Category Archives: कला

इंसान बिल्ली जैसे हो गये-हिन्दी व्यंग्य (insan billi jaisi ho gaye-hindi vyangya)


कहते हैं कि बिल्ली दूध पियेगी नहीं तो फैला जरूर देगी। ऐसा लगता है कि हमारे देश की व्यवस्था में लगे कुछ लोग इसी तरह के ही हैं। हाल ही में नईदिल्ली में संपन्न कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 (राष्ट्रमंडल-2010) में कई किस्से इतने दिलचस्प आये हैं कि उन पर हंसने का मन करता है। देश के खज़ाने का जो उपयोग हुआ उस पर रोने का अब कोई फायदा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार पर इतना लिखा गया है कि अनेक ग्रंथों में उसे समेटा जा सकता है। फिर रोने की भी एक सीमा होती है। एक समय दुःखी आदमी रोता रहता है तो उसके आंसु भी सूख जाते हैं। समझदार होगा तो आगे नहीं रोएगा और कुछ पल हंस कर आनंद उठाऐगा और पागल हुआ तो उसका एसा मानसिक संतुलन बिगड़ेगा कि बस हमेशा ही हंसता रहेगा चाहे कोई मर जाये तो भी वह हंसता हुआ वहां जायेगा। जिनको अब कॉमनवेल्थ गेम्स की घटनाओं पर हंसी आ रही है अब वह बुद्धिमान हैं या पागल यह अलग विचार का विषय हैं पर सच यही है कि रोने का कोई फायदा नहीं है और उन पर हंसकर खूना बढ़ाया जाये यही अच्छा रहेगा।
एक दिलचस्प समाचार देश के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला कि कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ खेलों के टिकट कूड़ेदानों में फिंके पाये गये जबकि उनके स्टेडियम खाली थे या उसमें दर्शक कम थे। साथ ही यह भी कि अनेक लोग टिकट काले बाज़ार में बेचते पकड़े गये और दर्शकों को टिकट खिड़की से खाली हाथ लौटना पड़ा। कूड़ेदानों में मिले टिकट मानो बिल्ली द्वारा फैलाया गया दूध जैसे ही हैं।
आखिर क्या हुआ होगा? कॉमनवेल्थ खेलों का प्रचार जमकर हुआ। व्यवस्था में लगे लोगों को लगा होगा कि जैसे कि कुंभ का मेला है और देश का लाचार खेलप्रेमी यहां ऐसे ही आयेगा जैसे कि तीर्थस्थल में आया हो! मैदान में खिलाड़ियों और खिलाड़िनों के दर्शन कर स्वर्ग का टिकट प्राप्त करने को आतुर होगा। जिस तरह तीर्थस्थलों पर खास अवसरों पर तांगा, रिक्शा, होटल, और अन्य वस्तुऐं महंगी हो जाती हैं-या कहें कि खुलेआम ब्लैक चलता है-वैसे ही कॉमनवेल्थ खेलों में भी होगा। ऐसा नहीं होना था और नहीं हुआ। जिन लोगों ने टिकट बेचने और बिकवाने का जिम्मा लिया होगा वह बहुत उस समय खुश हुए होंगे जब उनको टिकट मिले होंगे। इसलिये नहीं कि देश के प्रति कर्तव्य निर्वाह का अवसर मिल रहा है बल्कि इस आड़ में कुछ अपना धंधा चला लेंगें। टिकट बेचने वाले वेतन, कमीशन या ठेके पर ही यह काम करते होंगे। अब टिकट आया होगा उनके हाथ। मान लीजिये वह पांच सौ रुपये का है और उसे खिड़की पर या अन्यत्र इसी भाव पर बेचना है। मगर बेचने वाले को यह अपमान जनक लगता होगा कि वह पांच सौ का टिकट उसी भाव में बेचे।
कॉमन वेल्थ गेम के पीछे राज्य है और जहां राज्य है वहां निजी और राजकीय ठेका कार्यकर्ता आम आदमी के दोहन न करने को अपना अपमान समझते हैं। पांच सौ का टिकट पांच सौ में आम आदमी देते तो घर पर ताने मिलते। मित्र हंसते! इसमें क्या खास बात है यह बताओ कि ऊपर से क्या कमाया-लोग ऐसा कहते।
कुछ ब्लेक करने वालों को पकड़ा होगा कि टिकट बेच कर दो। ऊपर का पैसा आपसमें बांट लेंगे। दे दिये टिकट! उसने जितने बेचे वापस कर दिये होंगे। बाकी! फैंक दो कूड़ेदान में! रहने दे तो स्टेडियम खाली! अपने बाप के घर से क्या जाता है। नुक्सान राज्य का है तो होने दो! आम आदमी को बिना ब्लेक रेट के टिकट नहीं देंगे।
यह बिल्लीनुमा लोग! इनमें से बहुत सारे ऐसे होंगे जो सर्वशक्तिमान की भक्ति करते होंगे! मगर राज्य का मामला हो तो मन से अहंकार नहीं निकलता है! कई सत्संग में जाते होंगे, मगर उस समय वह इंसान नहीं बिल्ली की तरह हो गये होंगे। दूध फैला देंगे ताकि कोई न पी पाये।
टिकट कूड़ेदान में फैंककर तसल्ली की होगी कि अगर हमें अतिरक्त पैसा नहीं मिला तो क्या? आम दर्शक को अंदर भी तो नहीं जाने दिया।
यह केवल एक घटना है! ऐसी हजारों घटनायें हैं। गरीब को नहीं देंगे भले ही वह मर जाये और हमारी चीज़ भी सड़ जाये। मक्कारी, बेेईमान और भ्रष्टाचार का कोई चरम शिखर होता है तो उस पर हमारा देश सबसे ऊपर है मगर इसके पीछे जो विवेकहीनता, अज्ञानता तथा क्रूरता का जो दर्शन हो रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि चिंतन और आचरण का यह विरोधभास हमारे खून में आ गया है और अपनी महानता पर हम आत्ममुग्ध जरूर हो लें पर पूरी दुनियां ने यह सब देखा है।
हम दावे करते हैं कि हमारा देश धार्मिक प्रवृत्ति का है, हमारी संस्कृति महान है, हमारे संस्कार पूज्यनीय हैं, पर ऐसी घटनायें यह बताती हैं कि यह सब पाखंड है। इंसान सभी दिख रहे हैं पर कुत्ते और बिल्लियों और चूहों की मानसिकता से सभी सराबोर हैं। सच कहें कि पेट भर जाये तो यह तीनों जीव भी कुछ देर खामोश रहते हैं पर इंसान तो कीड़े मकोड़ों की तरह हो गया है जिनका बहुत सारा खून पीने पर भी पेट नहीं भरता। अलबत्ता बिल्ली का उदाहरण देना पड़ा यह बताने के लिये कि निम्न आचरण की इससे अधिक हद तो हो नहीं सकती।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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प्रसिद्ध लोगों का कथन कितना सार्थक-हिन्दी लेख (famous parson of hindi and hindi blog-hindi article)


