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हिंदी भाषा का महत्व पूछने की नहीं वरन देखने की जरूरत-हिंदी दिवस पर विशेष लेख


                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी है।ं पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहंी बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्र्रेजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीक, नहंी बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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जिंदगी के सवाल-हिंदी व्यंग्य कविता


गर्मी है तो अकाल है,

बरसात है तो बाढ़

सर्दी है तो भी बवाल है,

जिंदगी में कदम-दर-कदम खड़ा सवाल है।

कहें दीपक बापू

हरियाली पर सीमेंट की चादर छा रही है,

कुदरती तोहफों  की लूट

सभी को भा रही है,

किसी को तिजोरी में

किसी को बैंक खाते में

दौलत के भंडार जुटाने हैं,

धर्म के नाम पर पाखंड दिखाकर

अपने घर के लोग लुभाने हैं,

दिल के दीवानों की

रूह मर गयी है

अक्ल पर मतलब की परत

चढ़ गयी है,

उम्मीद का आसमान अपने कंधे पर

रखना हमने सीख लिया है

इसलिये वफा के नाम पर

धोखे का होता नहीं कभी मलाल है।

——

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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इन्टरनेट पर वीडियो जारी करने का रोचक दिलचस्प अनुभव-हिंदी लेख


वीडियो जारी करना एक रोचक अनुभव-हिन्दी लेख

ज़िंदगी और दम-हिन्दी कविता


ज़िंदगी के रास्ते पर चलना
इतना आसान नहीं
जितना लोग समझ लेते हैं,
यही वजह है कमजोर दिल वाले
थोड़ी मुश्किल में ही
अपनी दम खुद ही तोड़ देते हैं।
कहें दीपक बापू
आहिस्ता आहिस्ता कदम बढ़ाओ
कछुए के तरह
खरगोश की तरह उछलते
रहना अच्छा लगता है
मगर जिन कदमों से
चलना है दूर तक
उनको ही गम देते हैं। 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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अमेरिकी डॉलर और भारत का रुपया-हिन्दी हास्य और व्यंग्य कविताएँ


वातानुकूलित कक्षों में बैठे लोग
पसीने के भाग्यविधाता हो गये।
जो सोना किसी की भूख नहीं मिटा सकता
उनके लिये बेशकीमती बन गया,
रोटी बनकर जीवन देने वाले
गेहूं के चमकदार दाने
उनकी नज़रों में मिट्टी हैं
कागज के रुपये से पेट भरने वाले
अमेरिकी डॉलर में खो गये।
———
एक अर्थशास्त्री ने दूसरे से कहा
‘‘यार, रुपये का मूल्य गिर रहा है,
यह चिंता की बात है,
हम स्वदेशी है
इसलिये दिन में भी होती बेचैनी
निद्रा से परे हो गयी हमारी रात है।’’

दूसरे ने कहा
‘‘लगता है कि
तुम्हारा किसी अमेरिकी बैंक में खाता नहीं है,
वहां कभी तुम्हारा कोई रिश्तेदार जाता नहीं है,
वरना यह बात नहीं कहते,
रुपये का भाव गिरने का दर्द नहीं सहते,
भईया,
हम तो केवल रहते यहां है,
अपना मन तो वहां है,
डॉलर का रेट बढ़ता है,
इधर हमारा रुपये का भंडार चढ़ता है,
तुम्हारा स्वदेशी तुम्हें मुबारक है,
हम तो वैश्विक दृष्टि वाले
इंडिया तो अपनी मुट्ठी में है
अमेरिका भी अपने साथ है।’’
———

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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बहादुरों की असलियत-हिन्दी शायरियां (bahadri ki asaliyat-hindi shayariyan)


तुम ताक रहे हो उनके घर
अपनी उम्मीद अपने हाथ में फैलाये
जिनका पेट लूट के सामानों से
कभी भरता नहीं है,
पत्थर का ज़मीर पाले हैं वह लोग
जो कभी पैदा न हुआ
इसलिये मरता भी नहीं है।
———-
फुर्सत नहीं है उनके पास
लूट के सामान घर में भरने से,
इश्तहार जरूर देते हैं
अपनी बहादुरी के कारनामों से
मगर पल पल दिल में डरते हैं
अपने मरने से।
———–
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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कागज़ खाने वाले शेर-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ


