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पाकिस्तान के साथ संघर्ष बहुत दिनों तक चलेगा-हिन्दी संपादकीय


                           आज एक समाचार पत्र में पढ़ा था कि कल भारतीय सेना ने सीमा पार कर आतंकवादी मारे। अभी एक फेसबुक पर भी पढ़ा कि दो दिन में भारतीय सेना दो बार सीमा पारकर आतंकवादियों को मारकर चली आयी। यह एक नयी रणनीति लगती है। मारो और भाग लो। पाकिस्तानी सेना को यह लगता है कि भारतीय सेना सीमा पार कर जब आगे आयेगी तब सोचेंगे। अगर समाचारों पर भरोसा करें तो यह एक ऐसी रणनीति है जो पाकिस्तान को संकट में डाल सकती है। इस समय पाकिस्तान की सेना बलोचिस्तान और अफगान सीमा पर डटी है। अगर भारतीय सेना के इस अस्थायी प्रवास को रोकना है तो उसे आना होगा। वहां से सेना हटी नहीं कि पाकिस्तान में भारी अंदरूनी संकट शुरू हो जायेगा। पाकिस्तानी रेंजर हमारी बीएसएफ की तरह ही है जो आंतरिक सुरक्षा के लिये तैनात रहते हैं। फेसबुक पर ही एक समाचार पढ़ा कि राजस्थान की सीमा पर टैंक आदि रेल में चढ़ाकर भेजे जा रहे हैें। हैरानी इस बात यह है कि प्रकाशन माध्यमों में यह बातें आयी हैं जबकि टीवी चैनलों से यह समाचार नदारद है। संभव है कि दोनों तरफ की सरकारें अब किसी उत्तेजना से बचने के लिये ऐसे आक्रामक समाचारों से बच रही हों। इधर यह भी समाचार आया कि सीमा पर की जानकारी उच्च स्तर पर ली जा रही है।

                         इसके बावजूद बड़े युद्ध की संभावना अभी नहीं है। भारतीय सेना मारकाट कर लौट आयेगी तो वह बड़े हमले का विषय नहीं होगा। उल्टे पाकिस्तान अब यह शिकायत करता फिरेगा कि भारतीय सेना अब सीमा पार करने लगी है-भारत भी चीन की सकता है कि सीमांकन अभी नहीं हुआ है इसलिये भूल से सैनिक चले जाते हैं। समझौते में भारत शर्त भी रख सकता है कि भारतीय सेना पाक सीमा में घुसकर नहीं मारेगी अगर पाकिस्तान आतंकवाद बंद कर दे-पहले आतंकवाद रोकने के बदले देने को कुछ नहीं था पर अगर इस तरह भारतीय सेना करती रही तो कुछ तो देने के लिये मिल ही जायेगा। अभी इसी तरह हवाई वह मिसाइल हमले भी हो सकते हैं। पाकिस्तान फंस चुका हैं। अफगानिस्तान तथा ईरान उसके दुश्मन हो गये हैं। अमेरिका नाराज है। पाकिस्तान तो भारत का शिकार है और वही उसे करना होगा-पाकिस्तान के दुश्मन भी यही मान चुके हैं। मगर यह अभियान एक दो महीने नहीं बल्कि एक दो वर्ष तक चल सकता है। पाकिस्तान के परमाणु हमले तथा बड़े युद्ध की हानि से बचने के लिये एक कुशल रणनीति की आवश्यकता होती है जिसमें भारतीय रणनीतिकार पाकिस्तानियों से कहीं बेहतर साबित हुए हैं।

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दक्षिण एशिया के साहित्यकार आतंक पर सच लिख भी कहां पाये-आलेख


अभी हाल ही में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यकार सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें भारत, पाकिस्तान,श्रीलंका,बंग्लादेश तथा अन्य सदस्य देशों के नामचीन साहित्यकार शामिल हुए। जैसा कि संभावना थी कि इस इलाके में व्याप्त आतंकवाद भी इसमें चर्चा का विषय बना। जब इलाके में आतंकवाद का बोलबाला है तो यह स्वाभाविक भी है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्यकार इसी दर्पण की आंख की तरह देखने वाला होता है। इन साहित्यकारों ने आतंकवाद की निंदा की है और अपने देश के हिसाब से ही अपने विचार व्यक्त किये। पाकिस्तान के एक साहित्यकार ने बंग्लादेश में हाल ही में हुए विद्रोह में अपने देश का हाथ होने के आरोप का खंडन किया। बात यहीं पर ही अटक जाती है कि साहित्यकारों को क्या उसी नजरिये पर चलना चाहिये जिस पर उनका समाज या देश चल रहा है।

