त नजर आता है

निभा रहे हैं परंपराएं
अपने अस्तित्व का अहसास कराएं
चलता है आदमी ठहरा हैं मन
बंद हैं जमाने के बंदिशों में
लगता है आदमी काम कर रहा है
पर सच यह है कि वह भाग रहा है
अपने आपसे बहुत दूर
जिंदा रहने के बहाने तलाशता
आदमी व्यस्त नजर आता है
————————–

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फ़रिश्ते अब जमीन पर नहीं आते-हिन्दी शायरी


बम के धमाके से कांप गये शहर
इमारते कांपने लगी
वाहन उड़ गये हवा में
बिछ गयी लाशें सड़कों पर
पसर गया चारों और खून
दानव अट्टहास करते हुए बोला
‘’अब देवता धरती पर नहीं आते
मेरे अवतार होने के भय से वह भी घबड़ाते
पर मुझे भी वहां जाने की क्या जरूरत
इंसानों ने ही धर लिया है मेरा भेष
मुझसे काम अधिक तो वही कर आते
मैं तो देवताओं के चाहने वालों पर ही
करता था हमला
वह तो चाहे जिसे मारकर चले जाते
आम इंसानों के दिल में
बहुत समय तक दहशत फैलाकर
मेरे को ठंडक पहुंचाते
इंसान के मरने से अधिक
उसके तड़पने के अंदाज मुझे भाते
दानव का अब अवतार नहीं होता
धरती पर कुछ इंसान मेरे भेष में भी हैं
यह बात सब नहीं जान पाते’’
………………………………..

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कहर और मदद-हिंदी कविता


वह दूसरे के उजड़ने पर ही

अपने घर भर पाते हैं

इसलिये ही मददगार कहलाते हैं

बसे रहें शहर

उनको कभी नहीं भाते हैं

टकीटकी लगाये रहते हैं

वह आकाश की तरफ

यह देखने के लिये

कब धरती पर कहर आते है

जब बरसते हैं वह

उनके चेहरे खिल जाते हैं
…………………………….

संवेदनाओं की नदी अब सूख गयी है

कहर के शिकार लोगों पर आया था तरस

मन में उपजी पीड़ाओं ने

मदद के लिये उकसाया

पर उनके लुटने की खबर से

अपने दिल में स्पंदन नहीं पाया

लगा जैसे संवेदना की नदी सूख गयी है

कौन कहर का शिकार

कौन लुटेरा

देखते देखते दिल की धड़कनें जैसे रूठ गयी हैं
…………………………………….

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दर्द कितना था और कितने जाम पिये -हिंदी शायरी



यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये

कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये

शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये

जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………

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शायर और माशुका-हास्य कविता


माशुका ने शायर से कहा
‘बहुत बुरा समय था जब मैंने
अपनी सहेलियों के सामने
किसी शायर से शादी करने की कसम खाई
तुमने मेरे इश्क में कितने शेर लिखे
पर किसी मुशायरे में तुम्हारे शामिल होने की
खबर अखबार में नहीं आई
सब सहेलियां शादी कर मां बन गयीं
पर मैं उदास बैठी देखती हूं
अब तो कोई मशहूर शायर
देखकर शादी करनी होगी
नहीं झेल सकती ज्यादा जगहंसाई’

शायर खुश होकर बोला
‘लिखता बहुत हूं
पर सुनने वाले कहते हैं कि
उसमें दर्द नहीं दिखता
भला ऐसा कैसे हो
जब मैं तुम्हारे प्यार में
श्रृंगार रस में डुबोकर शेर लिखता
अब तो मेरे शेरों में दर्द की
नदिया बहती दिखेगी
जब शराब मेरे सिर पर चढ़कर लिखेगी
अपने प्यार से तुम नहीं कर सकी मुझे रौशन
मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई’

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प्यार का पहला शब्द कहना सीख ले-हिंदी शायरी


अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–

यह कविता/लघुकथा पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर लिखा गया है। इस पर कोई विज्ञापन नहीं है। न ही यह किसी वेबसाइट पर प्रकाशन के लिये इसकी अनुमति दी गयी है।
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उधार की बैसाखियाँ

आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा

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विषयों के पहाड़ खोदने से क्या फायदा-हास्य कविता