लापता हो गये हाड़मांस के असली शेर,
कुछ बीते इतिहास में दर्ज थे
कुछ आज भी नए जमाने में 
 कागजों में दिख रहे हैं।
पैसे, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर
बैठे इंसान ही कागज पर
अपने नाम में शेर लिख रहे हैं।
—————
सुना है उनका शेर जैसा है जिगर,
पर नहीं जिंदा रह सकते
वह कागज़ के नोट खाये बिगर।
——————
कंधे पर बंदूक लटकाए
वह घूम रहे हैं
कहते हुए अपने को शेर,
दुश्मन बनाए हैं जमाने में
काँपते हैं हर पल
कब कौन कर देगा कब ढेर।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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महंगी लंगोट-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें (mahangi langot-hindi hasya vyangya kavitaen)


बड़ों बड़ों की चाल चलन में
खोट हो गयी है,
फिर भी छिप जाते हैं
उनको बड़प्पन की ओट हो गयी है।
कहें दीपक बापू
धीरे धीरे होते जा रहे हैं
इस हमाम में बड़े बड़े नंगे,
भूखे पेटों से होंगे
उनके साथ भी कभी पंगे,
ज़माना बेजार है,
ईमानदारी से कमाना लगता बेकार है,
नंगों की यह शिकायत
गूंजती रहेगी नक्कारखाने में
कि उनकी लंगोट बहुत महंगी हो गयी है।’’
————-
जिस सीढ़ी पर चढेंगे तख्त पर
उतरना न पड़े
इस डर से उसे गिरा देंगे,
सभी जानते हैं।
फिर भी पता नहीं
अपने कंधों पर कहार की तरह
लोग बड़ों का बोझ क्यों उठाये जाते हैं,
जब तक लात न पड़े
उनको देवता मानते हैं।
———-
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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सोने कितना सोना है-हिन्दी चिंत्तन लेख एवं कविता (sona kitna sona hai-hindi chinttan article and poem)