पहले तो यहां साहित्यकार और पत्रकार का भेद स्पष्ट करना जरूरी है। पत्रकार जो देखता है वही दिखाता और लिखता है पर साहित्यकार का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये। पत्रकार कल्पना नहीं करता और न उसे करना चाहिये पर साहित्यकार को किसी घटना में तर्क के आधार पर कल्पना और अनुमान करने की शक्ति होना चाहिये। अपने समाज और देश के प्रति साहित्यकार की प्रतिबद्धता होना जरूरी है पर उसे अंधभक्ति से दूर रहना चाहिये। दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अपने देश में जो इनाम मिलते हैं वही उनकी प्रतिष्ठा का आधार बनते हैं पर सच तो यह है कि पूरे क्षे.त्र की हालत एक जैसी है और सभी जगह यह पुरस्कार लेखकों के संबंधों पर अधिक दिये जाते हैं और कई तो ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कार पा जाते हैं जिनको समाज में ही अहमियत नहीं दी जाती है। बहरहाल दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अब इस बात का भी मंथन करना चाहिये कि क्या वह वास्तव में ही समाज और देश के लिये महत्ती भूमिका निभा रहे है? दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर उससे सामाजिक सरोकार कितने जुड़े हैं यह भी देखने की बात है।
हम दक्षिण एशिया के साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद पर लिखी गयी सामग्रियों पर ही विचार करें तो लगेगा कि वह यथार्थ से परे हैं। लेखक को कल्पना तो करना चाहिये पर उससे यथार्थ का बोध होता हो न कि वह झूठ लगने लगे। हमने केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही पढ़ा है। सभी को पढ़ना संभव नहीं है पर पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर इस संबंध में पढ़ते है तो लगता है सभी साहित्यकार एक जैसे ही है। हो सकता है कि कुछ अपवाद हों पर उनकी रचनायें अनुवादों को माध्यम से अधिक नहीं पढ़ने को मिल पाती।
अब साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद की निंदा की गयी पर कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो इस बात को समझते हैं कि आतंकवाद भले ही जाति,भाषा,क्षेत्र और धर्म के नाम झंडो तले अपना काम करता है पर वास्तव में वह एक व्यापार है। ऐसा व्यापार जिस पर भावना,श्रृंगार और अलंकार से शब्द सजाकर प्रस्तुत करना कभी कभी एकदम निरर्थक प्रक्रिया लगती है। आतंकवाद एक हाथी है जिसे साहित्यकार आंखें बंदकर पकड़ लेते हैं। कोई उसके सूंड़ को पकल लेता है तो कोई पूंछ-फिर उस पर अपनी व्याख्या करने लगता है। जिस तरह पहले किसी सुंदरी का मुखड़ा गढ़कर उसकी आंखें,नाक,कान,कमर,और बालों पर कवितायें और कहानी लिखी जाती थीं वैसे ही आतंकवाद का विषय उनके हाथ आ गया है। जिस तरह किसी सुंदरी के शारीरिक अंगों पर खूब लिख गया पर उसके व्यवहार,आचरण और ज्ञान पर कवि लिखने से बचते रहे वही हाल आतंकवाद का है। साहित्यकारों और लेखकों ने आतंकवादी घटनाओंे से हुई त्रासदी पर वीभत्स रस से सराबोर रचनायें खूब लिखीं। पाठक का दर्द खूब उबारा पर कभी इन घटनाओं के पीछे जो सौदागर हैं उसकी कल्पना किसी ने नहंी की। प्रसंगवश यहां हम मुंबई के खूंखार आतंकवादी कसाब की चर्चा करते हैं। 58 से अधिक बेकसूर लोगों का हत्यारा कसाब इंसान से कैसे राक्षस बना? क्या किसी पाकिस्तानी लेखक ने उसकी कल्पना करते हुए कोई लघुकथा या कविता लिखी। एक गरीब घर का लड़का जिसे उसका बाप आतंकवादी कैंप में यह कहकर भेजता है कि उसकी दो बहिनों की शादी के लिये पैसे मिलने के लिये यही एक रास्ता है। वह एक मामूली चोर डेढ़ से दो लाख रुपये की लालच में अपने देश के लिये योद्धा बनने को तैयार कैसे हो गया? उसमें इतनी क्रूरता कैसे आयी कि बंदूक हाथ में आते ही उसने 58 जाने बेहिचक ले ली? यही इंसान से राक्षस बना कसाब पकड़े जाने पर चूहे की तरह अपनी जान की भीख मांगने लगा। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि अब वह अपने किये पर पछता रहा है तब तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर इस राक्षसीय कृत्य के लिये प्रेरित करने वाले कौनसे कारण थे?
कसाब के पीछे जो तत्व हैं उनके सच पर कितने पाकिस्तानी या भारतीय साहित्यकार लिख पाते हैं। कसाब और उसके साथी तो साँस लेते हुए ऐसे इंसान थे जो किन्ही राक्षसों के हथियार बने गये। मुख्य अपराधी कौन हैं? मुख्य अपराधी हैं वह जो इसके लिये धन मुहैया करवा रहे हैं। यह धन देने वाले तमाम तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं और प्रशासन और जनता का ध्यान उन पर न जाये इस तरह के आतंकवाद का प्रायोजन कर रहे हैं। यह सच कितने साहित्यकार लिख पाये? कसाब तो इंसानी रूप में एक बुत है या कहें कि रोबोट है।
पाकिस्तान साहित्यकारों में क्या इतनी हिम्मत है कि वह कसाब को केंद्रीय पात्र बनाकर कोई कहानी लिख सकें? नहीं! दरअसल दक्षिण एशियों के साहित्यकार नायकों पर लिखकर समाज की वाहवाही लूटना चाहते हैं पर खलनायकों के कृत्यों में पीछे समाज की जो स्वयं की कमियां हैं उसे उबारकर लोगों के गुस्से से बचना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि नायकों की विजय के पीछे अगर समाज है तो खलनायक की क्रूरता के पीछे भी इसी समाज के ही तत्व हैं। समाज की की खामियों को छिपाकर उससे अच्छा बताने से तात्कालिक रूप से प्रशंसा मिलती है शायद यही कारण है कि लोग उससे बचने लगे हैं। भारत में हालांकि अनेक लोग समाज की कमियों की व्याख्या करते हैं पर वह भी उसके मूल में नहीं जाते बल्कि सतही तौर पर देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं। नारी स्वातंत्रय पर लिखने वाले अनेक लेखक तो हास्यास्पद रचनायें लिखते हैं और उससे यह भी पता लगता है कि उनके गहन चिंतन की कमी है।

