Tag Archives: short story

भाषण-हिन्दी लघु कथा (bhashan-hindu laghkatha)


वह अपने भाषण में गरज़ रहे थे-‘आज हमारे शहर की कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। कोई भी सुरक्षित नहीं है। माता बहिनों को घर से निकलते हुए डर लगता है। कोई आदमी अधिक पैसा जेब में रखकर डरता सड़क पर चलता है। अरे, पर कई लोग तो इसलिये पैसे जेब में रखकर निकलते हैं कि कोई लुटेरा लूटने के लिये हथियार लेकर रास्ते में खड़ा हो और न देने पर निराशा में कहीं हमला न कर बैठै। हा……..हा….’’
एक श्रोता बोल पड़ा-‘आप क्यों कानून व्यवस्था की फिकर करते हैं। आपके साथ तो चार बंदूकधारी पहरेदार है न! कोई खतरा नहीं है फिर कानून व्यवस्था की स्थिति खराब कैसे हैं?’
इससे पहले कि वह कुछ कहते उनके चेले चपाटों ने मंच से उतरकर उस श्रोता पर अपने हाथ साफ कर दिये। वहां खड़े अन्य श्रोताओं ने उसको अधिक पिटने से बचाया।
तब वह बोले-‘अरे भाई, देख लिया न कितनी कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है! यह देखो बंदूकधारी पहरेदार खड़े देखते रहे और तुम पिटते रहे। वैसे मेरे चेलों के लिये यह शर्म की बात है।’
फिर वह अपने चेलों ने बोले-‘हट जाओ, ऐसे किसी पर हमला नहीं करना चाहिये। तुम्हें अपनी दमदार आदमी की छबि बनानी है ताकि लोग डरें तो भाई मुझे भले आदमी की छबि बनानी है। एक बात याद रखना हमारी छबि खराब हुई तो तुम्हारी भी बनने वाली नहीं है।’
फिर वह उस श्रोता से बोले-‘हमारा उद्देश्य हम जैसे बड़े लोगों से नहीं तुम जैसे आम आदमी की सुरक्षा और अन्य परेशानियों से है। तुम इतना नहीं समझते! आइंदा ध्यान रखना वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे। बड़े लोग भले हों पर उनके चेले चपाटे भी वैसे हों यह जरूरी नहीं है, और कानून व्यवस्था के खराब होने का मतलब तो तुम समझ ही गये होगे।’
वह श्रोता दुःखी मन से वहां से चला गया और भाषण जारी रहा।

————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

आओ दंगा फिक्स करें-हिन्दी हास्य व्यंग्य ( danga fixing-hindi hasya vyangya)