इस संसार की रचना सत्य और माया के संयोग से हुई है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करें तो सत्य का कोई न रंग है, न रूप है, न चाल है चेहरा है और न ही उसका कोई नाम है न पहचान है। इसके विपरीत माया अनेक रंगों वाली है क्योंकि वह संसार को बहुत सारे रूप प्रदान करती है। वह पंचतत्वों से हर चीज बनाती है पर सबका रूप रंग अलग हो जाता है। इस धरती के अधिकतर लोग अपने मस्तिष्क में सत्य के तत्वज्ञान का संग्रह करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि वह माया के रंग और रूप से मोहित हैं।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य को क्या चाहिये? खाने को रोटी, पहने को कपड़े और रहने के लिये आवास! मगर इससे वह संतुष्ट नहीं होता। रोटी का संग्रह वह पेट में अधिक नहीं कर सकता। पेट में क्या वह लोहे की पेटी में भी कई दिन तक नहीं रोटी नहीं रख सकता। इसलिये गेंहूं खरीदकर रख लेता है। सब्जियां भी वह छह सात दिन से अधिक अपने यहां नहीं रख सकता। उसे हमेशा ताजी खरीदनी पड़ती हैं। इसे खरीदने के लिये चाहिये उसे मुद्रा।
मुद्रा यानि रुपया या पैसा। देखा जाये तो यह रुपया और पैसा तो झूठी माया में भी झूठा है। जितने में नोट या सिक्के का निर्माण होता है उससे अधिक तो उनका मूल्य होता है। राज्य के यकीन पर उसका मूल्य अधिक होता है। राज्य का यह वादा रहता है कि अगर कोई उस नोट या सिक्के का धारक उसके पास लायेगा तो वह उतने मूल्य का उसे सोना प्रदान करेगा। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि इस धरती पर माया का ठोस स्वरूप में सोना सबसे अधिक प्रिय है। सोना ठोस तथा दीर्घायु है पर उसका प्रतिनिधित्व कागज का जो नोट करता है वह समय के साथ पुराना पड़ जाता है। अब सोने का भी उपयोग समझ लें। उसे खाकर कोई पेट नहीं भर सकता। पेटी में रखकर लोग खुश रहते हैं कि उनका वह बड़ा सहारा है। यह सोच अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है। अगर कोई आपत्ति आ जाये तो उसी सोने को बाजा़ार में बेचकर फिर कागज के उसका प्रतिनिधित्व करने वाले रुपये या सिक्के प्राप्त करने पड़ते हैं। कहां दीर्घायु सोना अपने से अल्पजीवी कागज पर आश्रित हो जाता है।
एक विद्वान ने कहा था कि भारत में इतना सोना है कि सारी दुनियां एक तरफ और भारत एक तरफ। यकीन नहीं होता पर जिस तरह यहां गड़े धन मिलते हैं इस पर यकीन तो होता है कि यह देश हमेशा ही सोने का गुलाम रहा है। स्त्रियां गहने पहनती हैं। माता पिता दहेज में अपनी बेटी को गहने इस विश्वास के साथ देते हैं कि जब पहनेगी तो अपने मायके तथा ससुराल के में श्रीवृद्धि होगी। यदि कहीं उसे आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ा तो वह सोना पितृतुल्य सेवा करेगा। उसके बाद कुछ लोग इस आशा से सोना करते हैं कि वही असली मुद्रा है। जैसे जैसे आदमी की दौलत बढ़ती है वह नोट और सिक्के की बजाय सोने की ईंटें रखने लगता है।
वह सोना सबको प्रिय है जो प्रत्यक्ष रूप से प्यास लगने पर पानी का एक घूंट नहीं पिला सकता और भूख लगने पर एक दाना भी नहीं खिला सकता मगर जिस अनाज से पेट भरता है उसे हमारे देश का आदमी पांव तले रौंदता है और जिस पानी से प्यास बुझती है उसे मुफ्त में बहाता है। सोना भारत में नहीं पैदा होता पर वह बड़ी मात्रा में इसलिये यहां है कि यहां प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है। दुनियां में भारत ही ऐसा देश है जहां भूजलस्तर सबसे ऊपर है। इसलिये यहां अधिकांश भाग में हरियाली बरसती है। जहां सोना या पेट्रोल पैदा होता है वहां रेत के पहाड़ हैं। लोग पानी को सोने की तरफ खर्च करते हैं।
माया स्वयं सक्रिय है और आदमी को भी सक्रिय रखती है। अपने आंख, कान, नाक और मुख को बाहरी दृश्यों में व्यस्त आदमी आत्म चिंतन नहीं करता। उसे अंदर झांकने से भय लगता है। कहीं न बोलने वाला सत्य बोलने लगा तो क्या कहेगा? न देखने वाला सत्य क्या देखेगा? उसके लिये लिये अंदर झांकने की सोचना भी कठिन है। ऐसे में वह माया के खेल में फंसा रहना ही वह जिंदगी समझता है। धीरे धीरे वह सत्य से इतना दूर हो जाता है कि लूट और मज़दूरी की कमाई का अंतर तक नहीं समझता। अनेक भ्रष्टाचारियों के यहां छापे मारने पर एक से दस किलो तक सोना मिला। इन घटनाओं से यह बात साबित हो गयी है कि हमारे देश में चिंतन की कमी है। यही कारण है कि दूसरे के मुंह में जाता निवाला भी लोग छीनकर उसे सोने में बदलते हैं।
प्रस्तुत है एक छोटी कविता
………………………………….
वाह ने माया तेरा खेल,
कभी बिठाती महल में
कभी पहुंचाती जेल।
इंसान है इस भ्रम में जिंदा है
कि वह तुझसे खेल रहा है,
अपनी अल्मारी और खातों में
कहीं रुपया तो कही सोना ठेल रहा है,
ज़माने का लहू चूसकर
अपने घर सजा रहा है,
नचाती तू हैं
पर लगता इंसान को कि वह तुझे नचा रहा है,
अपने आगोश में तू भी फंसाये रहती है
इस दुनियां के इंसानो को
फिर सोने के घरों से निकालकर
लोहे की सलाखों के पीछे पहुंचाकर
निकाल देती है पूरी जिंदगी का तेल।
————–
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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भ्रष्टाचार पर दो हिन्दी क्षणिकाऐ (two short poem on bhratshtachar)


भ्रष्टाचार वह राक्षस है
जो शायद हवा में रहता है।
बड़े बड़े नैतिक योद्धा उसे पकड़कर
मारने के लिये तलवारें लहराते हैं,
पर वह अमर है
क्योंकि उससे मिली कमीशन से
भरी जेब का बोझ नहीं सह पाते हैं,
चल रहा है उसका खेल
हर कोई भले ही
‘उसे पकड़े और मारो’ की बात कहता है
———–
पहले जेबों में रहता था
अब खातों में चमकने लगा है।
भ्रष्टाचार के पहले रूप दिखते थे
पर अब बैंकों में अनाम नाम से रहने लगा है।
————-