अब तो मुद्दे जमीन पर नहीं बनते
हवा में लहराये जाते
राई से विषय पहाड़ बताये जाते
मसले अंदर कमरे में कुछ और होते
बाहर कुछ और बताये जाते
चर्चा होती रहे पब्लिक मेंं
पर समझ मेंं न आये किसी के
ऐसे ही विषय उड़ाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘कई बार विषयों का पहाड़ खोदा
कविता जैसी निकली चुहिया
भाई लोग उस पर हंसी उड़ाये जाते
बहुत ढूंढा पढ़ने को मिला नहीं
होती कहीं कोई डील है
इसमें कुछ लोगों को है गुड फील
किसी को लगती पांव में कील है
कोई समझा देता तो
न लिखने का होता गिला नहीं
कोई खोजी पत्रकार नहीं
जैसा मिला वैसा ही चाप (छाप) दें
हम तो खोदी ब्लागर ठहरे
विषयों का पहाड़ खोदते पाताल तक पहुंच जाते
कोई जोरदार पाठ बनाये जाते
पर पहले कुछ बताता
या फिर हमारे समझ में आता
तो कुछ लिख पाते
इसलिये केवल हास्य कविता ही लिखते जाते
क्या फायदा विषय का पहाड़ खोदने से
जब केवल निकले चुहिया
उसे भी हम पकड़ नहीं पाते

(दीपक भारतदीप, लेखक एवं संपादक)

………………………………………………………………..

शैतानों के महल होते सब जगह-कविता



कई बस्तियां बसीं और उजड़ गईं
राजमहल खडे थे जहाँ
अब बकरियों के चरागाह हो गए

सर्वशक्तिमान अपनी कृपा के साथ
कहर का हथियार नहीं रखता अपने साथ
तो कौन मानता उसे
कई जगह उसका भी प्रवेश होता वर्जित
नाम लिया जाता
पर घुसने नहीं दिया जाता
नरक और स्वर्ग के दृश्य यहीं दिखते
फिर कौन ऊपर देख कर डरता
खडे रहते फरिश्ते नरक में
शैतानों के महल होते सब जगह
जो अब इतिहास के कूड़ेदान में शामिल हो गए
————————————–

चंद किताबों को पढ़कर
सबको वह सुनाते हैं
खुद चलते नहीं जिस रास्ते
वह दूसरे को बताते हैं
उपदेश देते हैं जो शांति और प्रेम का
पहले वह लोगों को लडाते हैं
फिर गुरु की भूमिका में आते हैं
—————————————

ख्याल और जिंदगी-हिन्दी साहित्य कविता


बरसों साथ पलता है ख्याल मन में
पर जब सच होकर सामने आता
पर जो देखते थे तब भी नजर नहीं आता
घड़ी का काँटा चलता जाये
मौसम भी बदलता जाये
पर हम खडे रहते वहीं
जहाँ हमारा ख्याल हमें ठहराता

कई बरस तक रहता है कोई ख्याल
जब सामने आता है तो
खुद ही होते बेहाल
उसका रूप वैसा नहीं होता
कभी-कभी तो उजड़ा रूप सामने आता
यह जिन्दगी एक सफर है
जिसका पहिया घूमता जाये
हमारे पाँव कहीं नहीं ठहरते
फिर भी ख्याल नहीं बदलते
अपने ख्याल पह ही अड़ते
कभी जो सच नहीं बन पाता

क्यों अपनी ख्याली दुनिया बनाते हैं
क्यों अपना जिस्म जलाते हैं
ख्यालों से करते जो दोस्ती
उनका कहीं ठिकाना नहीं बनता
बदलते वक्त के साथ बहते हैं
यह जीवन भी उनको रास आता
—————————-

समाज को काटकर कल्याण के लिए सजाते-व्यंग्य कविता


समाज को काटकर कल्याण के लिए सजाते-व्यंग्य कविता
———————————————

समाज को टुकडों-टुकडों में बांटकर
उसे अब दिखाने के लिए वह सजाते
हर टुकड़े पर लगते मिटटी का लेप
और रंग-बिरंगा बनाते

