इंसान को खिलौना समझाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


शिक्षा बन गयी व्यापार

विद्यालय सुविधाओं के

विज्ञापन और प्रचार पर चलते हैं।

पुस्तकें हो गयी सौदे की शय

छात्र अब पुत्र की तरह नहीं

ग्राहक की तरह पलते हैं।

अध्यापक सिखा और पढ़ा रहे

अंग्रेजी चाल का तरीका,

थोड़ा बहुत मनोरंजन का सलीका,

भविष्य में आनंद का सपना

छात्र गुलामी के सांचे में ढलते हैं।

कहें दीपक धर्म से परे शिक्षा

कभी समाज नहीं बना सकती

निकल आये हम भ्रम के मार्ग

अब अपनी करनी पर हाथ मलते हैं।

———————–

बचपन में मिले

जिनको महंगे खिलौने

खेल वह पाये नहीं।

बड़े होकर आम इंसानों से

खेलते सस्ते सपने दिखाकर

मगर वादे महंगे करते नहीं।

करते हैं सभी के भले की पहल

बना लेते अपने बड़े महल

दरियादिल की बनायी  छवि

दया दिमाग में जिनके भरी नहीं।

कहें दीपक बापू भाग्य से

करें शिकायत या कर्म का खेल

दर्शक की तरह देखते रहें

ऊंचाई पर खड़े जो लोग

नीचे नहीं देखते

बोलें तो सुन नहीं पाते

    शब्द हवा में खो जाते कहीं।

—————————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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