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शिष्य की जीवन नैया पर लगाने वाले गुरु बहुत कम है-गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिंदी लेख


         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

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बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।

सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।

कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।

    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।

           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 

     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

चिंत्तन और निष्कर्ष-हिन्दी कविता


चिंत्तन  कुछ यूं भटक गया है,

जिस रास्ते हम चले

वही है यह

तय नहीं कर पा रहे

लगता है कभी कभी

नहीं तय हो रही दूरी

लक्ष्य ही शायद आकाश में अटक गया है।

कहें दीपक बापू

महाबहसें सुनते सुनते

बुद्धि हो जाती कभी कभी कुंद

दूसरों की सोच सुनते सुनते

लगता है यूं

अपना निष्कर्ष ही कहीं टपक गया है।

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लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com

यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।

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सामाजिक हैं हम लोग-हिंदी कविता


हादसों पर मोमबत्तियां जलाकर

मातम मनाओ

बच्चों को यह सिखा दिया,

सामाजिक है हम लोग

सारे संसार को दिखा दिया।

कहें दीपक बापू

सड़क पर कराहता कोई घायल,

नहीं सुनता कोई चीख

डरते हैं सभी कोई मदद की न मांगे भीख,

मुंह फेर जाते हैं देखने वाले,

लगाकर अपनी सोच पर ताले,

ज़माने पर लगता है मतलबपरस्ती का आरोप

रौशनी से चकाचौंध सड़क पर

यूं मोमबत्तियां जलाकर

जख्मों से हमदर्दी जता रहे है,

सर्दी में अपने शरीर को सता रहे हैं,

रोने में हम भी नहीं किसी से कम

दुनियां को यह बता दिया,

न हल्दी लगे न फिटकरी

रंग आयेगा चोखा

यह नयी पीढ़ी को अच्छी तरह सिखा दिया।

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लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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ओलम्पिक में फिक्सिंग के खेल में भारत परास्त-हिन्दी लेख


भारत में ओलम्पिक की इज्जत लगभग खत्म ही हो जायेगी।  अभी तक कोई खिलाड़़ी जब अपनी हेकड़ी दिखाता है तो लोग उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तू ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ला सकता है?‘‘

जब तक भारत के बैटमिंटन और मुक्केबाजी के खिलाड़ी ओलम्पिक के क्वार्टन फाइनलों तक नहीं पहुंचे थे तब तक  भारत में लोग यह मानते थे कि हमारा देश खेल में फिसड्डी है। क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी पर ओलम्पिक की पवित्रता की विचार यह बना रहा है।  अब हालत वह नहीं है।

ओलम्पिक के दौरान दोनों ही प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग की बात सामने आयी और भारत के खिलाड़ियों के परिणामों पर इसका नकारात्मक प्रभाव दिखा।  स्थिति यह रही कि भारतीयों अपील की तो वह निरस्त हो गयी पर जापान और अमेरिका ने जब अपने परास्त  खिलाड़ियों के लिये प्रतिवाद प्रस्तुत किया तो उसे मानते हुए विजयश्री प्रदान की गयी।  यहां तक ठीक था पर अब पता लगा कि एक देश ने  मुक्केबाजी में दो स्वर्ण पदकों के लिये 78 करोड़ खर्च किये।  अब अमेरिका और जापान के प्रतिवाद भी इसलिये शंका के दायरे में आ गये हैं क्योंकि दोनो अमीर देश हैं। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये पैसा खर्च कर सकते हैं।

ओलम्पिक में भारत अनेक प्रतियोगिताओं में भाग भी नहीं लेता है।  उनमें भी फिक्सिंग वगैरह होती हो यहां पता लगाना मुश्किल है।  भारतीय मुक्केबाज एक के बाद एक बाहर हुए तो भारत में थोड़ी शर्मिंदगी अनुभव की गयी भले ही उनके हारने पर निर्णायकों के विरुद्ध प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया।  अब तो बीबीसी लंदन ने भी मान लिया है कि मुक्केबाजी में जमकर फिक्सिंग होती रही है।   भारतीय प्रचार माध्यमों की बात पर कोई भरोसा नहीं करता पर अंग्र्रेजों की राय तो यहां ब्रह्म वाक्य मान ली जाती है। यह अलग बात है कि इसके लिये हमारे प्रचार माध्यमों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार हैं।

बहरहाल अनेक लोग ओलम्पिक खेलों में दिलचस्पी लेते हैं,  भले ही उनको भारत में खेला नहीं जाता।  ओलम्पिक खेलों में ऐसे खेल और खिलाड़ियों को देखना का अवसर मिलता है जिनके हमारे यहां होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।  इसका कारण यह है कि उन खेलों के लिये धन के साथ खिलाउि़यों को वैसे अवसर भी मिलना अभी हमारे देश में संभव नहीं है।  ऐसे खिलाड़ी पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं।  हमारे देश के बच्चों में खेल के प्रति रुझान बहुत रहता है पर उनके लिये वैसे अवसर कहां है जो अमीर देशों के पास हैं।  आधुनिक ओलम्पिक के बारे में कहा जाता है कि किसी देश के विकास तथा शक्ति  की नाप उसको मिले स्वर्ण पदकों से होती है।  इस मामले में चीन का विकास प्रमाणिक हो जाता है।

चीन के हमारे देश में बहुत प्रशंसक है और उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए। यह अलग बात है कि सामाजिक विशेषज्ञ चीन के इस विकास को अप्राकृतिक भी मानते है।  उस पर तानाशाही खेलों में भी कठोर व्यवस्था अपनाने का आरोप लगाते हैं।  अभी हाल ही में ऐसे समाचार भी आये जिसमें वहां के बच्चों को उनकी इच्छा जाने बिना  क्रूरतापूर्वक खिलाड़ी बनाया जाता है। इससे  एक बात तय रही कि आधुनिक खेल के खिलाड़ी पैदा नहीं होते उनको बनाया जाता है-धन का लोभ हो या प्रतिष्ठा पाने का मोह देकर उनको प्रेरित किया जाता है।

दरअसल हमें वैसे भी ओलम्पिक में अपने निराशाजनक प्रदर्शन पर अधिक कुंठा पालने की आवश्यकता नहीं है।  हॉकी में भारत अंतिम स्थान पर रहा इस भी पुराने खेल प्रेमियों को परेशान की जरूरत नहीं है।  दरअसल आज के अधिकांश खेल अपा्रकृतिक और कृत्रिम मैदान पर होते हैं।  जब तक हॉकी घास के मैदान पर खेली जाती थी तब तक भारत पाकिस्तान के आगे सब देश फीके लगते थे।  धीमे धीमें इस खेल को  कृत्रिम मैदान पर लाया गया।  यह कृत्रिम मैदान हर खिलाड़ी को नहीं मिल सकता और जो सामान्य मैदान पर खेलते हैं उनके लिये वह मैदान अनुकूल भी नहीं है।  मतलब यह कि कोई बच्चा हॉकी खिलाड़ी बनना चाहे तो पहले तो उसे मैदान खोजना पड़ेगा फिर हमारे यहां जो बच्चे बिना जूतों के खेल शुरु करते हैं उनके लिये अब हॉकी में पहले जूते होना जरूरी है क्योंकि कृत्रिम मैदान पर उनके बिना खेलना संभव नहीं है।  प्रसंगवश यहां बता दें कि क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर खेलने की बात हाती है पर अंग्रेज नहीं मानते। उनको इसका परंपरागत स्वरूप ही पंसद है।  अंग्रेजों में यह खूबी है कि वह अपनी परंपरा नहीं छोडते। एक तरह से कहें तो यह हमारा सौभाग्य है। अगर कहीं क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर प्रारंभ हो गया तो आप समझ लीजिये कि आजकल के बच्चों के लिये समय बिताने का  साधन गया।  सभी बड़े खिलाड़ी नहीं बनते पर बनने का ख्वाब लेकर अनेक बच्चे व्व्यस्त तो रहते हैं।  इसी तरह कुश्ती, तैराकी, जिम्नस्टिक, साइकिलिंग तथा अनेक खेल हैं जिनको सामान्य वर्ग के बच्चे आसानी से नहीं खेल सकते।

   मूल बात यह है कि हमारे देश में खेल को प्राकृतिक मैदान पर खेलने की आदत है।  बच्चों के लिये यह संभव नही है कि वह दूर दूर जाकर मैदान ढूंढे और खेलें।  ऐसे में ओलम्पिक हमारे लिये दूर के ढोल बन जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

नववर्ष में अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे)और उनकी आंदोलन का क्या होगा-हिन्दी लेख


             इस वर्ष अगर राजनीतिक और खबरों का आंकलन किया जाये तो यकीनन अन्ना हजारे और उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन टीवी चैनलों, समाचार पत्रों तथा इंटरनेट पर छाया रहा। चूंकि प्रचार माध्यमों के प्रकाशनों और प्रसारणों में सब तरह का मसाला बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। इसलिये कभी गंभीर चिंत्तन तो कभी तनाव पूर्ण विवाद तो कभी हास्य व्यंग्य का मिश्रण भी शामिल रहा। हालांकि ऐसे में हम लोगों के लिये केवल देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ही चिंत्तन का विषय रहा। यह अलग बात है कि जो बहसें देखी उनमें केवल सतही सोच दिखाई दी। आक्षेपों और हास्य टिप्पणियों ने एक तरह से हमारा मन ही खट्टा किया। हम चाहते थे कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर गंभीर मंथन हो न कि व्यक्तिगत आक्षेपों या मजाक में समय बरबाद हो। मगर यह हम जैसे फोकटिया लेखकों के सोचने से क्या होता है? व्यवसायिक लोग जहां चाहे सार्वजनिक बहसों को ले जा सकते हैं।
                    वर्ष के आखिर में हमने इस पर दो लेख लिखे पर लगता नहीं है कि हम अपनी बात पूरी कह पाये। लोकपाल और जनलोकपाल के मध्य द्वंद्व भले ही चलता रहा हो पर हमारी नज़र इस बात पर अधिक रही है कि क्या वाकई समाज इस बात के लिये तैयार है कि वह भ्रष्टाचार व्यवस्था चाहता है। हमें लगता नहीं है कि समाज में कोई गंभीर हलचल है। राज्य व्यवस्था का हर कोई उपयोग अपने हित में करना चाहता है और यही भ्रष्टाचार की जड़ है और इससे आम जनमानस अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। जिस तरह पर बहस चल रही है उसमें हम जैसे चिंत्तक फिट भी नहीं बैठ सकते क्योंकि व्यवसायिक बुद्धिजीवियों का वर्ग केवल अपने तयशुदा विचार पर ही निर्णय करना चाहता है। नयी बात उसे मूर्खतापूर्ण या अप्रासंगिक लगती है। बहरहाल हमारे दोनों लेख यहां प्रस्तुत हैं।

                ईसवी संवत 2011 समाप्त  होकर  ही 2012 प्रारंभ हो गया  है। आमतौर से आधुनिक शिक्षा पद्धति से परे रहने वाले आम भारतीय जनमानस के लिये 31 दिसम्बर तथा 1 जनवरी यह पुराना साल समाप्त तथा नया साल प्रारंभ होने का समय नहीं होता। भारतीय संवत अप्रैल या मार्च में प्रारंभ होता है। इतना ही नही भारत के बजट का वर्ष भी 1 अप्रैल से 31 मार्च को होता है। अलबत्ता बाज़ार तथा प्रचार समूहो  ने अपनी कमाई के लिये 1 जनवरी से नववर्ष प्रारंभ होने के तिथि को इस तरह समाज में स्थापित कर लिया है कि पुरानी, मध्यम तथा नयी पीढ़ी की शहरी पीढ़ी इसके जाल में फंसी हुई है। पहले होता था ‘नववर्ष की बधाई’ और अब हो गया ‘हैप्पी न्यू ईयर’।