दक्षिण एशियाई देश भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,गरीबी,अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों के कारण विश्व में पिछडे हुए हैं और इसलिये यहां लोगों में कहीं न कहीं गुस्से की भावना है। दक्षिण एशिया की छबि विश्व में कितनी खराब है यह इस बात से भी पता चलता है कि ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल ने भी उसे अपने लिये कम पाकिस्तान को अधिक संकट माना है जो कि दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है। जब हम दक्षिण एशिया की बात करते हैं तो फिर भौगोलिक सीमाओं से उठकर विचार करना चाहिये पर जैसे कि सम्मेलन की समाचार पढ़ने को मिले उससे तो नहीं लगता कि शामिल लोग ऐसा कर पाये। सच बात तो यह है कि समाज और देश को दिशा देने का काम साहित्यकार ही कर पाते हैं क्योंकि वह पुरानी सीमाओं से बाहर निकलकर रचनायें करते हैं। सभी साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाते जो पर जो करते हैं वही कालजयी रचनायें दे पाते हैं। अगर हम दक्षिण एशिया की स्थिति को देखें तो अब ऐसी कालजयी कृतियां कहां लिखी जा रही हैं जिससे समाज या देश में परिवर्तन अपेक्षित हो।
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4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

पाकिस्तान का यह 62 वर्ष पुराना सच है-आलेख


पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी का कहना है कि पाकिस्तान तालिबान के विरुद्ध अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। एक बहुत बड़े भूभाग पर उसने कब्जा कर लिया और वहां उनकी नहीं चलती। यह एक कड़वा सच है पर एक प्रश्न है कि जिस भूभाग की वह बात कर रहे हैं उस पर वैसे भी पाकिस्तान का शासन तो हमेशा नाममात्र का रहा है। हां, यह अलग बात है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपने स्वार्थ की खातिर वहां के लोगों को उन स्थानों पर फैलने की आजादी नहीं दी जहां वह नहीं पहुंचे थे। अपने सभ्य समाज पर नियंत्रण के लिये उन्हें वह उग्रपंथी बहुत पसंद आये पर वही अब उनके जीजान का संकट बन गये हैं। वैसे भी पाकिस्तान का सभ्य समाज भी कम गलतफहमियों में नहीं रहा। आजादी के बाद से वह संपूर्ण भारत पर कब्जा करने का ख्वाब सजाये उन्हीं कट्टरपंथी जमातों को पालता रहा जो आज उनको संकट का कारण दिखाई दे रही हैं। जब तक सेना का शासन रहता है यह उग्रपंथी खामोशी से अपना काम करते हैं जैसे ही लोकतांत्रिक शासन आता है वैसे ही उनकी आक्रामकता बढ़ जाती है क्योंकि उनको गैरहिंसक शासन पसंद नहीं आता।

भारतीय बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों का सोच कभी लाहौर से आगे गया ही नहीं। समय समय पर अनेक बुद्धिजीवियों और लेखकों के पाकिस्तान दौरे हुए-या यह कहना चाहिये कि लाहौर के दौरे ही हुए-वहां उन्होंने पाकिस्तान के बौद्धिक लोगांें से चर्चा की और यहां आकर सीमित दायरे में अपने विचार व्यक्त कर दिये। वह उस गहराई तक पहुंचे ही नहीं जहां उग्रपंथ हमेशा बैठा ही रहा। तालिबान और अलकायदा की उपस्थिति से पाकिस्तान के सीमाप्रांत और ब्लूचिस्तान में उग्रपंथ नहीं फैला बल्कि वहां मौजूद तत्वों का इन संगठनों ने फायदा उठाया। हां, उन्होंने इतना जरूर किया कि पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मौजूद सुविधाओं का उपयोग करने के लिये वहां अपना ठिकाना बनाया और उग्रपंथ वहां तक ले आये। बहुत कम लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोग अपने देश के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। अपने उपेक्षा के कारण उनमें भारी असंतोष है और कुछ भारतीय सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि वह तो एक रसगुल्ले की तरह चाहे जब पाकिस्तान से अलग कर दो।

असल बात यह है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में एक बहुत बड़े इलाके के लोगों में स्वाभाविक रूप से आक्रामकता है और अशिक्षा,गरीबी और पिछड़ापन उन्हें विकसित नहीं होने देता। पाकिस्तान की स्वात घाटी-जिसे उसका स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है-अब उग्रपंथियेां के हाथ में चली गयी है पर पाकिस्तान के हाथ में थी ही कब? अब वहां जिस तरह के स्वर सुनाई दे रहे हैं उससे पाकिस्तान का प्रबुद्ध समझ रहा है यह लगता नहीं है और वह अब भी भारत विरोध पर कायम है।

वहां के लोगों के बारे में भारत के बहुत कम लोग जानते हैं सिवाय इसके कि वहां के निवासी आक्रामक हैं-यदाकदा कुछ विद्वान इस बात की चर्चा जरूर करते हैं। हमारे देश में जो बुजुर्ग आजाद के समय वहां से पलायन कर यहां आये हैं वह अनेक प्रकार की कहानियां सुनाते हैं और उससे तो यही लगता है कि यह आतंकवाद वहां बहुत पहले से ही था। इस लेखक की एक ऐसे बुजुर्ग से चर्चा हुई जो वहां से 12 वर्ष की आयु में ही यहां आये थे और उनके जेहन में वहां की कुछ यादें बसी थीं-वह अपने पिता के साथ काबुल और कंधार तक घूम कर आये थे। जब अमेरिका ने पाकिस्तान पर हमला किया तब वह टीवी पर यह खबर देख कर हंसे थे और कहा था-‘वह चाहे कितना भी ताकतवर है पर उसे विजय नहीं मिलेगी। वह लोग मारता रहेगा पर दूसरे पैदा होते रहेंगे। अंग्रेजों ने लाख कोशिश कर ली पर वह डूरंड लाईन पार नहीं कर पाये तो अमेरिका भी वहां कामयाब नहीं हो पायेगा।’