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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धोखा और भरोसे का दाम-हिन्दी व्यंग्य शायरी (dhokha aur bharose ka daam-hindi vyangya shayari)


जैसे जैसे लोगों के चेहरे से
नकाब हट रहे हैं,
उनकी खतरनाक असलियत से
ईमानदारी के बादल छंट रहे हैं।
कमबख्त,
भरोसा भी क्या चीज है,
जिसने निभाया वह तो नाचीज है,
मगर धोखेबाजों के दिन
कारागृह की जगह महलों में कट रहे हैं।
————
भरोसा जितना कीमती होता
धोखा उतना ही महंगा हो जाता है।
ईमानदारी का दाम कौन जाने
यहां हर बेईमान राजा हो जाता है।
————

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गद्दार अपना शिकार चुन रहा हो-हिन्दी शायरी (gaddar aur shikar-hindi shayari)


अपनी कमीज़ वह दूसरे से
अधिक उजियारी जरूर करेंगे,
दौलत के साबुन से अपनी
छवि चमकाने की कोशिश में
चरित्र पर दाग भले ही लग जाये
मगर ज़माने में
अपनी गरीब छवि वह दूर करेंगे।
———-
देशभक्ति की बात करते हुए
अब सभी को डर लगता है
क्योंकि पता नहीं कब और
कौन गद्दार सुन रहा हो,
बिक रहे हैं पहरेदार सरेआम
बचाने निकले जब हम देश को
नज़र न पड़ जाये किसी गद्दार की
लिये ईमानदारी की शपथ जो
अपना शिकार चुन रहा हो।
———–

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पिंजरे में फंसा धर्म-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (pinjre me fansa dharma-hindi diwas par vishesh lekh)


