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सम्मान वापसी और रचनात्मकता का वैचारिक संघर्ष-हिन्दी लेख


          अब हम उन्हें दक्षिणपंथी कहें या राष्ट्रवादी  जो अब पुराने सम्मानीय लेखकों के सामान वापसी प्रकरण से उत्तेजित हैं और तय नहीं कर पा रहे कि उनके प्रचार का प्रतिरोध कैसे करें?  इस लेखक को जनवादी और प्रगतिशील लेखक मित्र दक्षिणपंथी श्रेणी में रखते हैं। मूलत हम स्वयं  को भारतीय अध्यात्मिकवादी मानते हैं शायद यही कारण है कि दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी लेखकों से स्वभाविक करीबी दिखती है-यह अलग बात है कि थोड़ा आगे बढ़े तो उनसे भी मतभिन्नता दिखाई देगी।  एक बात तय रही कि दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अंतर्जालीय लेखकों से हमारी करीबी दिखेगी क्योंकि जिसे वह हिन्दू धर्म कहते हैं हम उसे भारतीय अध्यात्मिक समूह कहते हैं।  दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी वैचारिक युद्ध में जनवादियों और प्रगतिशीलों जैसी रचना शैली रखना चाहते हैं जो कि पश्चिम तकनीकी पर आधारित है जो कि कारगर नहीं हो पाती।

                                   पहले तो दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को अपने हृदय से यह कुंठा निकाल देना चाहिये कि वह जनवादी और प्रगतिशील लेखकों की तरह रचना नहीं लिख सकते। हम सीधी बात कहें नयी रचनायें होनी चहिये पर यह हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान नारे वालों के लिये बाध्यता नहीं है।  रामायण, महाभारत, भागवत, श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही वेद और उपनिषद जैसी पावन रचनायें पहले से ही अपना वजूद कायम किये हैं। संस्कृत साहित्य इस तरह अनुवादित हो गया है कि वह हिन्दी की मौलिक संपदा लगता है।  उसके बाद हिन्दी का मध्य काल जिसे स्वर्ण काल की रचनायें तो इतनी जोरदार हैं कि प्रगतिशील और जनवादी अपनी नयी रचनाओं के लिये पाठक एक अभियान की तरह इसलिये जुटाते हैं क्योंकि हमारा पूरा समाज अपनी प्राचीन रचनाओं से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है और सहजता से उसे नहीं भूलता।  इतनी ही नहीं आज का पाठक भी तुलसी, रहीम, कबीर, मीरा, सूर तथा अन्य महाकवियों की रचनाओं से इतना मंत्रमुग्ध है कि वह नयी रचना उनके समकक्ष देखना चाहता है।  प्रगतिशील और जनवादियोें को अपनी रचना जनमानस में लाने के लिये पहलीे पाठकों की स्मरण शक्ति ध्वस्त करना होती है इसलिये वह अनेक तरह के स्वांग रचते हैं जबकि दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को इसकी अपनी प्राचीन बौद्धिक संपदा के होते इसकी आवश्कता नहीं होती।  आपने देखा होगा कि कहीं अगर श्री मद्भागवत कथा होती है तो वह लोग उसके श्रवण के लिये स्वयं पहुंच जाते हैं पर कहीं कवि सम्मेलन हो तो उसका विज्ञापन करना पड़ता है। हमारी प्राचीन साहित्य संपदा इतनी व्यापक है कि वह पूरे जीवन पढ़ते और सुनते रहो वह खत्म नहीं होती सांसों की संख्या कम पड़ जाती है।  प्रगतिशील और जनवादी ऐसे मजबूत बौद्धिक समाज में सेंध लगाने के लिये संघर्ष करते हुए सम्मान, पुरस्कार, और कवि सम्मेलनों का खेल दिखाते हैं। उनकी सक्रियता उन्हें प्रचार भी दिलाती रही है। इतने संघर्ष के बावजूद यह लेखक पुराने बौद्धिक किले में सेंध नहीं लगा सके यह निराशा तो उनके मन में ही थी इस पर अब उन्हें प्रचार माध्यमोें से मिलने वाला समर्थन भी बदले हुए समय में कम होता जा रहा है। प्रचार माध्यम आजकल दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी विद्वानों के कथित विवादास्पद बयानों पर बहसे अधिक करने लगे हैं और प्रगतिशीलों और जनवादियों को लगता है कि यही पांच साल चला तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।  मनुस्मृति के एक श्लोक और रामचरित मानस के एक दोहे का हिन्दी में अर्थ से अनर्थ कर इन लोगों ने समूची प्राचीन रचनाओं को ही भ्रष्ट प्रचारित कर पिछले साठ वर्षों से अपना पाठक समाज जुटाया जो अब इनसे दूर होने लगा है।