वहां कबीलाई सरदारों का शासन है। बाकी लोग उनके गुलाम की तरह होते हैं। उनके परिश्रम और शक्ति के सहारे सरदार खूब धन संचय करते हैं और फिर अवसर मिल जाये तो दूसरों से हफ्ता या चंदा भी वसूल करते हैं। जब अफगानिस्तान में नार्दन अलायंस की सेना प्रवेश हुई थी तब पता लगा कि अनेक तालिबानी सरदारों ने पैसा लेकर पाला बदला था और वह उनके साथ हो गये थे। एक बार सत्ता बदली तो फिर वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट गये। अगर पाकिस्तान को वहां अपना नियंत्रण स्थापित करना था तो उसे आधुनिक शिक्षा प्रणाली का वहां प्रचार करना था पर पाकिस्तान के स्वार्थी हुक्मरानों ने भारत विरोध के मुद्दे के सहारे ही अपना शासन चलना उचित समझा और बाकी अन्य प्रांतों को वह भूल गये। प्रबुद्ध वर्ग ने भी यही सोचा कि कबीलाई लोगों की आक्रमकता से वह युद्धों में विश्वविजेता बन जायेंगे।
मगर यह संकट गहरा है या फिर उसे बना दिया गया है। पाकिस्तान की सेना अभी इन आतंकवादियों से लड़ रही है पर जरदारी साहब स्वयं मान रहे हैं कि उग्रपंथियों के खिलाफ वह उतनी ही शक्तिशाली नहीं है। फिर इसका हल क्या है? अमेरिका बमबारी करता है तो पाकिस्तान उसका विरोध भी करता है और भारत से मदद लेने की बात आये तो वहां का प्रबुद्ध वर्ग हायतौबा मचा देता है जबकि संकट अब उसकी तरफ ही आने वाला है। मतलब यह है कि वहां का प्रबुद्ध वर्ग उग्रपंथ की चपेट में आने को तैयार है पर भारत से मित्रता उसे स्वीकार्य नहीं है। भारत में जाकर उनके लेखक,बुद्धिजीवी,गायक,अभिनेता,अभिनेत्रियां और अन्य कलाकार जाकर कमायें पर फिर भी मित्रता न बने यह उनका ध्येय है। भारत से मित्रता होते ही उनकी रचनात्मकता के आधार समाप्त हो जायेंगे। पाकिस्तान की शैक्षणिक पुस्तकोंं में भारत और हिंदू धर्म का विरोध पढ़ाया जाता है। भारत को वणिक देश मानते हुए वह कायर तो कहते हैं पर धन और व्यापार की ताकत को स्वीकार न कर वह शतुरमुर्ग की भूमिका अदा करना चाहते हैं।

प्रसंगवश कुछ लोग देश में कभी महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसक वारदातों पर इतने उत्तेजित होकर तालिबानी संस्कृति आने की चर्चा करते हैं। वह घोर अज्ञानी है वह जानते ही नहीं जिस तालिबानी संस्कृति की बात कह रहे हैं वह तो केवल नाम भर है पाकिस्तान और अफगानिस्तान में वह सदियों से है। भारत में कम से कम एक प्रबुद्ध वर्ग तो है जो कभी भी इन हिंसंक वारदातों पर पीडि़तों के साथ खड़ा होने का साहस करता है पर पाकिस्तान में यह संभव नहीं है। भारत में जिस तरह दहेज एक्ट का प्रयोग निर्दोष पुरुषों के विरुद्ध होने की शिकायतेंं हो रही हैं वैसे ही पाकिस्तान में महिलाओं के विरुद्ध वैश्यावृत्ति कानून के दुरुपयोग की बात कही जाती है।