इस देश में कई ऐसे महान लेखक हैं कि अगर हम स्वयं लेखक न हों तो उनका नाम नहीं जानते होते। इतना ही नहीं समाचार पत्र पत्रिकाओं में कई लेख भी न पढ़ें अगर हमारे अंदर पढ़कर लिखने का जज़्बा न हो। कहने का अभिप्राय यह है कि आम भारतीय अखबार केवल समाचारों की वजह से पढ़ता है उसमें भी स्थानीय समाचारों के छपने की अपेक्षा के साथ-अंदर के लेख तो बहुत कम लोग पढ़ते हैं। इस देश में अनेक समाचार पत्रों ने अनेक ऐसे लेखकों को महान बनाया है जो समसामयिक विषयों पर हल्का फुल्का ही लिख पाते है। इनमें से अनेक महान लोग अनेक ऐसी संस्थाओं के प्रमुख भी बन जाते हैं जो इस देश की फिल्मों, टीवी चैनलों तथा साहित्य का मार्ग दर्शन करती है और उनके कथन बड़े महत्व के साथ समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो पर उद्धृत किये जाते हैं।
ऐसे ही अनेक लेखक तथा अन्य विचारक हिन्दी ब्लाग जगत के नकारात्मक पक्षों को उभार कर यह साबित कर रहे हैं कि वहां के लेखक सामान्य स्तर के हैं-या कहें कि संपादक के पत्र लिखने तक की औकात रखते हैं। वह ब्लाग जगत के आपसी विवादों को बाहर भयानक कहकर प्रचारित कर रहे हैं क्योंकि वह स्वयं ही सीमित ब्लाग देखते हैं-वैसे ऐसे बड़े लोग स्वयं नहीं देखते होंगे जब तक चेला चपाटा कंप्यूटर खोलकर न दिखाये। हिन्दी ब्लाग जगत के बहुत कम लेखक इन लोगों की मानसिकता को जानते हैं वह भी पूरी तरह उसे उजागर करने का समय नहीं निकालते।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि अंतर्जाल के माध्यम से हिन्दी आधुनिक काल-इसे अब उत्तरोतर काल भी कह सकते हैं-से निकलकर वैश्विक काल में प्रवेश कर चुकी है और इसमें वह लेखक अपना अस्तित्व ढूंढ रहे हैं जो अपने लिखे से कम अपनी चालाकियों और संबंधों की वजह से प्रसिद्ध हुए हैं। कंप्यूटर पर स्वयं टंकित करना या किसी से दूसरे को मोहताज होने में वह अपनी हेठी समझते हैं-इस पर तकनीकी फंडा भी है कि उनको पहले कंप्यूटर गुरु ढूंढना होगा और उसकी जीहुजूरी करनी होगी। ऐसे शब्दों के खिलाड़ी हिन्दी ब्लाग जगत के बारे में जानना तो चाहते हैं पर इसके लिये उनको सहयोगी चाहिये और इससे उनके अंदर यह आशंका बलवती होती होगी कि वह किसी दूसरे लेखक को महत्व देते हुए दिख रहे हैं। सच बात तो यह है कि हिन्दी ब्लाग जगत एक व्यापक रूप धारण करता जा रहा है। अभी तक हिन्दी के उत्तरोतर काल के लेखक संगठित प्रचार माध्यमों-समाचार/साहित्य पत्र पत्रिकाऐं, टीवी चैनल और रेडियो के साथ व्यवसायिक प्रकाशन उद्योग-के सहारे प्रसिद्धि के शिखर पर हैं। एक तरह से वह बाजार की ताकत के सहारे हैं। वह उनको हर जगह मंच उपलब्ध कराता है और इनकी शक्ति इतनी अधिक है कि वह अपने ही चेलों को भी एक सीमा तक आगे ले आते हैं-अन्य किसी व्यक्ति का सामने आना उनको मंजूर नहीं है। हिन्दी ब्लाग जगत में भी बाजार सक्रिय होगा पर पर फिर भी असंगठित क्षेत्र के ब्लाग लेखक उनके बस में नहीं होंगे-सीधा आशय यह है कि हिन्दी ब्लाग जगत हमेशा ही संागठनिक ढांचों की पकड़ से बाहर रहेगा। ऐसे में बेहतर लिखने वाले किसी की परवाह नहीं करेंगे तब हमारे यह उत्तरोत्तर कालीन महान लेखक अपनी गुरुता किसे दिखायेंगे? यह खौफ अनेक विद्वानों में हैं और चाहे जब हिन्दी ब्लाग जगत पर कुछ भी प्रतिकूल टिप्पणी करने लगते हैं।
इनकी दूसरी मुश्किल यह भी है कि देश को कोई भी ब्लाग लेखक बिना सांगठनिक ढांचों की सहायता के अपनी बात अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा रहा है। ब्लाग पर लिखा अनुवाद कर दूसरी भाषाओं के लोग भी पढ़ते हैं। हिन्दी के लेखक अंग्रेजी तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में पढ़े जा रहे हैं। उनको कितने पाठक पढ़ रहे हैं यह अभी विवादों के घेरे में लगता है। कभी कभी तो लगता है कि लोग अधिक पढ़ रहे हैं पर काउंटर कम व्यूज दिखा रहा है और अधिक दिखते हैं तो यह भी शक होता है कि कहीं से फर्जी व्यूजा नहीं है। एक जगह से भेजा गया व्यूज दूसरी जगह नहंी दिखता। कहीं दिख रहा है तो वह मूल स्थान पर नहीं दिखता। महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दी ब्लाग जगत के बेहतर पाठ निरंतर पाठक जुटा रहे हैं तो सामयिक पाठ भी।
अक्सर लोग कहते हैं कि अखबार लाखों लोग पढ़ते हैं। सच है पर कितने लोग पूरा पढ़ते हैं और कितने याद रखते हैं यह भी एक विचार का विषय है। यह ब्लाग तो चलते फिरते अखबार और किताबें हैं और इससे कम लोग पढ़ते हैं यह सच है पर आगे भी पढ़ जाते रहेंगे न कि किसी अल्मारी में बंद होंगे। हिन्दी ब्लाग जगत में जो नये लेखक हैं उनको यह गलतफहमी नहीं रखना चाहिये कि अधिक स्तर पर छपना ही बड़े लेखक होने का प्रमाण है। वह इन बड़े लेखकों के नाम सुनते होंगे पर इनकी कोई रचना उनकी स्मृति में नहीं होगी। एक भाषाविद् की तरह अपने शब्दों में अधिक से अधिक कठिन शब्द लिखना या लंबे वाक्य घुमा फिराकर कहने से कोई बड़ा लेखक नहीं हो जाता। एक ही घटना पर साल भर लिखना से विद्वता प्रमाणित नहीं होती। यहां तक कि उपन्यास लिखने से भी कोई महान नहीं हो जाता। अगर आपकी कोई एक रचना भी बेहतर निकल आये तो वह आपकी याद सदियों तक रख सकती है-‘उसने कहा था’ कहानी की तरह जो गुलेरी साहब ने लिखी थी। आधुनिक हिन्दी के महान साहित्यकार प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्र कुमारी चैहान और सूर्यकांत त्रिपाठी जैसे महान लेखक अब यहां नहीं होते क्योंकि लोग थोड़ा लिखकर सुविधाओं की पीछे भागते हैं-इसी प्रयास में ही वह लिखना भी शुरु करते हैं और उनके शब्द बहुत गहराई तक छूते नहीं लगते।
हमने यह तो सुना है कि अच्छा पढ़े बिना अच्छा नहीं लिख सकते। साथ ही यह भी चालीस लाईनें पढ़ेंगे तब एक लाईन लिख पायेंगे। अंतर्जाल पर आकर इस बात की सच्चाई भी देख ली। अनेक बड़े लेखकों ने ब्लाग बनाये हैं पर उनका लिखा देखकर यही लगता है कि वह पढ़ते बिल्कुल नहीं हैं। छात्र जीवन के बाद उन्होंने शायद ही पढ़ने को अधिक महत्व दिया है। उनका लेखन सतही लगता है।
एक जगह पर हम दो दिन रुके थे वहां अंतर्जाल की सुविधा एक बालिका उपयेाग करती थी। वह अंतर्जाल पर सौंदर्य सामग्री से संबंधित विषय अंग्रेजी में पढ़ रही थी। उसने अंतर्जाल पर हिन्दी के न होने की बात कही तो हमने अपना लेखकीय परिचय न देते हुए उसे ब्लागवाणी तथा चिट्ठाजगत का पता दिया इस जानकारी के साथ कि वहां हिन्दी के ढेर सारे ब्लाग पढ़ने को मिलते हैं। हमने उसे अपने ब्लाग का परिचय इसलिये नहीं दिया क्योंकि उनके कुछ हास्य कवितायें थी जिन पर उपहास बन सकता था।
अगले दिन फिर उसके घर जाना हुआ। वह चिट्ठाजगत खोले बैठी थी और उसने मस्ती कालम के द्वारा हमारा ब्लाग पकड़ लिया था। इसी लेखक का ब्लाग दिखाते हुए कहा-‘इस कविता से मेरी चिढ़ छूट रही है।’
हमने वह कविता देखी तो कह दिया कि ‘यह तो बेकार लेखक लग रहा है।’
वह लड़की प्रतिवाद करते हुए दूसरी कविता दिखाते बोली-‘नहीं, इसकी यह कविता बहुत अच्छी है।’
उसने तीन कविताओं को ठीक और दो को बहुत अच्छा और एक को चिढ़ाने वाली बताया। सबसे बड़ी बात तो यह कि उसने एक अन्य ब्लाग लेखक के लेख तारीफ की‘इसका यह दो लेख बहुत अच्छे हैे। तीसरा यह ठीक लगता है।’
हमने दोनों लेखकों की तुलना पूछी तो उसका जवाब था कि ‘दोनों अलग अलग तरह के हैं पर ठीक लिखते हैं। दूसरे लोग भी ठीक लगे पर इन दोनों को ज्यादा पढ़ा। दूसरे लोग के भी ब्लाग देखे पर उनमें कुछ ही ठीक हैं और बाकी का तो समझ में नहीं आया।’
उसने जिस दूसरे ब्लागर की खुलकर तारीफ की उसका नाम लिखेंगे तो लोग कहेंगे कि चमचागिरी कर रहा है पर उस ब्लागर का मत भी वही है कि अधिक पढ़ो तभी लिख पाओगे। वह ब्लाग जगत में बहुत लोकप्रिय है और यकीनन उसका स्तर अनेक मशहूर लेखकों से अच्छा है। वह ब्लागर भी सांगठनिक ढांचे के प्रकाशनों से त्रस्त रहा है और यह ठीक है कि उसे बहुत लोग नहीं पढ़ते होंगे पर वह इस हिन्दी ब्लाग जगत को ऐसी रचनायें देगा जो अविस्मरणीय होंगी। उस बालिका के मुख से उस ब्लागर की प्रशंसा ने हमारे इस मत को पुष्ट किया कि बड़े लेखक भले ही मशहुर हैं पर पढ़ते नहीं है और इसलिये उनके चिंतन सतही हो जाते हैं जबकि स्वतंत्र और मौलिक ब्लागर जो सब तरफ पढ़कर और फिर अपने चिंतन के साथ यहां पाठ-कहानियां, व्यंग्य, आलेख और कवितायें रखेगा उसके सामने बड़े बड़े लेखक पानी भरते नज़र आयेंगे। अंतर्जाल पर वैश्विक काल की हिन्दी अनेक बेजोड़ लेखक ला सकती है जो गागर में सागर भरेंगे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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आज बसंत पंचमी है-आलेख (today basat panchami-hindi article)


इस बार की बसंत पंचमी में सर्दी का प्रकोप घेर कर बैठा है। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा कि मौसम समशीतोष्ण हुआ हो, अलबत्ता लगता है कि सर्दी थोड़ा कम है पर इतनी नहीं कि उसके प्रति लापरवाही दिखाई जा सके।
अगर पर्व की बात करें तो बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह मौसम खाने पीने और घूमने के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है-यानि पूरा माह आनंद के लिये उपयुक्त है। समशीतोष्ण मौसम हमेशा ही मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। वैसे हमारे यहां भले ही सारे त्यौहार एक दिन मनते हैं पर उनके साथ जुड़े पूरे महीने का मौसम ही आनंद देने वाला होता है। ऐसा ही मौसम अक्टुबर में दिपावली के समय होता है। बसंत के बाद फाल्गुन मौसम भी मनोरंजन प्रदान करने वाला होता है जिसका होली मुख्य त्यौहार है। दिवाली से लेकर मकर सक्रांति तक आदमी का ठंड के मारे बुरा हाल होता है और ऐसे में कुछ महापुरुषों की जयंती आती हैं तब भक्त लोग कष्ट उठाते हुए भी उनको मनाते हैं क्योंकि उनका अध्यात्मिक महत्व होता है। मगर अपने देश के पारंपरिक पर्व इस बात का प्रमाण हैं कि उनका संबंध यहां के मौसम से होता है।
प्रसंगवश फरवरी 14 को ही आने वाले ‘वैलंटाईन डे’ भी आजकल अपने देश में नवधनाढ्य लोग मनाते हैं पर दरअसल मौसम के आनंद का आर्थिक दोहन करने के लिये उसका प्रचार बाजार और उसके प्रचार प्रबंधक करते हैं।
बसंत पंचमी पर अनेक जगह पतंग उड़ाकर आनंद मनाया जाता है हालांकि यह पंरपरा सभी जगह नहीं है पर कुछ हिस्सों में इसका बहुत महत्व है।
बहुत पहले उत्तर भारत में गर्मियों के दौरान बच्चे पूरी छूट्टियां पतंग उड़ाते हुए मनाते थे पर टीवी के बढ़ते प्रभाव ने उसे खत्म ही कर दिया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पहले लोगों के पास स्वतंत्र एकल आवास हुआ करते थे या फिर मकान इस तरह किराये पर मिलते कि जिसमें छत का भाग अवश्य होता था। हमने कभी बसंत पंचमी पर पतंग नहीं उड़ाई पर बचपन में गर्मियों पर पतंग उड़ाना भूले नहीं हैं।