                                   प्रगतिशील और जनवादियों की रचनायें समाज को टुकड़ों में बांटकर देखती हैं।  पुरुष महिला, युवा बूढ़ा, गरीब अमीर, अगड़ा पिछड़ा और सवर्ण, मजदूर मालिक और बेबस और शक्तिशाली के बीच संघर्ष तथा समस्या  के बीच यह लोग पुल की तरह अपनी जगह बनाते हैं।  जनवादी रचनायें समाज में मानवीय स्वभाववश चल रहे संघर्षों में कमजोर पक्ष को राज्य या जनसंगठन के आधार पर विजयी दिखाती हैं तो प्रगतिशील  रचनायें संघर्ष तथा समस्या को कागज पर लाकर समाज या राज्य को सोचने के लिये सौंपती भर हैं। विजय या निराकारण कोई उपाय वहीं नहीं बतातीं।  भारतीय अध्यात्मिकवादी इन संघर्षों और समस्याओें को सतह पर लाते हैं पर वह समाज में चेतना लाकर उसे स्वयं ही जूझने के लिये प्रेरित करते हैं। एक अध्यात्मिकवादी लेखन के अभ्यासी के नाते हमें यह लगने लगा है कि अपने प्राचीन ज्ञान से परे रहने के कारण ही हमारे राष्ट्र में संस्कारों, संस्कृति आज सामाजिक संकट पैदा हुआ है।  अभी एक फिल्म आयी थी ओ माई गॉड। उसकी कहानी को हम अध्यात्मिकवादी रचना मान सकते हैं क्योंकि वह चेतना लाने की प्रेरणा देती है न कि समस्या को अधूरा छोड़ती है।

                                   प्रगतिशील और जनवादी सुकरात, शेक्सपियर और जार्ज बर्नाड शॉ जैसे पश्चिमी रचनाओं को समाज में लाये। उनका लक्ष्य तुलसी, कबीर, रहीम, मीरा, सूर की स्मृतियां विलोपित करना था। ऐसा नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में विद्वान नहीं हुए पर उनकी रचनायें वह रामायण, भागवत, महाभारत, रामचरित मानस और गुरुग्रंथ साहिब जैसी व्यापक आधार वाली नहीं हैं। इसके अलावा चाणक्य और विदुर जैसे दार्शनिक हमारे पास रहे हैं।  ऐसे में सुकरात और स्वेट मार्डेन जैसे पश्चिमी दार्शनिकों को बौद्धिक जनमानस में वैसी जगह नहीं मिल पायी जैसी कि प्रगतिशील और जनवादी चाहते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे देश में काव्यात्मक शैली अधिक लोकप्रिय रही है। एक श्लोक या दोहे में ऐसी बात कही जाती है जिसमें ज्ञान और विज्ञान समा जाता है। गद्यात्मक रचनायें अधिक गेय नहीं रही जबकि प्रगतिशील और जनवादी इस विधा में अधिक लिखते हैं। जनवादी और प्रगतिशील भारतीय समाज के अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करते हैं पर उससे बचने का मार्ग वह नहीं बताते। उनकी प्रहारात्मक शैली समाज में चिढ़ पैदा करती है। जबकि हम देखें कि यह कार्य भगवान गुरुनानकजी संतप्रवर कबीर, और कविवर रहीम ने भी किया पर उन्होंने परमात्मा के नाम स्मरण का मार्ग भी बताया।  समाज उन्हें आज भी प्रेरक मानता है। इसलिये यह कहना कि भारतीय समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है गलत है।