पाकिस्तान में पंजाबी लाबी हमेशा ही हावी रही है। जरदारी सिंध के हैं और वह जानते हैं कि देश की सामाजिक स्थिति क्या है? इसके बावजूद वह दिखावे के लिये अखंड पाकिस्तान के लिये जूझ रहे हैं जिसका कभी अस्तित्व रहा ही नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि अपने प्रांत के प्रति उनके न्याय की जो अपेक्षा की जा रही है वह भारत से मित्रता के बिना संभव ही नहीं है। पाकिस्तान का सिंध प्रांत विदेशी और कबाइली आतंकियों का गढ़ बन गया है और वहां सिंध प्रांत के लोग उनको पसंद कम ही करते हैं मगर सेना, प्रशासन और अन्य राजनीतिक संस्थाओं में वहां के लोगों का प्रभाव बहुत कम है। वहां की पंजाबी लाबी अपने प्रांत को तो आतंक से मुक्त रखना चाहती है पर उनको इस बात की परवाह नहीं कि अन्य प्रांतों में क्या होगा? अखबारों जब पाकिस्तान के बारे में समाचार आते हैं तो कई तरह की विचित्रता दिखती है। कभी पाकिस्तान क्या कहता है कभी क्या? लाहौर तक ही सोचने वाले लोग केवल पाकिस्तान देखते हैं पर जो इससे आगे की जानकारी का ध्यान रखते हैं वह अच्छी तरह से समझते हैं कि यह सब वहां सक्रिय लाबियों के आपसी द्वंद्व का परिणाम है।
ऐसे में पाकिस्तान के प्रबुद्ध वर्ग को यह बात समझ लेना चाहिये कि वह आपसी द्वंद्व में उलझने और भारत से बैर रखने की नीति त्याग कर इस बात की फिक्र करें कि एक आसन्न संकट उनके सामने आने वाला है जिसमें उनकी आवाज ही बंद कर दी जायेगी। अभी तक उनको अपनी सरकारों से जो सुरक्षा मिलती आ रही थी वह कभी भी तालिबान के हाथ में जा सकती है। 62 साल से बना हुआ सच अब उनके राष्ट्रपति ने कहा इससे बाहर के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता-उनके कबाइली लोग युद्धों में पाकिस्तान को युद्धों में विश्वविजेता नहीं बना सकतें इस बात को सभी समझ गये हैं-पर पाकिस्तान के प्रबुद्ध वर्ग को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि इस बार यह आधिकारिक रूप से स्वीकार किया गया है कि पाकिस्तान के एक बहुत बड़े इलाके में वहां का संविधान नहीं चलता।
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पाकिस्तान कब तक करेगा चालाकियां-आलेख


पिछले कई वर्षों से अनेक हिंदी के विद्वानों के आलेख पाकिस्तान के विषय में पढ़ने के बाद तो यही निष्कर्ष निकलता है कि उनके अन्य विषयों के साथ इसमें भी वैचारिक दायरा अत्यंत संकीर्ण है। वह पाकिस्तान के बारे में लाहौर तक ही सोचते हैं। अनेक भारतीय विद्वान और लेखकों के दौरे लाहौर तक ही होते हैं। उनके मित्र आदि भी वहीं रहते हैं। फिर अपने देश के पंजाब से लगा हुआ उसका प्रांत भी पंजाब भी है जहां के लेखक और पत्रकार इस विषय पर अधिक मुखर होकर लिखते हैं। वैसे उनको क्या दोष? पाकिस्तान के बुद्धिजीवी वर्ग की भी स्थिति कुछ ऐसे ही लगती है। वहां पाकिस्तान का मतलब पंजाब है और वह सिकुड़ते हुए लाहौर तक ही आ जाता है। पंजाब के बुद्धिजीवी और प्रबुुद्ध वर्ग के लोग बाकी तीन प्रांतों के प्रति सौहार्द का भाव दिखाने की बजाय भारत के प्रति दुर्भावना फैलाने में अपना मनोरंजन करते हैं।

इस लेखक ने देश के अनेक बुद्धिजीवियों और लेखकों विचार पढ़े हैं और उनसे तो यही लगता है कि वह पाकिस्तान के विषय में न तो अधिक जानते हैं और न ही प्रयास करते है। वह पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा तय की गयी ‘लाहौर सीमा’ से अधिक नहीं सोचते। वहां भाषा और प्रांत के आधार पर जबरदस्त वैमनस्य है यह एक सच्चाई है और यह भारत में कभी कभी प्रकट होने वाले आंदोलनों से अधिक खतरनाक तथा स्थाई है-कम से कम इस विषय पर देशी और विदेशी प्रचार माध्यमों के समाचार तो यही कहते हैं यह अलग बात है कि वह उनका विश्लेषण करते समय ‘लाहौर सीमा’ तक ही सिमट जाते हैं।
पाकिस्तान पर पंजाब और पंजाब पर लाहौर-मुल्तान के लोगों का वर्चस्व एक जाना पहचाना तथ्य है। सिंध,बलूचिस्तान ओर सीमा प्रांत यह तीन अन्य प्रदेश भी है। सिंध के लोग आक्रामक नहीं है इसलिये पंजाब का वर्चस्व झेल रहे हैं पर बाकी दो अन्य प्रांत में आज भी पाकिस्तान का संविधान नहीं चलता क्योंकि विश्व की आक्रामक कौमों के लोग वहां रहते हैं और अपने नियम चलाते हैं-यह अलग बात है कि वहां ताकतवर हमेशा ही कमजोर पर अनाचार करते हैं। उनका महिलाओं के प्रति व्यवहार अत्यंत खतरनाक है।
बहुत समय तक यह भेद विदेशी लोगों को भी इसका आभास नहीं हुआ क्योंकि पूरे पाकिस्तान में पंजाब के लोगों का वर्चस्व है और वही अधिक मुखर होकर विदेश से संपर्क रखते हैं पर अब जैसे जैसे प्रचार माध्यमों में आधुनिकता आती जा रही है वैसे उसका आभास भी होता जा रहा है कि पाकिस्तान एक नाम का ही देश है। दिल्ली दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आता था ‘पाकिस्तान रिपोर्टर’। भारतीय दूरदर्शन का वह कार्यक्रम न केेवल दिलचस्प था बल्कि उससे तो यही लगता था कि जैसे पंजाब ने बाकी तीन प्रांतों को गुलाम बना रखा था-पता नहीं अब आता है कि नहीं। उन कार्यक्रमों को देखकर भारतीय बुद्धिजीवियों और लेखकों के विचारों में अंतर देखकर यह लगता था कि उस कार्यक्रम को बहुत कम लोग देखते हैं या अपनी कोई राय बना पाते है। वर्तमान राष्ट्रपति आसिफ जरदारी के साथ जेल में दुव्र्यवहार होने के समाचार उनके साथ सहानुभूति दिखाते हुए भी दिखाये गये थे। उसमें जरदारी के सिंध प्रांत होने के कारण ही ऐसा होने की बात भी कही गयी थी।

