शाम-ढलते ढलते


शांति से अपने तेज को समेटता सूरज
दिन को विराम देता
रात्रि को आमंत्रण भेजता
कोई आवाज नहीं
दिन भर प्रकाश बिखेरा पर
अहंकार का भाव नहीं
आकाश में चंद्रमा की आने की आहट
अपना स्थान उसे देने में
कभी नही दिखाता घबराहट
चला जा रहा है अस्ताचल में कहीं

रोज उगते और डूबते उसे
देख कर भी
क्यों नहीं सीखता कि
उगना और डूबना इस सृष्टि की नियति है
इसे क्या घबडाना
बचने का क्यों ढूंढते बहाना
अपनी विरासत दूसरे के हाथ में
जाते देख शुरू करते हैं शोर मचाना
सदियों पुराना सच जानते हैं
पर भूलने का ढूंढते बहाना
कभी सोचा हैं कि
झूठ के पाँव होते नहीं
और यह बदल सकता नहीं

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टिप्पणियाँ

  • rajivtaneja  On दिसम्बर 20, 2007 at 08:32

    सच्चाई से रुबरू होने डरता क्यों है इंसान…आज है ऊपर…कल को नीचे आना है…बात ले ये जान.. कल जब ऊपर ..बहुत ऊपर चला जाएगा…साथ ना कुछ गया है… न ले के जाएगा

  • परमजीत बाली  On दिसम्बर 19, 2007 at 23:03

    बहुत बेहतरीन रचना है।बधाई।

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