बालक, वृद्ध, महिला, युवा, और अधेड़ के
कल्याण की लगाते तख्तिया और
उनके कल्याण के लिए बस
तरह-तरह के नारे लगाते
इन्हीं टुकडों में लोग अपनी पहचान तलाशते
स्त्री से पुरुष का
जवान से वृद्ध का भी हित होगा
इस सोच से परे होकर
कर रहे हैं दिखावे का कल्याण
फिर भी समाज जस का तस है
चहूँ और चल रहा अभियान
असली मकसद तो अपने घर भरना
वाद और नारा है कल्याण
अगर समाज एक थाली की तरह सजा होता
तो दिखाने के लिए भरने पड़ते पकवान
टुकडों में बाँट कर छेडा है जोड़ने का अभियान
अब कोई पूछता है तरक्की का हिसाब तो
समाज के टुकडों को जोड़ता दिखाते

तोड़ने और बांटने की कला
देखकर अब तो अंग्रेज भी शर्माते
——————————————–

जिन के सिर पर होता कोहिनूर चैन से होते वही दूर-कविता साहित्य
—————————————————–

कई लोग लड़ते हैं जंग
सभी को हमेशा सिंहासन
नसीब नहीं होता
अगर मिल भी जाये तो
उस पर बैठना कठिन होता
चारों तरफ फैला उनका नाम
कदम-कदम पर उनका चलता
दिखता है हुक्म
पर यह एक भ्रम होता

चैन और सब्र से होता दूर
मन का गरीब होता है
तारीख है गवाह इस बात की
खतरे में वही जीते हैं
जिन के सिर कोहिनूर होता
—————————–

कभी चले थे साथ-साथ-कविता साहित्य
———————————————

कभी चले थे हम साथ-साथ
थामें रहते थे एक-दूसरे का हाथ

एक दूसरे के दिल थे इतने पास
कभी अलग होंगे
यह हमने सोचा ही नहीं था
वक्त गुजरते-गुजरते दूर होते गए
हम पाले रहे याद उनकी
उनके बिना लम्हें खालीपन के साथ

यूं ही गुजरते रहे
कभी दिल भी इतनी दूर होंगे
यह हमने सोचा ही नहीं था
उनकी याद में हमें दिल में
चिराग उम्मीद के जगाये रखे
जब भी उनकी याद आयी
अधरों पर मुस्कान उभर आयी
हम अपने अंधेरों में भी
उनसे रौशनी उधर मांगें
यह हमने सोचा ही नहीं था
जो एक बार उनके
घर के बाहर रोशनी देखी
उस दिन कदम खिंच गए
वह अपनी खुशी में
वह हमें भूल जायेंगे
यह हमने कभी सोचा ही नहीं था
हमें देखकर भी उनके चेहरे पर
मुस्कान नहीं आयी
आखें थी उनकी पथराई
हम खडे थे स्तब्ध
उनके मेहमानों की फेहस्त में
हमारा नाम नहीं था
पास थे हम, पर दूर रहा उनका हाथ
———————————-

आदमी ताउम्र उठाता है भ्रमों का बोझ-कविता साहित्य


हर पल लोगों के सामने
अपना कद बढाने की कोशिश
हर बार समाज में
सम्मान पाने की कोशिश
आदमी को बांधे रहती है
ऐसे बंधनों में जो उसे लाचार बनाते

ऐसे कायदों पर चलने की कोशिश जो
सर्वशक्तिमान के बनाए बताये जाते
कई किताबों के झुंड में से
छांटकर लोगों को सुनाये जाते
झूठ भी सच के तरह बताते

सब जानते हैं कि भ्रम रचे गए हैं
आदमी को पालतू बनाने के लिए
उड़ न सके कभी आजाद पंछी की तरह
फिर भी कोई नहीं चाहता
अपने बनाए रास्ते पर
क्योंकि जहाँ तकलीफ हो वहाँ चिल्लाते
जहाँ फायदा हो वहाँ हाथ फैलाकर खडे हो जाते
समाज कोई इमारत नहीं है
पर आदमी इसमें पत्थर की तरह लग जाते

आदमी अकेला आया है
और अकेला ही जाता भी है
पर ताउम्र उठाता है ऐसे भ्रमों का बोझ
जो कभी सच होते नहीं दिख पाते
लोग पंछियों की तरह उड़ने की चाहत लिए
इस दुनिया से विदा हो जाते

———————————————–