                                   दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की ताकत देश में वर्षों से प्रवाहित अध्यात्मिक ज्ञान ही है जिसके अध्ययन करने पर ही ऐसी तर्कशक्ति मिल सकती जिससे  प्रगतिशील और जनवादियों से बहस के चुनौती दी जा सके।  इस लेखक ने अनुभव किया है कि जनवादी  बहस के समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के नाम से ही चिढ़ते हैं।  मनुस्मृति में उनके अवर्णों और स्त्री के प्रति अपमान ही नज़र आता है।  जबकि उसी मनुस्मृति में स्त्री के साथ जबरन संपर्क करने वाले को ऐसी कड़ी सजा की बात कही गयी है जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब हम ऐसे तर्क देते हैं तो वह मुंह छिपाकर भाग जाते है।  एक मजेदार बात यह कि जनवादी हिन्दू धर्म के अलावा सभी धर्मों मेें गुण मानते हैं।  यह राज हमारे आज तक समझ में नहीं आया पर अब लगने लगा है कि उनके पास भारतीय बौद्धिक समाज में पैठ बनाने के लिये यह नीति अपनाने को अलावा कोई चारा भी नहीं है।  दूर के ढोल सुहावने की तर्ज पर ही  वह पाश्चात्य विचाराधारा के सहारे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते है।

                                   इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा के लोगों अब ऐसे अध्यात्मिक अभ्यासियों को  साथ लेना चाहिये जो गृहस्थ होने के साथ ही लेखन कार्य में सक्रिय हों। पेशेवर धार्मिक शिखर पुरुषों के पास केवल ज्ञान के नारे रट्टे हुए हैं और वह आस्था पर चोट की आड़ लेकर आक्रामक बने रहते हैं।  हमने जब मनुस्मृति और विदुर के संदेश लिखना प्रारंभ किये थे तब टिप्पणीकर्ताओं ने साफ कर दिया था कि आप किसी सम्मान की आशा न करें क्योंकि आप धाराओं से बाहर जाकर काम कर रहे हैं। हम करते भी नहीं।  सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में वातावरण रहा है उसके चलते मनुस्मृति के संदेशों की व्याख्या करने वालो को सम्मानित करने का अर्थ हैं अपने पांव कुल्हारी मारना।  हम आज भी नहीं चाहेंगे कि हमें सम्मान देकर मनुवादी होने का कोई दंश झेले पर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अब अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ायें-यह हमारी कामना है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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भारत के मजदूरों समझदार हो जाओ-हिन्दी कविता


दुनियां के मज़दूरों

अब समझदार भी हो जाओ।

करते हैं जो तुम्हें महलों का

स्वामी बनाने का दावा

दौलतमंदों के लिये

करते छलावा

हड़ताल पर मत जाओ।

कहें दीपकबापू हंसिया हथौड़ा

तुम्हारी मजदूरी के हथियार हैं

हुड़दंग का चिन्ह न बनाओे

 दलाल भेड़ों की भीड़ की तरह

तुम्हें चौराहों पर सजाते हैं

उनके बहकावे में न आओ।

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युवा शक्ति के

विकास का नारा

धन के लोभी लगाते हैं।

कहीं चूसते पसीना

कहीं पैसे के लिये

नशे का बाज़ार सजाते है।

कहें दीपक बापू युवा शक्ति से

देश विकसित हो जाता

अगर कोई खूबसूरत सपने के

सच में उगने के बीज बो पाता,

यहां तो युवा खून के सौदागर

मुफ्त का पसीना बनाते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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xबाहूबली फिल्म की सफलता पर चर्चा-हिन्दी लेख