सिंध प्रांत के लोग पंजाबियो से कभी मिल बैठ सकते हैं यह बात अभी भी वहां कोई नहीं मानता। बल्कि वहाँ के सिंध के कुछ ब्लाग लेखकों ने तो जरदारी की इस बात के लिये आलोचना की थी कि वह ‘मुहाजिर कौमी मूवमेंट’ के साथ समझौता कर पंजाबियों के वर्चस्व को स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि वह अंततः उनके साथ ही जायेगी।

आज एक टीवी चैनल में कसाब को अपने देश का मान लेने पर पाकिस्तान में मचे कोहराम की चर्चा थी। उसमें पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार दुर्रानी को हटाने पर जरदारी की नाराजगी की चर्चा की गयी थी। दरअसल इस समाचार का विश्लेषण करने पर ऐसा लग रहा था जैसे कि वहां सिंधी लाबी और पंजाबी लाबी के बीच शायद कोई द्वंद्व है जो हमें दिखाई नहीं दे रहा है। दुर्रानी ने सबसे पहले अधिकारिक रूप से यह स्वीकार किया था कि कसाब पाकिस्तानी है। इसका बाद में हर स्तर पर खंडन किया गया। ऐसा लगता है कि यहीं से दोनों लाबियों के बीच संघर्ष प्रारंभ हुआ है। कसाब पंजाब का है। इतना ही नहीं उसके नौ अन्य साथी भी पंजाब से हैं अजहर मसूद भी पंजाब का है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सोच रहे हों कि कसाब को पाकिस्तानी मान लेने पर भारत या विश्व में सामने अपनी छबि खराब होने से वहां के नेता परेशान ह ैंपर वास्तव में तो वहां की पंजाबी लाबी बाकी तीन प्रांतों के सामने अपने आपको गिरा हुआ अनुभव कर रही हो। गिलानी पंजाब के हैंं और जरदारी से उनकी अधिक समय तब बनेगी यह संभावना शुरु से ही नहीं रही है पर दोनों के बीच यह संघर्ष इतनी जल्दी शुरु हो जायेगा यह अनुमान नहीं था। अगर आप ध्यान करें तो जरदारी के अब बयान अधिक नहीं आ रहे। क्या उन्होंने यह सारा जिम्मा पंजाबी होने के कारण गिलानी पर डाल दिया है? प्रारंभ में वह स्वयं आक्रामक थे पर अब गिलानी अधिक दिखाई दे रहे हैं।

भारत द्वारा दिये गये सबूतों पर पहले पाकिस्तान का यह बयान आया था कि उनको खारिज किया जा रहा है, पर बाद में आया कि उनकी जांच की जा रही है। फिर एक बयान आया कि पाकिस्तान ने मान लिया है कि कसाब पाकिस्तानी ही है। फिर इसका खंडन आया पर पाकिस्तान की सूचनामंत्री शेरी रहमान ने जब टीवी पर इसकी पुष्टि की तो फिर पाक प्रधानमंत्री के हवाले से सुरक्षा सलाहकार दुर्रानी को बर्खास्त करनें का समाचार भी आया। शेरी रहमान पीपुल्स पार्टी की हैं और स्वर्गीय बेनजीर की अत्यंत निकट रही हैं। इस समय पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी सबसे अधिक आक्रामक हैं। कहते हैें कि एक समय तो भारत से विवाद के चलते उन्होंने इस्तीफे देने की धमकी दे डाली थी।
दरअसल जरदारी और गिलानी के बीच सत्ता का संघर्ष होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों के बीच भाषा और प्रांत के कारण जो पारंपरिक टकराव संभावित है उससे टालना कठिन है। नवाज शरीफ की पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया फिर भी गिलानी की सरकार चल रही है तो केवल इसलिये कि वह पंजाब के हैं। जरदारी ने उनकी सरकारी बनते ही जल्दी जल्दी राष्ट्रपति इसलिये हथियाया क्योंकि वह जानते थे कि देरी उनके लिये संकट बन जायेगी-कहीं न कहीं गिलानी के ताकतवर हो जाने पर अपना आधार खिसक जाने का भय उनके अंदर था इसलिये गिलाने के पांव जमने से पहले ही राष्ट्रपति बन गये।

गिलानी के पास विकल्प बहुत कम हैं। वह अपने पद पर स्वर्गीय प्रधानमंत्री बेनजीर के बलिदान के कारण है और चाहें भी तो वह अपनी अलग से राजनीतिक जमीन नहीं बना सकते। जरदारी की बात मानते रहने पर ही उनका हित है पर जिस तरह पंजाब के आतंकवादियों की चर्चा विश्व भर में हो रही है उससे उनका परेशान होना स्वाभाविक है क्योेंकि इससे बाकी तीन प्रांतों के लोग भी विरोध करने के मामले अधिक मुखर हो जायेंगे। भारत में कसाब पाकिस्तानी आतंकवादी है तो पाकिस्तान में पजंाबी टेररिस्ट। शायद गिलानी को उससे अधिक सहानुभूति है बनस्बित जरदारी के । यह दोनों ही सेना के मोहरे हैं पर गिलानी शायद दिल से कसाब के साथ है और जरदारी दिखाने के लिये। फिर गिलानी पर वहां के ताकतवर पंजाबी लाबी का भी बहुत दबाव पड़ रहा हो जो जरदारी के राष्ट्रपति रहते हुए उनसे सीधे टकराव नहीं ले सकती पर सेना में सक्रिय उसके अधिकारी जरूर यह काम करते रहेंगे कि वह उनकी ही भाषा बोलें।