आज टीवी पर एक धारावाहिक में पंतग का दृश्य देखकर उन पलों की याद आयी। जब हम अकेले ही चरखी पकड़ कर पतंग उड़ाते और दूसरों से पैंच लड़ाते और ढील देते समय चरखी दोनों हाथ से पकड़ते थे। मांजा हमेशा सस्ता लेतेे थे इसलिये पतंग कट जाती थी। अनेक बाद चरखी पकड़ने वाला कोई न होने के कारण हाथों का संतुलन बिगड़ता तो पतंग फट जाती या कहीं फंस जाती। पतंग और माजा बेचने वालों को उस्ताद कहा जाता था। एक उस्ताद जिससे हम अक्सर पतंग लेते थे उससे एक दिन हमने कहा-‘मांजा अच्छा वाला दो। हमारी पतंग रोज कट जाती है।’
उसे पता नहीं क्या सूझा। हमसे चवन्नी ले और स्टूल पर चढ़कर चरखी उतारी और उसमें से मांजा निकालकर हमको दिया। वह धागा हमने अपने चरखी के धागे में जोड़ी। दरअसल मांजे की पूरी चरखी खरीदना सभी के बूते का नहीं होता था। इसलिये बच्चे अपनी चरखी में एक कच्चा सफेद धागा लगाते थे जो कि सस्ता मिलता था और उसमें मांजा जोड़ दिया जाता था।
बहरहाल हमने उस दिन पतंग उड़ाई और कम से कम दस पैंच यानि पतंग काटी। उस दिन आसपास के बच्चे हमें देखकर कर हैरान थे। अपने से आयु में बड़े प्रतिद्वंदियों की पंतग काटी। ऐसा मांजा फिर हमें नहीं मिला। यह पतंग उड़ाने की आदत कब चली गयी पता ही नहीं चला। हालांकि हमें याद आ रहा है कि हमारी आदत जाते जाते गर्मियों में इतने बड़े पैमाने पर पतंग उड़ाने की परंपरा भी जाती रही।
एक बात हम मानते हैं कि परंपरागत खेलों का अपना महत्व है। पहले हम ताश खेलते थे। अब ताश खेलने वाले नहीं मिलते। शतरंज तो आजकल भी खेलते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता होने के कारण साथी खिलाड़ी मिल जाते हैं। जितना दिमागी आराम इन खेलों में है वह टीवी वगैरह से नहीं मिलता। हमारे दिमागी तनाव का मुख्य कारण यह है कि हमारा ध्यान एक ही धारा में बहता है और उसको कहीं दूसरी जगह लगाना आवश्यक है-वह भी वहां जहां दिमागी कसरत हो। टीवी में आप केवल आंखों से देखने और कानों से सुनने का काम तो ले रहे हैं पर उसके प्रत्युत्तर में आपकी कोई भूमिका नहीं है। जबकि शतरंज और ताश में ऐसा ही अवसर मिलता है। मनोरंजन से आशय केवल ग्रहण करना नहीं बल्कि अपनी इंद्रियों के साथ अभिव्यकत होना भी है।
वैसे कल बसंत पंचमी पर लिखने का विचार आया था पर एक दिन पहले लिखने में हमें मजा नहीं आता। सुबह बिजली नहीं होती। हमारे घर छोड़ने के बाद ही आती है। इधर रात आये तो पहले सोचा कुछ पढ़ लें। एक मित्र के ब्लाग पर बसंत पंचमी के बारे में पढ़ा। सोचा उसे बधाई दें पर तत्काल बिजली चली गयी। फिर एक घंटा बाद लौटी तो अपने पूर्ववत निर्णय पर अमल के लिये उस मित्र के ब्लाग पर गये और बधाई दी। तब तक इतना थक चुके थे कि कुछ लिखने का मन ही नहीं रहा। वैसे इधर सर्दी इतनी है कि बसंत के आने का आभास अभी तो नहीं लग रहा। कुछ समय बाद मौसम में परिवर्तन आयेगा यह भी सच है। बसंत पंचमी का एक दिन है पर महीना तो पूरा है। इस अवसर पर ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई। उनके लिये पूरा वर्ष मंगलमय रहे।
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आतंक का भूत-हिन्दी व्यंग (atank ka bhoot-hindi vyanga)


एक विशेषज्ञ का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले में बिन लादेन बहुत पहले ही मारा जा चुका है पर अमेरिका के रणनीतिकार युद्ध जारी रखने के लिये उसका भूत बनाये रखना चाहते हैं ताकि वहां की खनिज, कृषि और तेल संपदा पर कब्जा बना रहे। ऐसा लगता है कि अमेरिकन लोग भले ही भूत प्रेत को न मानते हों पर एशियाई देशों से उनकी मान्यता को लेकर उसका उपयोग करना सीख गये हैं। इसलिये वह रोज नयी भभूत बनाकर लादेनी भूत को निपटाने का काम करते हैं।
याद आता है जब बचपन में कई सिद्ध लोगों के पास जाते थे तब वह भूतों को भगाने के लिये भभूत दिया करते थे कि अगर जो शायद उनके यहां के यज्ञों की राख वगैरह हुआ करती थी। अब तो लगता है कि जैसे अगर किसी को बाबा बनना है तो उसे भूतों की सवारी तो करनी पड़ेगी। अपने देश के इतिहास में बहुत सारे बाबा हुए हैं। उनके नाम से चमत्कारों का प्रचार ऐसा चला कि उनके नाम पर अभी भी धंधे चल रहे हैं।
उस विशेषज्ञ की बात पर विश्वास करने के बहुत सारे कारण है। उस युद्ध के बाद फिर कभी लादेन का वीडियो नहीं आया। कुछ समय तक उसके घनिष्ट सहयोगी अल जवाहरी का वीडियो आता रहा पर फिर वह भी बंद हो गया। हालांकि विशेषज्ञ का कहना है कि लादेन बीमार भी हो सकता है पर जो हालात लगते हैं उससे तो यह लगता है कि उनका पहला ही दावा अधिक सही है कि लादेन अब केवल एक भूत का नाम है।
किसी को सिद्ध बनना या बनाना है तो वह पहले भूतों की पहचान करे। अमेरिका ने बिन लादेन नाम का एक भूत बना लिया है। दरअसल कभी कभी तो यह लगता है कि कहीं लादेन वाकई भूत तो नहीं था जिसे इंसानी शक्ल के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक बात याद रखें अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों का सौदागर है। वह उनका निर्माण कर फिर प्रदर्शन कर उनको बेचता है। जिस तरह कोई वाशिंग, मशीन तथा टीवी जैसी चीजें पहले चलाकर दिखाने के बाद बेची जाती हैं तो हथियारेां के लिये भी तो यही करना पड़ेगा तभी तो वह बिकेंगे। आरोप लगाने वाले तो यह भी कहते हैं कि अमेरिका दुनियां भर में युद्ध थोपता ही इसलिये है कि उसे अपने हथियारों का प्रदर्शन करना है ताकि अन्य देश उससे प्रभावित होकर अपने देश की गरीब जनता का पैसा देकर उसका खजाना भरे। आजकल आपने सुना होगा एक ‘ड्रोन’ नाम का एक हवाई जहाज है जो स्वयं ही निशाने चुनता है। उसे चलाने के लिये उसमें पायलट का होना जरूरी नहीं है। अनेक बार ऐसी खबरे आती हैं कि ‘ड्रोन’ ने लादेन के शक में अमुक वह भी जगह ‘अचूक बमबारी’ की। इससे पहले अफगानिस्तान युद्ध में भी अमेरिका के अनेक हथियारों तथा विमानों का प्रचार हुआ था।
हमारे देश में भूतों पर खूब यकीन किया जाता है। इसी कारण बाबाओं का खूब धंधा चलता है। एक आदमी ने बड़े मजे की बात कही थी। उससे उसके मित्र ने पूछा कि ‘एक बात बताओ कि तुम भूत वगैरह की बात करते हो? तुम्हें पता है कि पश्चिमी राष्ट्र हमसे अधिक प्रगति कर गये हैं वहां तो ऐसी बातों पर कोई यकीन नहीं करता। क्या वहां लोग मरते नहीं है? देखों हम लोग ऐसी फालतू बातों पर यकीन करते हैं इसलिये पिछड़ हुऐ हैं जबकि जो भूतों पर यकीन नहीं करते वह मजे कर रहे हैं। ’
उस आदमी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि ‘वहां तो सभी कुछ आदमी को मिल जाता है। बंगला, गाड़ी, पैसा मिलने के साथ अन्य जरूरतें पूरी हो जाती है। वहां मरने वाले आदमी की कोई कोई ख्वाहिश नहीं रह जाती। यहां गरीबी के कारण लोग अनेक इच्छायें मन में दबाकर मर जाते हैं इसलिये उनको भूत की यौनि मिलती है। यही सोचकर यकीन करना पड़ता है।’

अमेरिका ने सारे झगड़े एशिया में ही किये हैं। उसका सबसे बड़ा शत्रु क्यूबा का फिदेल कास्त्रो उसके पास में ही रहता है पर कभी उस पर हमला नहीं किया। वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में उसके हमले चर्चित रहे हैं जो कि एशिया में ही है। एशिया में ही लोग भूत बनते हैं और इसलिये वह अपने ही लोग यहां भेजकर उनका भूत यहां रचता है।

वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि भूत रचकर अपनी ताकत दिखाने की तकनीकी उसने भारत या एशिया से ही सीखा होगा। सीधी सी बात है कि ऊनी सामान बेचने वाला सर्दी का, धर्म बेचने वाला अधर्म का, शराब बेचने वाला गमों का और ऋण देने वाले पैसा देकर फिर उसे बेदर्दी से वसूलने से पहले जरूरतों का भूत नहीं खड़ा करेगा तो फिर उसका काम कैसे चलेगा? अमेरिका ने लादेन नाम के भूत से अरबों डालरों की कमाई की होगी। लादेन के मरने का मतलब है कि उसे युद्ध छोड़ना पड़ेगा। युद्ध छोड़ा तो प्रयोग कैसे करेगा? ऐसे में उसके द्वारा निर्मित हथियार और विमान कोई नहीं खरीदेगा।
जिस तरह लोग प्रायोजित भूत खड़ा करते हैं उससे तो यह लगता है कि सचमुच में लादेन रहा भी होगा कि नहीं। ऐसा तो नहीं कभी इस नाम का कोई आदमी अमेरिका में रहता हो और फिर मर गया हो। फिर अमेरिकनों ने किसी दूसरे आदमी की प्लास्टिक सर्जरी कर उसका चेहरा बना कर अफगानिस्तान भेज दिया हो। उस मरे आदमी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया गया हो क्योंकि एक बार अफगानिस्तान आने के बाद वह कभी घर नहीं गया और न ही परिवार वालों से मिला। उसके बारे में अनेक कहानियां आती रहीं पर उनको प्रमाणित किसी ने नहीं किया। इस तरह फिल्मों में अनेक बार देखने को भी मिला है कि नायक का चेहरा लगाकर खलनायक उसे बदनाम करता है। ऐसा ही लादेन नाम के भूत से भी हुआ हो। जिस आदमी ने चेहरा लगाया होगा। भूत के रूप में लादेन को स्थापित करने का काम खत्म होने के बाद वह लौट गया हो। इस तरह के प्रयोजन में पश्चिमी देशों को महारत हासिल है।
हम अभी तक जो सुनते, देखते और पढ़ते हैं उनका आधार तो टीवी, फिल्म और समाचार पत्र ही हैं। कोई कहेगा कि भला यह कैसे संभव है कि भूत को इतना लंबा जीवन मिल जाये? दरअसल आदमी को न मिलता हो पर भूत को कई सदियों तक जिंदा रखा जा सकता है। जिंदा आदमी की इतनी कीमत नहीं है जितना भूत की। हमारे देश में इतने सारे भूत बनाकर रखे गये हैं कि उनके नाम पर खूब व्यापार चलता है। कोई समाज वाद के नाम से चिढ़ता है तो कोई पूंजीवाद के नाम से। किसी को चीन सताता है तो किसी को पाकिस्तान! अमीर के सामने गरीब के हमले का और गरीब के सामने अमीर के शोषण का भूत खड़ा करने में अपने यहां बहुत लोग माहिर हैं। सबसे बड़ा भूत तो अमेरिका का नाम है। उसके सम्राज्यवाद से लड़ने के लिये लोग अपने देश में भी सक्रिय हैं जो बताते हैं कि उसका भूत अब यहां भी आ सकता है। जब वह साठ सालों तक ऐसे भूत को जिंदा रख सकते हैं तो फिर यह तो नयी तकनीकी और तीक्ष्ण चालें चलने वाला अमेरिका है। चाहे जितने भूत खड़ा कर ले उसके नाम पर भभूत यानि हथियार और विमान बेचता जायेगा। बाकी लोग तो छोड़िये उसके ही लोग ऐसे भूतों पर सवाल उठाने लगे हैं। वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भी लादेन नाम का भूत बेचकर अपने समय और पृष्ठों के लिये सामग्री भरते रहे हैं।
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सिक्कों के पहाड़-हिन्दी शायरी (sikkon ke pahad-hindi shayri)


सिक्कों के पहाड़ पर ही

उम्मीदों की बस्ती बसी दिखती है,

पर वह तो धातु से बने हैं

जिनकी ताकत कितनी भी हो

सच पर खरे नहीं उतरते

बैठे हैं वहां तंगदिल लोग

अपने घर बसाकर

जिनकी कलम वहां रखी हर पाई

बस, अपने ही खाते में लिखती है।

———-

नाव के तारणहार खुद नहीं

उस पर चढ़े हैं,

क्योंकि दिल उनके छोटे

नीयत में ख्याल खोटे

पर उनके चरण बड़े हैं।

उड़ने के लिये उन्होंने

विमान जुटा लिये हैं

गरीब की कमाई के सिक्के

अमीर बनाने में लुटा दिये हैं

नदिया में डूब जाये नाव तो

हमदर्दी बेचने के लिये भी वह खड़े हैं

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नया वर्ष और सितारों के सितारे-हिन्दी व्यंग्य लेख (happy new year and srar of star-hindi vyangya lekh)


धरती के सितारों को अपने सितारों की फिक्र नहीं जितनी कि उनके चेहरे, अदायें और मुद्रायें बेचने वालों को है। धरती के बाकी हिस्से का नहीं पता पर भारतीय धरती के सितारे तो दो ही बस्तियों में बसते हैं-एक है क्रिकेट और दूसरी है फिल्म। यही कारण है कि टीवी चैनल ज्योतिषियों को लाकर उनका भविष्य अपने कार्यक्रमों में दिखा रहे हैं। समाचार चैनलों को कुछ ज्यादा ही फिक्र है क्योंकि वह नव वर्ष के उपलक्ष्य में कोई प्रत्यक्ष कार्यक्रम नहीं बनाते बल्कि मनोरंजन चैनलों से उधार लेते हैं। इसलिये अगर इस साल का आखिरी दिन का समय काटना कहें या टालना या ठेलना उनके लिये दुरुह कार्य साबित होता दिख रहा है।
उनको इंतजार है कि कब रात के 12 बजें तो नेपथ्य-पर्दे के पीछे-कुछ संगीत को शोर तो कुछ फटाखों के स्वर से सजी पहले से ही तैयार धुनें बजायें और उसमें प्रयोक्ताओं को आकर्षित अधिक से अधिक संख्या में कर अपने विज्ञापनदाताओं को अनुग्रहीत करें-अनुग्रहीत इसलिये लिखा क्योंकि विज्ञापनदाताओं को तो हर हाल में विज्ञापन देना है क्योंकि उनके स्वामियों को भी इन समाचार चैनलों में अपने जिम्मेदार व्यक्तित्व और चेहरे प्रचार कराना है। इस ठेला ठेली में एक दिन की बात क्या कहें पिछले एक सप्ताह से सारे चैनल जूझ रहे हैं-नया वर्ष, नया वर्ष। ऐसे में समय काटना जरूरी है तो फिर क्रिकेट और फिल्म के सितारों का ही आसरा बचता है क्योंकि उनके विज्ञापनों में अधिकतर वही छाये रहते हैं।
अगर किसी सितारे की फिल्म पिट जाये तो भी उनके विज्ञापन पर गाज गिरनी है और किसी क्रिकेट खिलाड़ी का फार्म बिगड़ जाये तो भी उनको ही भुगतना है-याद करें जब 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट मैचों की विश्व कप प्रतियोगिता में भारत हारा तो लोगों के गुस्से के भय से सभी ने उनके अभिनीत विज्ञापनों कोे हटा लिया था और यह तब तक चला जब भारत को बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने का मौका नहीं दिया गया! उस समय बड़े बड़े नाम गड्ढे में गिर गये लगते थे पर फिर अब वही सामने आ गये हैं। जिनके भविष्य पूछे जा रहे हैं यह वही हैं जिनका 2007 में दस महीने तक लोग चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे।
हैरानी होती है यह सब देखकर! कला, खेल, साहित्य, पत्रकारिता तथा अन्य आदर्श क्षेत्रों पर बाजार अपने हिसाब से दृष्टि डालता है और उस पर आश्रित प्रचार माध्यम वैसे ही व्यवहार करते हैं।
उद्घोषक पूछ रहा है कि ‘अमुक खिलाड़ी का नया वर्ष कैसा रहेगा?’ज्योतिषी बता रहा है‘ ग्रहों की दशा ठीक है। इसलिये उनका नया साल बहुत अच्छा रहेगा।’
नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक चैन की सांस ले रहा होगा-‘चलो, यार इसके विज्ञापन तो बहुत सारे हैं। इसलिये अपने ग्रह अच्छे हैं।’
फिर ज्योतिषी दूसरे खिलाड़ी के बारे में बोल रहा है-‘उसके ग्रह भारी हैं। अमुक ग्रह की वजह से उनके चोटिल रहने की संभावनायें हैं, हालांकि इसके बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छा रहेगा।’
प्रचार प्रबंधक ने सोचा होगा-‘अरे यार, ठीक है चोटिल रहेगा तो भी खेलेगा तो सही! अपने विज्ञापन तो चलते रहेंगे। हमें क्या!
तीसरे खिलाड़ी के बारे में ज्योतिषी जब बोलने लगा तो उसके अधरों पर एक मुस्काल खेल गयी-शायद वह सोच रहे थे कि सारी दुनियां इस खिलाड़ी के भविष्यवाणी का इंतजार कर रही है और वह अपने मेहमान चैनल के सभी लोगों का खुश करने जा रहे हैं। वह बोले-‘यह खिलाड़ी तो स्वयं ही बड़ा सितारा है। इसके पास अभी साढ़े तीन साल खेलेने के लिये हैं। यह भी बढ़िया रहेंगे!’
उदुघोषक भी खुश हो गया क्योंकि उसे लगा होगा कि नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक इससे बहुत उत्साहित हुआ होगा। वह बीच में बोला-‘वह सितार क्या अगले वर्ष भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाता रहेगा, जैसे इस साल बना रहा है।’
ज्योतिषी ने कहा-‘हां!’
वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान की लहरें खेलती दिख रही थीं।
हमें भी याद आया कि हम पुराने ईसवी संवत् से नये की तरफ जा रहे हैं इसलिये बाजार और प्रचार के इस खेल में बोर होने से अच्छा है कि अपना कुछ लिखें। हमारी परवाह किसे है? हम ठहरे आम प्रयोक्ता! आम आदमी! विदेशों का तो पता नहीं पर यहां बाजार अपनी बात थोपता है। ऐसे ज्योतिष कार्यक्रम तीन महीने बाद फिर दिखेंगे जब अपना ठेठ देशी नया वर्ष शुरु होगा पर उस समय इतना शोर नहीं होगा। बाजार ने धीरे धीरे यहां अपना ऐजेंडा थोपा है। अरे, जिसे वह कीर्तिमान बनाने वाला सितारा कह रहे हैं उसके खाते में ढेर सारी निजी उपलब्धियां हैं पर देश के नाम पर एक विश्व कप नहीं है।
सोचा क्या करें! इधर सर्दी ज्यादा है! बाहर निकल कर कहां जायें! ऐसे में अपना एक पाठ ठेल दें। अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं है क्योंकि डर लगता है कि कोई ऐसा वैसा बता दे तो खालीपीली का तनाव हो जायेगा। जो खुशी आयेगी वह स्वीकार है और जो गम आयेगा उससे लड़ने के लिये तैयार हैं। फिर यह समय का चक्र है। न यहां दुःख स्थिर है न सुख। अगर हम भारतीय दर्शन को माने तो आत्मा अमर है इसका मतलब है कि जीवन ही स्थिर नहीं है मृत्यु तो एक विश्राम है। ऐसे में उस सर्वशक्तिमान को ही नमन करें जो सभी की रक्षा करता है और समय पड़ने पर दुष्टों का संहार करने के लिये स्वयं प्रवृत्त भी होता है।
बहरहाल याद तो नहीं आ रहा है पर उस दिन कहीं सुनने, पढ़ने या देखने को मिला कि कुंभ राशि में बृहस्पति महाराज का प्रवेश हो रहा है। बृहस्पति सबसे अधिक शक्ति शाली ग्रह देवता हैं और वाकई उसके बाद हमने महसूस किया जीवन के कमजोर चल रहे पक्ष में मजबूती आयी। वैसे नाम से हमारी राशि मीन पर जन्म से कुंभ है। इन दोनों का राशिफल करीब करीब एक जैसा रहता है। हमारे सितारों की फिक्र हम नहीं करते पर दूसरा भी क्यों करेगा क्योंकि हम सितारे थोड़े ही हैं। यह अलग बात है कि सितारे अपने सितारों की फिक्र नहीं भी करते हों-इसकी उनको जरूरत भी क्या है-पर उनके सहारे धन की दौलत के शिखर पर खड़ा बाजार और उसके सहारे टिका प्रचार ढांचे से जुड़े लोगों को जरूर फिक्र है वह भी इसलिये क्योंकि वह बिकती जो है।