कैमरे के सामने फोटो खिंचवाने का सभी को शौक होता है। जिन लोगों की रोजी रोटी ही कैमरे के सामने होने से चलती है उनके लिये तो अपनी अदाऐं दिखाना ही धंधा हो जाता है। यह धंधा करने वाले इसके इतने आदी हो जाते हैं कि उसे छोड़ना तो दूर उसका सोचना भी उनको डरा देता है। कैमरर उनके लिये एक महल की तरह होता है जिसमें एक बार आने पर हर कोई रहना चाहताहै पर कुछ लोगों के लिये यह पिंजरा भी बन जाता है। एक तो पिंजरा उनके लिये होता है जो मज़बूरी की वजह से इसके सामने टिके रहना चाहते हैं क्योंकि यहीं से उनकी रोजी रोटी चलती है पर मन उनका नहीं होता। दूसरे वह लोग हैं जिनको जबरन तस्वीर बनाकर इसमें लाया जाता है।
आजकल यही कैमरा टीवी चैनल तथा खोजी पत्रकारों के लिये पिंजरा (sting operation) बन गया है और वह इसे लेकर पकड़ अभियान-स्टिंग ऑपरेशन  (sting operation) चलाते हैं। कभी अभिनेता, कभी नेता, कभी अधिकारी तो कभी संत इस कैमरे में ऐसे कैद होते हैं जैसे कि पिंजरे में चूहा।
बड़ा दिलचस्प दृश्य टीवी पर चलता है जब इसमें कैदी की तरह फंसे खास शख्सियतों का असली रूप सामने आता है। उस समय हंसते हुए पेट में बल पड़ जाते हैं क्योंकि यह देखकर मजा आता है कि ‘देखो, कैसे धंधे पानी की बात कर यह आदमी जाल में फंस रहा है।’ जैसे मछली कांटे में फंसती है और जैसा चूहा पिंजर में फंसकर छटपटाता है।
शिक्षण संस्था में प्रबंधक पद पर व्यक्ति आसीन लोग बड़े आदर्श की बातें करते हैं पर जब कैमरे में कैद होते हैं तो क्या कहते हैं कि ‘इतनी रकम दो तो मैं तुम्हें कॉलिज में प्रवेश दिला दूंगा। इस विषय में इतने तो उस विषय में इतने पैसे दो। इसकी रसीद नहीं मिलेगी।’
बिचारा धंधा कर रहा है पर उसे पता नहीं कि वह चूहे की तरह फंसने जा रहा है। बड़े विद्वान बनते हैं पर लालच उनकी अक्ल को चूहे जैसा बना देती है। हा…हा…
फिल्मी लाईन वाले कहते हैं कि उनके यहां लड़कियों का शोषण नहीं होता पर उनका एक अभिनेता-खलपात्र का अभिनय करने वाला-एक लड़की से कह रहा था कि ‘यहां इस तरह ही काम चलता है। आ जाओ! तुम मेरे पास आ जाओ।’
कुछ जनकल्याण का धंधा करने वाले भी फंसे गये जो केवल सवाल उठाने के लिये पैसे मांग रहे थे।
ऐसे में हंसी आती है। यह देखकर हैरानी होती है कि कैमरा किस तरह पिंजरा बन जाता है। यह फंसने वाले कोई छोटे या आम आदमी नहीं होतें बल्कि यह कहीं न कहीं आदर्श की बातें कर चुके वह लोग दिखाई देते हैं जिनका समाज में प्रभाव है।
सबसे अधिक मजा आता है संतों का चूहा बनना। अधिकारी, नेता और अभिनेता तो चलो बनते ही लोग पैसा कमाने के लिये हैं पर संतों का पेशा ऐसा है जिसमें आदर्श चरित्र की अपेक्षा की जाती है। यह संत भारतीय अध्यात्म में वर्णित संदेशों को नारों की तरह सुनाते हैं
‘काम, क्रोध, लोभ और मोह में नहीं फंसना चाहिये।’
‘यह जगत मिथ्या है।’
‘सभी पर दया करो।’
‘किसी भी प्रकार की हिंसा मत करो।
‘अपनी मेहनत से कमा कर खाओ।’
आदि आदि।
जब यह बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि कितने मासूम और भोले हैं। इनमें सांसरिक चालाकी नहीं है तभी तो ऐसे उल्टी बातें-जी हां, अगर आम आदमी ऐसा कहे तो उसे पागल समझा जाता है-कर रहे हैं शायद संत हैं इसलिये।
मगर कैमरे में यह बड़े संत चूहे की तरह फंसते नज़र आते हैं तब क्या कहते हैं कि
‘चिंता मत करो। तुम्हारा काम हो जायेगा। अरे यहां कोई तुम्हारा बाल बांका भी नहीं कर सकता। यहां तो बड़े बड़े ताकतवर लोग मत्था टेकने आते हैं।’’
‘तुम कहंीं से भी धन लाओ हम उसका सलीके से उपयोग करना सिखा देंगे।’
‘हम तुम्हें ठेका दिला देंगे, हमारा कमीशन दस प्रतिशत रहेगा। हमें कार और पिस्तौल दिलवा देना।’
ऐसी ऐसी विकट बातें सुनकर कानों में यकीन नहीं होता। सोचते हैं कि-अरे, यार इसे तो रोज टीवी पर देखते हैं, कहां इसे संत और विद्वान समझते हैं यह तो बिल्कुल एक मामूली दुकानदार की तरह बात करने के साथ ही मोलभाव भी कर रहा है।’
पिंजरे में फंसे संत कहते हैं कि ‘चिंता मत करो, हमारे यहां तो तुमसे भी बड़े खतरनाक लोग आसरा पाते हैं’।
तब हम सोचते हैं कि यह रावण और कंस के विरुद्ध प्रतिदिन प्रवचन करने वाले उनसे भी खतरनाक लोगों को पनाह देते हैं। यहां यह बता दें कि कंस और रावण खतरनाक तत्व थे पर फिर भी कहीं न कहीं के राजा थे और उनके कुछ सिद्धांत भी थे पर आज के यह खतरनाक तत्व ऐसे हैं कि पुराने खलनायक हल्क नज़र आते हैं।
यह संत लोग कैमरे में फंसे पिंजरे में कहते हैं कि ‘कितना भी काला धन लाओ कमीशन देकर उसे सफेद पाओ।’
ऐसे प्रसंगों में एक संत की यह बात सबसे अज़ीब लगी कि ‘अमेरिका में कोई भी काम हो एक मिनट में हो जायेगा।’
मतलब वहां भी ताकतवर इंसानों की खरीद फरोख्त कर लेते हैं-वाकई धर्म की आड़ में अधर्म कितना ताकतवर हो जाता है। अभी तक अमेरिका और ब्रिटेन के बारे में यह धारणा हमारे यहां रही है कि वहां के लोग देशभक्त होते हैं और इस तरह नहीं बिकते पर एक मिनट में काम होने वाली बात से तो यही लगता है कि बाज़ार के वैश्वीकरण के साथ ही अपराध और आतंक का भी वैश्वीकरण हो गया है। उसके साथ ही हो गया है उनको धर्म की आड़ देने का व्यापार।
किस्सा मज़ेदार है। पकड़ अभियान-स्टिंग ऑपरेशन  (sting operation) करने वालों ने संत को बताया कि उनके साथ जो महिला है वह अमेरिका से आर्थिक अपराध कर भागी है। उसे शरण चाहिये। वह संत अपने आश्रम में शरण देने को तैयार है और कहता है कि
‘यहां तुम किसी को कुछ मत बताना! कहना यह कि ध्यान और दर्शन के लिये आयी हूं।’
बेसाख्ता हमारे मन में बात आयी कि ‘जैसे यह ध्यान और दर्शन करा रहे हैं।’
क्या सीख है! दर्शन और ध्यान की आड़ में छिप जाओ। यही संत कैमरे के सामने जब बोलते हैं तो उनके भक्त मंत्रमुग्ध हो जाते हैं पर इन पकड़ कर्ताओं ने उनको अपने गुप्त कैमरे को पिंजरा बनाकर चूहे की तरह फंसा डाला।
फिल्म वालों ने एक अंधविश्वास फैला रखा है कि भूत केवल आदमी को दिखता है मगर कैमरे में नहीं फंसता। एक फिल्म आई थी नागिन! जिसमें एक नागिन रूप बदल कर अपने नाग के हत्यारों से बदला ले रही थी। उसमें वह हत्यारों को तो अपनी इंसानी प्रेमिका में दिखती थी और बाद में उनको डस कर बदला लेती थी। उसमें एक नायक उसे पहचान लेता है क्योंकि वह कांच में नागिन ही दिखाई देती है। कैमरे में ही यह दर्पण भी होता है। जिस तरह वह रूपवती स्त्री कांच में नागिन दिखाई देती थी वही कैमरे की भी असलियत होती है। यह धर्म भी शायद एक भूत है जो पिंजरा बन जाने पर कैमरे में अधर्म जैसा दिखाई देता है। रहा धर्म का असली रूप में दिखने का सवाल तो उसके लिये चिंतन का होना जरूरी है क्योंकि वह एक अनुभूति है जो बाहर हमारे आचरण के रूप में अभिव्यक्त होती है और उसके बारे में निर्णय दूसरे लोग करते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि सच्चे धर्म वाले कभी किसी पिंजरे में नहीं फंसते।
आखिरी बात यह कि यह व्यंग्य का विषय नहीं बल्कि गंभीर बात है कि श्रीमद्भागवत गीता एक कैमरे का रूप है जिसका अध्ययन कर उसकी बात समझें तो अपना चित्र स्वयं ही खीचकर देख सकते हैं और साथ ही माया के पिंजरे में फंसे लोगों की अदायें देखने का लुत्फ् भी उठा सकते हैं। गीता सिद्ध जानते हैं कि धर्म क्या है और उसकी रक्षा कैसे होती है। उनके लिये कैमरा कभी पिंजरा नहीं बन पता क्योंकि वह उसके सहज अभ्यासी होते हैं और कथनी करनी में अंतर न होने की वजह से कभी चूहे नहीं बनते।
———