                              अंग्रेजी संस्कारों ने हमारे देश में रविवार को सामान्य अवकाश का दिन बना दिया है। रविवार के दिन सुबह भजन या अध्यात्मिक सत्संग प्रसारित करने वाले टीवी चैनल खोलकर देखें तो वास्तव में शांति मिलती है। चैनल ढूंढने  के लिये रिमोट दबाते समय अगर कोई समाचार चैनल लग जाये तो दिमाग में तनाव आने लगता है-उसमें वही भयानक खबरें चलती हैं जो एक दिन पहले दिख चुकी हैं- और जब तक मनपसंद चैनल तक पहुंचे तक वह बना ही रहता है।  बाद में भजन या सत्संग के आनंद से मिले अमृत पर ही उस तनाव का निवारण हो पता है।

                              वैसे तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार सभी दिन हरि के माने जाते हैं पर अंग्रेजों ने गुलामी से मुक्ति देते समय शिक्षा, राजकीय प्रबंध व्यवस्था तथा रहन सहन के साथ ही भक्ति में भी अपने सिद्धांत सौंपे जिसे हमारे सुविधाभोगी शिखर पुरुषों से सहजता से स्वीकार कर लिय।  जैसा कि नियम है शिखर पुरुषों  का अनुसरण  समाज करता ही है।  हमें याद है पहले अनेक जगह मंगलवार को दुकानें बंद रहती थीं।  वणिक परिवार का होने के नाते मंगलवार हमारा प्रिय दिन था।  बाद में चाकरी में रोटी की तलाश शुरु हुई तो रविवार का दिन ही अध्यात्मिक के लिये मिलने लगा।  इधर हमारे धार्मिक शिखर पुरुषों-उनके अध्यात्मिक ज्ञानी होने का भ्रम कतई न पालें-ने जब देखा कि उनके पास आने वाली भीड़ में नौकरी पेशा तथा बड़ा व्यवसाय या उद्योग चलाने वाले ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो रविवार के दिन ही  अवकाश लेते हैं तो उन्होंने उसे ही मुख्य दिवस बना दिया।

                              इधर प्रचार माध्यम भी रविवार के दिन ‘सुपर संडे’ बनाने का प्रयास करते हैं और उनके स्वामियों के प्रायोजित अनेक संगठन इसी दिन कोई प्रदर्शन आदि कर उनके लिये प्रचार सामग्री बनाते हैं या फिर कोई बंदा सनसनीखेज बयान देता है जिससे उन्हें सारा दिन प्रचारित कर बहस चलाने का अवसर मिल जाता है।  अन्ना आंदोलन और चुनाव के दौरान इन प्रचार माध्यमों को ऐसे अवसर खूब मिले पर अब लगता है कि अब शायद ऐसा नहीं हो पा रहा है। फिर भी महिलाओं के प्रति धटित अपराध अथवा धार्मिक नेताओं के बयानों से यह अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री निकालने का प्रयास कर रहे हैं। यह अलग बात कि जम नहीं पा रहा है।

                              इधर बाहुबली फिल्म की सफलता के अनेक अर्थ निकाले जा रहे हैं।  यह अवसर भी प्रचार माध्यम स्वयं देते है-यह पता नहीं कि वह अनजाने में करते हैं या जानबुझकर-जब बॉलीवुड के सुल्तान और बादशाह से बाहूबली फिल्म के नायक की चर्चा कर रहे हैं। तब अनेक लोगों के दिमाग में यह बात आती तो है कि अक्षय कुमार, अजय देवगन, सन्नी देयोल, अक्षय खन्ना और सुनील शेट्टी जैसे अभिनेता भी हैं जो फिल्म उद्योग को भारी राजस्व कमा कर देते हैं।  अक्षय कुमार के लिये इनके पास कोई उपमा ही नहीं होती।  यह अभिनेता अनेक बार आपस में काम कर चुके हैं पर उसकी चर्चा इतने महत्व की नहीं होती जैसी सुल्तान और बादशाह के आपस में अभिवादन करने पर ही हो जाती है।  अंततः फिल्म और टीवी भावनाओं पर ही अपना बाज़ार चमकाते हैं और इससे जुड़े लोगों का पता होना चाहिये कि उनके इस तरीके पर समाज में जागरुक लोग रेखांकित करते हैं।  सभी तो उनके मानसिक गुलाम नहीं हो सकते। हम ऐसा नहीं सोचते पर ऐसा सोचने वाले लोगों की बातें सुनी हैं इसलिये इस विशिष्ट रविवारीय लेख में लिख रहे हैं।

