आकीर्ण मण्डलं सव्र्वे मित्रैररिभिरेव च
सर्वः स्वार्थपरो लोकःकुतो मध्यस्थता क्वचित्
सारा विश्व शत्रु और मित्रों से भरा है। सभी लोग स्वार्थ से भरे हैं ऐसे में मध्यस्थ के रूप में निष्पक्ष व्यवहार कौन करता है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्यूपीडयेत्
अत्यन्तं विकृतं तन्यात्स पापीयान् रिमुर्मतः
यदि अपना भला करने वाला मित्र भोग विलास में लिप्त हो तो उसे त्याग देना चाहिए। जो अत्यंत बुरा करने वाला हो उस पापी मित्र को दंडित अवश्य करना चाहिए।
मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यजेत्
त्यजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हि
अपने मित्र के बारे में अनेक प्रकार से विचार करना चाहिए। अगर उसमें दोष दिखाई दें तो उसका साथ छोड़ देने में ही अपना हित समझें। अगर ऐसे दुर्गुणी मित्र का साथ नहीं त्यागेंगे तो तो उससे अपने ही धर्म और अर्थ की हानि होती है।
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पैशुन्यं साहसं मोहं ईष्र्याऽसूयार्थ दूषणम।
वाग्दण्डवं च पारुष्यं क्रोधजोऽपिगणोऽष्टकः।।
मनुष्य में क्रोध से आठ दोष उत्पन्न होते हैं
1.दूसरे की चुगली करना 2.दुस्साहस 3.ईष्र्या करना 4.अन्य व्यक्तियों में दोष देखना 5.दूसरों के पैसे को हड़पना 7.अभद्र शब्दों का प्रयोग करना 8.अन्य लोगों के साथ दुव्र्यवहार करना
द्वयोरष्येतयार्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं त्यनेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ।।
विद्वान लोगों का कहना है कि जो दोष काम और क्रोध से उत्पन्न होते हैं वही लालय से भी पैदा होते हैं। अतः सभी लोगों को अपनी लालच की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखना चाहिए।
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