       बहरहाल पिछले साल की खबरें, फिल्में, गीत, और समाचारों का पुलिंदा लेकर प्रचार माध्यम हाजिर हैं। हमें यह सब नहीं दिखाई देता। हमें दिखाई देता है भ्रष्टाचार का भूत! इस भूत ने हमारे समाज का वर्ष में से नौ महीने तक पीछा किया है। लग रहा है कि अगले वर्ष का प्रारंभ भी नायक अन्ना हजारे और खलनायक भ्रष्टाचार ही करेगा। आखिर हमने यह दावा किस आधार पर किया। दरअसल हमारे बीस ब्लॉग पिछले छह वर्ष से चल रहे हैं पर भ्रष्टाचार शब्द से इस बार सर्च इंजिनों में जितने ढूंढे गये उतना पिछले सालों में नहीं दिखाई दिया। इतना ही नहीं अन्ना हजारे के नाम से लिखे गये शीर्षक वाले पाठों के ब्लॉगों ने भी अधिक से अधिक पाठक जुटाये। अप्रैल 2011 से पहले भ्रष्टाचार पर लिखी गयी कविताओं तथा लेखों ने इसयिल लोकप्रियता पायी। हम अगर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को एक वाक्य में सफल बताना चाहें तो वह यह कि उन्होंने भारत में फैले भ्रष्टाचार का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने में योगदान दिया।
           अन्ना हजारे 74 वर्ष के हैं। आयु की दृष्टि से उनका सम्मान होना चाहिए पर अपने आंदोलन की वजह से उनको अपमान भी झेलना पड़ा। इसके लिये उनके विरोधियों को नहीं बल्कि उनके समर्थकों को भी कम दोषी नहीं माना जा सकता जिन्होंने उनकी आयु की आड़ में अपने स्वार्थों के तीर चलाने के प्रयास किये।
वर्ष के पूरे नौ महीने तक जो आदमी भारतीय जनमानस पर छाया रहा वह वास्तव में नायक कहने योग्य है। यह अलग बात है कि कह कोई नहीं रहा। वर्ष के सबसे बुरी तरह से फ्लाप फिल्म रावन का नायक रहा। यह बात भी कोई नहीं कह नहीं रहा।
           उस दिन हमारे हम अपने एक मित्र से पहुंचने उसके घर पहुंचे। हमारे मित्र का लड़का रावन पिक्चर देखने मॉल में जा रहा था। हमारे मित्र ने उससे कहा ‘‘तुम्हारे यह अंकल कह रहे हैं कि रावन फिल्म फ्लॉप हो गयी है। हमने भी अपनी जवानी में फिल्में देखी हैं पर वही जो हिट होती थीं। तुम क्यो फ्लॉप रावन फिल्म देखने जाकर अपने घर की परंपरा और इज्जत का फालूदा बना रहे हो?
         पुत्र ने पूछा-‘‘अभी फिल्म आये तीन दिन हुए है तो उसे फ्लाप कैसे कह सकते है?’’
हमारे मित्र ने कहा-’’अंकल इंटरनेट पर सक्रिय रहते हैं और वहां ऐसा ही आंकलन प्रस्तुत किया गया होगा। तभी तो कह रहे हैं!’’
        पुत्र ने उनकी बात नहीं सुनी। तीन दिन बार हमारे मित्र बता रहा था कि उसके पुत्र को हमारी बात न मानने का मलाल था।
        देश की आज़ादी से पहले से यहां ऐसा तंत्र विकसित हो गया था जो यहां के जनमानस को बहलाफुसला कर बाज़ार के अनुकूल चलाने का अभ्यस्त था और उसने प्रचारतंत्र को भी वैसा ही बनाया। इस तरह भारतीय जनमानस भले ही अंग्रेजों के राजतंत्र से मुक्त हो गया पर उनके स्थापित व्यवस्था तंत्र के पंजों में अभी तक है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षा से प्रशिक्षित अनेक लोग संस्कार और ंसस्कृति के नाम पर समाज को बचाने की बात तो करते हैं पर व्यवस्था की कार्यशैली बदलने की बात वह भी नहीं सोच पाते।         
            देश में भ्रष्टाचार आजादी के बाद से तेजी से पनपा है। अनेक लोग इससे जूड़ते हुए तो अनेक शिकार होते हुए अपना जीवन गंवा चुके हैं। जिनके पास राज्य की हल्दी सी गांठ है वह चूहा भी अपने आपको राजा से कम नहीं समझता। जहां जनता को सुविधा देने की बात आती है वहां राज्य के अधिकारों की बात चली आती है। प्रजा के लिये सुविधा पाना अधिकार नहीं बल्कि वह दे या न दे राज्य के अधिकार की बात हो गयी है। आम आदमी की भ्रष्टाचार से जो पीड़ा है उसका बयान सभी करते हैं पर हल कोई नहीं जानता। भ्रष्टाचार की पीड़ा को अन्ना साहेब के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूरे विश्व के सामने जाहिर किया पर इससे वह कम नहीं हो गयी। यही कारण है कि इस वर्ष भ्रष्टाचार और अन्ना साहेब ने इंटरनेट पर ढेर सारी खोज पायी। रावन फिल्म फ्लाप हो गयी इसलिये उसे खोज में जगह अधिक नहीं मिली पर दीवाली पर रावन शब्द भी खूब खोजा जाता है। पुराने ईसवी संवत् की विदाई पर बस इतना ही।
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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) के लिये आत्ममंथन का समय-हिन्दी लेख (anna hazare ke liye atmamanthan sa samay-hindi lekh or article)

           अन्ना हज़ारे ने अपना अनशन तथा जेलभरो आंदोलन फिलहाल स्थगित कर अच्छा ही किया है। जब हम अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात करते हैं तो उसके राजनीतिक पक्ष की चर्चा अधिक होती है और सामाजिक पक्ष पीछे रह जाता है। हमने जब भी इस पर लिखा है सामाजिक पक्ष को अधिक छूने का प्रयास किया है। एक बात के लिये यह आंदोलन हमेशा याद रखा जायेगा कि इसने संपूर्ण देश के समस्त समाजों के सभी लोगों को चिंत्तन और मनन के विवश किया। मूल प्रश्न भ्रष्टाचार से जुड़ा होने के बावजूद ऐसे अनेक विषय हैं-जिनका संबंध कहीं न कहीं उससे है-जिन पर चर्चा हुई। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आमतौर से सरकारी क्षेत्र के भ्रष्टाचार की बात होती है पर उद्योग, व्यापार, कला, तथा धर्म के क्षेत्र के कदाचार छिप जाता है। संभव है हम जैसे चिंतकों के इस मत से कम ही लोग सहमत होंगे कि हमारे समाज का यह सामान्य दृष्टिकोण ही ऐसे भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार हैं जिसमें धन को सर्वाधिक महिमामय माना जाता है। सिद्धांतों की बात करना सभी को अच्छी लगती है पर जहां धन का मामला आये वहां सभी की आंख बंद हो जाती है।

             अपने आंदोलन के अकेले शीर्षक अन्ना साहेब हैं पर उनके विस्तार में अनेक प्रश्न चिन्ह थे। किसी पाठ में फड़कते शीर्षक के साथ बहुत सारे शब्द होते हैं जिनमें विषय से जुड़े सार का सार्थक होना आवश्यक है। इसके अभाव में शीर्षक एक नारा होकर रह जाता है। हम जैसे गीता साधकों के लिये यह आंदोलन अध्ययन और अनुसंधान के लिये बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इस दौरान हमने केवल अन्ना के वाक्यों के साथ ही उनकी पर्दे पर दिख रही गतिविधियों को बहुत ध्यान से देखा। अन्ना के बारे में दूसरे लोग और दूसरे लोगों के बारे मे अन्ना क्या कह रहे हैं इसमें हमने दिलचस्पी नहीं रखी बल्कि अन्ना अपने इस आंदोलन से इस समाज के लिये क्या नया ढूंढ रहे हैं यह प्रश्न हमेशा हमारे लिये महत्वपूर्ण रहा है। अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता हमेशा रही और हमारा मानना है कि ज्ञानी और ध्यानी अनशन जैसी हल्की गतिविधि से तब तक दूर रहें जब तक यह आवश्यक न हो। आंदोलनों और अभियानों का शांतितिपूर्ण प्रदर्शन करना ठीक है पर अनशन जैसी गतिविधि विचलित कर देती है।
               अन्ना ने जब अपना अनशन स्थगित किया तो प्रचार माध्यम उनका मखौल उड़ा रहे हैं। इन्हीं प्रचार माध्यमों ने उनके इसी आंदोलन पर अपने विज्ञापनों का समय पास कर कमाई की। टीवी चैनलों को इतने सारे दर्शक मिले होंगे कि वह कल्पनातीत होगा। हमारा मानना तो यह है कि यह आंदोलन ही आम जनमानस को भरमाने के लिये आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का एक योजनाबद्ध प्रयास था। टीवी चैनलों में शामिल हुए जिन बुद्धिजीवियों ने उनके मुंबई में कम भीड़ होने की जो बात कही है वह इसी का ही परिणाम है। लोकपाल या जनलोकपाल से इतर बहस इस पर चल रही है कि क्या अन्ना साहेब का जादू खत्म हो गया है। तो क्या यह जादू चल रहा था?
          अन्ना मूलतः अकेले थे पर उनके पीछे अनेक ज्ञात अज्ञात संगठन आये जिनके अपने अपने लक्ष्य थे। जनलोकपाल उनका नारा था जो संसद में लोकपाल का बिल पास होते ही फ्लाप हो गया। अन्ना के अनेक साथियों को लगा कि उनका नारा अब चलने वाला नहीं है। यकीनन अन्ना ने यह सब देखा होगा। अन्ना ने बहुत कुछ कहा पर हमें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ नहीं भी कहा। उनके सामने अनेक ऐसे सत्य अदृश्य रूप में प्रकट हुए होंगे जिनको देखकर वह आश्चर्यचकित हुए होंगे। वह उनको देखते होंगे पर उनका बयान करना उनके लिये कठिन रहा होगा। वह ऐसे सात्विक पुरुष हैं जो राजस पुरुषो के क्षेत्र में घुसकर उनको त्रास देता है। अभी तक उन्होंने राजस पुरुषों से जो द्वंद्व किया था उसमें भी उनके विरोधी राजस पुरुषों की सहायता लेते रहे होंगे। एक को परास्त किया तो दूसरा विजेता बना होगा। इस बार वह राजस पुरुषों के विशाल समूह से लोह लेने निकले थे और धीरे धीरे उनके इर्दगिर्द अपने राजसी वृत्ति के लोगों का आंकड़ा कम होता जा रहा था। राजस पुरुष पराक्रमी होते हैं जबकि सात्विक पुरुषों को पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती। यदि राजस पुरुषों के विशाल समूह से सामना करना हो तो पहले अपने पराक्रम का भी परीक्षण करना चाहिए। अन्ना ने यह बात अब जाकर अनुभव की होगी। हम नहीं मानते कि अन्ना हारकर बैठ जायेंगे। दूसरी बात यह भी लगती है कि वह अपने वर्तमान राजस पुरुषों के साथ लेकर अपना अभियान चलने वाले भी नहीं है।
        हम जब अन्ना हजारे के अभियान से राजनीतिक पक्ष से हटकर उसका सामाजिक पक्ष देखते हैं तो लगता है कि अन्ना हजारे की त्यागी छवि जनमानस में है। इसलिये भविष्य में उनको समर्थन नहीं मिलेगा यह सोचना बेकार है। मुश्किल यह है कि अन्ना हजारे को बौद्धिक वर्ग का समर्थन अधिक नहीं मिला। इसका कारण यह है कि इस देश ने कई आंदोलन और उसके परिणाम देखे हैं जिससे निराशावादी दृष्टिकोण उभरता है। अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े स्वयं सेवी और उनके संगठनों की निष्ठा को लेकर लोगों के मन में अनेक संदेह थे। देश के बौद्धिक समाज से जुड़े अनेक लोगों के लिये वह किसी भी दृष्टि से स्वयंसेवक नहीं थे। समाज सेवा में उनकी भूमिका धनपतियों और आमजनमानस के बीच उनकी भूमिका मध्यस्थ की थी। वैसे हमारा मानना है कि अन्ना को अपना अभियान राजनीति से जुड़े विषय से हटकर समाज में फैले अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और भेदभाव मिटाने के लिये प्रारंभ करना चाहिए। हालांकि यह कहना कठिन है कि इसके लिये उनको प्रायोजक मिलेगा या नहीं। एक बात तय रही कि बिना प्रायोजन के ऐसे आंदोलन चल नहीं सकते।
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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