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अमीरी का रास्ता-हिन्दी शायरी (amiri ka rasta-hindi shayri)


दौलत बनाने निकले बुत

भला क्या ईमान का रास्ता दिखायेंगे।

अमीरी का रास्ता

गरीबों के जज़्बातों के ऊपर से ही

होकर गुजरता है

जो भी राही निकलेगा

उसके पांव तले नीचे कुचले जायेंगे।

———–

उस रौशनी को देखकर

अंधे होकर शैतानों के गीत मत गाओ।

उसके पीछे अंधेरे में

कई सिसकियां कैद हैं

जिनके आंसुओं से महलों के चिराग रौशन हैं

उनको देखकर रो दोगे तुम भी

बेअक्ली में फंस सकते हो वहां

भले ही अभी मुस्कराओ।

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तसल्ली के चिराग-हिन्दी शायरी (tasalli ke chirag-hindi shayri)


सर्वशक्तिमान का अवतार बताकर भी

कई राजा अपना राज्य न बचा सके।

सारी दुनियां की दौलत भर ली घर में

फिर भी अमीर उसे न पचा सके।

ढेर सारी कहानियां पढ़कर भी भूलते लोग

कोई नहीं जो उनका रास्ता बदल चला सके।

मालुम है हाथ में जो है वह भी छूट जायेगा

फिर भी कौन है जो केवल पेट की रोटी से

अपने दिला को मना सके।

अपने दर्द को भुलाकर

बने जमाने का हमदर्द

तसल्ली के चिराग जला सके।

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कोपेनेहेगन में धरती के नये फरिश्तों का मिलन-व्यंग्य कवितायें (naye fariste-hindi vyangya kavita)


अब संभव नहीं है
कोई कर सके
सागर का मंथन
या डाले हवाओं पर बंधन।
इसलिये नये फरिश्ते इस दुनियां के
रोकना चाहते हैं
जहरीली गैसों का उत्सर्जन
जिसे छोड़ते जा रहे हैं खुद
समंदर से अधिक खारे
विष से अधिक विषैले
नीम से अधिक कसैले अपनी
उन फरिश्तों ने महफिल सजाने के लिये
ढूंढ लिया है कोपेनहेगन।।
——–
वह समंदर मंथन कर
अमृत देवताओं को देंगे
ऐसे दैत्य नहीं हैं।
पी जायें विष ऐसे शिव भी नहीं हैं।
कोपेनहेगन में मिले हैं
इस दुनियां के नये फरिश्ते,
गिनती कर रहे हैं
एक दूसरे द्वारा फैलाये विष के पैमाने की,
अमृत न पायेंगे न बांटेंगे,
बस एक दूसरे के दोष छाटेंगे,
धरती की शुद्धि तो बस एक नारा है
उनके हृदय का भाव खारा है,
क्या करें इसके सिवाय वह लोग
सारा अमृत पी गये पुराने फरिश्ते
अब तो विष ही हर कहीं है।।
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प्रत्याशी पति-हिन्दी व्यंग्य लेख


उस दिन एक आटो रिक्शा से बार बार लाउडस्पीकर पर दोहराया जा रहा था कि अमुक महिला को पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाईये। पहली बार जब कान में यह शब्द गूंजा तो हमें पार्षद पद की जगह पति शब्द सुना ही दिया। फिर जब दूसरी बार ध्यान दिया तो पता लगा कि पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाने की अपील की जा रही है। स्थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिलाओं के लिये सुरक्षित रखे गये हैं। हमें इस निर्णय के श्रेष्ठ या गौण होने की मीमांसा नहीं कर रहे क्योकि एक आम आदमी के लिये बस इतना ही काफी है कि वह एक दिन मोहर लगाकर अपने काम में जुट जाये। हम भी यही करते हैं। जिस तरह फिल्म, व्यापार, और पत्रकारिता में नित परिवर्तन होते हैं क्योंकि इनका संबंध लोगों की रुचियों और मानसिकता को प्रभावित करने सै है तब खुली लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नीरसता के वातावरण को सरस बनाने के लिये इस तरह के परिवर्तन करना भी स्वाभाविक लगता हैं। भले ही यह प्रक्रिया एक व्यवसाय, फिल्म या पत्रकारिता जैसी न हो पर चूंकि लोगों में रुचि हमेशा बनी रहे इसलिये ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसका परिणाम भी परिलक्षित होता है।

स्थानीय चुनावों में वास्तव ही एक अलग किस्म का वातावरण दिखने लगा है। महिलायें चुनाव लड़ रही हैं, यह देखकर खुशी होती है पर कुछ ऐसी बातें होती हैं जो कभी हास्य तो कभी करुणा का भाव पैदा करती हैं। उस दिन एक मित्र रास्ते में मिले। वह पास के ही शहर में जा रहे थे। हमसे अभिवादन करने के बाद वह तत्काल बोले-‘‘यार, आज जरा जल्दी में हूं। घर जा रहा हूं। भाईसाहब पार्षद के लिये खड़े हुए हैं। उनके प्रचार का काम मैं ही देख रहा हूं। मेरा पूरा परिवार वहीं है और अब मैं भी जा रहा हूं।’
हमने कहा-‘अच्छा, चलो कोई बात नहीं, अगर आपके भाई पार्षद बन जायें तो अच्छी बात है।’
वह कुछ सोचते दिखे फिर बोले-दरअसल, भाईसाहब नहीं बल्कि भाभीजी खड़ी हैं। महिलाओं के लिये सुरक्षित स्थान है तो भाईसाहब तो खड़े नहीं हो सकते थे इसलिये उनको खड़ा करना पड़ा। वैसे हमारी भाभी तो अभी तक घर गृहस्थी संभालती आई हैं इसलिये भाई साहब को अपनी राजनीतिक जमीन पर उनको मैदान में उतारना पड़ा।’
जब वह अपनी बात कह रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई संकोच उनके मन में था जो चेहरे पर दिख रहा था।
एक अन्य मित्र ने भी अपना एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनके पड़ौस में ही एक महिला पार्षद पद की प्रत्याशी हैं। वह भी एक सामान्य गृहिणी हैं। अगर पड़ौसी चुनाव लड़ता तो कोई बात नहीं पर उसकी पत्नी चुनाव लड़ रही है और वह अपनी पड़ोसनों को भी प्रचार के लिये साथ लेती है। संयोग से उसी जगह उन्ही मित्र के एक पुराने परिचित की भी पत्नी चुनाव लड़ रही है। वह प्रत्याशी पति-हां, यही शब्द ठीक लगता है-उनके घर आया और बोला ‘‘यह तो मैं भी समझ रहा हूं कि पड़ौस की वजह से आपको उनका प्रचार करना ही है पर आप वोट मुझे ही देना।’
उन मित्र ने कहा-‘आपको!
वह प्रत्याशी थोड़ा हकलाते हुए बोले-हां, मतलब मेरी पत्नी के नाम पर मुहर लगाना।’
मतलब उनकी पत्नी के नाम पर मोहर लगाना उनको वोट देना ही था।
एक अन्य मित्र की एक रिश्तेदार चुनाव लड़ी रही है। वह तो साफ कह देती हे कि हमारा तो नाम है पर हमारे पति ही असल में चुनाव लड़ रहे हैं। वरना हम क्या जानते है इस राजनीति में।’
पुरुषों के मुकाबले महिलायें बहुत सरल और कोमल स्वभाव की होती हैं। छल, कपट, धोखा तथा बेईमानी से तो उनका करीब करीब नाता ही नहीं होता। मगर राजनीति का खेल अलग ही है। जो महिलायें राजनीति की अनुभवी हैं उनके लिये प्रचार वगैरह कोई असहज काम नहीं होता जबकि ऐसी सामान्य गृहणियां जो बरसों तक पर्दे में रही पर अब भले ही नाम के लिये प्रत्याशी बनती हैं तो उनको घर से बाहर निकलना ही पड़ता है। हालत यह हो जाती है कि जिन घरों में पर्द का बोलाबाला है वहां भी पुरुष अपनी राजनीतिक जमीन बचाने या बनाने के लिये इस परंपरा का त्याग करने के लिये प्रेरित करते है।
जगह जगह लगे बैनरों में प्रत्याशी महिलाओं के फोटो हैं। जिन महिलाओं ने अपनी राजनीतिक जमीन बनाय हैं वह तो अपना नाम ही लिखती हैं पर जिनको पति के नाम पर वोट चाहिये उनके नाम पीछे वह जुड़ा रहता है। जिनमें से तो कई ऐसी हैं जिनके परिवार वाले अगर कहीं उनके फोटो सार्वजनिक स्थान पर देखें तो आसमान सिर पर उठा डालें पर अब उनके पुरुष सदस्यों ने स्वयं ही लगाये हैं। फोटो में अधिकतर के सिर पर पल्लू हैं और मांग में सिंदूर भरा हुआ है। सच बात तो यह है कि सभी प्रत्याशी महिलायें भली हैं और अगर जैसा कि साफ सुथरी छबि की बात की जाती है तो सभी उस पर खरी उतरती हैं।
ऐसे में लगता है कि सभी जीत जायें मगर लोकतंत्र की भी सीमा है। वार्ड में एक को चुना जाना है और शहर का महापौर भी एक ही हो सकता है।
किसी भी महिला प्रत्याशी की आलोचना करने का मन भी नहीं करता। अगर पुरुष हो तो उस पर तो दस प्रकार की टिपपणियां की जा सकती हैं पर अपने घर की गृहस्थी को अपनी खून पसीने से सींच चुकी इन महिलाओं को इस तरह प्रचार के लिये जूझते देख मन द्रवित हो उठता है। संभव है कि इनमें कुछ महिलायें ऐसी हों जो घर का काम करने के बाद प्रचार के लिये जूझती हों। यह भी संभव है कि उन्होंने चुनाव के समय तक अपने मायके या ससुराल पक्ष से किसी को घर के काम के लिये बुलाया हो। इसके लिये उनके रिश्तेदार भी तैयार हुए हो। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पुरुष आम तौर से घर के बाहर रहते हुए अपने संपर्क व्यापक दायरे में बनाये रहता है और जब वह चुनाव लड़ता है तब वह पड़ौसियों और रिश्तेदारों पर बोझ नहीं डालता। इसके विपरीत महिलायें घर में रहते हुए अपने आसपास आत्मीय रिश्ते बना लेती हैं। घर में सीमित महिलायें व्यापक दायरे में संपर्क नहीं बना पाती पर अपने आसपास के उनके आत्मीय रिश्ते पुरुषों के औपचारिक रिश्तों से अधिक मजबूत तथा सार्थक होते हैं इस कारण उनकी आदत भी हो जाती है कि जब कहीं सार्वजनिक कार्यक्रम होता है तो वह अपने पड़ौस और रिश्तदारेां के समूह के साथ ही वहां पहुंचती हैं। ऐसे में अगर सामान्य गृहस्थ महिलायें मैदान में उतरे और अपने रिश्तेदारों के साथ पड़ौसियों को मोर्चे पर लेकर न निकले यह संभव नहीं है। एक पुरुष को मित्र, रिश्तेदार और पड़ोसी कोई भी बहाना बनाकर मना कर सकता है पर महिलाओं को कौन मना कर सकता है क्योंकि उनके आत्मीय संबंध एक आदत बन जाते हैं। कई गृहणियों को यह पार्षद पद का संघर्ष बैठे बिठायें मुसीबत लगता होगा। यह अलग बात है कि कुछ इसे अपने आत्मीय लोगों के बीच व्यक्त करती होंगी तो कुछ नहीं।
वैसे सरकार या प्रशासन कोई अदृश्य संस्था नहीं है बल्कि उसे वेतनभोगी लोग ही चलाते हैं जो कि अपने हिसाब से सारा काम करते हैं। उनको अपने हिसाब से चलाना कोई आसान काम नहीं है। यह सामान्य गृहणियां इस प्रशासन तंत्र को केसे साधेंगी यह प्रश्न अपने आप में गौण है क्योंकि चुने जाने के बाद उनके पति ही ‘पार्षद पति’ बनकर यह काम संभाल लेगें। बाकी तो छोड़िये आसपास के लोग भी अपने पार्षद के नाम पर उनके पति की ही नाम लेंगे जैसे गांवों में अभी तक सरपंच का नाम पूछने पर बताया जाता है कि अमुक पुरुष है। बाद में पता लगता है कि औपचारिक रूप से उनकी पत्नी ही सरपंच है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाद में यह गृहणियां किसी अन्य कार्य के तनाव से मुक्त रहती हैं। अलबत्ता चुनाव के समय उनके लिये यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी हो जाती है कि वह बाहर निकल कर अपने पति को पार्षद पति बनाने के लिये प्रयास करें ंवै से असली महारानी तो गृहणी ही होती है । पुरुष महाराजा हो साहूकार बाहर कितना भी कद्दावर दिखता हो पर घर में केवल पति का पत्नी होता है। दरअसल यह पार्षद पति शब्द एक ऐसी प्रत्याशी महिला के शब्दों से मिला जो स्वयं अपनी राजनीतिक जमीन बना चुकी है। उसके समर्थक ही कह रहे हैं कि ‘पार्षद पति’ नहीं बल्कि अपने यहां खुद काम करने वाला ‘पार्षद’ चुनो। बहरहाल लोकतंत्र में एक यह नजारा भी देखने में आ रहा है जिसे देखकर मन में उतार चढ़ाव तो आता ही है। शहरों में महिलाओं की यह भागीदारी दिलचस्प और रोमांचक तो दिखती है।
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फैशन की मार-हिन्दी हास्य व्यंग (fashan ki mar-hashya vyangya)