हरिओम, जय श्रीराम, जय श्री कृष्ण

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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#भारतीय #मीडिया का व्यंजना शैली में #उन्माद फैलाना ठीक नहीं-#हिन्दीचिंत्तनलेख


                              आज एक अभिनेता ने एक कैदी को फांसी की सजा दिये जाने का ट्विटर पर विरोध किया है। हमें पता नहीं कि उस अभिनेता ने ऐसा क्या अनुभव किया कि ऐसी बात लिख दी जो उनके ही प्रशंसकों को धार्मिक दृष्टि से नाराज कर सकती है हालांकि इसके लिये उसे जिम्मेदारी नहीं माना जा सकता वरन् प्रचार माध्यम सांकेतिक रूप से इसमें धर्म तत्व का तड़का लगाने का प्रयास कर रहे हैं। मूलत न्यायालय और प्रशासनिक मसलों पर जिस तिरह प्रचार माध्यम व्यंजना शैली में सांप्रदायिकता उन्माद फैलाने वाले धार्मिक विषय जोड़ रहे हैं वह अत्यंत चिंताजनक है।

  कभी कभी तो यह लगता है कि हमारे प्रचार व्यवसायियों को देश में स्थाई शांति पसंद नहीं है। शायद उनको लगता है कि जिस तरह बिना झगड़े फसाद वाली फिल्में ज्यादा दर्शक नहीं जुटा पाती, उसी तरह जब तक देश में हिंसक या तनाव वाली वारदातें न हों तब तक उनके समाचार और बहसों के लिये दर्शक नहीं मिल पायेंगे। यही कारण है कि वह देश में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के इस तरह प्रयास करते लगते हैं जैसे कि देश की एकता की रक्षा और अखंडता के लिये बहुत चिंतित हों।  यह अलग बात है कि चिंतित केवल वह अपने विज्ञापनों का समय पास करने के लिये ही होते हैं।

                              सबसे बड़ी समस्या न्यायालयीन और प्रशासनिक के क्षेत्राधिकार वाले  मसलों पर सार्वजनिक बहस इस तरह करते हैं जैसे कि वहा कोई मुकदमा चला रहे हों।  अपने यहां वह प्रायोजित विद्वान बुलाते हैं इसलिये कोई उनसे कहता नहीं पर अंतर्जाल पर इन संगठित माध्यमों के लिये मित्रतापूर्ण भाव नहीं दिखता।  इनके समाचारों की स्थिति यह है कि दोपहर को अगर क्रिकेट, राजनीति और फिल्म से जुड़ी सनसनी खबर आ जाये तो फिर यह समझते देर नही लगती कि रात तक वही चलेगी। यही कारण है कि आजकल हम रात को टीवी समाचार छोड़कर अंतर्जाल पर पाठ लिखने लगते हैं।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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कान्हाओं के बीच जंग होनी ही थी-हिन्दी कवितायें


कन्याओं की कमी थी

चार दीवानों के बीच

घर बसाने की

जंग होनी ही थी।

कान्हाओं में फैली बेरोजगारी

दो दीवानियों  के बीच

सुयोग्य वर पाने की

जंग होनी ही थी।

कहें दीपक बापू दिशा भ्रम है

मन बसा था पूर्व में

कदम बढ़ा दिये पश्चिम की तरफ

तनाव में सांस लेते दिलों के बीच

अपना अपना डर भगाने की

जंग होनी ही थी।

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शहर की गंदगी ढोने वाले

नालों पर तरक्की की

इमारतें खड़ी हैं।

वर्षा ऋतु में उत्साहित जल

ढूंढता सड़क पर

अपनी सहचरिणी रेत

 जो पत्थरों में जड़ी है।

 कहें दीपक बापू हवा और जल

हमेशा चहलकदमी नहीं करते

अपने पथों का कर भी नहीं भरते

विकास के बांध खेलने के लिये

उनके सामने

बन जाते खिलौना

इंसान के कायदों से

प्रकृत्ति की हस्ती बड़ी है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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