विकास और कदाचार(उन्नति और भ्रष्टाचार) -हिन्दी व्यंग्य कवितायें (devlopment and corruption-hindi satire poem,hindi vyangya kavita)


रबड़ के चार पहियों पर सजी कार
विकास का प्रतीक हो गयी है,
चलते हुए उगलती है धुआं
इंसान बन गया मैंढक
ढूंढता है जैसे अपने रहने के लिये कुआं,
ताजी हवा में सांस लेती जिंदगी
अब अतीत हो गयी है।
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उन्होंने पूछा था अपने दोस्त से
खुशियां दिलाने वाली जगह का पता
उसने शराबखाने का रास्ता दिखाया,
चलते रहे मदहोश होकर उसी रास्ते
संभाला तब उन्होने होश
जब अस्पताल जाकर
बीमारों में अपना नाम लिखाया।
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हमने उनसे पूछा कदाचार के बारे में
उन्होंने जमाने भर के कसूर बताये,
भरी थी जेब उनकी भी हरे नोटों से
जो उन्होंने ‘ईमादारी की कमाई‘ जताये।
मान ली उनकी बात तब तक के लिये
जब तक उनके ‘चेहरे’
रंगे हाथ कदाचार करते पकड़े नज़र नहीं आये।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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