अखबार में पढ़ने को मिला कि ब्रिटेन में महिलायें क्रिसमस पर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनने के लिये इंजेक्शन लगवा रही हैं। उससे छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता-भारतीय महिलायें इस बात पर ध्यान दें कि अंग्रेजी दवाओं के कुछ बुरे प्रभाव ( साईड इफेक्ट्स) भी होते हैं। हम तो समझते थे कि केवल भारत की औरतें ही ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनकर ही दर्द झेलती हैं अब पता लगा कि यह फैशन भी वहीं से आयातित है जहां से देश की शिक्षा पद्धति आई है।

एक बार हम एक अन्य दंपत्ति के साथ एक शादी में गये।  उस समय हमारे पास स्कूटर नहीं था सो टैम्पो से गये।  कुछ देर पैदल चलना पड़ा। वह दंपति भी चल तो रहे थे पर महिला बहुत परेशान हो रही थी।  उसने हाई हील की चप्पल पहन रखी थी।

बार बार कहती कि ‘इतनी दूर है। रात का समय आटो वाला मिल जाता तो अच्छा रहता। मैं तो थक रही हूं।’

हमारी श्रीमती जी भी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) पहने थी पर वह अधिक ऊंची नहीं थी।  उन्होंने उस महिला से कहा कि-‘यह बहुत ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाले जूते या चप्पल पहनने पर होता है। इसलिये मैं कम ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली पहनती हूं।’

वह बोली-‘नहीं, ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से से कोई फर्क नहीं पड़ता।’

बहरहाल उस शादी के दौरान ही उनकी चप्पल की एड़ी निकल गयी।  अब यह तो ऐसा संकट आ गया जिसका निदान नहीं था।  अगर चप्पल सामान्य ढंग के होती तो घसीटकर चलाई जा सकती थी पर यह तो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) वाली थी। अब वह उसके पति महाशय हमसे बोले-‘यार, जल्दी चलो। अब तो टैम्पो तक आटो से चलना पड़ेगा।’

हमने हामी भर दी। संयोगवश एक दिन हम एक दिन जूते की दुकान पर गये वहां से वहां उसने हमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते दिखाये पर हमने मना कर दिया क्योंकि हमें स्वयं भी यह आभास हो गया था कि जब ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते टूटते हैं तो क्या हाल होता है? उनको देखकर ही हमें अपनी ऐड़ियों में दर्द होता लगा।

हमारे रिश्ते की एक शिक्षा जगत से जुड़ी महिला हैं जो ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूतों की बहुत आलोचक हैं।  अनेक बार शादी विवाह में जब वह किसी महिला ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहने देखती हैं तो कहती हैं कि -‘तारीफ करना चाहिये इन महिलाओं की इतनी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनकर चलती हैं। हमें तो बहुत दर्द होता है। इनके लिये भी कोई पुरस्कार होना चाहिए।’

एक दिन ऐसे ही वार्तालाप में अन्य बुजुर्ग महिला ने उनसे कहा कि-‘ अरे भई, आज समय बदल गया है।  हम तो पैदल घूमते थे पर आजकल की लड़कियों को तो मोटर साइकिल और कार में ही घूमना पड़ता है इसलिये ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल पहनने का दर्द पता ही नहीं लगता। जो बहुत पैदल घूमेंगी वह कभी ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की  चप्पल नहीं पहन सकती।’

उनकी यह बात कुछ जमी। ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते का फैशन परिवहन के आधुनिक साधनों की वजह से बढ़ रहा है। जो पैदल अधिक चलते हैं उनके िलये यह संभव नहीं है कि ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहने।

वैसे भी हमारे देश में जो सड़कों के हाल देखने, सुनने और पड़ने को मिलते हैं उसमें ऊंची ऐड़ी (हाई हील) की चप्पल और जूता पहनकर क्या चला जा सकता है? अरे, सामान्य ऐड़ी वाली चप्पलों से चलना मुश्किल होता है तो फिर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) से खतरा ही बढ़ेगा। बहरहाल फैशन तो फैशन है उस पर हमारा देश के लोग चलने का आदी है। चाहे भले ही कितनी भी तकलीफ हो। हमासरे देश का आदमी  अपने हिसाब से फैशन में बदलाव करेगा पर उसका अनुसरण करने से नहीं चूकेगा।

दहेज हमारे यहां फैशन है-कुछ लोग इसे संस्कार भी मान सकते हैं।  आज से सौ बरस पहले पता नहीं दहेज में कौनसी शय दी जाती होगी- पीतल की थाली, मिट्टी का मटका, एक खाट, रजाई हाथ से झलने वाला पंख और धोती वगैरह ही न! उसके बाद क्या फैशन आया-बुनाई वाला पलंग, कपड़े सिलने की मशीन और स्टील के बर्तन वगैरह। कहीं साइकिल भी रही होगी पर हमारी नजर में नहीं आयी। अब जाकर कहीं भी देखिये-वाशिंग मशीन, टीवी, पंखा,कूलर,फोम के गद्दे,फ्रिज और मोटर साइकिल या कार अवश्य दहेज के सामान में सजी मिलती है। कहने का मतलब है कि घर का रूप बदल गया। शयें बदल गयी पर दहेज का फैशन नहीं गया। अरे, वह तो रीति है न! उसे नहीं बदलेंगे। जहां माल मिलने का मामला हो वहां अपने देश का आदमी संस्कार और धर्म की बात बहुत जल्दी करने लगता है।

हमारे एक बुजुर्ग थे जिनका चार वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया। उनकी पोती की शादी की बात कहीं चल रही थी। मध्यस्थ ने उससे कहा कि ‘लड़के के बाप ने  दहेज में कार मांगी है।’

वह बुजुर्ग एकदम भड़क उठे-‘अरे, क्या उसके बाप को भी दहेज में कार मिली थी? जो अपने लड़के की शादी में मांग रहा है!