बाबा रामदेव की योग शिक्षा जल्दी प्रारंभ होने की कामना-हिन्दी लेख


         यह अच्छी बात है कि बाबा रामदेव ने अंततः संत समुदाय के कहने पर अनशन का त्याग दिया। वह देश में भारत स्वाभिमान यात्रा करते रहे हैं। उन्होंने इस दौरान अपने योग शिविरों का उपयोग भ्रष्टाचार तथा कालेधन के मुद्दे पर भाषण देने के लिये भी किया। हमारे जैसे योग साधकों के लिये बाबा रामदेव एक योग प्रचारक के कारण हमेशा ही दिलचस्पी का विषय रहे हैं। यह बात तो उनके आलोचक भी मानते हैं कि योग के प्रचार में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। जब बाबा ने राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की तो यकीनन उनको आधुनिक लोकतंत्र व्यवस्था में विरोधियो का सामना करने के लिये तैयार होना चाहिए था। ऐसा लगता है कि वह योग शिविरों में अपनी जयजयकार के ऐसे अभ्यस्त हो गये हैं कि उनको इस बात का अनुमान नहीं था कि अंततः लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधियों का सामने होना न केवल स्वाभाविक वरन् आवश्यक भी है।
       ऐसा लगता है कि स्वामी रामदेव ने भी राजनीति की तरफ कदम बिना किसी शास्त्र का अध्ययन किये ही बढ़ाया है। ऐसा ही दूसरे लोग भी कर रहे हैं अंततः कम से कम एक बात तय रही है कि राजनीतिक विषय पर वह आमजन जैसे ही हैं यह अलग बात है कि योग शिक्षा का अध्यात्म से जुड़े होने के कारण वह प्रसिद्धि हो गये और इसी कारण राजनीति उनके लिये सुविधाजनक हो गयी है। वह भले ही भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की बात करते हैं पर लगता है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा चाणक्य नीति का अध्ययन उन्होंने अभी नहीं किया है। इन महापुरुषों की रचनायें न केवल राजनीति बल्कि जीवन में सुचारु रूप से आगे बढ़ने का ऐसा संदेश देती हैं जिनकी सच्चाई उनको पढ़कर देखा जा सकता है। इनको पढ़कर सभी राजनेता बने यह जरूरी नहीं है पर जीवन में भी इनके मंत्रों का उपयोग कर सहज सफलता प्राप्त की जा सकती है। श्रीमद्भागवत गीता, पतंजलि योग साहित्य, कौटिल्य का अर्थशास्त्र और चाणक्य नीति ऐसी पावन रचनायें हैं जिनके अध्ययन से राजनीति ही नहीं वरन् जीवन के गूढ़ रहस्यों का भी पता चलता हैं।
        बाबा रामदेव अभी अपने अध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से बहुत परे दिखते हैं। इन नौ दिनों में बाबा रामदेव के व्यक्त्तिव की पूरी गहराई का पता लग गया है। अभी तक योग तक ही सीमित होने के कारण वह देश के अनेक ऐसे योग साधकों और लेखकों के भी वह प्रिय रहे थे जो उनके शिष्य नहीं है। उस समय तक बाबा का व्यक्त्तिव उनके आभामंडल तथा लोगों के विश्वास के कारण ढंका हुआ था। अब इन नौ दिनों में बाबा रामदेव टीवी चैनलों और अखबारों में इतने छाये रहे हैं कि उनके वह समर्थक जो निष्पक्ष योग साधक और बुद्धिजीवी हैं उनके साथ जुड़े घटनाक्रमों के दौरान अन्य लोगों की क्रियाओं से अधिक स्वामी रामदेव पर अपना ध्यान केंद्रित किये हुए थे। बाबा रामदेव का चेहरा के हावभाव, हाथ पांव की क्रियायें और वाणी के स्वरों का अध्ययन वह लोग करते रहे जो उनके साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़े हैं। इनमें से अनेक निराश भी हुए होंगे तो कुछ लोगों के चिंतन में बदलावा भी आया होगा।
         इंटरनेट पर बाबा रामदेव को हमेशा ही बहुत समर्थन मिला मगर अब शायद इसकी संभावना नहीं लगती। ऐसे में इंटरनेट पर सक्रिय एक दो ऐसे ब्लाग लेखकों के पाठ याद आ रहे हैं जो बाबा की योग शिक्षा पर तमाम तरह की प्रतिकूल टिप्पणियां करते थे। उससे भी अधिक वह उनके बाज़ार और प्रचार के मुखौटे होने का आरोप भी लगाते थे। इतना ही नहीं उनकी योग शिक्षा के प्रमाणिक होने पर भी सवाल उठाते थे। कुछ लोग उनके विरुद्ध कड़ी टिप्पणियां लिखते तो कुछ उनको समझाते। कुछ तो उनको धमकाते भी थे। इसके अलावा कुछ लोग उनकी उपेक्षा भी करते थे कि वह तो उनकी आलोचना करने वाले ही ठहरे। इन नौ दिनों में उन ब्लाग लेखकों की आलोचना में दम दिखने लगा। अब यह अलग बात है कि उस समय बाबा की योग शिक्षा के बाज़ार और प्रचार से प्रायोजित होने की बात यह सोचकर छोड़ दी जाती थी कि आखिर कोई व्यक्ति तो है जो भारतीय योग विधा का प्रचार कर रहा है। अंग्रेजी पद्धति के इलाज की आलोचना करने वाले बाबा रामदेव को अपने हठ की वजह से आखिर उस अस्पताल में जाना पड़ा जहां उसी पद्धति के चिकित्सक थे। इसी पद्धति से उनके अंदर भोजन की कमी को पूरा किया गया। उनकी देह के अनेक नकारात्मक पक्ष सामने आये। ऐसे में जब भारतीय योग पद्धति पर सवाल उठे तो चिंता हुई पर टीवी चैनलों पर कुछ योगाचार्यों ने आकर उसका बचाव किया और तय बात है कि उनको बाबा रामदेव की योग शिक्षा पर सवाल उठाने ही थे। उन योगाचार्यों की बात से इसका आभास तो हो गया कि उन्होंने पतंजलि योग का न केवल अध्ययन किया बल्कि उनका अभ्यास भी अच्छा है। एक महिला योगाचार्य ने बताया कि भारतीय योग के अनुसार प्रयास रहित आसन और प्राणायाम होते हैं। सांस सहजता से ली और छोड़ी जाती है। आसन करते समय अपना ध्यान अंदर चक्रों पर केंद्रित किया जाता है। उछलकूद वाले आसन भारतीय योग का भाग नहीं है। बाबा की योग शिक्षा के दौरान आसन और प्राणायाम के कराते समय ध्यान को अनदेखा किया जाता है।
        बाबा को कई बार अपने आसानों के दौरान हांफते हुए देखा जाता है जो कि नियमित अभ्यासरत योगाभ्यास करने वालों के लिये पीड़ादायक दृश्य होता हेै। हमने यह बात पहले भी लिखी थी कि जब बाबा के साथ जब एक योगाभ्यासी होता और बाबा आसन बोलते जाते थे और वह करता था तब ही तक सब ठीक था। बाद में पता लगा कि वह बाबा का गुरुभाई था जिसे उन्होंने हटा दिया। उस समय ऐसा लगा कि मतभेदों के कारण हटाया गया होगा पर अब लगता हैं कि बाबा अपने को एक सक्रिय सन्यासी साबित करने के लिये स्वयं ही योगासन करते दिखते हैं। वह आसन करने के बाद हांफते हुए बोलते हैं। यह योग साधना के विपरीत आचरण हैं। किसी भी तीव्रतर आसन करने के बाद शवासन या शिथिलासन करने का नियम है जिसका पालन वह नहीं करते। सच बात तो यह है कि वह योगासनों को व्यायाम की तरह बनाने में लगे हैं। टीवी चैनलों पर बाबा रामदेव की शिक्षा पर आलोचना करने वाले लोग योग साधना के अच्छे जानकार लगे इसलिये उनकी आलोचना को अनदेखा नहीं कर सकते।
      वैसे तो बाबा के विरोधियों ने भी यह कामना की है कि वह जल्दी लोगों को योगासन सिखाना शुरु करने योग्य हो जायें पर जिन लोगों की भारतीय योग साधना में दिलचस्पी है वह यकीनन बाबा रामदेव की योग शिक्षा पर सवाल उठायेंगे। इसका कारण यह है कि भारतीय योग विधा को जितना बाबा रामदेव ने प्रसिद्ध किया उतने ही सवाल उन्होंने अपने अनशन के दौरान उस पर उठने भी दिये। बाबा अपने भ्रष्टाचार और कालेधन विरोधी अभियान को जारी रखें या नही यह अब एक शुद्ध रूप से राजनीतिक विषय हो गया है। सामयिक लेखकों के लिये यह विषय बहुत दिलचस्प हो सकता है पर भारतीय योग साधना के लिये प्रतिबद्ध योगाचार्यों और साधकों के लिये अब यह जरूरी होगा कि वह योगासन, प्राणायाम और ध्यान के प्रमाणिक प्रचार के लिये प्रयास करें। दूसरी बात यह भी सिद्ध हो गया है कि देशभर में जितने भी योग शिक्षा के प्रसिद्ध आचार्य हैं वह कहीं न कहीं बाज़ार और प्रचार के शिखर पुरुषों से प्रायोजित हैं। उनकी प्रतिबद्धतायें प्रत्यक्ष रूप से भारतीय अध्यात्मिक प्रचार के लिये भले ही दिखती हों पर वास्तव में अपने उन प्रायोजकों के संकेतों पर ही काम करते हैं जिनका व्यवसाय भारतीय अध्यात्म में वर्णित वस्तुओं के निर्माण से है। त्वरित गति से पैसे, प्रतिष्ठा और पद-यथा महंत, स्वामी, बाबा, बापू,और आचार्य- के शिखर पर बैठने के लिये वह धर्मग्रंथों से कुछ श्लोक उठा लेते हैं और उसी आधार पर वह अपने धार्मिक अभियान पर चल पड़ते हैं जो कालांतर में पता लगता है कि किसी धनस्वामी के उत्पादों के-यथा दवा, चाय, च्यवनप्राश, शहद, पत्रिका, सौदर्य प्रसाधन तथा भोज्य पदार्थ- प्रचार के लिये था।
     हालांकि निराश होने वाली बात नहीं है। भारतीय योग संस्थान जैसे अनेक संगठन हमारे देश में हैं जो न केवल प्रमाणिक रूप से पतंजलि योग सूत्र के आठों अंगों का ज्ञान देने और अभ्यास कराने का काम निष्काम भाव से कर रहे हैं। अनेक योगाचार्य और शिक्षक भी निरंतर इस काम को जारी रखे हुए हैं। हम बाबा रामदेव के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं। एक सामान्य मौलिक स्वतंत्र लेखक तथा योग साधक होने के नाते हम तो यही चाहते हैं कि बाबा अपना योग शिक्षण अभियान जारी रखें। साथ ही यह भी बता दें कि योग शिक्ष से इतर उनकी गतिविधियों में उनके योगाभ्यास का अगर सकारात्मक परिणाम नहीं दिखता लोग उनकी योगशिक्षा में भी दोष ढूंढने लगेंगे जो अब तक नहीं हुआ था।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

राष्ट्रमंडल खेल तमाशे की तरह लगते हैं-हिन्दी लेख (commanwelth game in newdelhi-hindi article)


दिल्ली में होने वाले कॉमनवैल्थ तमाम कारणों से चर्चा में है। जिस तरह वहां निर्माण कार्य हुआ है और तैयारी चल रही है उससे विदेशों से आये प्रतिनिधिमंडल संतुष्ट नहीं है तो भारत में अनेक खेल विशेषज्ञ तमाम तरह के सवाल उठा रहे हैं। बहरहाल हम यहां कॉमनवैल्थ खेलों के महत्व की ही चर्चा करेंगे जिसको बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है।
देश में खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों की कमी नहीं है। दुनियां के प्रसिद्ध खेलों के -फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज, टेनिस, टेबल टेनिस, बैटमिंटन तथा हॉकी-प्रशंसकों की यहां भरमार है। इसके अलावा भी कम लोकप्रिय खेलों में भी दिलचस्पी है। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि बहुत कम खेल प्रेमी हैं जिनकी दिलचस्पी राष्ट्रमंडल खेलों में होगी। दिल्ली में खेल होंगे इसलिये भारत के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा अखबार-इसका प्रचार खूब करेंगे पर यकीनन दर्शकों की दिलचस्पी उनमें कम ही होगी। भारत में अगर विज्ञापन और प्रायोजक कंपनियों को ध्यान रखने की बजाय आम दर्शक और पाठक को देखकर कार्यक्रमों का प्रसारण तथा समाचार का प्रकाशन हो तो संभव है कि कोई माध्यम इनको प्रसारित करने का जोखिम नहीं उठायेगा। लोगों के पास मनोरंजन के साधन अधिक हैं पर उनकी रुचियां सीमित हैं इसलिये ही क्रिकेट जैसे खेल को देखते हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। सच तो यह है कि क्रिकेट अब जिंदा ही विज्ञापन तथा कंपनियों की वजह से है।
इसके अलावा हम भारतीयों की आदत है कि कोई भी द्वंद्व तो देखने में रुचि तो रखते हैं पर महारथियों का स्तर भी देखना नहीं भूलते। इसलिये खेल की दुनियां में महारथ रखने वाले अमेरिका, चीन, सोवियत संघ, जापान तथा जर्मनी जैसे राष्ट्रों की अनुपस्थिति इन खेलों का महत्व स्वाभाविक रूप से कम कर देती है। दूसरी बात यह भी है कि राष्ट्रवादी खेल प्रेमियों के लिये कॉमनवैल्थ खेलों का आयोजन करता तो दूर की बात इनमें शामिल होना भी अंग्रेजों की गुलामी ढोने जैसा है क्योंकि इसमें केवल वही देश शामिल होते हैं जो कभी ब्रिटेन के गुलाम रहे हैं। जो लोग इन खेलों के आयोजन से विश्व में भारतीय की छबि अच्छी होने के दावे कर रहे हैं उन्हें यह बात याद रखना चाहिए कि गुलाम की कभी छबि अच्छी नहीं होती। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय क्रिकेट खेल इसमें शामिल नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत अच्छे पदक जीतेगा पर इससे भारतीय खेलप्रेमी ओलंपिक में अपने देश की स्थिति को भुला नहीं सकते जहां एक स्वर्ण पदक जीतने के बाद दूसरा नसीब नहीं हुआ और कांस्य या रजत पदक के टोटे पड़ गये। दूसरी बात यह है कि जो राष्ट्रमंडल के आयोजन से देश में खेल तथा खिलाड़ियों के विकास की बात कर रहे हैं वह यह भी बता दें कि पिछले आयोजन के बाद कितना विकास हुआ? उल्टे पाकिस्तानी ने हॉकी में इतनी बुरी शिकस्त दी कि उसकी कड़वी यादें भुलाने में भी समय लगा। कॉमनवैल्थ के दौरान ही अगर कोई बीसीसीआई की टीम कहीं क्रिकेट मैच खेलती हो तो फिर शायद प्रचार माध्यम भी इसे महत्व न दें।
जहां तक खेलों के विकास की बात है तो वह पैसे खर्च कर नहीं  आता। देश का इतना पैसा इन खेलों पर खर्च हो रहा है पर इससे उनमें विकास होगा यह सोचना भी बेकार है क्योंकि इधर अपने देश के ही खिलाड़ी धनाभाव की शिकायत कर रहे हैं। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाये बगैर कभी खेलों का विकास नहीं हो सकता। यह सही है कि पैसा सब कुछ नहीं होता पर वह आदमी में आत्मविश्वास का पैदा करने वाला एक बहुत बड़ा तत्व है।
कहने का मतलब यह है कि इन खेलों का आयोजन भारत में हो या बाहर भारतीय खेल प्रेमियों की इनमें दिलचस्पी कम ही है। इसलिये यह आशा करना ही व्यर्थ है कि इससे खेलों का विकास होगा या खिलाड़ियों का मनोबल ऊंचा उठेगा। यह पता नहीं बाकी देशों में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों की क्या स्थिति रहती है पर अपने देश के खेल प्रेमी इसमें यही सोचकर शामिल होंगे कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। कहने का मतलब यह कि उनमें परायेपन का ऐसा बोध रहेगा। इस बात को वही आदमी समझ सकता है जो स्वयं खिलाड़ी हो या खेल प्रेमी हो। उनके लिये यह आयोजन गुलामी के तमाश से अधिक कुछ नहीं है
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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‘कामरेड’ का टूट गया तिलिस्म-हिन्दी लेख