वह समाज सेवक निठल्ले घूम रहे थे। दरअसल अब कंप्यूटर और इंटरनेट आने से चंदा लेने देने का धंधा आनलाईन हो गया था और वह इसमें दक्ष नहीं थे। फिर इधर लोग टीवी से ज्यादा चिपके रहते हैं इसलिये उनके कार्यक्रमों के बारे में सुनते ही नहीं इसलिये चंदा तो मिलने से रहा। पहले वह अनाथ आश्रम के बच्चों की मदद और नारी उद्धार के नाम पर लोगों से चंदा वसूल कर आते थे। पर इधर टीवी चैनलों ने ही सीधे चैरिटी का काम करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरु कर दिये हैं तो उनके चैरिटी ट्रस्ट को कौन पूछता? इधर अखबार भी ऐसे समाज सेवकों का प्रचार नहीं करते जो प्रचार के लिये तामझाम करने में असमर्थ हैं।
उन समाज सेवकों ने विचार किया कि आखिर किस तरह अपना काम बढ़ाया जाये। उनकी एक बैठक हुई।
उसमें एक समाज सेवक को बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का-सीधी भाषा में कहें तो शातिर- माना जाता था। उससे सुझाव रखने का आग्रह किया गया तो वह बोला-आओ, दंगा फिक्स कर लें।
बाकी तीनों के मुंह खुले रह गये।
दूसरे ने कहा-‘पर कैसे? यह तो खतरनाक बात है?
पहले ने कहा-‘नहीं, दंगा नहीं करना! पहले भी कौनसा सच में समाज सेवा की है जो अब दंगा करेंगे! बस ऐसे तनावपूर्ण हालत पैदा करने हैं कि दंगा होता लगे। बाकी काम मैं संभाल लूंगा।’
तीसरे ने पूछा-‘ पर इसके लिये चंदा कौन देगा।’
पहले ने कहा-‘अरे, इसके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है। हमारे पूर्वज समाज को टुकड़ों में केक की तरह बांट कर रख गये हैं बस हमें खाना है।’
तीसरे ने कहा-‘मगर, इस केक के टुकड़ों में अकल भी है, आखें भी हैं, और कान भी हैं।’
पहला हंसकर बोला-‘यहीं तो हमारी चालाकी की परीक्षा है। अब करना यह है कि दूसरा और तीसरा नंबर जाकर अपने समाजों में यह अफवाह फैला दें कि विपक्षी समाज अपने इष्ट की दरबार सड़क के किनारे बना रहा है। उसका विरोध करना है। सो विवाद बढ़ाओ। फिर अमन के लिये चौथा दूसरे द्वारा और पहले के द्वारा आयोजित समाज की बैठकों मैं जाऊंगा। तब तक तुम दोनो गोष्ठियां करो तथा अफवाहें फैलाओ। समाज के अमीर लोगों के वातानुकूलित कमरों में बैठकें कर उनका माल उड़ाओ। पैसा लो। सप्ताह, महीना और साल भर तक बैठकें करते रहो। कभी कभी मुझे और चौथे नंबर वाले को समाज की बैठकों बुला लो। पहले विरोध के लिये चंदा लो। फिर प्रस्ताव करो कि उसी सड़क के किनारे दूसरे समाज के सामने ही अपने इष्ट का मंदिर बनायेंगे। हम दोनों हामी भरेंगे। संयुक्त बैठक में भले ही दूसरे लोगों को बुलायेंगे पर बोलेंगे हम ही चारों। समझौता करेंगे। दोनों समाजों के इष्ट की दरबार बनायेंगे। फिर उसके लिये चंदा वसूली करेंगे।’
दूसरे ने कहा-‘पर हम चारों ही सक्रिय रहेंगे तो लोगों का शक होगा।’
पहला सोच में पड़ गया और फिर बोला-‘ठीक है। पांचवें के रूप में हम अपने वरिष्ठ समाज सेवक को इस तरह उस बैठक में बुलायेंगे जैसे कि वह कोई महापुरुष हो। लोगों ने उनके बारे में सुना कम है इसलिये मान लेंगे कि वह कोई निष्पक्ष महापुरुष होंगे।’
तीसरे ने कहा-‘पर सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा है। अब इतना आसान नहीं रहा है अतिक्रमण करना। अदालतें भी ऐसे विषय पर सख्त हो गयी हैं। कहीं फंस गये तो। इसलिये किसी भी समाज के इष्ट का दरबार नहीं बनेगा।’
पहला हंसकर बोला-‘इसलिये ही मुझे तीक्ष्ण बुद्धि का माना जाता है। अरे, दरबार बनाना किसे है। सड़क पर एक कंकड़ भी नहंी रखना। सारा झगड़ा फिक्स है इसलिये दरबार बनाने का सपना हवा में रखना है। बरसों तक मामला खिंच जायेगा। हम तो इसे समाजसेवा में बदलकर काम करेंगे। अब बताओ कपड़े, बर्तन तथा किताबें गरीबों और मजदूरों में बांटने के लिये कितना रुपया लिया पर एक पैसा भी किसी को दिया। यहां एक पत्थर पर भी खर्च नहीं करना। सड़क पर एक पत्थर रखने का मतलब है कि दंगा करवाना। जब पानी सिर के ऊपर तक आ जाये तब कानूनी अड़चनों का बहाना कर मामला टाल देंगे। फिर कहीं   किसी दूसरी जगह कोई नया काम हाथ में लेंगे। अब जाओ अपनी रणनीति के अनुसार काम करो।’
चारों इस तरह तय झगड़े और समझौते के अभियान पर निकल पड़े।

सूचना-यह लघु व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसे मनोरंजन के लिये लिखा गया है। इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