समय आगे क्या रुख लेगा कोई नहीं जानता पर इतना तय है कि आतंकवादी घटना में पाकिस्तानी संलिप्तता प्रमाणित होने के बाद उसका संकट बढ़ता ही रहेगा। भारतीय रणनीतिकारों ने अभी हमले का मन नहीं बनाया पर पाकिस्तानी के अंदरूनी हालत उसे गहरे संकट में धकेल रहे हैं। उसकी सेना ने राजनीतिक मुखौटे लगा रखे हैं जो यह कभी स्वीकार नहीं करते कि उनके देश के हालत उनसे नहीं संभलते। दो प्रातों में तो उनका संविधान ही नहीं चलता। वहां के प्रचार माध्यमों ने भारत का विरोध करने का अभियान छेड़ रखा है और जनता को सच नहीं बता रहे। वहां के ताकतवर प्रचार माध्यमों पर पंजाबी लाबी का ही वर्चस्व है और उनसे ही जानकारी मिल पाती है। अन्य भाषा के प्रचार माध्यमों में क्या है यह पता तो केवल दूरदर्शन के पाकिस्तानी रिपोर्टर से ही लगता था जो शायद अब बंद हो गया है। बहुत दिन से देखने का प्रयास भी नहीं किया। उससे ही यह जानकारी मिल पाती थी कि बाकी तीन प्रांतों में पंजाब का बहुत विरोध है इतना कि वह पाकिस्तान से ही अलग होना चाहते हैं। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि सिंध प्रांत तो ऐसा रसगुल्ला है जिसे भारत चाहे जब हथिया ले। हालंाकि यह पाकिस्तान के राजनीतिक क्षेत्रों की यह चालाकी भी हो सकती है कि वह इस तरह जरदारी और गिलानी के बीच द्वंद्व दिखा रहे हों ताकि दुनियां के साथ भारत का भी ध्यान मुख्य मुद्दे से हटे पर यह भी सच है कि वह उनमें स्वाभाविक से है इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। जिस तरह कसाब को लेकर पाकिस्तान झूठ पर झूठ बोलता चला गया है उससे तो यही लगता है कि उसके नेता हल्के स्तर के हैं चाहे वह जरदारी हों या गिलानी।
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सीमित सैन्य कार्यवाही तो की जा सकती है-आलेख


अगर संकेतों को साफ समझें तो आने वाले दिनों में भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ घटने वाला है। मुंबई में हुए आतंकी हमले में पाकिस्तान की जमीन उपयोग करने का प्रमाण साफ मिल गया है और जिस तरह हमले में विदेशी नागरिक मरे हैं उसका विश्वाव्यापी प्रभाव हुआ है और पूरी दुनियां भारत की तरफ देख रही है कि वह कार्यवाही करता है।
राजनीति और सैन्य विशेषज्ञों की राय तो यही है कि पाकिस्तान के साथ जो इस समय राजनीतिक तौर पर सौहार्दपूर्ण संबंध हैं उसके चलते सीधी सैन्य कार्यवाही की धमकी देना ठीक नहीं है पर सीमित मात्रा में उसके आतंकी इलाकों पर हमला कर देना चाहिये। यह राय जो विशेषज्ञ दे रहे हैं वह न केवल अनुभवी हैं बल्कि उनका सम्मान भी हर कोई करता है।

भारत पाकिस्तान के बीच कोई बड़ा युद्ध होगा इसकी संभावना अगर न ही लगती तो यह भी लगता है कि कुछ न कुछ होगा। क्या होगा? इसका उत्तर देने से पहले पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति को समझना जरूरी है। पाकिस्तान में इस समय लोकतंत्र है। मुंबई के आतंकी हमले को लेकर वहां के लोकतांत्रिक नेताओं पर सीधे कोई आरोप नहीं लगा रहा। भारत भी नाराज बहुत है फिर भी वहां के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के प्रतिकूल कोई टिप्पणी नहीं दिखाई दे रही। दोनों नये हैं और लोकतांत्रिक नेता होने के नाते जानते हैं कि इस हमले से भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सभी लोग उससे नाराज हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी तो भारत के साथ मित्रता के लिये अनेक बयान दे चुके हैं। प्रधानमंत्री गिलानी भी कोई भारत के विरुद्ध कोई अनर्गल बात नहीं कहते। इन दोनों के साथ कठिनाई यह है कि सेना पर अभी तक इनका वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका है। दोनों साफ नहीं कहते पर यह सच है कि दोनों ही सेना से डरे हुए हैं और वह जानते हैं कि उनकी खुफिया ऐजेंसी आई.एस.आई. सेना और अपराधी शामिल भारत में आतंकी गतिविधियों में हैं पर कोई कार्यवाही कर पायेंगे इसमें संदेह है।