आखिर कामरेड शब्द का तिलिस्म टूट गया। कहना कठिन है कि चीन में साम्यवादी व्यवस्था एकदम खत्म हो जायेगी पर इतना तय कि कामरेड शब्द से पीछा छुड़ाना इसकी एक शुरुआत का संकेत हो सकती है। मार्क्सवाद पर आधारित विचारधाराओं का आधार केवल नारे और वाद हैं और कामरेड संबोधन उनकी पहचान है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार चीन में अब बसों तथा होटलों में काम करने वालों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि वह अपने ग्राहकों को ‘कामरेड’ की बजाय ‘सर’ या ‘मैडम’ कहकर संबोधित करें।
भारत की आधुनिक संस्कृति में भी यह शब्द बहुत प्रचलित है और यह कहना कठिन है कि इसे पूर्व सोवियत संघ से आयात किया गया या चीन से। कामरेड शब्द जनवादी सस्थाओं से जुड़े कार्यकताओं के लिये उपयेाग में किया जाता है। यही कार्यकर्ता अपने साथ व्यवहार करने वालों को ‘कामरेड’ कहकर संबोधित करते हैं।
विपरीत धारा का लेखक होने के बावजूद अनेक ‘कामरेड’ हमारे मित्र रहे हैं। एक समय था जब इन ‘कामरेडों’ की बैठक चाय तथा कहवाघरों पर हुआ करती थी। अनेक पत्र पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपते थे जिसमें लेखक इन बातों का जिक्र करते थे कि चाय तथा कहवाघरों में उनकी जनवादी लेखकों के साथ मुलाकत होती है। कई लोग तो चाय तथा कहवाघरों पर ही कविता लिख देते थे। इसके अलावा मजदूर तथा कर्मचारी संगठनों में लंबे समय तक वामपंथी विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा है इसलिये ‘कामरेड’ शब्द का संबोधन आम हो गया है।
हमारी साहित्यक यात्रा भी प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के साथ चलते हुए निकली है। सबसे पहला कविता पाठ जनवादियों के बीच में किया था तो व्यंग्य प्रगतिशीलों के मध्य प्रस्तुत किया । समय के साथ उनसे संपर्क टूटा पर मित्र आज भी मिलते हैं तो मन गद्गद् कर उठता है।
एक कामरेड की याद आती है। अपने जीवन की अपने पैरों पर शुरुआत एक कामरेड के साथ ही की थी। दरअसल एक अखबार में फोटो कंपोजिंग आपरेटर के रूप में हमारा चयन हुआ-यह समय वह था जब भारत में कंप्यूटर की शुरुआत हो रही थी और हम चार लड़के ग्वालियर से भोपाल प्रशिक्षु के रूप में गये। उसमें एक वासुदेव शर्मा हुआ करता था। शुद्ध रूप से जनवादी। साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद का धुर विरोधी। प्रशिक्षण के लिये वह हमारे साथ चला। उस समय हम अखबार में संपादक के नाम पत्र लिखते थे। विचारधारा वही थी जो आज दिखती है। वासुदेव शर्मा कोई लेखक नहीं था पर कार्यकर्ता की दृष्टि से उसमें बहुत सारी संभावना मौजूद थी। उससे बहस होती थी। उससे बहस में जनवाद और प्रगतिशील का पूरा स्वरूप समझ में आया। जहां तक व्यवहार का सवाल था वह एकदम स्वार्थी था और अन्य दो से एकदम चालाक! पैसे खर्च करने के नाम पर एकदम कोरा। उसकी बातें जोरदार थी पर लच्छेदार भाषण के बाद भी हमें एक बात पर यकीन था कि वह किसी का भला नहीं कर सकता। उसने एक बार कहा था कि ‘मैं खा सकता हूं पर खिला नहीं सकता।’
समय के साथ हम बिछड़ गये। वासुदेव शर्म से आखिरी मुलाकात 1984 में हुई थी। उसने बताया कि वह वामपंथियों एक प्रसिद्ध अखबार-उसका नाम याद नहीं आ रहा-में काम करता है। अब पता नहीं कहां है। वैसे इस बात की संभावना है कि वह कहीं न कहीं जनवादी संस्था के लिये काम करता होगा।
1984 में हुई उस मुलाकात के समय भी उसका रवैया वैसा ही था इसलिये एक बात समझ में आ गयी कि ‘कामरेड’ नुमा लेखकों या कार्यकर्ताओं से कभी अपनी बनेगी नहीं। मगर यह बात गलत निकली क्योंकि समय के साथ अनेक ‘कामरेड’ संपर्क में आये। एक मजदूर नेता तो हमारे व्यंग्यों की प्रशंसा भी करते थे। एक दिन तो उन्होंने हमारे एक चिंतन की सराहना की जो शुद्ध रूप से भारतीय अध्यात्म पर आधारित था।
इन कामरेडों ने हमेशा ही हमारे लिखे की तारीफ की जहां विचारधारा की बात आई तो वह रटी रटी बातें करते रहे। अमेरिका का धुर विरोध करना धर्म तथा पहले सोवियत संध और अब चीन का विकास उनके लिये एक आदर्श रहा है। एक ‘कामरेड’ मित्र तो हमसे मिलते तो ‘कामरेड’ शब्द से ही संबोधित करते थे अलबत्ता हम उनके उपनाम से ही बुलाते क्योंकि हमें ‘कामरेड’ शब्द का उपयेाग कभी सुविधाजनक नहीं लगा।
चूंकि विचाराधाराओं के लेखकों की धारा उनके राजनीतिक पैतृक संगठनों के अनुसार प्रवाहित होती है और इसलिये उनके उतार चढ़ाव के अनुसार वह हिचकौले खाते हैं। इस समय अपने देश के सभी प्रकार के विचाराधारा लेखक एक अंधियारे गलियारे में पहुंच गये हैं। इसका कारण यह है कि पैतृक संगठनों के अनुयायी है उनसे अपेक्षित परिणाम या जन कल्याण की अपेक्षा अब वह नहीं करते।
वैसे अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन में यह अनुभव हो रहा है कि विचारधारा के लेखक भले ही अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप लिखने का प्रयास कर रहे हैं पर अपने पैतृक संगठनों की स्थिति से निराश होने के कारण जन कल्याण, भाषाई विकास तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मुद्दे पर सभी एक हो रहे हैं। कई बार ‘कामरेड’ और ‘जी’-कुछ संगठनों मे नाम के साथ जी लगाकर संबोधित किया जाता है-अनेक मुद्दों पर एकमत हो जाते हैं मगर यह सभी इंटरनेट की वजह से है। परंपरागत प्रचार प्रसार माध्यमों-टीवी चैनल, समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं-में बुद्धिजीवियों का रवैया यथावत क्योंकि वह इसीके लिये प्रायोजित हैं।
बात ‘कामरेड’ के तिलिस्म टूटने की है तो एक हमारी स्मृति के कुछ दिलचस्प बातें हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जितने भी ‘कामरेड’ मिले उनमें से अधिकतर जातीय दृष्टि ये उच्च और प्रबुद्ध थे। जिस जाति पर पूरे धर्म पर बौद्धिक मार्गदर्शन का जिम्मा माना जाता है उनमें से ही कुछ ‘कामरेड’ थे। स्थिति यह कि उनके विरोधी विचारधारा वाले भी स्वजातीय। यहां यह बता दें कि इस लेखक के पूर्वज अविभाजित भारत के उस हिस्से से आये जो पाकिस्तान में शामिल है। परंपरागत जातीय प्रतिस्पर्धा से दूर होने के कारण इस लेखक को हर जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश तथा समूह में ढेर सारे दोस्त मिले-दिल्ली, कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडू, पंजाब और हरियाणा तथा अन्य प्रदेश तो पंजाबी, गुजराती, मलयालम, तमिल, मराठी, उड़ियाई तथा मैथिली तथा अन्य भाषाओं से जुड़े मित्रों का मिलना अपने आप में गौरव पूर्ण बात लगती है। उनसे प्रेम मिलने का कारण व्यवहार रहा तो सम्मान का कारण केवल लेखन रहा। इस पर श्रीमद्भागवत्गीता ने समदर्शी बना दिया तो भेद करना अपराध जैसा लगता है।
आखिरी मजे की बात यह है कि एक प्रबुद्ध जातीय ब्लाग लेखक ने ही चीन पर लिखे गये एक पाठ पर लिखा था कि ‘चीन में भी साम्यवाद की आड़ में बड़ी जातियों का ही स्वामित्व कायम हुआ है। इसलिये वहां भी जातीय तनाव होते हैं और तय बात है कि निम्न जातियों को ही उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।’
वह ब्लाग लेखक आज भी सक्रिय है और उसकी बात की अपने ढंग से व्याख्या करें तो चीन के ‘कामरेड’ भी शायद वहां की उच्च और प्रबुद्ध जातीय समूहों के सदस्य ही बने होंगे-नुमाइश के लिये उन्होंने भी निम्न जातियों से भी लोग लिये होंगे। अब भारत में समय बदल रहा है तो चीन भी उससे बच नहीं सकता। परंपरागत जातीय तनाव इस समय भारत में चरम पर हैं क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता के सामने उनका अस्तित्व लगभग समाप्ति की तरफ है। अंतद्वंद्व में फंसा समाज है और बुद्धिजीवी परंपरागत रूप से बहसें किये जा रहे हैं। अलबत्ता समाजों का बनना बिगड़ना प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है और बुद्धिजीवियों को लगता है कि वह इसमें कोई भूमिका निभा सकते हैं जो कि सरासर भ्रम है। यही शायद चीन में हो रहा है और ‘कामरेड’ का भ्रम शायद इसलिये टूटता नज़र आ रहा है।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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मजदूर दिवस-श्रमिकों के साथ सम्माजनक व्यवहार करें (mazdoor divas, diwas or may day-a special hindi article