दूसरा तस्सल-हिंदी लघुकथा


वह किसी मकान के लिये बन रही नींव के लिये गड्ढा खोद रहा था। उसके पास ही थोड़ी दूर स्थित मैदान में गरीब मजदूरों के उद्धारक और समाज कल्याणक का भाषण चल रहा था। उसी समय एक बुद्धिजीवी वहां से निकला और बोला-‘अरे, तुम यहां काम में लगे हो। चलो उधर तुम्हारे उद्धारक का भाषण चल रहा है। क्या बहरे हो? तुम्हें सुनाई नहीं देता।’
मजदूर खामोशी से उस बुद्धिजीवी को हैरानी से देखने लगा तो बुद्धिजीवी ने कहा-‘लगता है कि बहरे होने के साथ गूंगे भी हो। तब तो तुम्हें वहां जरूर चलना चाहिये।’
बुद्धिजीवी महोदय उसे इशारों में समझाने लगे तो वह मजदूर बोला-‘आप गलत समझ रहे हैं। मैं न तो बहरा हूं न गूंगा। मैं तो मजदूर हूं पेट से भूखा हूं। वह भाषण कर रहे हैं। जिनके पास कोई काम नहीं हैं या पेट भरे हुए हैं वह उनका भाषण सुन रहे हैं। मैं तो छोटा आदमी हूं। उद्धारक साहब तो बड़े आदमी हैं।
बुद्धिजीवी ने कहा-‘चलो! मुझे उन पर एक लेख लिखना है। तुम वहां चलोगे तो तुम्हारा औरा उनका फोटो निकाल कर छाप दूंगा। क्या जोरदार मसाला बनेगा? वह गरीबों और मजदूरों के मसीहा हैं। तुम यह फावड़ा तस्सल हाथ में पकड़े जब उनका भाषण सुनोगे तब तुम्हारा फोटो निकाल कर उसे प्रकाशित करूंगा। लोगों को पता लग जायेगा कि उद्धारक जी कितने महान हैं कि मजदूर लोग तक उनको प्यार करते हैं?’
मजदूर ने कहा-‘आप मुझे कुछ पैसा दें तो चलने को तैयार हूं। मेरी हाजिरी का नुक्सान होगा? उसकी भरपाई कौन करेगा? वह और आप तो बड़े आदमी है अपना काम निकालकर चले जायेंगे पर मेरा पेट कैसे भरेगा?
बुद्धिजीवी ने कहा-धत तेरे की! तुम गरीब और मजदूर इसलिये ही तरक्की नहीं कर पाते क्योंकि जो तुम्हारे लिये लड़ता है उसका साथ नहीं देते। बस हमेशा पैसे और रोटी की बात करते हो।’
मजदूर ने कहा-‘अगर आप मुझे सौ रुपये दें तो चलने को तैयार हूं।’
बुद्धिजीवी ने कहा-‘फिर तुम्हें क्यों ले चलूं, मैं किसी एक्टर को नहीं ले आऊंगा। वह एक्टर मेकअप करके आयेगा और आधुनिक मजदूर की तरह लगेगा तो मेरे लेख के साथ लगे फोटो में रौनक भी आयेगी।’
बुद्धिजीवी वहां से चला गया और मजदूर अपने काम में लग गया। थोड़ी देर बाद वह बुद्धिजीवी उसी मजदूर के पास अपने साथ एक एक्टर को ले आया जो पेंट शर्ट पहने हुए था। उसने मजदूर से कहा-‘देखो कितना बढि़या एक्टर लाया हूं। इसका फोटो देखकर सभी सोचेंगे कि देखो मजदूर भी इस देश में कितने खुशहाल हैं। लाओ अपना तस्सल और फावड़ा दे दो तो वह इसके हाथ में रखकर फोटो खिंचवाना है।’
मजदूर ने पास खड़े ठेकेदार की तरफ इशारा किया और कहा-‘साहब, यह भी किराये से आते हैं। आप हमारे ठेकेदार साहब से बात कर लो।’

तब ठेकेदार भी उनके पास आया। वह बुद्धिजीवी से परिचित था। बुद्धिजीवी ने उससे कहा-‘यह कैसे मजदूर तुम अपने पास रखते हो। वहां फोटो खिंचवाने भी नहीं चल सकते और न अपना यह सामान थोड़ी देर के लिये दे सकते हैं। पैसा मांगते हैं।’
ठेकेदार ने हंसकर कहा-‘आप भी तो नहीं सोचते। जिस काम के लिये एक्टर हों उसके लिये असली मजदूर की क्या जरूरत है? रहा सामान का सवाल तो आप फावड़ा तस्सल ले जाईये, तब इसने जो मिट्टी निकाली है उसे दूसरे तस्सल से उठाकर फैंकता रहेगा।’
बुद्धिजीवी ने कहा-‘भई, वाह आप जैसा आदमी होना चाहिये जो समाज सेवा करे।’
ठेकेदार ने हंसकर कहा-‘नही! ऐसी बात नहीं है। उद्धारक साहब के लिये भीड़ जुटाने का ठेका भी मैंने लिया है। वहां ऐसे मजदूर भेजे हैं जिनके लिये आज मेरे पास काम नहीं है। हां, आपने अच्छा याद दिलाया। अब उन लोगों को तस्सल, फावड़ा,गैंती और दूसरे साजोसामान के साथ ही भेजूंगा। उसके लिये कुछ किराया जरूर अधिक लूंगा पर आयोजक तैयार हो जायेंगे।’
बुद्धिजीवी ने कहा-‘हां, फिर हमें किसी ऐसे मजदूर के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है। हालांकि मैं भी अब सोच रहा हूं कि अपने साथ ऐसे कार्यक्रमों के लिये एक्टर भी जरूरी है जो मजदूरों की भीड़ में चमकदार लगे। जब सभी काम एक्टिंग से हो सकता है तो फिर असली की क्या जरूरत है?’
एक्टर, बुद्धिजीवी और ठेकेदार वहां से चले गये। मजदूर अपने होठों से बुदबुदाया-दूसरा तस्सल’।
……………………………….

यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका