स्वयं पर नहीं आती हंसी जिनको
दूसरों को चिढाकर
परम आंनद पाते हैं।
स्वयं घर से निकलते
पहनकर धवल कपड़े
दूसरे पर कीचड़ उछालकर
रुदन मचाते हैं।
जिन्होंने अपना पूरा जीवन
पेशेवर हमदर्द बनकर बिताया
ज़माने के जख्म पर
नारों का नमक वही छिड़क जाते हैं।
बंद सुविधायुक्त कमरों में
विलासिता के साथ गुजारते
रात के अंधेरे
दिन में चौराहे पर आकर
वही समाज सुधार के लिये
हल्ला मचाते हैं।
कहें दीपक बापू बचना
ऐसे कागजी नायकों से
नाव डुबाने की कोशिश से पहले
उसे दिखावे के लिये बचाते हैं।
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एक उड़ते हुए पत्थर से
फूटता सिर किसी का
पूरे शहर में
दंगल शुरु हो जाता है।
शांति के शत्रु
मौन से रहते बेचैन
जलते घर और कराहते लोग
सपनों में देखना उनको पसंद है
जब उड़ाते हैं नींद ज़माने की
करते अपना हृदय तृप्त
शहर में अमंगल गुरु हो जाता है।
कहें दीपक बापू मनुष्य देह में
पशु भी जन्म लेते हैं
रक्त की धारा बहाने पर रहते आमादा
जब लग जाता दांव उनका
चहकता शहर भी
जगल हो जाता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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