भारत में मजदूर दिवस मनाने की कोई परंपरा नहीं है, अलबत्ता यहां विश्वकर्मा जयंती मानी जाती है जिसे करीब करीब इसी तरह का ही माना जा सकता है। यह पाश्चात्य सभ्यता द्वारा प्रदाय अधिकतर दिवसों को खारिज करता है यथा माता दिवस, पिता दिवस, मैत्री दिवस, प्र्रेम दिवस तथा नारी दिवस। मजदूर दिवस भी पश्चिम से ही आयातित विचारधारा से जुड़ा है पर इसे मनाने का समर्थन करना चाहिये।  दरअसल इसे तो बहुत शिद्दत से मनाना चाहिए। 
आधुनिक युग में कार्ल मार्क्स को मजदूरों का मसीहा कहा जाता है। उनके नाम पर मजदूर दिवस मनाया जाता है तो इसमें मजदूर या श्रम शब्द जुड़ा होने से संवेदनायें स्वभाविक रूप जाग्रत हो उठती हैं।  एक बात याद रखिये आज  भारत में जो हम नैतिक, अध्यात्म, तथा तथा देशप्रेम की भावना का अभाव लोगों में देख रहे हैं वह शारीरिक श्रम को निकृष्ट मानने की वजह से है।  हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी चाहता है और शारीरिक श्रम करने से शरीर में से  पसीना निकलने से घबड़ा रहे हैं।  भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों की प्रकार के  स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि शरीर को जितना चलायेंगे उतना ही स्वस्थ रहेगा तथा जितना सुविधाभोगी बनेंगे उतनी ही तकलीफ होगी। 
सबसे बड़ी बात यह है कि गरीब और श्रमिक को तो एक तरह से मुख्यधारा से अलग मान लिया गया है।  संगठित प्रचार माध्यमो में-टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं-इस तरह के प्रसारण तथा प्रकाशन देखने को मिलते हैं जैसे कि श्रम करना एक तरह से घटिया लोगों का काम है।  संगठित प्रचार माध्यमों को इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह आधुनिक बाज़ार के विज्ञापनों पर ही अपना साम्राज्य खड़े किये हैं। यह बाजार सुविधाभोगी पदार्थों का निर्माता तथा विक्रेता है। स्थिति यह है कि फिल्म और टीवी चैनलों के अधिकतर कथानक अमीर घरानों पर आधारित होते हैं जिसमें नायक तथा नायिकाओं को मालिक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।  उनमें नौकर के पात्र भी होते हैं पर नगण्य भूमिका में। क्हीं नायक या नायिका मज़दूर या नौकर की भूमिका में दिखते हैं तो उनका पहनावा अमीर जेसा ही होता है।  फिर अगर नायक या नायिका का पात्र मजदूर या नौकर है तो कहानी के अंत में वह अमीर बन ही जाता है।  जबकि जीवन में यह सच नज़र नहीं आता।  ऐसे अनेक उदाहरण समाज में  देखे जा सकते हैं कि जो मजदूर रहे तो उनके बच्चे भी मज़दूर बने।  आम आदमी इस सच्चाई के साथ जीता भी है कि उसकी स्थिति में गुणात्मक विकास भाग्य से ही आता है
कार्ल मार्क्स मजदूरों का मसीहा मानने पर विवाद हो सकता है पर पर देश के बुद्धिमान लोगों को अब इस बात के प्रयास करना चाहिये कि हमारी आने वाली पीढ़ी में श्रम के प्रति रूझान बढ़े। यहां श्रम से हमारा स्पष्ट आशय अकुशल श्रम से है-जिसे छोटा काम भी कहा जा सकता है। कुशल श्रम से आशय इंजीनियरिंग, चिकित्सकीय तथा लिपिकीय सेवाओं से है जिनको करने के लिये आजकल हर कोई लालायित है।  इसी अकुशल श्रम को सम्मान की तरह देखने का प्रयास करना चाहिये।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पास या साथ काम करने वाले श्रमजीवी को कभी असम्मानित या हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। मनुष्य मन की यह कमजोरी है कि वह धन न होते हुूए भी सम्मान चाहता है।  दूसरी बात यह है कि श्रमजीवी मजदूरों के प्रति असम्माजनक व्यवहार से उनमें असंतोष और विद्रोह पनपता है जो कालांतर में समाज के लिये खतरनाक होता है।  यही श्रमजीवी और मजदूरी ही धर्म की रक्षा में प्रत्यक्ष सहायक होता है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सभी को समान दृष्टि से देखने की बात कही जाती है।    इस विषय पर दो वर्ष पूर्व एक लेख यहां प्रस्तुत है। इसी लेख को कल सैकंड़ों पाठकों द्वारा देखने का प्रयास किया इसलिये इसे इस पाठ के नीचे भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे दर्शन में मजदूरों के लिए कोई सन्देश नहीं है पर उसमें मनुष्य में वर्गवाद के वह मन्त्र नहीं है जो समाज में संघर्ष को प्रेरित करते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो उसमें पूंजीपति मजदूर और गरीब अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का सन्देश है। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
न द्वेष्टयकुशर्ल कर्म कुशले नातुषज्जजते।
त्यागी सत्तसमाष्टिी मेघावी छिन्नसंशयः।।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”

श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
स्वै स्वै कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।
सव्कर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
अपने अपने स्वाभाविक कार्ये में तत्परता से लगा मनुष्य भक्ति प्राप्त करते हुए उसमें सिद्धि प्राप्त लेता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि प्राप्त करता है उस विधि को सुन।

यतः प्रवृत्तिभूंतानां वेन सर्वमिद्र ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्तपति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है ।
श्री गीता में ही हेतु रहित दया का सन्देश तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्री माने जाते है जिन के विचारों पर गरीबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”।
शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं तो कहीं न कहीं समाज में विघटन के बीज बोते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीगीता में अपने स्वाभाविक कर्मों में अरुचि न दिखाने का संदेश दिया गया है। सीधा आशय यह है कि कोई भी काम छोटा नहीं है और न तो अपने काम को छोटा और न किसी भी छोटा काम करने वाले व्यक्ति को हेय समझना चाहिये। ऐसा करना बुद्धिमान व्यक्ति का काम नहीं करना चाहियैं। कई बार एसा होता है कि अनेक धनी लोग किसी गरीब व्यक्ति को हेय समझ कर उसकी उपेक्षा करते हैं-यह तामस प्रवृत्ति है। उसी तरह किसी की मजदूरी कम देना या उसका अपमान केवल इसलिये करना कि वह गरीब है, अपराध और पाप है। हमेशा दूसरे के गुणों और व्यवहार के आधार पर उसकी कोटि तय करना चाहिये।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है उसके व्यवसाय और आर्थिक शक्ति पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था पर वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।
कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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क्रिकेट प्रतियोगिता के लाभार्थियों के नाम जानना भी जरूरी-हिन्दी लेख (cricket and terrism-hindi article)


आखिर सच कहने में बुद्धिजीवी लोग डर क्यों रहे हैं? विश्व भर में फैला आतंकवाद-चाहे भले ही वह जाति, भाषा, धर्म तथा क्षेत्रवाद का लबादा ओढ़े हुए हो-अवैध धन के सहारे चल रहा है। कहीं कहीं तो उसके सरगना स्वयं ही अवैध धंधों  में  लिप्त हैं और कहीं ऐसे धंधे  करने वालों से सुरक्षा और न्याय प्रदान कर फीस के रूप में भारी धन वसूल करते हैं।
अभी भारत में क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में विदेश स्थित एक माफिया के पैसा लगे होने की बात सामने आ रही है। एक पूर्व सरकारी अधिकारी ने तो यह तक आरोप लगा दिया कि इस प्रतियोगिता में  शामिल टीमों के स्वामी उस माफिया के एजेंट की तौर पर काम कर रहे हैं जिस पर देश के अन्दर आतंकवादियों को आर्थिक सहायता देने का आरोप है।
सच तो यह है कि संगठित प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकायें-जहां इस प्रतियोगिता के विज्ञापनों से लाभान्वित होकर इसे अधिक महत्व दे रहे हैं पर उंगलियां इशारों में उठा रहे हैं। इस प्रतियोगिता में काले पैसे को सफेद करने के प्रयास तथा मैचों पर सट्टेबाजों की पकड़ होने के आरोप इन्हीं प्रचार माध्यमों में लगे हैं। मगर यह काफी नहीं है। धन कहां से आया इस पर तो कानून की नज़र है पर अब इस बात पर भी चर्चा करना चाहिये कि यह धन जा कहां रहा है। जो लोग प्रत्यक्ष इससे लाभान्वित हैं उन पर सरकार के आर्थिक विषयों से संबंधित विभाव कार्यवाही करेंगे पर जिनको अप्रत्यक्ष से लाभ मिला उनको देखा जाना भी जरूरी है।
जिन अपराधियों और माफियाओं पर भारत में आतंकवाद के प्रायोजित होने का आरोप है उन्हीं का पैसा इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में लगे होने का आरोप है। इसका आशय यह है कि वह यहां से पैसा कमा कर फिर आतंकवादियों को ही देंगे। जिन सफेदपोशों पर इन माफियाओं से संबद्ध होने का आरोप है स्पष्टतः वह भी इसी दायरे में आते हैं।
याद रखिये अमेरिका में 9/11 हमले में कल्कत्ता के अपहरण कांड में वसूल की गयी फिरौती का धन लगने का भी आरोप लगा था। उसके बाद भारत में भी 26/11 के हमले में भी हमलावारों को माफिया और अपराधी के द्वारा धन और हथियार देने की बात सामने आयी। जब भारत में आतंकवाद फैलाना तथा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से संबंध रखना अपराध है तब आखिर वह सफेदपोश लोग कैसे उससे बचे रह सकते हैं। इस तरह की चर्चा में संगठित प्रचार माध्यम इन सफेदपाशों पर इस तरह उंगली उठाने से बच रहे हैं क्योंकि यह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष रूप से उनके विज्ञापनों का आधार है। जब किसी आतंकवादी की सहायता को लेकर कोई सामान्य आदमी पकड़ा जाता है तो उसकी खूब चर्चा होती है पर जिन पर आतंकवादियों के घोषित भामाशाह के होने का आरोप है उनसे प्रत्यक्ष साझेदारी के संबंध रखने वालों की तरफ कोई भी उंगली नहीं  उठती। इतना ही नहीं उस अपराधी के दरबार में नृत्य कर चुके अनेक अदाकार तो जनप्रतिनिधि होने का भी गौरव प्राप्त कर चुके हैं।
संगठित प्रचार माध्यमों के ही अनुसार इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता से देश के अनेक युवक सट्टा खेलकर बर्बाद हो रहे हैं। इस पर चिंता होना स्वाभाविक है। अगर प्रतियोगिता में ऐसा हो रहा है तो उसे रोका जाना चाहिए। मगर इस बात की भी जांच करना चाहिए कि इसका लाभ किसे मिल रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस देश में कहीं कोई आर्थिक लेनदेन करने पर अपना सरकार की नज़र से छिपाने का प्रयास नहीं  करना चाहिऐ। विनिवेश गुप्त रखना वह भी राज्य से कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। दान गुप्त हो सकता है पर देने वाला अपना नाम रख सकता है लेने वाले को इससे बरी नहीं किया जा सकता। जिस तरह इन टीमों के स्वामियों के नाम पर गोपनीयता बरती गयी हैं वह उसे अधिक संदेहपूर्ण बनाती है। कथित रूप से क्रिकेट को सभ्य लोगों का खेल कहा जा सकता है पर इसके धंधेबाज केवल इसलिये सभ्य नहीं हो जाते।
जिस तरह संगठित प्रचार माध्यम इस घटना पर नज़र रखे हुए हैं और केवल आर्थिक पक्ष पर ही अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं उससे तो लगता है कि उनमें अनुभव की कमी है या अपने सफेदपोश दानदाताओं-अजी, इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में कथित रूप से चैरिटी भी शामिल की गयी है इसलिये हम विज्ञापनदाताओं को इस नाम से भी संबोधित कर सकते हैं-के मासूम चेहरे देखकर आतंक जैसा घृणित शब्द उपयोग  करने से बच रहे हैं। जबकि सच यही है कि अगर इस प्रतियोगिता में काला धन है, काले लोग कमाई कर रहे हैं और सफेदपोश उनके अभिकर्ता की तरह काम रहे हैं तो यह भी देखा जाना चाहिए कि उनकी कमाई का हिस्सा आतंकवादियों के पास भी जाता है। कभी कभी यह बात अपने सफेदपोशों को बता दिया करें कि उनकी इस मासूम चेहरे पर हमेशा ही नहीं पिघला जा सकता है क्योंकि जिस काले आदमी से उनके संबंधों की बात आती है और हर कमाऊ धंधे में उसका नाम जुड़े होने के साथ ही उस आतंकवादियों का प्रायोजक होने की भी आरोप हैं।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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आर्थिक और बौद्धिक विकास के साथ बढ़ता अपराध-हिन्दी लेख (devlopment and crime-hindi article)


क्या गजब समय है। पहले लूट की खबरें अखबारों में पढ़ते थे। फिर टीवी चैनलों पर यह लुटने वाले लोगों के और कभी कभी लुटेरों के बयान सुनते और देखते थे। अब तो लूट के दृश्य बिल्कुल रिकार्डेड देखने को मिलने लगे हैं जो लूट के स्थान पर लगे कैमरों में समा जाते हैं-इनको सी.सी.डी. कैमरा भी कहा जाता है।
पहले जयपुर में और अब मुंबई के एक जौहरी के यहां ऐसे लूट की फिल्में देखने को मिलीं। इस संसार में अपराध कोई नया नहीं है और न ही खत्म हो सकता है पर व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह तो उठते ही है न! कहा जाता है कि
इधर उधर की बात न कर, बता यह काफिले क्यों लुटे,
राहजनों की राहजनी का नहीं, रहबर की रहबरी का सवाल है।
दूसरी बात यह है कि अपराध के तौर तरीके बदल रहे हैं। उससे अधिक बदल रहा है अपराध करने वाले वर्ग का स्वरूप! पहले जब हम छोटे थे तब चोरी, डकैती, तथा पारिवारिक मारपीट के अपराधों में उस वर्ग के लोगों के नाम पढ़ने और सुनने को मिलते थे जिनको अशिक्षित, निम्न वर्ग तथा श्रमिक वर्ग से संबंधित समझा जाता था। अब स्थिति उलट होती दिखती है-शिक्षित, उच्च,धनी वर्ग तथा बौद्धिक समुदाय से जुड़ें लोग अपराधों में लिप्त होते दिख रहे हैं और कथित रूप से परंपरागत निम्न वर्ग उससे दूर हो गया लगता है। कम से कम बरसों से समाचार पत्र पढ़ते हुए इस लेखक का तो यही अनुभव रहा है। ऐसे में देश के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक विकास को लेकर भी तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं।
वैसे एक बात दूसरी भी है कि विकास का अपराध से गहरा संबंध है-कम से कम विकसित पश्चिमी देशों के अपराधों का ग्राफ देखकर तो यही लगता है और भारत के सामान्य लोगों को भी यह सब देखने के लिये तैयार हो ना चाहिए। जब समाज अविकसित था तब लोग मजबूरी वश अपराध करते थे पर विकास होते हुए यह दिख रहा है कि मजबूरी की बजाय लोग एय्याशी तथा विलासिता की चाहत पूरी करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। इधर ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिले कि क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले भी इस तरह के अपराध करने लगे हैं। क्रिकेट के सट्टे का अपराध तथा सामाजिक संकट में क्या भूमिका है इसका आंकलन किया जाना चाहिऐ और स्वैच्छिक संगठनों को इस पर सर्वे अवश्य करना चाहिये क्योंकि जिस तरह समाचार हम टीवी और अखबारों में पढ़ते हैं उससे लगता है कि कहंी न कहीं इसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
जिन लोगों को सी.सी.डी कैमरे पर लूटपाट करते हुए देखा वह कोई लाचार या मजबूर नहंी लग रहे थे। विकास के साथ अपराध आधुनिक रूप लेता है, ऐसा लगने लगा है। विकास होने के साथ समाज के एक वर्ग के पास ऐशोआराम की ढेर सारी चीजें हैं। दूसरी बात यह है कि धन का असमान वितरण हो रहा है। संक्षिप्त मार्ग से धनी बनने की चाहत अनेक युवकों को अपराध की तरफ ले जा रही है। फिर दूसरी बात यह है कि अपराधियों का महिमा मंडन संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा किये जा रहा है जैसे कि वह कोई शक्तिशाली जीव हैं। इधर फिल्मों में अपराधों से लड़ने वाले सामान्य नागरिकों को बुरा हश्र दिखाकर आदमी आदमी को डरपोक बना दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अनेक फिल्में तो अपराधियों के पैसे से उनका रास्ता साफ करने के लिये बनी। यही कारण है वास्तविकस दृश्यों इतने सारे लोगों के बीच अपराधी सभी को धमका रहा है पर कोई उसका प्रतिरोध करने की सोचता नहीं दिखता। अगर ऐसी में भीड़ पांच लोग ही आक्रामक हो जायें तो लुटेरों की हालत पस्त हो जाये पर ऐसा होता नहीं। इसका कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को कायर बनाती है और ऐसे में वह या तो सब कुछ होते हुुए देखता है या करता है। करता इसलिये है कि उसे पता है कि यहां कायरों की फौज खड़ी है और खामोश इसलिये रहता है कि कहीं इस तरह युद्ध करने की प्रेरणा ही लोगों को नहीं मिलती। फिर समाज का ढर्रा यह है कि वह बहादूरों के लिये सम्मानीय न रहा है। अनेक बार देश के सैनिकों की विधवाओं के बुरे हालों को समाचार आते रहते हैं तब मन विदीर्ण हो जाता है। दरअसल अपराध का संगठनीकरण हो गया है और कहीं न कहीं उसे आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य आधारों पर खड़े शिखर पुरुषों का संरक्षण मिल रहा है। अनेक शिखर पुरुष तो सफेदपोश बनकर घूम रहे हैं और उनके मातहत अपराध कर उनकी शरण में चले जाते हैं। ऐसे में सामान्य आदमी यह सोचकर चुप हो जाता है कि घटनास्थल अपराधी को तो यहां निपटा दें पर उसके बाद उसके आश्रयदाता कहीं बदला लेने की कार्यवाही न करें।
सामान्य आदमी की निष्क्रियता के अभाव में ऐसे अपराध रोकना संभव नहीं है क्योंकि सभी जगह आप पुलिस नहीं खड़ा कर सकते। ऐसे में समाज चेतना में लगे संगठनों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस तरह सामान्य नागरिक की भागीदारी अपराधी को रोकने के लिये बढ़े। इसके लिये यह जरूरी है कि अपराध करना या उसको प्रश्रय देना एक जैसा माना जाना चाहिये। इसके साथ ही अपराध रोकने वाली संस्थाओं को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये कि वह अपराधियों से लड़ने वालो नागरिकों को संरक्षण दें तभी विकास दर के साथ अपराधों की बढ़ती दर पर अंकुश लग सकेगा।
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पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों पर दंड का मामला-आलेख (punishment to pakistani cricket player-hindi article)


पैसे का खेल हो या पैसे से खेल हो, दोनों स्थितियों उसके उतार चढ़ाव को समझना कठिन हो जाता है क्योंकि कहीं न कहीं बाजार प्रबंधन उसे प्रभावित अवश्य करता है। हम यहां बात क्रिकेट की कह रहे हैं जो अब खेल बल्कि एक सीधे प्रसारित फिल्म की तरह हो गया है जिसमें खिलाड़ी के अभिनय को खेलना भी कहा जा सकता है। इस चर्चा का संदर्भ यह है कि पाकिस्तान के सात खिलाड़ियों को दंडित कर दिया गया है।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। भारत में आयोजित एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में-जिसमें विभिन्न देशों के खिलाड़ियों को नीलामी में खरीदकर अंतर्राष्ट्रीय होने का भ्रम पैदा किया जाता है-पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया। उस समय पाकिस्तान के प्रचार माध्यमों से अधिक भारतीय प्रचार माध्यमों में अधिक गम जताया गया। अनेक लोगों ने तो यहां तक कहा कि दोनों देशों के बीच मित्रता स्थापित करने वालों के प्रयासों को इससे धक्का लगेगा-जहां धन की महिमा है जिसकी वजह से बुद्धिजीवियों  लोगों की राजनीतिक सोच भी कुंद हो जाती है।
भारतीय फिल्मों एक अभिनेता ने-उसके भी भारतीय फिल्म उद्योग में नंबर होने का भ्रम अक्सर पैदा किया जाता है-तो यहां तक सवाल पूछा था कि आखिर बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने वाले पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये क्यों नहीं खरीदा गया?
दिलचस्प बात यह कि यह अभिनेता स्वयं एक ऐसे ही क्लब स्तरीय टीम का स्वामी है जो इस प्रतियोगिता में भाग लेती है। उसका प्रश्न पूछना एकदम हास्यास्पद तो था ही इस बात को भी प्रमाणित करता है कि धन से खेले जाने वाले इस खेल में वह एक टीम का नाम का ही स्वामी है और उसकी डोर तो बाजार के अदृश्य प्रबंधकों के हाथ में है। बहरहाल अब तो सवाल उन लोगों से भी किया जा सकता है जो बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता विजेता का हवाला देकर पाकिस्तान के खिलाड़ियों को न बुलाने की आलोचना कर रहे थे या निराशा में सिर पटक रहे थे। कोई देश के समाजसेवकों पर तो कोई पूंजीपतियों पर बरस रहा था।
पाकिस्तान ने एक ही झटके में सात खिलाड़ियों को दंडित किया है। इनमें दो पर तो हमेशा के लिये ही अतंराष्ट्रीय प्रदर्शन पर रोक लगा दी है। आधिकारिक रूप से टीम के आस्ट्रेलिया में कथित खराब प्रदर्शन को जिम्मेदार बताया गया है। कुछ अखबारों ने तो यहां तक लिखा है कि इन पर मैच फिक्सिंग का भी आरोप है-इस पर संदेह इसलिये भी होता है क्योंकि आजीवन प्रतिबंध लगाने के पीछे कोई बड़ा कारण होता है। यदि खराब प्रदर्शन ही जिम्मेदार था तो टीम से सभी को हटाया जा सकता है दंड की क्या जरूरत है? दुनियां में हजारों खिलाड़ी खेलते हैं और टीमें किसी को रखती हैं तो किसी को हटाती हैं। दंड की बात तो वहां आती है जहां खेल में अपराध का अहसास हो।
जिस टीम और खिलाड़ियों ने पाकिस्तान को विश्व विजेता बनाया उनको एक दौरे में खराब प्रदर्शन पर इतनी बड़ी सजा मिली तब खराबा प्रदर्शन की बात पर पर कौन यकीन कर सकता है?
फिर पाकिस्तान की विश्व विजेता छबि के कारण उसके खिलाड़ियों को भारत में क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में शामिल न करने की आलोचना करने वाले अब क्या कहेंगे? उस समय उन्होंने जो हमदर्दी दिखाई गयी थी क्या अब वह जारी रख सकते हैं यह कहकर कि उनको टीम से क्यों निकाला गया? फिर भारतीय धनपतियों पर संदेह करने का कारण क्या था क्योंकि उस समय पाकिस्तान की टीम आस्ट्रयेलिया में दौरे पर थी और उसका प्रदर्शन अत्यंत खराब और विवादास्पद चल रहा था तब भला उसके खिलाड़ियों को कैसे वह बुलाते? क्योंकि उनका खेल खराब चल ही रहा था साथ ही वह तमाम तरह के विवाद भी खड़े कर रहे थे तब भला कोई भारतीय धनपति कैसे जोखिम उठाता?
वैसे अगर कोई बुद्धिमान पाकिस्तान पर बरसे तो उसका विरोध नहीं करना चाहिये। कम से कम इस खेल में हमारा मानना है कि दोनों देशों की मित्रता असंदिग्ध (!) है। अगर कुछ पीड़ित पाकिस्तान खिलाड़ियों के समर्थन में कोई प्रचार अभियान छेड़े तो भी मान्य है। मामला खेल का है जिसमें पैसा भी शामिल है और मनोरंजन भी! हैरान की बात तो यह है कि जिन खिलाड़ियों के भारत न आने पर यहीं के कुछ बुद्धिजीवी, नेता तथा समाजसेवक विलाप कर रहे थे-कुछ शरमा भी रहे थे-उनको टीम से हटाने में पाकिस्तान क्रिकेट अधिकारियों को जरा भी शर्म नहीं आयी। कितनी विचित्र बात है कि क्रिकेट के मामले में भी उन्होंने भारत के कुछ कथित बुद्धिजीवियों से अपनी दोस्ती नहीं निभाई जिसका आसरा अक्सर किया जाता है।
एक मजे की बात यह है कि पाकिस्तान के आस्ट्रेलिया दौरे पर खराब प्रदर्शन की जांच करने वाली वहां की एक संसदीय समिति की सिफारिश पर ऐसा किया गया है। जाहिर तौर उसमें वहां के राजनीतिज्ञ होंगे। ऐसे में वहां के भी उन राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रिया भी देखने लायक होगी जो अपने कथित विश्व विजेताओं-अजी काहे के विश्व विजेता, दुनियां में आठ देश भी इस खेल को नहीं ख्ेालते-को भारत में बुलाने पर गर्म गर्म बयान दे रहे थे। अब उनको भी क्या शर्म आयेगी?
हमारा मानना है कि क्रिकेट कितना भी लोकप्रिय हो पर उसमें पैसे का भी  खेल  बहुत है। जहां पैसा है वहां प्रत्यक्ष ताकतें अप्रत्यक्ष रूप से तो अप्रत्यक्ष ताकतें प्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव दिखाती हैं और यही इन खिलाड़ियों के दंड की वजह बना। वजह जो बतायी जा रही है उस पर यकीन करना ही पड़ेगा क्योंकि हम जैसे आम लोगों के लिये पर्दे के पीछे झांकना तो दूर वहां तक पहुंचना भी कठिन है। जो खास लोग पर्दे के पीछे झांकने की ताकत रखते हैं वह सच छिपाने में भी माहिर होते हैं इसलिये वह कभी सामने नहीं आयेगा! टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपी खबरों के आधार पर तो अनुमान ही लगाये जा सकते हैं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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बहुत सारी खुशियां भी हैं इस जहां में -व्यंग्य चिंतन