बेटे ने बाप को  समझाकर शांत किया। आखिर में वह कार देनी ही पड़ी। कहने का तात्पर्य यह है कि बाप दादों के संस्कार पर हमारा समाज इतराता बहुत है पर फैशन की आड़ लेने में भी नहीं चूकता।  नतीजा यह है कि सारे कर्मकांड ही व्यापार हो गये हैं। शादी विवाह में जाने पर ऐसा लगता है कि जैसे खाली औपचारिकता निभाने जा रहे हैं।

बहरहाल अभी तक भारतीय महिलाओं को यह पता नहीं था कि कोई इंजेक्शन लगने पर छह महीने तक ऐड़ी में दर्द नहीं होता वरना उसका भी फैशन यहां अब तक शुरु हो गया होता। अब जब अखबारों में छप गया है तो यह आगे फैशन आयेगा।  जब लोगों ने फैशन के नाम पर अपने शादी जैसे पवित्र संस्कारों को महत्व कम किया है तो वह अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ से भी बाज नहीं आयेंगे।  औरते क्या आदमी भी यही इंजेक्शन लगवाकर ऊंची ऐड़ी (हाई हील) के जूते पहनेंगे। कभी कभी तो लगता है कि यह देश धर्म से अधिक फैशन पर चलता है।



 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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दुनियां का खात्मा और मनोरंजन-हिन्दी व्यंग्य कविता (duniya aur manoranjan-hindi vyangya kavita)


दुनियां की तबाही देखने के लिये
इंसान का दिल क्यों मचलता है
हमारी आंखों के सामने ही सब
खत्म हो जाये
फिर कोई यहां जिंदा न रह पाये
यही सोचकर उसका दिल बहलता है।
हम न होंगे पर यह दुनियां रहेगी
यही सोच उसका दिमाग दहलता है।
इसलिये ही दुनियां के खत्म होने की
खबर पर पूरा जमाना
मनोरंजन की राह पर टहलता है।

—————-
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अपनी भाषा, गूंगी भाषा-हास्य व्यंग्य (apni bhasha,goongi bhasha-hasya vyangya)


शाम के समय दीपक बापू अपने घर से बाहर निकल एक निकट के उद्यान में हवा खाने पहुंचे। अंदर प्रवेश करने से पहले ही द्वार पर खड़े होकर उन्होंने देखा कि आदमी को देखा जिसकी पीठ उनकी तरफ थी। उसके बाल कंधे गर्दन तक लटके हुए थे। सिर और शरीर चैड़ा था। उसने चूड़ीदार पायजामा और चमकदार पीला कुर्ता पहने रखा था। दीपक बापू का अनुमान था कि वह आलोचक महाराज ही होंगे इसलिये वह अंदर जायें कि नहीं इस विचार में खड़े हो गये। वह नहीं चाहते थे कि आलोचक महाराज के कटु शब्द वहां घूम रहे अन्य लोगों के सामने सुनकर अपनी भद्द पिटवायें।
इससे पहले वह कोई निर्णय करते उस आदमी ने अपना मुंह फेर कर उनकी तरफ किया। दीपक बापू की घिग्घी बंध गयी। वह आलोचक महाराज ही थे। दीपक बापू खीसें निपोड़ते हुए उनके पास पहुंच गये और हाथ जोड़कर बोले-नमस्ते महाराज, यह आप तफरी के लिये आये हैं! अच्छा है, इससे तंदुरस्ती बढ़ती है।’
आलोचक महाराज ने बिना किसी भूमिका बांधे कहा-‘हम तो पहले ही तंदुरस्त हैं। देखो इतनी बड़ी देह के साथ ही समाज में भी हमारी इज्जत है! तुम्हारी तरह कीकड़ी कवि नहीं है कि अनजान होकर इधर बाग में टहलने आयें। हमें पता था कि तुम शाम को यहां आते हो इसलिये ही तुम्हारा इंतजार कर रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज, अभी तो हम तफरी के मूड में हैं फिर कभी बात करेंगे।’
आलोचक महाराज बोले-‘वह फंदेबाज तुम्हारा दोस्त है न! उसे जरा समझा देना। अपने किये की माफी मांग ले वरना हम तुम्हारी कविताओं को अखबार में छपना बंद करवा देंगे।’
दीपक बापू ने अपनी टोपी उतारी और सिर पर हाथ फेराने लगे। आलोचक महाराज बोले-डर गये न!’
दीपक बापू बोले-‘नहीं डरे काहे को? हम तो यह सोच रहे हैं कि कहां आपने मुसीबत ले ली। फंदेबाज हमारे गले में दोस्त की तरह फंसा है वरना हमारा उससे क्या वास्ता? उसकी बेवकूफियों की वजह से हम हास्य कवितायें लिखते हैं वरना तो जोरदार साहित्यकार होते! आप उससे सुलह कर लीजिये वरना वह आपको परेशान करेगा। वैसे आपका झगड़ा हुआ किस बात पर था?’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हारी बात को लेकर। वह एक कार्यक्रम में पहुंच गया। वहां हमने तुम्हारा उदाहरण देकर नये कवियों को समझाया कि देखो उस फ्लाप दीपक बापू को! कभी एक विषय पर ढंग से नहीं लिखता। योजनाबद्ध ढंग से नहीं लिखता। बस वह फंदेबाज मंच पर चढ़ आया और हमें लात घूंसे दिखाने लगा। कुछ बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोल रहा था। हमने तो पहचान लिया क्योंकि उस लफंगे को कई बार तुम्हारे साथ साइकिल पर पीछे बैठे जाते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘शर्मनाक! उसने आप जैसे महान आदमी को अपनी गूंगी मातृभाषा में इतनी भद्दी गालियां दी। हम तो यह गालियां अपनी जुबान से भी नहीं निकाल सकते।’
आलोचक महाराज चैंके-‘वह गालियां दे रहा था! उसकी भाषा अपने समझ में नहीं आयी। हमने तो उसे कई बार अपनी भाषा में बोलते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज उसकी मात्ृभाषा गूंगी है। उसी मेें वह आपको गालियां दे रहा था।
आलोचक महाराज-‘यह कौनसी भाषा है?’
दीपक बापू-‘हमें नहीं मालुम।’
आलोचक महाराज-‘तो तुम्हें मालुम क्या है?’
दीपक बापू-‘यही कि उसकी मातृभाषा गूंगी है। जब वह गुस्से में होता है तब यही भाषा बोलता है।’
आलोचक महाराज बोले-‘उसका मोबाइल नंबर दो। अभी उसको फोन करता हूं और जो शराब की बोतल के पैसे उसको दिये वापस मांगता हूं। मैंने यह सोचकर उस कार्यक्रम में उससे हंगामा फिक्स किया था कि वह तुम्हारा दोस्त है। इससे तुम्हें भी प्रचार मिल जायेगा और तुम कहते हो कि दोस्त नहीं है तो अब देखो उसकी क्या हालत करता हूं? हमें गूंगी भाषा में गालियां देता है। देखो तुम अपनी भाषा वाले हो। हमारा साथ देना। उसके खिलाफ बयान अखबार में देना। यह गूंगी भाषा वाला समझता क्या है?
दीपक बापू ने रुमाल आलोचक महाराज की तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘लीजिये महाराज, आवेश में आपका पसीना निकल रहा है। यह आपका हंगामा फिक्स था तो फिर हमेें काहे धमकाने आये।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘उसने यह शर्त रखी थी कि उसकी तरफ से तुम्हारे प्रति वफादारी का प्रमाण पत्र पेश करूं। मगर अब मामला भाषा का है। तुम हम एक हो जाते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘कतई नहीं महाराज! आपका झगड़ा हुआ है और इसमें हम कतई नहीं पड़ेंगे। झगड़ा किसी बात पर और नाम जाति, भाषा और धर्म का लेकर लोगों को लड़ाने का प्रयास कम से कम हमारे साथ तो नहीं चलेगा। रहा अखबार में छपने का सवाल तो हम आपके पास नहीं लायेंगे अपनी रचना!
आलोचक महाराज बोले-‘नहीं तुम लाना! पर हम नहीं छपवायेंगे अखबार में। जब लाओगे और नहीं छपेगा तभी तो हमारे गुस्से का पता चलेगा? अपनी भाषा में हमारी जो इज्जत है उसकी परवाह न करने का परिणाम कैसे चलेगा तुमको?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज हमें पता है! आप हमारी कविताओं के विषय चुराकर दूसरों को सुनाकर उनसे दूसरी रचनायें लिखवाते हो। आपके पास विषय चिंतन तो है ही नहीं। एकाध बार साल में कहीं रचना छपवाकर एहसान हम पर करते हैं! नमस्कार हम चलते हैं! वैसे आप इस विषय को यहीं बंद कर दें क्योंकि आपने यह राज उजागर कर ही दिया है कि वह हंगामा फिक्स था!’
दीपक बापू घर वापस चल पड़े। रात हो चली थी। इधर दारु की बोतल के साथ फंदेबाज भी उनको अपने ही घर के बाहर खड़ा मिला। उनको देखते ही बोला-‘आओ दीपक बापू। आज तुम्हारे लिये जोरदार खबर लाया हूं। आज मैंने आलोचक महाराज की क्या धुर उतारी है! तुम देखते तो वाह वाह कर उठते! इसी खुशी में यह बोतल खरीद कर अपने घर ले जा रहा था। सोचा तुम्हें बताता चलूं।’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘हमें पता है! आलोचक महाराज ने गुस्से में बता दिया कि यह हंगामा फिक्स था! अब तुम अपनी सफाई मत देना।’
फंदेबाज बोला-‘उसने ऐसा किया? अभी जाकर उसकी खबर लेता हूं।’
दीपक बापू बोले-‘यह बोतल घर ले जाकर पीओ। वरना यह भी छिन जायेगी। वह बहुत गुस्से में हैं। वहां जो तुम बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोले रहे थे उसका मतलब उनके समझ में आ गया है।’
फंदेबाज बोला-‘पर वह तो मैं ऐसे ही कर रहा था1’
दीपक बापू-‘हमने उनसे कह दिया कि वह अपनी मात्ृभाषा गूंगी में आपको गालियां दे रहा था। तुम कहते भी हो कि मेरी मातृभाषा गूंगी है!’
फंदेबाज-‘वह तो इसलिये कि मेरी माताजी गूंगी है। यह कोई अलग से भाषा नहीं है। तुमने यह क्या आग लगाई।’
दीपक बापू बोले-‘लगाई तो तुमने! हमने तो बुझाई। दोनों ने हमारा नाम लेकर हंगामा किया और हमने दोनों की कराई लड़ाई।’
दीपक बापू अंदर चले गये इधर फंदेबाज बुदबुदाया-‘अब इसका क्या नशा चढ़ेगा! इनको तो पता चल गया कि यह हंगामा फिक्स था! फिर यह अपनी भाषा और गूंगी भाषा का मुद्दा चिपकाये आये हैं। वह आलोचक महाराज पूरा खब्ती है। खबरों में छपने के लिये वह कुछ भी कर सकता है। इससे पहले कि वह कुछ करे उसे समझाये आंऊ कि गूंगी कोई अलग से भाषा नहीं है। इस दीपक बापू का क्या? यह तो हास्य कविता लिखकर फारिग हो लेगा। मेरी शामत आयेगी। यह बोतल भी आलोचक महाराज को वापस कर आता हूं
वह तुरंत वहां से चल पड़ा।
————
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ज़माने सुधारने का वहम-व्यंग्य कविता (zamane ko sudharne ka vaham-vyangya kavita)