इन दोनों में भी एक अंतर है। जरदारी सिंध और गिलानी पंजाब प्रांत के हैं । पाकिस्तान में चार प्रांत हैं-पंजाब,सिंध,सीमा प्रांत, और बलूचिस्तान। आजादी के बाद पंजाब प्रांत का ही प्रभाव बाकी तीनों प्रांतों पर रहा है। सेना और प्रशासन पर उनका वर्चस्व रहा है पर बाकी तीनों प्रांतों में लोग आज भी पाकिस्तान का हृदय से अस्तित्व नहीं स्वीकार करते। भारत के विरुद्ध सबसे अधिक सक्रियता पंजाब प्रांत के लोग ही दिखाते हैं। शुरु में कबायली लोगों ने कश्मीर पर कब्जा करने में पाकिस्तान की सहायता अवश्य की थी पर बाद वह भी वहां की सरकार से असंतुष्ट हो गये। गिलानी भले ही पीपुल्स पार्टी के हैं और उन पर आसिफ जरदारी का पूरा नियंत्रण लगता है पर उनका पंजाबी होना भी यह संदेह पैदा करता है कि वह शायद ही भारत के हितचिंतक हों। जरदारी उस सिंध के हैं जो पाकिस्तान भक्ति से कोसों दूर हैं। बलूचिस्तान और सीमाप्रांत तो नाम के लिये ही पाकिस्तान का भाग हैं बाकी वहां के लोग अपना स्वायत्त जीवन जीते हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने तो पहले स्वयं ही माना है कि मुंबई में हुए हमले में उनके देश के उन तत्वों का हाथ हो सकता है जो दोनों के बीच दुश्मनी कराना चाहते हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि ‘उनकी सजा हमें क्यों देते हो?’ हालांकि बाद में भारत द्वारा 20 आंतकवादी मांगने के बाद उन्होंने इस बात से इंकार कर दिया। इससे यह तो पता चलता है कि पाकिस्तान में पंजाब की लाबी बहुत प्रभावी है और उसकी सहमति के बिना वहां काम करना कठिन है।

पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार होने के कारण भारत भी फूंक फूंक कर कदम रख रहा है क्योंकि वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता कि वहां की लोकतांत्रिक सरकार वहां अलोकप्रिय हो। ऐसे पाकिस्तान के अंदर सीमित कार्यवाही करने की संभावना बनती दिख रही है हालांकि पाकिस्तानी सेना की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी यह भी देखने वाली बात है। इस सीमित कार्यवाही में पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकी शिविरों पर हमला करना भी शामिल है। वैसे अधिकतर विशेषज्ञ पाकिस्तान का बंटवारा करवाने के पक्ष में नहीं है पर कुछ लोग मानते हैं कि वहां की अदंरूनी राजनीति के गड़बड़झाले का लाभ उठाते हुए उसका विभाजन करना भी बुरा नहीं है।

भारतीय रक्षा,राजनीति और विदेश नीति विशेषज्ञ भी मानते हैं कि काबुल में हुए भारतीय दूतावास और अब मुंबई पर हमले में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी,सेना और अपराधियों का हाथ तो है पर वहां के प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और अन्य लोकतांत्रिक नेता उनसे जुड़े नहीं है। ऐसे में आक्रमण की स्थिति होने पर वहां की लोकतांत्रिक सरकार भला कैसे चुप बैठ सकती है? आखिर कैसे वह भारत का समर्थन कर सकते है?’

पाकिस्तान का पूरा प्रशासन तंत्र अपराधियों के सहारे पर टिका है। वहां की सेना और खुफिया अधिकारियों के साथ वहां के अमीरों को दुनियां भर के आतंकियों से आर्थिक फायदे होते हैं। एक तरह से वह उनके माईबाप हैं। यही कारण है कि भारत ने तो 20 आतंकी सौंपने के लिये सात दिन का समय दिया था पर उन्होंने एक दिन में ही कह दिया कि वह उनको नहीं सौंपेंगे। वैसे देखा जाये तो काबुल दूतावास पर भारतीय दूतावास पर हमले पर भारत में उच्च स्तर पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी पर चूंकि आम जनता उससे सीधे जुड़ी नहीं थी इसलिये इसका भारतीय प्रचार माध्यमों ने प्रचार भी नहीं किया। वैसे भी प्रचार माध्यम इस समय भले ही पाकिस्तान के प्रति रोष दिखा रहे हैं पर यही अपने कार्यक्रमों और प्रकाशनों में वहां के लोगों को स्थान देने के लालायित रहते हैं। भारतीय प्रचार माध्यम पाकिस्तान से आम आदमी के स्तर पर सपंर्क के नाम पर वहां के कुछ खास लोगों का यहां अपने व्यवसायिक उपयोग करते हैं। आज जब मुंबई पर हमला हुआ है तब उन्हें पाकिस्तान खलनायक नजर आ रहा है पर इस प्रचार में भी उनका व्यवसायिक भाव दिख रहा है-दिलचस्प बात यह है कि पाकिंस्तान से सभी प्रकार के संपर्क तोड़ने का नारा कोई नहीं लगा रहा है क्योंकि सभी अपने भविष्य की व्यवसायिक संभावनाओं को जीवित रखना चाहते हैं।

बहरहाल आने दिनों वाले में क्या होगा? कुछ नहीं कहा जा सकता है पर इतना तय है कि भारत और पाकिस्तान में अंदरूनी राजनीतिक गतिविधियां तीव्र हो जायेंगी। अगर आगे आतंकी घटनायें रोकनी हैं तो कुछ कठोर कदम तो उठाने ही होंगे। सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो फिर लोगों को समझाना कठिन होगा। पाकिस्तान के खिलाफ एक बड़ा युद्ध न भी हो पर सीमित कार्यवाही अवश्यंभावी प्रतीत होती है क्योंकि इसके बिना भारत के शक्तिशाली होने का प्रमाण नहीं मिल सकता। अब यह देखने वाली बात होगी कि आगे क्या होता है? एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि जब तक भारत इस आतंकवाद का मूंहतोड़ जवाब नहीं देता तब तक लोग उसकी शक्ति पर यकीन नहीं करेंगे।
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