अगर आप हमसे पूछें कि सबसे अधिक किस विषय पर लिखना पढ़ना बोझिल लगता है तो वह है अपने देवी देवताओं फूहड़ चित्र बनाने या उन पर हास्य प्रस्तुति करने वालों का विरोध का विषय ऐसा है जिस पर कुछ कहना बोझिल बना देता है। अगर कहीं ऐसा देख लेते हैंे तो निर्लिप्त भाव से देखकर मुख फेर लेते हैं। इसका कारण यह नहीं कि अपनी अभिव्यक्ति देने में कोई भय होता है बल्कि ऐसा लगता है कि एकदम निरर्थक काम कर रहे हैं। उनके कृत्य पर खुशी तो हो नहीं सकती, चिढ़ आती नहीं पर अगर केवल अभिव्यक्ति देनी है इसलिये उस पर लिखें तो ऐसा लगता है कि अपने को कृ़ित्रम रूप से चिढ़ाकर उसका ही लक्ष्य पूरा कर रहे हैं जिसमें हमें मिलना कुछ नहीं है। ऐसे में जब दूसरे लोग उनकी बात पर चिढ़कर अभिव्यक्त होते हैं तो लगता है कि वह ऐसे अप्राकृत्तिक लोगों का आसान शिकार बन रहे हैं-अपने कृत्यों से प्रचार पाना ही उन लोगों का लक्ष्य होता है भले ही उनको गालियां मिलती हों। उनका मानना तो यह होता है कि ‘बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ!’
भले ही कुछ लोग इससे सहमत न हों पर जब हम विचलित नहीं हो रहे तो दूसरों की ऐसी प्रवृत्ति पर कटाक्ष करने का अवसर इसलिये ही मिल पाता है। अभी दो प्रसंग हमारे सामने ऐसे आये जिनका संबंध भारतीय धर्मों या विचारधारा से नहीं है। वैसे यहां हम स्पष्ट कर दें कि हमारी आस्था श्रीमद्भागवत् गीता और योग साधना के इर्दगिर्द ही सिमट गयी है और इस देश का आम आदमी चाहे किसी भी धार्मिक विचाराधारा से जुड़ा हो हम भेद नहीं करते। हमारा मानना है कि हर धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूहों का आम इंसान अपने जीवन की तकलीफों से जूझ रहा है इसलिये वह ऐसे विवादों को नहीं देखना चाहता जो प्रायोजित कर उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। मतलब हम आम लेखक अपने आम पाठकों से ही मुखातिब हैं और उन्हें यह लेख पढ़ते हुए अपनी विचारधारायें ताक पर रख देना चाहिये क्योकि यह लिखने वाला भी एक आम आदमी है।
चीन की एक कंपनी ने किसी के इष्ट का चिन्ह चप्पल के नीचे छाप दिया। अब उसको लेकर प्रदर्शन प्रायोजित किये जा रहे हैं। उधर किसी पत्रिका में किसी के इष्ट को मुख में बोतल डालते हुए दिखाया गया है। उस पर भी हल्ला मच रहा है। इन गैर भारतीय धर्मो के मध्यस्थ-जी हां, हर धर्म में सर्वशक्तिमान और आम इंसान के बीच इस धरती पर पैदा हुआ ही इंसान मार्गदर्शक बनकर विचरता है जो तय करता है कि कैसे धर्म की रक्षा हो-भारत में पैदा हुए धर्मों पर अविकासवादी चरित्र, असहिष्णु, क्रूर तथा अतार्किक होने का आरोप लगाते हैं। हम उनके जवाब में अपनी सहिष्णुता, तार्किकता, विकासमुखी चरित्र या उदारता की सफाई देने नहीं जा रहे बल्कि पूछ रहे हैं कि महाशयों जरा बताओ तो सही कि अगर किसी ने चप्पल के नीचे या किसी पत्रिका में ऐसा चित्र छाप दिया तो तुम उसे देख ही क्यों रहे हो? और देख रहे हो तो हमारी तरह मुंह क्यों नहीं फेरे लेते।
ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है कि भारतीय देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया पर हमने कभी भी उस इतना शोर नहीं मचाया। इतना ही नहीं सर्वशक्तिमान के स्वरूपों को पेंट या जींस पहनाकर की गयी प्रस्तुति का विरोधी करने वाले सहविचारकों को भी विरोध करने पर फटकारा और समझाया कि ‘यह सब चलता है।’
एक ने हमसे कहा था कि‘आप कैसी बात करते हो, किसी दूसरे समाज के इष्ट स्वरूप की कोई ऐसी प्रस्तुति करता तो पता लगता कि वह कैसे शोर मचा रहे हैं।’
हमने जवाब दिया कि ‘याद रखो, उनसे हमारी तुलना नहीं है क्योंकि हमारे देश में ही ब्रह्म ज्ञानी और श्रीगीता सिद्ध पैदा होते हैं। इनमें कई योगी तो इतने विकट हुए हैं कि आज भी पूरा विश्व उनको मानता है।’
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निराकार और अनंत है। जिसके हृदय प्रदेश में विराज गये तो वह हर स्वरूप में उसका दर्शन कर लेता है, भले ही वह धोते पहने दिखें या जींस! कहने का तात्पर्य यह है कि भक्ति की चरम सीमा तक केवल भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी ही पहुंच पाते हैं-यही कारण है कि भारत के सर्वशक्तिमान के स्वरूपों का कोई भद्दा प्रदर्शन प्रस्तुत करता है तो उस पर बुद्धिजीवियों का ही एक वर्ग बोलता है पर संत और साधु समाज उसे अनदेखा कर जाते हैं।
जाकी रही भावना जैसी! गुण ही गुणों बरतते हैं। शेर चिंघाडता है, कुत्ता भौंकता है और गाय रंभाती है क्योंकि यह उनके गुण है। हंसना और मुस्कराना इंसान को कुदरत का तोहफा है जिसका उसे इस्तेमाल करना चाहिये। भौंकने का जवाब भौंकने से देने का अर्थ है कि अपने ही ज्ञान को विस्मृत करना। हमारे यहां हर स्वरूप में भगवान के दर्शन में एक निरंकार का भाव होता है।
एक चित्रकार ने भारतीय देवी देवताओं के भद्दे चित्र बनाये। लोगों ने उसका विरोध कर उसे विश्व प्रसिद्ध बना दिया। अज्ञानता वश हम विरोध कर दूसरों का विश्व प्रसिद्ध बनाते जायें इससे अच्छा है कि मुंह फेरकर उनकी हवा निकाल दें। उस चित्रकार के कृत्य हमने भी विचार किया तब यह अनुभूति हुई कि उसका क्या दोष? जैसे संस्कार मिले वैसा ही तो वह चलेगा। बुढ़ापे में एक युवा फिल्म अभिनेत्री से आशिकी के चर्चे मशहुर करा रहा था? दरअसल भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से वह बहुत दूर था। जब भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से जुड़े समाज में पैदा हुए लोग ही भूल जाते हैं तो वह तो पैदा ही दूसरे समाज में हुआ था। उसका उसे यह लाभ मिला कि वह आजकल विदेश में ऐश कर रहा है क्योंकि उसे यह कहने का अवसर मिल गया है कि मुझे वहां खतरा है।’
कहने का तात्पर्य यह है कि हम विरोध कर दूसरे को लोकप्रिय बना रहे हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उपेक्षासन का वर्णन है। यह पढ़ा तो अब हमने पर चल इस पर बरसों से रहे हैं। दूसरे समाजों के लिये तो यह नारा है कि ‘और भी गम हैं इस जमाने में’, पर हमारा नारा तो यह है कि ‘बहुत सारी खुशियां भी हैं इस जहां में’। देखने के लिये इतनी खूबसूरत चेहरे हैं। यहां कोई पर्दा प्रथा नहीं है। हम लोग सभी देवताओं की पूजा करते हैं और उसका नतीजा यह है कि वन, जल, तथा खनिज संपदा में दुनियां की कोई ऐसा वस्तु नहंी है जो यहां नहीं पायी जाती। विश्व विशेषज्ञों का कहना है कि ‘भूजल स्तर’ सबसे अधिक भारत में ही है। जहां जल देवता की कृपा है वहीं वायु देवता और अग्नि देवता-जल में आक्सीजन और हाईड्रोजन होता है-का भी वास रहता है। इतनी हरियाली है कि मेहनत कर पैसा कमाओ तो स्वर्ग का आनंद यहीं ले लो उसके लिये जूझने की जरूरत नहीं है। लेदेकर संस्कारों की बात आती है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में योग साधना तथा मंत्रोच्चार के साथ एसी सिद्धि प्रदान करने की सुविधा प्रदान करता है कि दैहिक और मानसिक अनुभूतियां इतनी सहज हो जाती हैं कि उससे किसी भी अपने अनुकूल किसी अच्छी वस्तु, पसंदीदा आदमी, या प्रसन्न करने वाली घटना से संयोग पर परम आनंद की चीजें प्राप्त हो जाती हैं। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो तथा बुरा मत कहो की तर्ज पर हमारे यहां लोग आसानी से चलते हैं न कि हर जरा सी बात पर झंडे और डंडे लेकर शोर मचाने निकलते हैं कि ‘हाय हमारा धर्म खतरे में है।’
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की महिमा ऐसी है कि यहां के आदमी बाहर जाकर भी इसे साथ ले जाते हैं और यहां रहने वाले दूसरे समाजों के आम लोग भी स्वतः उसमें समाहित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की यह खूबी है कि कुछ बाहर स्थापित विचारों को भले ही मानते हों पर उनमें संस्कार तो इसी जमीन से पैदा होते हैं। यही कारण है कि आम आदमी सभी समूहों के करीब करीब ऐक जैसे हैं पर उनको अलग दिखाकर द्वंद्व रस पिलाया जाये ताकि उनके जज़्बातों का दोहन हो सके इसलिये ही ऐसे शोर मचावाया जाता है। ऐसे लोगों का प्रयास यही रहता है कि आम आदमी एक वैचारिक धरातल पर न खड़ा हो इसलिये उनमें वैमनस्य के बीच रोपित किये जायें।
दरअसल प्रचार माध्यम आम आदमी के दुःख सुख तथा समस्याओं को दबाने के लिये ऐसे प्रायोजित कार्यक्रमों के जाल में फंस जाते हैं और इससे शोर का ही विस्तार होता है शांति का नहीं-जैसा कि वह दावा करते हैं।
इस लेखक का यह लेख उस गैरभारतीय धर्मी ब्लागर को समर्पित है जिसने अपने इष्ट पर कार्टून बनाने के विरोध में अपने समाज के ठेकेदारों द्वारा आयोजित प्रदर्शन पर व्यंग्य जैसी सामग्री लिखी थी। उसने बताया था कि किस तरह लोग उस प्रदर्शन में शामिल हुए थे कि उनको पता ही नहीं था कि माजरा क्या है? अनेक बार एक पत्रिका पर ब्लाग देखकर भी मन नहीं हुआ था पर उसके लेख ने ऐसा प्रेरित किया कि फिर लिखने निकल पड़े-क्योंकि पता लगा कि यह स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति का एक श्रेष्ठ मार्ग है। अक्सर उसे ढूंढने का प्रयास करते हैं। संभावना देखकर अनेक ब्लाग लेखकों के तीन वर्ष पुराने पाठों तक पहुंच जाते हैं, पर अभी तक पता नहीं लगा पाये।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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विश्व में भारत से संदेश अध्यात्मिक ज्ञान से ही फैल सकता है, किसी फिल्म से नहीं-हिन्दी लेख (hindi film aur adhyatmik gyan-hindi article)