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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कुदरत का करिश्मा-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें (kudrat ka karishma-hindi vyangya kavitaen)


नदियां यूं ही नहीं देवियां कही जाती हैं,
तभी तक सहती हैं
अपने रास्तों पर आशियानों बनना
जब तक इंसानों की तरह सहा जाता है,
बादलों से बरसा जो थोड़ा पानी
उफनती हुई अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाती हैं।
——–
यह कुदरत का ही करिश्मा है कि
विकास के मसीहाओं को भी
उसका सहारा मिल जाता है,
जब तक आगे बढ़ने का सहारा मिलता है
झूठे आंकडों से
वह अपनी छाती फुलाते हैं
बरसती है जब कहर की बाढ़
खुलती है पोल
तब दोष देते हैं कुदरत को
फिर राहत से कमाई की उम्मीद में
उनका चेहरा अधिक खिल जाता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना-हिन्दी व्यंग्य कविता


दूसरे की आस्था को कभी न आजमाना,
शक करता है तुम पर भी यह ज़माना।
अपना यकीन दिल में रहे तो ठीक,
बाहर लाकर उसे सस्ता न बनाना।
हर कोई लगा है दिखाने की इबादत में
फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना।
सिर आकाश में तो पांव जमीन पर हैं,
हद में रहकर, अपने को गिरने से बचाना।।
अपनी राय बघारने में कुशल है सभी लोग,
जिंदगी की हकीकत से हर कोई अनजाना।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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