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
————–

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इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना-हास्य व्यंग्य (yah hindi sammelan-hindi hasya vyangya)


ब्लागर उस समय सो रहा था कि चेले ने आकर उसके हाथ हिलाकर जगाया। ब्लागर ने आखें खोली तो चेले ने कहा-‘साहब, बाहर कोई आया है। कह रहा है कि मैं ब्लागर हूं।’
ब्लागर एकदम उठ बैठा और बोला-‘जाकर बोल दे कि गुरुजी घर पर नहीं है।’
चेले ने कहा-’साहब, मैंने कहा था। तब उसने पूछा ‘तुम कौन हो’ तो मैंने बताया कि ‘मैं उनका शिष्य हूं। ब्लाग लिखना सीखने आया हूं’। तब वह बोला ‘तब तो वह यकीनन अंदर है और तुम झूठ बोल रहे हो, क्योंकि उसने सबसे पहले तो तुम्हें पहली शिक्षा यही दी होगी कि आनलाईन भले ही रहो पर ईमेल सैटिंग इस तरह कर दो कि आफलाईन लगो। जाकर उससे कहो कि तुम्हारा पुराना जानपहचान वाला आया है। और हां, यह मत कहना कि ब्लागर दोस्त आया है।’

ब्लागर बोला-‘अच्छा ले आ उसे।’
शिष्य बोला-‘आप   निकर छोड़कर पेंट  पहन लो। वरना क्या कहेगा।’
ब्लागर ने कहा-‘ क्या कहेगा ? वह कोई ब्लागर शाह है। खुद भी अपने घर पर इसी तरह तौलिया पहने  कई बार मिलता है। मैं तो फिर भी आधुनिक प्रकार की  नेकर पहने रहता  हूं, जिसे पहनकर लोग सुबह मोर्निंग वाक् पर जाते हैं।’
इधर दूसरे ब्लागर ने अंदर प्रवेश करते ही कहा-‘यह शिष्य कहां से ले आये? और यह ब्लागिंग में सिखाने लायक है क्या? बिचारे से मुफ्त में सेवायें ले रहे हो?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘अरे, यह तो दोपहर ऐसे ही सीखने आ जाता है। मैं तुम्हारी तरह लोगों से फीस न लेता न सेवायें कराता हूं। बताओ कैसे आना हुआ।’
दूसरे ब्लागर ने कंप्यूटर की तरफ देखते हुए पूछा-‘यह तुम्हारा कंप्यूटर क्यों बंद है? आज कुछ लिख नहीं रहे। हां, भई लिखने के विषय बचे ही कहां होंगे? यह हास्य कवितायें भी कहां तक चलेंगी? चलो उठो, मैं तुम्हारे लिखने के लिये एक जोरदार समाचार लाया हूं। ब्लागर सम्मेलन का समाचार है इसे छाप देना।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम खुद क्यों नहीं छाप देते। तुम्हें पता है कि ऐसे विषयों पर मैं नहीं लिखता।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अरे, यार मैं अपने काम में इतना व्यस्त रहता हूं कि घर पर बैठ नहीं पाता। इसलिये कंप्यूटर बेच दिया और इंटरनेट कनेक्शन भी कटवा दिया। अब अपने एक दोस्त के यहां बैठकर कभी कभी ब्लाग लिख लेता हूं।’
पहले ब्लागर ने घूरकर पूछा-‘ब्लाग लिखता हूं से क्या मतलब? कहो न कि अभद्र टिप्पणियां लिखने के खतरे हैं इसलिये दोस्त के यहां बैठकर करता हूं। तुमने आज तक क्या लिखा है, पता नहीं क्या?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘क्या बात करते हो? आज इतना बड़ा सम्मेलन कराकर आया हूं। इसकी रिपोर्ट लिखना है।’
पहले ब्लागर ने इंकार किया तो उसका शिष्य बीच में बोल पड़ा-‘गुरुजी! आप मेरे ब्लाग पर लिख दो।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अच्छा तो चेले का ब्लाग भी बना दिया! चलो अच्छा है! तब तो संभालो यह पैन ड्ाईव और कंप्यूटर खोलो उसमें सेव करो।’
शिष्य ने अपने हाथ में पैन ड्राईव लिया और कंप्यूटर खोला।
पहले ब्लागर ने पूछा-‘यह फोटो कौनसे हैं?
दूसरे ब्लागर ने एक लिफाफा उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा‘-जब तक यह इसके फोटो सेव करे तब तक तुम उसको देखो।
ब्लागर ने फोटो को एक एक कर देखना शुरु किया। एक फोटो देखकर उसने कहा-‘यह फोटो कहीं देखा लगता है। तुम्हारा जब सम्मान हुआ था तब तुमने भाषण किया था। शायद…………….’
दूसरे ब्लागर ने बीच में टोकते हुए कहा-‘शायद क्या? वही है।’
दूसरा फोटो देखकर ब्लागर ने कहा-‘यह चाय के ढाबे का फोटो। अरे यह तो उस दिन का है जब मेरे हाथ से नाम के लिये ही उद्घाटन कराकर मुझसे खुद और अपने चेलों के लिये चाय नाश्ते के पैसे खर्च करवाये थे। मेरा फोटो नहीं है पर तुम्हारे चमचों का…….’’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘अब मैं तुम्हारे इस चेले को भी चमचा कहूं तो तुम्हें बुरा लगेगा न! इतनी समझ तुम में नहीं कि ब्लागिंग कोई आसान नहीं है। जितना यह माध्यम शक्तिशाली है उतना कठिन है। लिखना आसान है, पर ब्लागिंग तकनीकी एक दिन में नहीं सीखी जा सकती। इसके लिये किसी ब्लागर गुरु का होना जरूरी है। सो किसी को तो यह जिम्मा उठाना ही है। तुम्हारी तरह थोड़े ही अपने चेले को घर बुलाकर सेवा कराओ। अरे ब्लागिंग सिखाना भी पुण्य का काम है। तुम तो बस अपनी हास्य कवितायें चिपकाने को ही ब्लागिंेग कहते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, यह तो है! यह तीसरा फोटो तो आइस्क्रीम वाले के पास खड़े होकर तुम्हारा और चेलों का आईस्क्रीम खाने का है। यह आईसक्रीम वाला तो उस दिन मेरे सामने रास्ते पर तुमसे पुराना उधार मांग रहा था। तब तुमने मुझे आईसक्रीम खिलाकर दोनों के पैसे दिलवाकर अपनी जान बचाई थी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘मेरे फोटो वापस करो।’
पहले ब्लागर ने सभी फोटो देखकर उसे वापस करते हुए कहा-‘यार, पर इसमें सभी जगह मंच के फोटो हैं जिसमें तुम्हारे जान पहचान के लोग बैठे हैं। क्या घरपर बैठकर खिंचवायी है या किसी कालिज या स्कूल पहुंच गये थे। सामने बैठे श्रोताओं और दर्शकों का कोई फोटो नहीं दिख रहा।’
दूसरे ब्लागर ने पूछा-‘तुम किसी ब्लागर सम्मेलन में गये हो?’
पहले ब्लागर ने सिर हिलाया-‘नहीं।’
दूसरा ब्लागर-‘तुम्हें मालुम होना चाहिये कि ब्लागर सम्मेलन में सिर्फ ब्लागर की ही फोटो खिंचती हैं। वहां कोई व्यवसायिक फोटोग्राफर तो होता नहीं है। अपने मोबाइल से जितने और जैसे फोटो खींच सकते हैं उतने ही लेते हैं। ज्यादा से क्या करना?
पहला ब्लागर-हां, वह तो ठीक है! ब्लागर सम्मेलन में आम लोग कहां आते हैं। अगर वह हुआ ही न हो तो?
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया-‘लाओ! मेरे फोटो और पैन ड्राइव वापस करो। तुमसे यह काम नहीं बनने का है। तुम तो लिख दोगे ‘ न हुए ब्लागर सम्मेलन की रिपोर्ट’।
पहला ब्लागर ने कहा-‘क्या मुझे पागल समझते हो। हालांकि तुम्हारे कुछ दोस्त कमेंट में लिख जाते हैं ईडियट! मगर वह खुद हैं! मैं तो लिखूंगा ‘छद्म सम्मेलन की रिपोर्ट!’
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया उसने कंप्यूटर में से खुद ही पेनड्राइव निकाल दिया और जाने लगा।
फिर रुका और बोला-‘पर इस ब्लागर मीट पर रिपोर्ट जरूर लिखना। हां, इस ब्लागर सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना। तुम जानते नहीं इंटरनेट लेखकों के सम्मेलन और चर्चाऐं कैसे होती हैं? इंटरनेट पर अपने बायोडाटा से एक आदमी ने अट्ठारह लड़कियों को शादी कर बेवकूफ बनाया। एक आदमी ने ढेर सारे लोगों को करोड़ों का चूना लगाया। इस प्रकार के समाचार पढ़ते हुए तुम्हें हर चीज धोखा लगती है। इसलिये तुम्हें समझाना मुश्किल है। कभी कोई सम्मेलन किया हो तो जानते। इंटरनेट पर कैसे सम्मेलन होते हैं और उनकी रिपोर्ट कैसे बनती है, यह पहले हमसे सीखो। सम्मेलन करो तो जानो।’
पहले ब्लागर ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा-ऐसे सम्मेलन कैसे कराऊं जो होते ही नहीं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘होते हैं, करना हमसे सीख लो।’
वह चला गया तो पहला ब्लागर सामान्य हुआ। उसने शिष्य से कहा-‘अरे, यार कम से कम उसके फोटो तो कंप्यूटर में लेना चाहिये थे।’
शिष्य ने कहा-‘ गुरुजी फोटो तो मैंने फटाफट पेनड्राइव से अपने कंप्यूटर से ले लिये।’
पहला ब्लागर कंप्यूटर पर बैठा और लिखने लगा। शिष्य ने पूछा’क्या लिख रहे हैं।
पहले ब्लागर ने कहा-‘जो उसने कहा था।’
शिष्य ने पूछा-‘यही न कि इस मुलाकात की बात लिख देना।’
ब्लागर ने जवाब दिया‘नहीं! उसने कहा था कि ‘इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना’।’’
……………………….
नोट-यह व्यंग्य पूरी तरह से काल्पनिक है। किसी घटना या सम्मेलन का इससे कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो यह एक संयोग होगा। इसका लेखक किसी दूसरे ब्लागर से ब्लागर से मिला तक नहीं है।
………………………………
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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