एक टीवी एंकर को एक बहुचर्चित अभिनेता की फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उसे वह पूरे विश्व में संदेश भेजती हुई दिखाई दे रही है-उसने अपने अंतर्जाल पर निज पत्रक में यहां तक लिख दिया कि ऐसी फिल्म भारत में ही बन सकती थी और यह भी कि हमारा देश फिर पूरे विश्व में अच्छा संदेश भेजने में सफल रहा है। यह एंकर जिस चैनल से संबंधित है उसने पिछले दिनों उस अभिनेता और उसकी फिल्म के प्रचार में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी। विशुद्ध रूप से वह व्यवसायिक प्रचार था और एंकर कहीं न कहीं तहेदिल से अपने कार्य में जुटा था।
जब कोई आदमी व्यवसाय करता है तो रोटी के प्रति उसका समर्पण उसे उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार बना देता हैं-यहां तक कि उसके कृत्रिम विचार भी उससे प्रभावित होकर मौलिक स्वरूप धारण कर लेते हैं। जब वह एंकर बड़ी शिद्दत से उस अभिनेता को महानायक और फिल्म को अद्वितीय करने के व्यवसायिक प्रयास में लगा रहा होगा तब मस्तिष्क में स्थापित विचार इतनी गहराई तक उतर गया कि वह उससे निकल ही नहीं सकता था। हम यहां उसके व्यवसाय या विचार व्यक्त करने की शैली पर आपत्ति नहीं कर रहे बल्कि यह बात कह रहे हैं कि कोई भी फिल्म, किताब या व्यक्ति भारत का तब तक संदेशवाहक नहीं हो सकता जब उसके मस्तक पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का तिलक नहीं लगा हो। भारत की पहचान आधुनिक गीत नहीं बल्कि लोकगीत ही होते हैं। आज भी विश्व में भारत की पहचान राम, कृष्ण, शिव, गांधी और यहां के सहृदय नागरिकों का सहज भाव है। भारत के संदेश वाहक बाबा रामदेव तो हो सकते हैं क्योंकि उनके द्वारा योगशिक्षा को व्यवसायिक रूप देकर विश्व में लोकप्रिय बनाया परंतु एक सामयिक फिल्म और उसका अभिनेता कतई नहीं हो सकता। बाबा रामदेव भारत की प्रमाणिक योग पद्धति का प्रचार कर रहे हैं जो कभी प्राचीन नहीं हो सकती जबकि किसी फिल्म की आयु इतनी बड़ी नहीं हो सकती।
उस एंकर ने जो विचार व्यक्त किये उसमें कोई आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। जिस तरह हम लोग कार्यालय या दुकान से घर आकर भी तत्काल वहां में उपजे भावों से मुक्त नहीं हो पाते वही उनके साथ भी हुआ होगा। वह उस फिल्म को हिट बताने के लिये निरंतर व्यवसायिक प्रचार में जुटे रहे। उनको अपने नायक को महानायक बताने के लिये कुछ भटके लोग खलनायक के रूप में मिल गये। फिल्म तीन दिन तक सफलता से चली तो उनकी वजह से! वरना तो वह पहने ही दिन अच्छी शुरुआत के लिये तरस जाती-कम से कम इस फिल्म को देखकर आने वाले अन्य अंतर्जाल लेखकों के शब्द पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। वैसे तीन बाद उस फिल्म का प्रचार भी अब प्रभावी नहीं लग रहा।
दूसरी बात यह कि हम प्रचार माध्यमों को दोष क्यों दें? उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये येनकेन प्रकरेण कार्यक्रम के साथ पैसे भी बनाने हैं और यह लक्ष्य उनको क्रिकेट, फिल्म तथा अन्य प्रदर्शन आधारित व्यवसायों से बहुत आसानी से प्राप्त हो जाता है। जो लोग उनकी आलोचना करते हैं उनको व्यवसाय के स्वभाव को भी समझना चाहिये। सवाल यह है कि इस तरह के प्रचार से लोग प्रभावित हुए कि नहीं! जो आलोचना कर रहे हैं वह देखने गये कि नहीं! साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि इतने सारे लोग अपना पैसा खर्च करने गये जिसकी फिल्म निर्माताओं, वितरकों, माल मालिकों तथा उनसे प्रश्रय पाने वाले प्रचार माध्यमों को जरूरत होती है। अगर आप कह रहे हैें कि उन्होंने लोगों को भ्रमित किया तो इसका उत्तर है कि आप जान जागरण के लिये अहिंसक प्रयास क्यों नहीं करते। इसकेे विपरीत फिल्म का कथित रूप से प्रदर्शन या तोड़फोड़ के द्वारा नकली विरोध कर उसका प्रचार करने वालों का समर्थन करते हैं! नतीजा यह होता है कि कुछ लोग ही फिल्म देखने जाते हैं तो वह भी नायक का दर्जा पाने के लिये प्रचार माध्यमों में विजय का प्रतीक उंगलियों को वी की आकृत्ति में प्रस्तुत करते नजर आते हैं।
इस लेखक ने न फिल्म देखी न देखने का इरादा है। अलबत्ता कहानी पढ़ी। उसके नायक जैसा कोई पात्र इस धरती पर सचमुच अगर है तो वाकई एक भावुक व्यक्ति होने के नाते इस लेखक को उससे सहानुभूति होगी । अल्लहड़, मस्तमौला तथा दूसरे के दुःख दर्द में सहानुभूति जताने वालों को यहां मनोरोगी माना जाता है। अगर कहानी वैसी है तो ठीक है। जहां तक फिल्म का सवाल है उस पर इतना बावेला बचना ठीक नहंी था। जिन लोगों को लगता है कि वह फिल्म गलत है उन्हें चाहिये कि वह प्रतिवाद स्वरूप फिल्म बनाने के लिये दूसरों को प्रेरणा दें या खुद बनायें। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना ठीक नहीं है। तर्क से वही लोग घबड़ाते हैं जिनके पास ज्ञान नहीं और जिनके पास ज्ञान है वह किसी के अपशब्द से भी विचलित नहीं होते। किसी के अभिव्यक्त विचार से अगर आप असहमत हैं तो उस पर अपनी अभिव्यक्ति इस तरह मजबूत ढंग से रखें कि सामने वाले के हाथ से तोते उड़ जायें। जब दूसरे के विचार पर हाय हाय और हो हो करते हैं तो वह इस बात का प्रमाण है कि विचार रहित विकारवान पुरुष हैं। आखिरी बात यह कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से ही कोई संदेश निकलकर विश्व में फैल सकता ह न कि किसी फिल्म से।

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अपना अपना दृष्टिकोण-व्यंग्य आलेख (apna apna drishtikon-hindi satire article)


आस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने भारतीयों को हमले से बचने के लिये गरीब दिखने की सलाह क्या दी, उस पर भारत के बुद्धिजीवी समुदाय में  बावेला मच गया है।  कोई इस सलाह को लेकर  उसकी नाकामी पर बरस रहा है तो कोई उसे बेवकूफ बता रहा है।  अपनी समझ में उसने एक बहुत गज़ब का विचार व्यक्त किया है। दरअसल यह कोई उसका विचार नहीं बल्कि यह तो पुराना ही दर्शन है। अगर अपनी रक्षा करनी है तो उसके लिये सबसे पहला उपाय स्वयं को ही करना है पर विकासवादियों की संगत में सभी प्रकार के बुद्धिजीवियों की सोच केवल अब इसी बात पर रहती है कि ‘आदमी चाहे कैसे भी चले,, उसे रास्ता या अदायें बदलने की सलाह देना उसकी आजादी का उल्लंघन है क्योंकि हर आदमी को सुरक्षा देना राज्य का काम है।’
इस प्रवृत्ति ने लोगों को अपंग बना दिया है और न तो कोई अपनी रक्षा के लिये शारीरिक कला में रुचि लेता है और न ही इस बात का प्रयास करता है कि उसकी संपत्ति भले ही कितनी भी क्यों न हो, पर उसका प्रदर्शन न करें ताकि अभावों से ग्रसित आसपास के लोगों के समुदाय में कुंठा का भाव न आये-यही भाव अंततः धनपति समाज के प्रति कभी निराशा के रूप में अभिव्यक्त होता है तो कभी क्रोध से उपजी हिंसा के रूप  मे।
मगर नहीं! भारत में बहुत कम लोग हैं जिनको ऐसी सलाह का मतलब समझ में आयेगा। वैसे उस आस्ट्रेलियाई पुलिस अधिकारी के अज्ञान पर तरस भी आ रहा है। वह किसी अफ्रीकी देश के लोगों को कहता तो समझ में आ सकता था मगर भारतीयों को ऐसी सलाह उसने यह विचार किये बिना ही दी है कि यहां के लोग पैसा कमाते ही इसलिये है कि उसका प्रदर्शन कर दूसरों के मुकाबले अपने आपको श्रेष्ठ साबित करें।  एक आदमी को जिंदा रहने के लिये क्या चाहिये! पेट भर रोटी, पूरा तन ढंकने के लिये कपड़े-यहां फैशन से कम कपड़ा पहनने वालों की बात नहीं हो रही’-और सिर ढंकने के लिये छत।  देश में हजारों मजदूर परिवार हैं जो  ईंटों के कच्चे घर बनाकर रहते हैं।  उनकी बीवियां सुबह उठकर खाना बनाती हैं, बच्चे पालती हैं और फिर पति के साथ ईंटें और रेत ढोने का भी का करती हैं  फिर भी  वह उनके चेहरा पर संतुष्टि के भाव रहते  हैं।  यही कारण है कि भारत का ऐसा मजदूर वर्ग  बाजार और प्रचार के लक्ष्य के दायरे से बाहर का समाज है।  अपने यहां एक अभिनेता सभी संतुष्टों को असंतुष्ट होने का संदेश एक विज्ञापन में देता है।  ‘डोंट बी संतुष्ट’ का नारा लगाने वाले  अभिनेता के उस विज्ञापन का लक्ष्य तो केवल वह लोग हैं जिनका पैसे के मामलें में हाजमा खराब है।  यही कारण है कि उसके संदेश का आशय यही है कि आदमी को कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिये, बल्कि असंतुष्ट होकर खरीददारी करना चाहिए।
हमारे देश के टीवी चैनल, फिल्में और रेडियो ऐसे असंतोष फैलाने वाले संदेशवाहक की छबि बनाने में जुटे हैं। सभी जानते हैं कि इस तरह के  का प्रभाव हमारे देश के लोगों के दिमाग पर होता है-टीवी, फिल्म और रेडियो के प्रभाव सभी जानते हैं।
लोग बाहर जा इसलिये ही रहे हैं कि उनमें असंतोष है।  हालत यह है कि बाहर जाने के लिये लोग पैसा खर्च कर रहे हैं। यह राशि इतनी अधिक होती है कि अनेक माध्यम और गरीब लोग यह सोचते हैं कि इतना पैसा होने पर वह स्वयं विदेश जाने की तो सोचते ही नहीं।
ऐसे धनाढ्य लोग इतना पैसा देश में रखकर क्या करेंगे? फिर इधर कर वसूलने वालों की नज़रे भी लगी रहती हैं। इसलिये कोई पैसा बाहर भेज रहा है तो कोई खुद ही जा रहा है। कहीं पैसे को अपने पीछे कोई छिपा रहा है तो कोई पैसे के पीछे छिप रहा है। 
देश में आदमी दिखाता है कि ‘देखो फारेन जा रहा हूं।’  उधर आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अमेरिका में भी वह अपनी दौलत दिखाता है यह प्रदर्शित करने के लिये कि उसे वहां के लोग ऐरा गैरा भारतीय न समझें।  हमारे देश के एक माननीय व्यक्ति ने बस इतना कहा कि ‘भारत के छात्र ऐसे विषयों के लिये बाहर जाते ही क्यों है, जो यहां भी उपलब्ध हैं। जैसे बच्चों की हजामत बनाना या बीमारों की सेवा करना।’
उस पर भी बावेला मच गया।  मतलब समझाओ नहीं!  हमारे पास इतना पैसा है उसका प्रदर्शन न करें तो फिर फायदा क्या, पता नहीं वह कैसे (?) तो कमाया है? यहां खर्च नहीं कर सकते क्योंकि टैक्स बचाने से अधिक यह बताने की चिंता है कि वह आया कहां से?’ बाहर जाने पर   ऐसी समस्या नहीं आती है पर वहां भी उसका दिखावा न करें तो इतना पैसा हमने या हमारे पिताजी ने  कमाया किसलिए?
इस मामले में हमारे बुजुर्गों ने जो सिखाया सादगी और चालाकी का पाठ  याद आता है।   यह लेखक  अपने ताउजी के साथ दूसरे शहर जा रहे था।  उनके पास बड़ी रकम थी-आज वह अधिक नहीं दिखती पर उस समय कोई कम नहीं  थी। उन्होंने लेखक को बताया कि उनका पैसा एक पुराने थैले में है जिसमें खाने का सामान रखा है जिसका उपयोग वह बस में ही करेंगे।
अटैची उन्होंने अपने हाथ में पकड़कर  रखी पर थैला टांग दिया।  कभी कभी वह थैले से  सामान निकालते और फिर उसे वहीं टांग देते।  ऐसे दिखा रहे थे की जैसे उनको थैले की परवाह ही नहीं है
अनेक बार हम बस से दोनों साथ उतरे और वह इतनी  बेपरवाही से चल रहे थे कि किसी को अंदाज ही नहीं हो सकता था कि उनके उस पुराने मैले थैले में खाने के सामान के नीचे एक बहुत बड़ी रकम है।   उनसे सीख मिली तो अब हम भी जब बाहर जाते हैं तो अपना कीमती सामान कभी अटैची में न रखकर खाने के सामान के साथ पुराने थैले में रख देते हैं, पर्स तो करीब करीब खाली ही रखते हैं।  कहीं पर्स खोलते हैं तो पांच दस रुपये कागजों से ऐसे निकालते हैं कि जैसे बड़े बुरे दिन से गुजर रहे हैं।
अपना अपना विचार है। हर आदमी इस पर चले या नहीं। आस्ट्रेलिया के उस पुलिस अधिकारी ने सलाह अपने किसी अन्य दृष्टिकोण से दी होगी पर उस पर हमारा भी अपना  एक दृष्टिकोण है? साथ ही यह भी जानते हैं कि अपने देश में बहुत कम लोगों को  इस दृष्टिकोण से संतुष्ट कर पायेंगे? हर शहर में नारियों के गले से मंगलसूत्र या सोने का हार खींच लेने की घटनायें होती हैं पर इससे क्या फर्क पड़ता है! एक गया तो दूसरा आ जाता है।  अनेक बार प्रशासन अपने इशारे अखबार में छपवाता है कि त्यौहार का अवसर है इसलिये थोड़ा ध्यान रखें!’ मगर सुनता कौन है? अपना अपना दृष्टिकोण है

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